रमण कुमार सिंह
हाल के समय में हिंदी कविता में जिन कुछ नए युवा कवियों ने अपनी कविता से ध्यान आकृष्ट किया है, उनमें अंचित का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। अपने समय और समाज की जटिलताओं को जिस सहजता और सादगी से अंचित कविता का विषय बनाते हैं, वह समाज के प्रति गहरी संलग्नता से ही संभव है।
मौजूदा दौर में हम एक ऐसे संशय के माहौल में जी रहे हैं, जब भरोसा और निडरता के कारण ख़त्म होते जा रहे हैं। ऐसे दौर में जब हमारी शिनाख्त जाति-धर्म के खांचों में रखकर की जाती है,तब अंचित की ये पंक्तियां बहुत मानीखेज लगती हैं-
वो अलग समय था/ मैं तब ब्राह्मण का लड़का नहीं था/ वो बंगाली मुसलमान नहीं था/ इकबाल हॉस्टल मेरे लिए/ शरणस्थल हो सकता था/ वो एक अलग समय था।
अंचित के ही शब्दों में-‘कविता जो कि शायद/ हर रोज बस सर धुनना और सर पटकना है/ जेल की दीवारों से’,
फिर भी उनका मानना है कि एक कवि के सोच लेने भर से एक सपना पैदा होता है।
अपने छोटे-छोटे काव्यांशों के जरिये अंचित बड़ी बातें कह जाने मे सफल होते हैं। उनकी कविताओं में सतह पर जो सरलता नजर आती है, वह संवेदनशील अनुभव की सघनता से उपजी हैं।
अपने शिल्प और तकनीक में अंचित की हर कविता दूसरी से भिन्न होते हुए भी संवेदना की एक ही नदी पर तैरती नजर आती है, जहां दोस्त के बिछुड़ने का गम, महत्वाकांक्षा की शादी में लोकतंत्र का रसोइया बनना, प्रिय विदेशी कवि का धरती और चांद के बीच पुल बनाना, नाउम्मीदी के दौर में भी उम्मीद जितना बचा रहना, आंखें चौंधियाता रौशनियों का वैभव और सच को सिर हिलाते हुए अपने घर के अंदर आते देना शामिल है।
अंचित की कविताओं में व्यंग्य की जो त्वरा है, वह बहुत ही मारक है। एक उदाहरण देखिए- ‘कोई सरकार की चर्चा करता है तो/ फेसबुक पर लिखता हूं कि/ हमें खुश रहने पर ध्यान देना चाहिए/ कोई कहता ह कि देश में महामारी है/ मैं राजेश खन्ना को याद करता हूं/ -जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है/ मैं जानता हूं/ जो बोलेगा,/ इस लोकतंत्र में वही अपराधी होगा।‘
वह मौजूदा दौर के शत्रु को पहचानते हैं और उसके शातिर षड्यंत्र की शिनाख्त करते हुए कहते हैं कि वह ‘रोज हम में से ही एक हत्यारा पैदा कर देता है/ हम में से ही कोई मारा जाता है/ हम ही नहीं निकलना चाहते फिर भी घरों से।’
मौजूदा दौर के संकट की भयावहता से बखूबी परिचित अंचित जानते हैं कि ‘आग उम्मीद की तरह है/ जिसको किसी भी कीमत पर / खुदाओं से चुराना पड़ता है।’
देश के हर संवेदनशील इंसान के सीने में धधकते इस आग पर भरोसा करने वाले कवि अंचित की कविताएँ उम्मीद जगाती हैं।
अंचित की कविताएँ
1. जुनैद
जुनैद मेरे सबसे करीबी सीनियर का नाम था।
एक बार साथ में
जूनियर्स का इंट्रो लेते हुए,
हमें भागना पड़ा,
पुलिस से।
उसने मुझे इकबाल छात्रावास की दीवार फंदाई.
वो अलग समय था।
मैं तब ब्राह्मण का लड़का नहीं था,
वो बंगाली मुसलमान नहीं था,
इकबाल हॉस्टल मेरे लिए
शरणस्थल हो सकता था
वो अलग समय था।
जब मैंने पहला रोज़ा रखा, यही जुनैद याद आया।
पहली इफ्तारी की बकरखानी उसकी बदौलत थी।
परीक्षा के दिनों में घंटों ह मसब मित्र बहस करते
बैठे हुए उसके कमरे पर।
डर के माहौल में निडरता का कारण जुनैद।
टीवी पर खबर देखते हुए लगा मित्र की लाश है सामने
और कभी ना पराजित हो सकने वाला मेरा दोस्त ही
झुका दिया गया है।
और मैंने कुछ नहीं किया।
जब बल्लभगढ़ का जुनैद मारा गया,
बंगाल का जुनैद क्या सोचता होगा?
देश के दूसरे जुनैद क्या सोचते होंगे?
इन जुनैदों के ब्राह्मण दोस्त क्या सोचते होंगे?
2. यानिस रित्सोस के लिए
उम्र एक छलावा भर है शायद।
तुम उस समय लिख रहे थे जब
मेरे घर में पहला कवि पैदा हुआ।
मैं शायद आखिरी हूँ जिसका कविता से कुछ वास्ता है।
कविता जो कि शायद
हर रोज़ बस सर धुनना और सर पटकना है
जेल की दीवारों से।
कविता जो कि शायद बस तारीखों से खेलना भर है।
तुम जिन चीज़ों के बारे में लिख रहे थे
तुमसे पहले भी उन्ही चीज़ों के बारे में लिखा गया
और तुम्हारे बाद भी हमलोग उन्हीं चीज़ों के बारे में झक मार रहे हैं।
मसलन-औरतें, सिगरेट, लोग और सब तिलिस्म।
तुम्हारे सोच लेने भर से एक सपना पैदा हुआ
जो मुट्ठी भर होते हुए भी जाने कितनी एड़ियाँ ले डूबा।
अपनी मौत के बीसियों साल के बाद शायद तुम
आसमान में उस गाते हुए पुल पर खड़े हो जो धरती और चाँद को जोड़ने के लिए
तुमने बनाया था।
उस पुल पर खड़े तुम थके हुए तो होगे पर खुश होगे कि
दुनिया के सबसे पुराने प्रासादों के नीचे से पहाड़ काट कर फेंक दिए गए हैं।
3. उत्तर सत्य
(शून्य)
की मेरे क़त्ल के बाद
उसने जफ़ा से तौबा
कहते हुए कांप गया असद,
जो होना था उसको तो हो के रहना था
(एक)
“किस दिशा जाना है कविवर?”
पूछता है मेघ,
सोया पड़ा है यक्ष
महाकवि खुजा रहे हैं अपनी दाढ़।
(दो)
चिंतातुर है राजा
शोषितों से भरा है जनपद
और वह गाँव चाहता है निरापद
महत्त्वाकांक्षा की शादी में रसोईया है लोकतंत्र।
(तीन)
पानी और प्रतिच्छाया में फर्क क्या है
डोल रहा है दिग-दिगन्त
हँस रही है द्रौपदी
खीज रहा है दुर्योधन।
(चार)
एक आदमी खाता है,
एक आदमी के पास बैंक खाता है।
एक आदमी है जो ना खाता है ना खाने देता है
सबसे सुखी कौन है?
(पांच)
भाषा में गुंजाइश है।
ये हमारे समय का सबसे बड़ा सत्य है।
(कोई कर सकता है इसका भी विरोध)
आदमी के हाथ का निवाला
भर रहा है भाषा की अंतड़ियों में पैदा हुई भूख।
फुटनोट: पोखर में मछलियों के साथ तैर रहा था चाँद। उस पर कवियों ने अनगिनत कवितायेँ लिखीं। बार-बार उनमें चाँद मारा गया। हम पढ़ते रहे पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट।
4. मर्सिया
(अंकित को याद करते हुए, दूसरे धर्म की प्रेमिका होने के कारण अंकित की हत्या कर दी गई)
तुम्हारी गर्दन पर जैसी धारियाँ हैं,
वैसी मेरी गर्दन पर भी हैं।
जैसे थकान ढलती है उन पर इंतज़ार की,
वैसे ही मेरी गर्दन के ऊपर भी आ बैठती है।
इतनी असफलताओं के गोलचक्कर हैं और
इनके बीच ही अटका हुआ कोई दिन माणिक-सा…
मुझे बीत जाना है,
जैसे तुमको भी बीत जाना है।
कोई टीला नहीं होगा—
कोई रौशन क़ंदील किसी छत से लटकी हुई नहीं—
प्रेम, एक बेजान सन्नाटा जैसे कोई ठंडा पत्थर
और नाम ख़ुदा हुआ। तयशुदा।
हम एक जैसे हैं। हैं ना? बदले जा सकने वाले—कि मेरी देह की जगह
तुम्हारी देह रख दूँ या तुम्हारे मन की जगह अपना मन।
जो मेरा है वह तुम्हारा इतना है
कि बीच में भाषा त्वचा जितनी भी नहीं बचती।
तुम मेरे लिए छोड़ सकती हो सब कुछ,
इसीलिए तुम सब पाओ मेरे लिए ज़रूरी है।
हम एक दूसरे तक क्या लौटा सकेंगे आख़िरकार
कि हम जिए जैसे मछलियाँ जीती हैं तैरती हुईं अनवरत।
5. रेफ़्रेन्स फ़्रेम
मृत्यु कितनी कटुता से सेट करती है
अपने रेफ़्रेन्स फ़्रेम।
एक निर्जन बीहड़ घाट पर बैठे हुए
एक उजास ठंडी सुबह को
करना नाव का इंतज़ार।
वहाँ बैठे मापना पानी
वहाँ बैठे गिनना सीढ़ियाँ
वहाँ बैठे किनारों पर जमी मिट्टी का अनुमान करना
इतना ही भार, जीवन।
इतना ही परिश्रम, जीत हार से विमुख—
कोई एक नींद का टुकड़ा उठाता हूँ,
उसको पलट कर वहाँ वह रख देता हूँ,
जो स्वप्न-मुक्त है।
निर्जन स्तब्ध भोर कँटीले सलीब की तरह
गड़ी रहती है मन की देह से।
6. हत्याओं के बाद भी
बोलते हुए
गोली खाना
काँपते हुए
गोली खाने से
हमेशा बेहतर रहेगा,
एक बूँद
ख़ून की गिरते ही,
फिर
और कई
पैदा होंगे
एक गोली
चकनाचूर करेगी
कई आईने
कम से कम
तुम जानोगे
गोली कितनी कायर है
बोली की तुलना में।
7. दंगों के पखवाड़े के बाद एक रात
पहली नींद में,
देश में उलझा रहा,
जैसे वह जलता था
और मेरी चमड़ी उसकी दाह से।
दूसरी बार सोया
तो जाने कौन-से सफ़र पर था
तुमसे चिपका हुआ, तुम्हारा दुपट्टा सूँघता हुआ
तुम्हारी कोमलता मुझे सहलाती हुई।
तीसरी झपकी में
एक बच्ची मेरे सामने खिलखिलाती रही,
अपने हाथ से ग्लास उठा कर पानी पिया मेरे सामने की मेज़ पर से,
मुझसे सवाल पूछे और मैं जवाब दे पाया।
नींद आई तीन बार,
कल रात, मैंने सपना भी देखा तीन बार
जो हो रहा है,
पूरे दिन सोचते हुए भी,
उसका उपाय नहीं दिखता
फिर भी इतनी ही उम्मीद है,
जितनी उम्मीद है
उतना ही बचा हुआ हूँ।
8. बूढ़े होते हुए
तुम्हारे हाथों की झुर्रियाँ और मेरी दाढ़ी के सफ़ेद केश—
हम ख़र्च कर रहे हैं धीरे-धीरे अपनी सब कविताएँ।
मेरे घुटने पर तुम्हारी केहुनी टिकी हुई और मेरी नीली क़मीज़ों से तुम्हारा चिढ़ना—
एक लय पर से उतर जाना और दूसरी पर सरक लेना।
हम समानांतर बहते हुए काठ के टुकड़े हैं नदी पर
छिटकते, भटक जाते और धारा के साथ साथ फिर
लौटते हुए एक दूसरे की ओर।
बहता नहीं अब पहले की तरह, बदलाव भौंहों पर चिर उपस्थित—
डराता हुआ, भूल जाने का डर।
चीख़ता हूँ अभी भी अपनी सीमाओं पर, बूढ़े शरीर में
बस यही उतनी पुरानी हैं।
बीत गई रात की तरह मिलते हैं चुभते हुए अक्सर,
थकते हुए लद जाते हैं जहाँ हमारी देह खोज लेती है
अपने खाँचे।
हम भूख की तरह लगते हैं एक दूसरे को
हम अब भी नींद की तरह ठिठक जाते हैं।
9. कमी
जो नहीं होता जीवन में
वही हमेशा सालता है
भीड़ की उपलब्धता और भोजन में निहित अर्थ
हमेशा ही प्रयोजन को
मंच के बीच बनाए रखते हैं।
अक्सर घिस जाती हैं चप्पलें
तलवे पर लंबे-लंबे दाग़ बन जाते हैं
चमड़ी फट-फट जाती है, इतना खिंचती है,
कई बार ख़ून निकलना ही सबसे बड़ी घटना नहीं होता
घुटने पर पका बाल देखने के आदी
एक बार में कहाँ हुआ जा सकता है।
मोरों से मृत्युबोध का बिंब,
बिना कंधे टूटे, नहीं छीना जा सकता
संभव है सब इस जीवन में ही।
मैं एक बूढ़ा आदमी हूँ, कहता हूँ
उस प्रेत से जिसकी क़मीज़ पर जीवन लिखा है,
कविता कभी भी आस की परिधि में
बैठे हुए नहीं की जा सकती
विस्मृति से संसर्ग उस प्रार्थना का नाम है जो पूरी नहीं होती।
फ़ुटनोटः
मौत का इंतज़ार भी करना पड़ता है जीवन में ही।
कितना ज़रूरी है जीवन कि उससे संघर्ष का
स्वघोषित नायक़त्व भी उसी की गोद में संभव है।
जीवन के गाँव जाने अनुदानों के कितने कुएँ हैं,
और दुखों के कितने जंगल।
10. नेपथ्य की गुंजाइश
(कवि आदित्य शुक्ल से बात करते हुए)
रौशनियों का वैभव
सत्य की आँख चौंधिया देता है।
तेज़ दुपहर में लगता है
कोलतार की सड़क पर दूर पानी इंतज़ार करता है।
आप पेड़ों की छाँह चाहते हैं,
शोर से दूर, प्रदर्शनों से परे,
कि जुनून, दंभ के दरबार में
खड़ा कर्तव्य का गला दबाता दिखाई देता है।
नश्वर है सब, ईश्वर भी…
कोई भागना नहीं—मानना—
सच को सिर हिलाते हुए
अपने घर के अंदर आते देना है।
फिर भी आप करतब देखते हैं—
छद्मों की क़नात में चीख़ता—अपनी चालें चलता,
अपने अर्थ से आपकी प्रयोजनहीनता का मज़ाक़ उड़ाता,
एक देव के आगे नतमस्तक एक भावी देवता।
इंतज़ार भी रोज़ आपके घर आता है,
बेचैनी भी हर एक रोज़।
आप बदले में कुछ नहीं चाहते
सिवाय इसके कि एक हृदय हो बस आपके लिए,
एक फ़िकर जो कोई सिर्फ़ आपके लिए करता हो,
और न भागना, अपनी आत्मा के किवाड़ बंद कर देना
कि अंदर रिसे ना
जो ज़बरदस्ती आपको अखाड़े में उतार देता है,
फ़र्क़ की सुइयाँ चुभोता है।
एक कोने वाला कमरा चाहते हैं आप
उस देश में जहाँ मंच नहीं है,
जहाँ आप घुसते हैं तो दुनिया उतार कर रख देते हैं
जूते उतारते हुए।
(कवि अंचित
जन्म : 27.01.1990
शिक्षा : पटना यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर। पीएचडी का काम जारी।
सम्प्रति : पटना यूनिवर्सिटी में स्नातकोत्तर विभाग में सहायक प्राध्यापक(गेस्ट).
दो कविता संग्रह प्रकाशित – ‘साथ असाथ’ और ‘शहर पढ़ते हुए’ (2018) । एक ईबुक संग्रह , ऑफ़नोट पोअम्ज़ (2017)। विभिन्न अनुवाद के कार्य। जयराम रमेश द्वारा लिखित इंदिरा गांधी की जीवनी का हिंदी में अनुवाद।
सम्पर्क : anchitthepoet@gmail.com
टिप्पणीकार रमण कुमार सिंह गणपति मिश्र साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित हैं, हिंदी तथा मैथिली कविता में एक चर्चित नाम हैं और अमर उजाला अख़बार में उप-संपादक के पद पर कार्यरत हैं. सम्पर्क : 9711261789)