समकालीन जनमत
कविता

अनिल अनलहातु की कविताएँ हमारी हताशा और जिजीविषा का अन्तर्द्वन्द्व हैं

प्रभात मिलिंद


अनिल अनलहातु हमारे समय के विरल और अनिवार्य कवि हैं. कविताओं में वक्रोक्तियों का कारुणिक प्रयोग कैसे संभव हो सकता है, व्यंग्य में लिपटी एक चुभती हुई टीस की अनुभूति कैसी और क्या हो सकती है, और कविता में मार्मिकता और आक्रोश की विलक्षण युगलबंदी कैसा पाठकीय प्रभाव छोड़ सकती है – अगर इन तजुर्बों से होकर गुज़रना हो तो अनिल अनलहातु की कविताओं को पढना न केवल हमारी साहित्यिक अपरिहार्यता है बल्कि एक पाठक की सजग ज़िम्मेदारी भी है.

इन कविताओं में बेशक भाषा का वह कथित रूढ़ सौन्दर्य और विलास-सुख नहीं मिले जिसकी अपेक्षा अमूमन हम कविताओं को पढ़ते हुए करते हैं, किंतु इन कविताओं में मनुष्यता के चिरंतन रुदन से नि:सृत होती सभ्यता की धंसी-बुझी आँखों और ठगी हुई आत्माओं से रिसते लहू का खारा स्वाद हमें ज़रूर मिलेगा.

खोखले, सुनियोजित तरीकों से और बहुप्रचारित छद्म विकास, और कराहती हुई हमारी प्रजाति के सम्मान और अधिकारों के सब्ज़-ख़्वाबों के बरअक्स ये कविताएँ ऊपर से सूख चुके प्रतीत होते घावों के गहरे भीतर के बदबूदार मवाद की वीभत्सता को दिखाती हैं. 

चूँकि मेरी दृष्टि में अनिल अनलहातु की कविताएँ ख़ुद में एक वक्तव्य हैं, लिहाज़ा इन पर टिप्पणी करते हुए मैंने भी आज स्थापित परिपाटी का निर्वहन नहीं करने का निश्चय किया है. मैं कवि की कविताओं को उद्धृत करने की जगह इन कविताओं की कुछ काव्य-विशिष्टताओं को रेखांकित करना चाहूँगा.

विविध विषयों पर व्यापकता से लिखने के बावजूद अपने लेखन के चरित्र की दृष्टि से अनिल अनलहातु अनिवार्यतः एक ‘पोलिटिकल’ कवि हैं.

एक आम आदमी का अवसाद, उसके सैद्धांतिक मोहभंग, सामाजिक विफलता और विद्रूप, उसका व्यक्तिगत संत्रास और राजनीति और पूंजी के हाथों उसका भौतिक-मानसिक शोषण और इस प्रकार अंततः उसके जीवन का पराभव – सबके मूल में सत्ता और पूंजी का शोषक चरित्र है. उनकी कविताओं में राजनीतिक तत्व के दर्शन करने के लिए हमें कोई ज़्यादा कवायद करनी भी नहीं पड़ती है. लेकिन यहाँ यह गौर तलब है कि ‘राजनीति’ उनकी कविताओं में एक फ़ैशन स्टेटमेंट की तरह नहीं आती, बल्कि पोलिटिकल एलिमेंट्स उनकी कविताओं में इतने सहजता से दौड़ते हैं गोया मनुष्य के रुधिर में रक्त बहता है. 

दूसरी बात यह, कि अनिल अनलहातु रचनाकार होने से भी पहले अनिवार्यतः एक घनघोर पाठक हैं. निरंतर पढ़ना, और साहित्य के अलावा साहित्येतर विषयों पर पढ़ना, और हिंदी के अलावा अंग्रेजी भाषा में भी पढ़ते रहना उनके जीवित होने की आधारभूत शर्तों में एक है. उनके पाठक के रेंज का पता हमें उन ऐतिहासिक-राजनैतिक-मिथकीय सन्दर्भों से मिलता है जो उनकी कविताओं में अपनी प्रासंगिक ठसक और समग्रता में दिखते हैं.

विश्व साहित्य और मनुष्य की सभ्यता के इतिहास को उन्होंने जिस रस के साथ पढ़ा है, और उनके रचनाकर्म उनका यह अध्ययन जिस तरह से प्रतिफलित हुआ है, यह हमें अचंभित करता है. शायद इसलिए भी वे विष्णु खरे के प्रियपात्र रहे, और विष्णु जी भी अनिल अनलहातु के आदर्श कवियों में एक हैं. मैं ख़ुद भी यह मानता हूँ कि एक ज़िम्मेदार और गंभीर कवि-लेखक को इतिहास-बोध से संपन्न और मनोविज्ञान, दर्शन विज्ञान और वर्तमान राजनीति और समाज के सरोकारों से यथासंभव परिचित होना चाहिए.

अनिल अनलहातु इन समस्त मानदंडों पर खरे उतरने वाले कवि है, और इसीलिए मेरे भी प्रिय कवि हैं. उनकी कविताओं में आए रेफ्रेंसेज कवि की बौद्धिकता का प्रमाण के तौर पर नहीं बल्कि अपनी सामयिकता और अंतर्वस्तु की प्रासंगिकता के कारण वहाँ उपस्थित हैं.

कोरोना काल पर हिंदी के कवियों ने जिस तरह से पिल कर लिखा कि कविता के कंटेंट के तौर पर इससे विरक्ति हो जाना स्वाभाविक है. लेकिन अनिल अनलहातु ने कोरोना को केंद्र में रख कर जो कविताएँ लिखीं हैं वे भिन्न और मार्मिक हैं ! ये कविताएँ हमें दोबारा यह संकेत देती हैं कि कोई भी मानवीय त्रासदी कभी भी एक पोएटिक कोमोडिटी नहीं हो सकती. ट्रेजिडी को कोमोडिटी बनाना सत्ता का चरित्र है कविता का नहीं. 

मार्क्स के सिद्धांतों को उनके अर्थ की समग्रता और समुचित प्रयोग-विधि के साथ अपनाया गया होता तो दुनिया जीने के लिए एक बेहतर और महफूज़ जगह हो सकती थी. लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, सैद्धांतिक बदइंतेज़ामी और समय के साथ साथ परिवर्तनशील बनने की इनकी अनिच्छा ने दुनिया के नक्शे को न केवल हमेशा के लिए बदल दिया बल्कि इस दुखांत से भी हमारा परिचय कराया कि सामाजिक सिद्धांत जब राजनीतिक तिजारत के टूल्स बन जाते हैं तो उसके कितने भयानक हश्र हो सकते हैं. मिखाईल गोर्बाचोव और येल्तसिन जैसी कविताएँ इसी मोहभंग और विक्षोभ की अभिव्यक्ति हैं. बेचारा सेर्जई आज भी मास्को से लेकर रिओ और ढाका से लेकर सोमालिया की तंग गलियों और अँधेरे चोर रास्तों में अपने मानसिक अवसाद और पेट की भूख के हाथों बेबस मारा-मारा फिरता है. और, उसकी तादाद भी अब लाखों में है. 

मैं अनिल अनलहातु की कविताओं को पढ़ने से बचता हूँ. इन कविताओं को पढ़ कर आप वैसे नहीं रह जाते हैं, जैसा आप इनको पढ़ने से पहले थे. लेकिन इन कविताओं से गुरेज़ करना शायद पलायन कहलायेगा. इसलिए मैं पुनः कहूँगा कि अगर आप के भीतर सच को सच की तरह देखने की ताब है तो ये कविताएँ अपने पढ़े जाने की प्रतीक्षा में हैं।

 

अनिल अनलहातु की कविताएँ

 

1. वे आ रहे हैं
(नाज़िम हिकमत की बेचैन आत्मा के लिए)

गुप्ता साहब! वे आ रहे हैं,
जाते-जाते राजधानियों
और बड़े शहरों से,
वे एकाएक लौट पड़े हैं ।

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
वे आ रहे हैं
लाखों- लाख टिड्डियों के दल
की तरह
वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
उनकी भूख
अंतड़ियों से निकल
उनकी आंखों में समा गई है ,
वह रास्ते की हर चीज को
कुतरते हुए
आंधी-तूफान और अम्फान
की तरह ,
वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
वे आ रहे हैं।

उनकी भूख
सुरसा के मुंह की तरह
विकराल होती जा रही ,
उनकी कभी न खत्म
होने वाली क्षुधा
सब कुछ निकलती जा रही ।
वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
वे आ रहे हैं।

लाखों-लाख टिड्डियों के दल
की तरह
तुम्हारे कल-कारखानों,
तुम्हारे आलीशान बंगलों को
चट कर जाएंगे ।

वे आ रहे हैं आ रहे हैं
क्योंकि उन्हें आना ही था,
कि तुमने उन्हें कहीं का नहीं रखा;
वे अब अजनबी और
पराए हैं
जहां जन्मे थें।
और जिन दड़बों में रहकर
तुम्हारे महल बनाए ,
वहां से निकाले जा चुके हैं।

इस कोरोनाकाल में ,
इस संक्रमण काल में
वे जाएं तो , जाएं कहां ??

वे अपनी भूख से चले
और फिर उसी भूख तक
पहुंच गए ,
वह भूख जो उनकी अंतड़ियों से
निकलकर जुबान तक आ गई है।

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
वे आ रहे हैं
लाखों-लाख कंठ स्वरों से
चिंघाड़ते
टिड्डियों के दल की तरह
वे आ रहे हैं
राजधानी की तरफ,
उसी राजधानी,जिसे छोड़कर
चले गए थे एक दिन ।
उसी राजधानी,
जिसके मोहपाश में
छोड़े थे अपने घर ।

वे फिर आ रहे हैं गुप्ता साहब!
लाखों -लाख, करोड़ों हाथों में
लिए पाना और हथौड़ा।

गुप्ता साहब! वे आ रहे हैं
वे आ रहे हैं !
अपनर छोटे-छोटे बच्चों
और गर्भवती पत्नियों के साथ,
रास्तो, सड़कों और मोड़ों पर
मरे अपने साथियों की
पीड़ा के साथ ,
उनके दर्द ,
उनकी भूख ,
और उनकी चीखों के साथ ,
वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!
वे आ रहे हैं

जिस कोरोना ने उन्हें भगाया
वही करोना उन्हें बुला रहा है,
वे फिर आ रहे हैं गुप्ता साहब!
लेकिन क्या उनका आना
इस बार भी वैसा ही होगा
जैसा वे पहली बार आए थे ?
यह एक प्रश्न है,
जो तैर रहा है हवाओं में।

कि वे लाठी पीटते
लाखों – लाख संख्या में उमड़े
चले आ रहे हैं
गूंजते उनके कंठ-स्वर
गूंजते जी जा रहे हैं
दिक्-दिगन्त और
सरहदों के पार।

कि वे आ रहे हैं गुप्ता साहब !
वे आ रहे हैं !
वे आ रहे हैं !

 

2. यह लॉक डाउन है

डामर की कोलतारी सड़क निस्पंद है ,
हवा भी चुप है
वृक्ष की शाखाएं
और पत्ते भी
एक खामोशी में हैं ।
जेठ की इस चिलचिलाती दुपहरिया में ,
गर्म उत्तप्त सांसें भी
चाहती हैं सुस्ताना
किसी पीपल , पकड़ी
की छाया में ।

चारों ओर पसरा हुआ है
एक निस्तब्ध सन्नाटा
एक सर्पिल खामोशी
पसरी हुई है
गेहुँअन के केंचुल
की तरह ।
आवाज सुने हुए
कई दिन हुए,
कोरोना का
कर्फ्यू जारी है ।

लोग घरों में
दुबके पड़े हैं,
और शहर में मुनादी है।

सड़क के बीचो-बीच
चीथड़ों में लिपटा
कृशकाय ,हड्डियों का ढांचा
न जाने किस मजबूरी में
हाथ फैलाता एक
ग्रामीण किसान है,
बेतरह काँप रहे हाथों को
बस याचना की मुद्रा में
फैलाता
लज्जा और दुख से
जमीन में गड़ा जा रहा ।

मुझे ‘यशपाल’ याद आते हैं,
और याद आती है
“दुख का अधिकार ” की वह बुढ़िया ,
जो जवान बेटे के मरने के ,
अगले ही दिन बाजार में
खरबूजे बेचने निकली है,
कि घर में जवान बहू
बुखार में तप रही है
और छोटे बच्चे भूख से
बिलबिला रहे हैं ।
बचपन में पढ़ी वह कहानी
समझ में आ गई सहसा ,
दुखी होने का अधिकार भी
क्या सबको है ?

पन्द्रह दिनों तक
लॉक डाउन में बंद
वह रिक्शावाला
निकल पड़ा है ,
पेट पर गमछा बांधे,
जिसे पता है कि
कर्फ्यू लगा है
कोई सवारी नहीं मिलेगी,
फिर भी निकला है
किसी हल्की उम्मीद में ,
कोई क्या करे ?
करे भी तो क्या ?
तुलसी कानों में कहते हैं
” खेती न किसान को ,
भिखारी को न भीख,
बनिक को बनिज,न चाकर को चाकरी,
जीविका विहीन लोग,
सिदयमान सोच -बस,
कहैं एक एकन सौं,
कहाँ जाईं, का करीं?”

शहर के चौमुहाने पर
खड़ी है एक आदिवासी महिला सिपाही
मुस्तैदी से मुंह पर कपड़ा बांधे।
मुझे ‘बेला एक्का’ याद आती हैं
मुझे “लौटती हुई बेला एक्का”
दिखती हैं और उनको नोचते वे
गिद्ध भी दिख पड़ते हैं ।

मुझे दिख पड़ती हैं
आसन्न मृत्यु की लोमहर्षक तस्वीरें,
एक हड़ीयल काया मरणासन्न किसान ,
एक रिक्शा चालक,
एक गर्भ के भार से
दुहरी हुई जा रही स्त्री ,
भूख से मर रही सूडानी बच्ची।

और दिखाई पड़ती है
गिद्धों की लंबी अंतहीन कतारें,
“केविन कार्टर’ से ‘जिमी कार्टर” तक ,
सूडान से तेहरान तक
ट्रम्प से पूतिन तक
और अडानी से अम्बानी तक।

 

3. विस्थापन

चिड़ियों की चहचहाहटें
अब ज्यादा सुन पड़ती हैं ,
पत्तों का रंग भी
कुछ ज्यादा हरा दिखता है ।
कौओं की कांव-कांव और
मैनाओं की तीखी आवाज
बालकनी में सुन पड़ती हैं
पहले से ज्यादा ।
तोते भी कुछ ज्यादा ही
दिखते हैं पेड़ों पर ।

बस गलियों में बेमतलब
भौंकते कुत्तों का झुंड
अब नहीं दिखता ,
आवारा बिसूख गई गायें
और घर से निकाले गए जानवर
भी नहीं दिखते सड़कों पर ,
इस कोरोना काल में ।

क्या पेट की आग उन्हें भी
सताती होगी इसी तरह
और वह भी
कहीं किसी और जगह
चले गए होंगे
भोजन की खोज में ।

मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं,
जो खाने की तलाश में,
अपने गांव- घर को छोड़कर पहुंचे थे
नगरों ,शहरों और महानगरों में।
वे किस आशा में
लौट रहे हैं वापस
अपने गांव ,अपने घर ,
हजारों – हजार किलोमीटर की
लंबी यात्रा आखिर
किस हौंसले से कर ले रहे हैं ?
यह भूख की ताकत है?
क्या भूख में
इतनी ताकत होती है?

क्या देश की आजादी का
यह दूसरा विस्थापन नहीं है? ?

 

4. नीली झील

वह नदी जो गाँव के
पश्चिमी सिवान पर
बहती थी,
बची रह गई है सिर्फ
हमारी स्मृतियों में ,
जिसके किनारे कभी
संझा-पराती करने जाती थीं
गांव की औरतें ,
वह नदी
कहीं खो-सी गई है,
अनुपस्थित होती जा रही है
बड़ी तेजी से,
उस परिदृश्य से
जिसके हम
मूक गवाह हैं ,
गुनहगार हैं।

कभी मकर-संक्रांति का मेला
लगता था जहां ,
और बच्चों का मुंडन- संस्कार
होता था ।
वह नदी
जो हमारी स्मृतियों में,
सतत प्रवहमान है।
कल-कल करती जिसकी
धारा को निहारते
गुजार देते थे हम घंटों ,
वह नदी
अब बिसूख चुकी है ।

गायब होती जा रही हैं
नदियाँ
भूली हुई स्मृतियों की तरह,
और उनके साथ ही
विलुप्त हो रही हैं
हमारी लोक- परंपराएं
रीति-रिवाज
और हजारों वर्ष
पुरानी संस्कृति।

प्रवासी पक्षी
अब नहीं आते,
व लालसर ,सारस और
सरपपच्छी भी अब नहीं दिखते,
वह ‘नीली झील’ भी
अब मर चुकी है,
गो महेश पांडे की तख्ती
अभी लगी हुई है –
“यहां शिकार करना मना है”।

 

5. मकबूल की भारतमाता

जलावतनी तो दे दोगे उसे
कर दोगे तड़ीपार
अपनी मातृभूमि से ;
किंतु ,वह मादरे-वतन
जो उसकी आत्मा में पैबस्त है,
जो उसकी रूह से
चिपकी हुई है,
उसे कैसे अलगाओगे ?

उसे मां का चेहरा याद न था
वह चेहरा जो
उसकी बाल-स्मृतियों में
गड्ड-मड्ड हो गया था
उस मां को
जिसे उसने
घुटनों के बल चलते ही
खो दिया था ,
उस सदा के लिए
खो गई
खोई हुई मां को ,
खोजता रहा वह
सारा जीवन ।

वह अपने चित्रों में
तलाशता रहा उस
गुम गई मां को ,
उस गुम गए मां के चेहरे को,
और कभी दुर्गा ,
तो कभी लक्ष्मी ,
तो कभी मदर टेरेसा,
तो कभी इंदिरा के
चित्रों में खोजा उसने
कभी नहीं मिलने वाली
अपनी खोई मां को ।

कहते हैं वह
मदर -फिक्सेशन का
शिकार था,
उसने अपने चित्रों में
स्त्रियों की तस्वीरें बनाईं
मुसलसल
और जारी रखी यात्रा
(मां तक पहुंचने की )
कभी गांधारी ,
तो कभी द्रौपदी,
तो कभी सितार बजाती स्त्री
और जा पहुंचा
“भारत – माता” तक।

वह मादरे-वतन से
गहरी मुहब्बत में फिदा था,
इसीलिए मकबूल थे उसे
दुनिया के ,
दुनिया भर की सारी रुसवाईयां।

वो अपनी मां को
अपनी मातृभूमि में
तलाशता रहा ;
और हमने उसे उसके देश से, उसकी मिट्टी से,
उसकी आत्मा के नूर से,
निर्वासित कर दिया।

अपनी उखड़ी और उखड़ती सांसो
और पैर छोड़ती
अपनी परछाइयों को
वह देख चुका था
‘लंदन और ‘दोहा’ की वीरानी में।
और बड़ी बेचैनी में तड़प उठा था,
अपने वतन वापस आने को,
अपने वतन लौटने को ,
कि वह खाक में मिल जाना।
चाहता था
अपने ही वतन की मिट्टी में ।

नियति और दुर्भाग्य की ऐसी।
कालिमा
कि लंदन के रॉयल ब्राम्पटन अस्पताल
के अंधेरे कोने में लेटा ,
वह इंदौर और पंढरपुर की ,
बचपन की गलियों में
भटकता रहा
भटकता रहा ।

उसकी आंखों में
एक गहरी रिक्तता
और खामोशी थी,
जिब्ह किए जाते बकरे
की मानिंद
कातर निगाहों से देखता है
वह मुस्तफा की तरफ
और उसके हाथों से लेकर
मादरे-वतन की सोंधी मिट्टी
माथे पर लगा
सो जाता है ,
सदा सदा के लिए
ब्रुकवुड सिमेट्री के
अपने कब्र में।

कुछ पत्ते
कुछ फूल
बिखरे हुए हैं
और कुछ चिड़ियाँ
चहचहा रही हैं
अब भी
अब भी।

 

6. वायरस

“कहीं कछु आही की ना आही” —- कबीर
‘कहीं कुछ है या नहीं’, पूछा उसने
‘ईश्वर’ से ।
‘ईश्वर’ मौन रहा,
उसे ‘बुद्ध’ याद आये
और उनका मौन याद आया।

वह ‘शौपेनहावर’ की कुतिया तक गया
और पुछा,  ‘आत्मा(1) कौन है ?’
शौपेनहावर मौन है ।
चीखता है ‘अहूरमज़्दा'(2)
की ईश्वर एक मौन है ।

आँखों में उतर आये
मोतियाबिंद की पारभासक रोशनी में
पूछता है वह मोहम्मद  से
नन्नार की पहाड़ियों पर
अल्लाह कौन है ?
मोहम्मद मौन है ।

स्टीफेन हॉकिंग  की
इलेक्ट्रो-यांत्रिक आवाज़ में
फुसफुसाता है तब डार्विन
कि ईश्वर एक वायरस(३) है ।

प्रतिकुल परिस्थितियों में मृत पड़ा ईश्वर
वायरस की तरह
अचानक ही सक्रिय हो उठता है
हमारी शिराओं के खून की अनुकुलता में ।

वक्र हँसी हँसता है मिखाइल गोर्बाचेव  ।
“ईश्वर के ताबूत  में
ठोके गए उसके  आखिरी कील  को
निकाला किसने” –पूछता है नीत्शे ।

और  उसके पैंतालीस वर्षों बाद
दुनिया को बदल देने की ग्लासनोत्सी अवधारणाओं में कैद
एक पूर्व कम्युनिस्ट
ईश्वर को निकालता है ताबूत से
और वायरस की भाँति
छोड़ देता है मिडिल-ईस्ट में ।

किसी भी किस्म की सत्ता द्वारा स्थापित
जीवन एवं ज़िंदगी की अनिश्चितता और
मृत्यु की अनिवार्यता के बीच
ज़िंदा है और रहेगा ईश्वर ।

नोट :
(1) शॉपेनहावर ने अपनी पालतु कुतिया का नाम ‘आत्मा’ रखा था, यहाँ वही संदर्भित है ।
(2) अहूरमज़्दा – चौथी – पाँचवीं शताब्दी पूर्व बेहिस्तून अभिलेख मे उद्धृत जोरोस्ट्रियनिज़्म धर्म मे अवेस्ता भाषा मे ईश्वर या creator का नाम ।
(3) जीवित और मृत के बीच की कड़ी है वाइरस। प्रतिकूल परिस्थिति मे यह सालों मृत पड़ा रहता है किन्तु अनुकूल परिस्थिति के मिलते ही यह हज़ार वर्षों के बाद भी तुरंत जीवित हो उठता है ।

 

7. इस अकाल वेला में

हत्यारी संभावनाओं से भरे
इस विकृत और भयानक समय में ,
अपने नपुंसक और अपाहिज गुस्से में,
तप्त अंधियारे मन के ,
टीन के गर्म छत पर
नाचता हूँ, नचता हूँ
‘भरत-नाट्यम’(१) की विभिन्न मुद्राओं में ।

मैं पूछना चाहता हूँ
‘शिवमूर्ति’ से,
लेकिन क्या पूछूं ?
कि खलील दर्जी कहां है ?
कहां है वह बाजार
जो मेरे शयन- कक्ष में
‘प्रियंवद’ की ‘पलंग’(२) तक आ पहुंचा है ?

उसी बाजार में खुलेआम
बीच चौराहे पर,
जब ‘रामदास'(3) के सीने में
घोंपे हुए चाकू के फाल को निकाल,
जिस समय, मैं उंगलियों से
उसके जख्म की गहराई माप रहा था ।

ठीक उसी समय
हत्यारा ‘डोमा जी उस्ताद’(4)
संसद के गलियारों में,
विश्व शांति स्थापना
की बहस में शरीक
‘मैत्रेय बुद्ध’ (5)बना हुआ था ।

 

–1–
बम… मारो ….बम …
नेस्तनाबूद कर दो
बगदाद, बसरा, बोगाज़-कोई (6)
और समरकंद को,
चिल्लाता है तानाशाह –
मिटा डालो मानचित्र से
दजला-फरात और गांधार को ।

बमों और मिसाइलों के
गूँजते धमाकों के बीच
‘मोसुल’(7) की सड़कों पर ,
सद्य:मृत उस बच्चे की
आँखों पर पड़ते रोशनी
के परावर्तन में
देखता हूँ मैं
एक,
हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता का
भग्नावशेषित होता भविष्य ,

और
एक बार फिर उत्तप्त मन के,
टीन के गर्म छत पर
नाच पड़ता हूँ
भरत-नाट्यम की मुद्रा में ,

और पूछना चाहता हूँ
बुश से ,
पुतिन से ,
गोर्ब्याचोव से ,
बराक ओबामा से,
नेतन्याहू से,
और ईदी अमीन से ………
……………………..
…………………….
……………………
कि,
मैं कुछ नहीं पूछना चाहता ?
नहीं चाहता कुछ भी पूछना !
कि पिस्सुओं और जोंकों की तरह लटके हुए
प्रश्न
चूस रहे हैं मेरा रक्त ।

व्रणाहत , लहू-लूहान
इस देह को
घसीटता हुआ ‘अंगुलिमाल’(8) की तरह
ले जाता हूँ ,
‘अनाथपिंडक’(9) के ‘जेतवन’(10) तक
और
‘मोग्गलायन’(11) की तरह
इस संसार से
विदा हो जाता हूँ ।

नोट :
1)शिवमूर्ति की इसी शीर्षक की एक कहानी यहाँ संदर्भित है , जिसका नायक कहानी के अंत में अर्ध विक्षिप्त होकर भरत-नाट्यम की मुद्रा में नाचने लगता है।
2) प्रियंवद की इसी शीर्षक की कहानी यहाँ संदर्भित है ।
3) गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज ने संभवत: 1951 – 52 मे एक उपन्यासिका लिखी थी “Crónica de una muerte anunciada” यानी “क्रॉनिकल ऑफ अ डैथ फ़ोरटोल्ड’। इस उपन्यास में सेंटियागो नसर की दिन-दहाड़े , सब लोगों के सामने और सब लोगों के जानते उसके घर के सामने हत्या हो जाती है । क्या रघुवीर सहाय का ‘रामदास’ मार्खेज का ‘सेंटियागो नसर’ तो नहीं ?
4) मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ में उल्लिखित डोमा जी उस्ताद , शहर का कुख्यात हत्यारा यहाँ संदर्भित है ।
5) बौद्ध परम्पराओं के अनुसार, मैत्रेय एक बोधिसत्व हैं जो पृथ्वी पर भविष्य में अवतरित होंगे और बुद्धत्व प्राप्त करेंगे तथा विशुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे। ग्रन्थों के अनुसार, मैत्रेय वर्तमान बुद्ध, गौतम बुद्ध (जिन्हें शाक्य मुनि भी कहा जाता है) के उत्तराधिकारी होंगे।मैत्रेय के आगमन की भविष्यवाणी एक ऐसे समय में इनके आने की बात कहती है जब धरती के लोग धर्म को विस्मृत कर चुके होंगे।
6) बोगाज-कोई – एशिया माईनर में अवस्थित एक प्रदेश है जहां 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्र, वरुण, नासत्य इत्यादि का नाम पाया जाता है।
7)मोसुल- मोसुल उत्तरी इराक़ का एक शहर है, नीनवा प्रान्त की राजधानी है, जो पिछले एक दशक से हिंसा दमन , आगजनी का शिकार है।
8) गौतम बुद्ध का शिष्य जो पहले एक हिंसक डाकू था।
9), 10) – श्रावस्ती नागरी का सेठ सुदत्त (जो अपनी दानशीलता की वजह से अनाथपिंडक के नाम से मशहूर था ) , यहाँ संदर्भित है, जिसने श्रावस्ती के राजकुमार से ‘जेतवनाराम’ को। बुद्ध के देशना हेतु, जेतवन की समस्त भूमि पर स्वर्ण-मुद्राएँ बिछाकर खरीदी थीं ।

 

8. अथ शुम्भ-निशुम्भोपाख्यान

सहस्राब्दियों के अपमान
और गुस्से को
ढोलक की थाप पर निकालते हुए
हम एक आर्तरुदन में
नाचते हैं।
ढोलक और नगाड़ा पीटते हुए
लेते हैं बदला अपने अपमान का,
जलालत का ।
गुस्से में पीटते चमड़े के ढोल को
औ’
नाचते हैं
“या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता “।

किन प्राणियों में संस्थित हों देवी
शक्ति रूप में?
क्या विजेताओं की क्रूरता में ?
या घातक विध्वंसक षड्यंत्रकारियों की भुजाओं में ?
ताकि कर सकें सर्वनाश (होलोकास्ट)
एक शांतिप्रिय और अहिंसक सभ्यता की ।

हम दास हैं या दस्यु
या फिर असुर हैं.
राक्षस हैं,
‘दिति’ के पुत्र
देवों के भाई दैत्य हैं.
हम द्रविड़ हैं
अनास हैं
अनार्य हैं ?

अपने ही बंधु-बांधवों की
हत्या करनेवाली देवी की आरती में
नाचते
सुध-बुध खोये
हम कौन हैं?

समाज के बाहर
नगरों से बहिस्कृत
वह ढोल जो हमारे गले में था (१)
कैसी चालाकी हे देवि !
की वह तेरी आरती में
बजाया जा रहा,
और हम अपने ही पूर्वजों
के हत्यारे की उपासना के
जश्न में नाच रहें !

शहरों–नगरों और सभ्य समाज से
निकाले गए
हम रोमा जिप्सी (२) हैं।
जहां खत्म होता है शहर
और शहर की गंदगी होती है जमा
वहीं कहीं जरायमपेशा झोपड़ियों में
या फिर हार्लेम( ३)
या घेट्टों (३) में ।

 

 

न्यूयार्क की काली बस्तियों में
लैंग्स्टन ह्यूज़ के उदास गीतों में
गैर शास्त्रीय और लोक संगीत
और आदिम नृत्यों में
खुद को भुलाए रखा।

अच्छा होता
नष्ट हो गए होते हम
“इंकाओं” (४)की तरह
‘मय”(४) की तरह
या फिर
‘रेड इंडियनों”(४) की तरह
‘एजटेक’(४) की तरह
हम, हम न होते
हम वही होते , जो हम न होते
हम वही होते, जो वे चाहते ।

अच्छा होता बेबीलोन नष्ट हो गया होता
दजला-फुरात नदियाँ सुख जातीं,
अवश गुलामी की चरम परवशता
जब ‘हम्मूराबी’(५ ) भी मैं हूँ
मुद्दई भी मैं ही हूँ
मुद्दालेह भी मैं हूँ
जज की कुर्सी पर
मैं(६) ही आसीन हूँ ;
जिरह मैं ही करूंगा
और खुद को सज़ा ( -ए-मौत ) भी
मैं ही दूंगा।
किस कसूर का
मालुम नहीं;
क्योंकि मैं एक द्रविड़ हूँ
और रावण भी द्रविड़ था, एक राक्षस था
और साथ ही वह एक ब्राह्मण भी है
एक (विश्रवा) मुनि का पुत्र है
और परम ज्ञानी है,
और तुम उसे मारते हो
और मरते हुए रावण से शिक्षा लेते हो ।

और हम .. (हम रावण के वंशज)
रावण के पुतले में आग लगाते है
औ’ नाचते हैं
कमजोर और निष्कपट पर
षड्यंत्र और धूर्तता और चालाकी की जीत
‘“या देवी सर्वभूतेषु हत्यारी रूपेण संस्थिता ,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः.”

नोट:
१.) चीनी यात्री ह्वेनसांग ने (हर्षवर्धन के राज्य काल में) अपने भारत भ्रमण पर लिखे पुस्तक में यह जिक्र किया है की शूद्रों को शहर के बाहर रखा जाता था एवं उनके गले एक ढोल लटका हुआ रहता था जिसे उन्हें शहर में प्रवेश करते समय पिटते रहना पड़ता था ताकि सवर्ण उनकी पपरछाईयों से बच सकें.
२.) रोमा जिप्सी : पूरे विश्व में फैले रोमा जिप्सियों को भी जरायमपेशा जाति माना जाता है तथा उन्हें शहरों से बाहर रखा जाता है . रोमा जिप्सियों को भारतीय डम जाति से जोड़ा जाता है जो ईसा की दूसरी- तीसरी शताब्दी में भारत से बाहर निकले और पूरे विश्व में फैलो गए. दक्षिण फ़्रांस में रोमा जिप्सियों ने एक मंदिर के स्थापत्य में “काली” की प्रतिमा रखी है जिसका रंग बिलकुल काला है, जिसे वे “सारा-ए-काली” कहतें हैं..
३.) हार्लेम, घेट्टो – अफ़्रीकी नीग्रो लोगो की बस्तियां .
४.) इंका, मय, एजटेक, रेड इन्डियन – लैटिन अमेरिकी सभ्यताएं जिन्हें साम्राज्यवादी यूरोपियन्स ने अपने लोभ एवं लालच में नष्ट कर दिया.
५.) हम्मुराबी : ईसा पूर्व १७९२ से ईसा पूर्व १७५० तक बेबीलोन(आधुनिक ईराक) पर राज करनेवाला राजा जिसने विश्व को पहली बार लिखित कानून दिया, जिसे “हम्मुराबी संहिता” या हम्मुराबी कोड कहते है.
६.) जार्ज बुश ने कहा था की सद्दाम हुसैन को सज़ा देने के लिए अमेरिकी जजों की जगह इराकी जजों की नियुक्ति होगी तथा वे ही फैसला देंगे.

 

9. बोरिस येल्स्तीन

जब रात गहराने लगती
लैम्प – पोस्टों की पीली – पीली रोशनी
मुरझाई हुई सी
छितरा रही होती है ,
जब एक स्तब्धता की जकड़न में
कस गया होता है सन्नाटा ।
ऐसे मे किसी कोने अंतरे
गुसलखाने या सिंक के नीचे से
निकलता है
नौ साल का नन्हा ‘ सेर्जेई ‘
निक्कर ठीक करता
टटोलता रास्ते पे सोये
लोगों की जेबें ।
बना लिया है उसने
यार – दोस्त ,
नाइट कफेटेरिया के रसोइयों को ,
वह मारिजुयाना और जूठनों
के दम पर
ज़िंदा है,
“दिल तक आसानी से पहुँच सकता है”
वह दिखा अपना चाकू
डिंग हाँकता है।

 

10. वह जानता नहीं

वह जानता नहीं
कि उसी की धरती पर
उगा था लाल तारा ,
निज़्नी नोवगोरोद की सड़कों पर
झाड़ू लगता
सेर्जेई अल्मीडा ,
क्या गोर्की और दोस्तोएव्स्की द्वारा
भोगे गए नरक के दिन
वापस आने वाले हैं ??
और एक भूरा सूअर
बोरिस येल्स्तीन
इन्हीं सेर्जेइयों के ताबूत पर
इक्कीसवीं सदी का
खुशफहमी उगा रहा है ।


 

     

कवि अनिल अनलहातु, शिक्षा – बी.टेक., खनन अभियंत्रण , आई॰आई॰टी॰ (आई एस एम),धनबाद । एम॰बी॰ए॰ (मार्केटिंग मैनेजमेंट ), कम्प्यूटर साइंस में डिप्लोमा, एम॰ ए॰ ( हिन्दी)। जन्म – बिहार के भोजपुर(आरा)जिले के बड़का लौहर-फरना गाँव में दिसंबर 1972.

प्रकाशन – ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ ’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित आलोचना की पुस्तक ‘आलोचना की रचना’ तथा दूसरा कविता संग्रह ‘तूतनखामेन खामोश क्यों है ‘ प्रकाशनाधीन ।
कई कविताएँ और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.

पुरस्कार: ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ ’ कविता संग्रह पर “साहित्य शिल्पी पुरस्कार,2018′, ‘प्रतिलिपि कविता सम्मान, 2015’, ‘कल के लिए’ पत्रिका द्वारा ‘मुक्तिबोध स्मृति कविता पुरस्कार’ अखिल भारतीय हिंदी सेवी संस्थान, इलाहबाद द्वारा ‘राष्ट्रभाषा गौरव’ पुरस्कार।आई.आई.टी. कानपुर द्वारा हिंदी में वैज्ञानिक लेखन पुरस्कार ।

संप्रति – स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) में महाप्रबंधक |
पता – c/o ए.के. सिंह, फ्लैट नं. – जी-6 ( G – 6), भुवनेश्वरी रेसिडेंसी अपार्टमेंट, पंडित क्लीनिक के सामने, बरटाँड़, धनबाद, झारखंड – 826001।मोबाईल नम्बर : 08986878504, 09431191742, gmccso2019@gmail.com

 

टिप्पणीकार प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित।स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com                

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