समकालीन जनमत
कविता

अनामिका अनु की कविताएँ स्त्री विमर्श को कई कोणों से देखती हैं

विशाखा मुलमुले


 

अनामिका अनु जी मूलतः बिहार की रहवासी हैं व कर्मभूमि से केरल की हैं। मैं जब उनकी कविताएँ पढ़ती हूँ तो कविता का वितान सहसा दृष्टिगोचर हो जाता है उनकी कविताएँ कभी मॉस्को से बेगूसराय का तुलनात्मक अध्ययन करती हैं कभी रसूल हमज़ातोव की जन्मभूमि दागिस्तान ( मेरा दागिस्तान ) को छू आती है –

रसूल क्या आपके गाँव में
अब भी वादियां हरि और घर पाषाणी है ?
कल ही की बात हो जैसे
सिगरेट सुलगाते रसूल कहते हैं ,
अपनी ज़बान और मेहमान को हिकारत से मत देखना
वरना बादल बिजली गिरेंगे हम पर , तुम पर , सब पर

कवि जब संश्लेषित भाव में कविता कहता है तो वह काव्य कुँए – सा गहन होता है , साथ ही कम शब्दों में अपनी बात कहता है । जब विचारों का बहाव अधिक होता है तो उसकी कविता नदी – सी हो जाती है । कभी लयात्मक कभी गद्यात्मक । कहीं – कहीं नदी पर बांध भी बन जाता है । ऐसी कविताओं में पाठक को नदी की गति संग गति मिलानी पड़ती है तो कभी थम कर पढ़ना होता है ।

अनामिका अनु जी की कविताएँ भी ऐसी ही लगीं । दोनों तरह के आस्वाद लिए ।

कविताओं में स्त्री विमर्श को विभिन्न कोणों से देखा गया है । डॉक्टर नायर की फ़िल्टर कॉफ़ी , क्षमा , माँ अकेली रह गई , मैं टूटने की तरक़ीब हूँ व तथाकथित प्रेम में । जहाँ डॉ नायर की फ़िल्टर कॉफी में कवयित्री सहजीवन में पुराने पड़ते गए सम्बन्धों में नई आब खोजने का प्रयत्न करती है , वहीं मैं टूटने की तरक़ीब हूँ में अपने अस्तित्व के साथ प्रेम की कामना करती है ।
क्षमा कविता में स्त्री क्षमस्व भाव के सर्वोच्च पायदान पर स्वयं को रखती है पर पुरुष की बार-बार दुहराई गई गलतियों से दुखी भी होती है –

तुमने टहनी भर पाप किए
मैंने पत्तियों में माफ़ी दी
तुमने झरनों में पाप किये
मैंने बूंदों में दी माफ़ी
—–
तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा
मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे
वे दुःख
जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे

नुक़्ता कविता शृंखलानुमा कविता है पांच कड़ियाँ लिए हुये । जिसके मूल में प्रेम है , प्रणय की उत्सुकता है ।

मैं प्रेम में हूँ
पाप और लज्जा से दूर
तुम्हारे लिए लिखते वक्त लगा
मैं बादल हूँ
और बरस रहा हूँ तुम पर
कहो न
तुम भीगी क्या ?
इस अंश में परकाया प्रवेश है । स्त्री ने पुरुष के भावों को अपनी कविता में कहा है ।

नौ नवम्बर तथा अवसाद कविताएँ विरह में जीवन की खोज है –

मन में मित्र को बुनते रहना
कितना श्रमसाध्य है
खाँचा बनाकर हर मिली मूरत को
उसमें समायोजित करने की कठिन जद्दोजहद
उम्मीद फाँसी के फंदे की तरह ( अवसाद कविता से )

” वे बच्चे ” कविता कवि के शिक्षक होने का भी पता देती है । बहुत अच्छी कविता है यह । इसे पढ़ते वक्त बरबस ‘ तारे ज़मीन के ‘ फ़िल्म का ईशान अवस्थी याद आ जाता है । कविता की पंक्तियां –

आसमान सबका होता है
ये सच भी है और
तय भी
ये बच्चे अपना आसमान स्वयं गढ़ते हैं
फिर उन पर हीरे – सा चमक उठते हैं
इनके आसमान में न चाँद होता है , न बादल
…….

इनकी कोरी कॉपियां दस्तक है
हमारे ज्ञान कोष पर
उस एकमात्र फ़िल्म ने हमारी शिक्षा प्रणाली , हमारे समाज की महत्वाकांक्षी दौड़ , माता – पिताओं व शिक्षकों की आँखें खोल दी थी । यह कविता भी उसका पुनर्पाठ है ।

अनामिका अनु जी की पास विस्तृत शब्द संसार है व कहन का सलीका भी है । विज्ञान विषय की छात्रा होने के कारण कविताओं में जरूरत के अनुसार उनका प्रयोग भी है । वे अनुवाद के क्षेत्र में भी कार्यरत हैं । उनके द्वारा केरल के शीर्ष लेखकों की कविताएँ व कहानियाँ हिन्दी में पत्रिका ‘ दुनिया इन दिनों ‘ में पढ़ने मिलती है । वे और मज़बूती से साहित्य में अपना रचनात्मक योगदान देतीं रहें।

 

अनामिका अनु की कविताएँ

 

1.डाॅक्टर नायर की फ़िल्टर काॅफ़ी

 

उदास पलों में झूले झूलती हूँ। जब इसकी रस्सी नई थी तो रंग पीला, चमकीला पीला था। नायलाॅन की रस्सी। चंद बारिशों की मार और धूप का दुलार क्या पाया,ऊपर से धूसर हो गयी ,भीतर अब भी पीला बचा है।संभावनाएँ बाहर से निर्वासित होकर भीतर की ओर प्रस्थान कर लेती हैं।वह आँखों में काजल नहीं लगाती भीतर में कितनी सजी आँखें हैं और कितने दृश्यों का है आना जाना।

बादाम के कोमल पत्ते नारियल के तने को सहला रही हैं ,स्पर्श की कौन-सी परिभाषा इनकी अनुभूतियों में लिखी है ,मूकता की पोटली खोलकर जानना आसान नहीं।टकाचोर और आम के पल्लवों के बीच कौन-से ध्वन्यात्मक सिलसिले हैं ,कौन से रसों को पीकर ये तितलियाँ काली और सफ़ेद रही फूदकती  हवा में।

डस्टर से जब भी पोंछती हूँ ब्लैक बोर्ड बायोटेक्नोलॉजीलिखते-लिखते मन साउदर्न ब्लाॅटिंग पर अटक जाता है। चयनात्मक विस्मृतियों के लिए क्या डी एन ए उत्तरदायी है…

 

डाॅ नायर नहीं मानते और कहते रहते हैंऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसॉर्डर होता है कुछ लोगों में लेखकों में भी होता होगा

उनकी पत्नी दस बार नहा कर बाहर निकली हैं
आँखों से पूछती है मुझसे
आज फिर बारिश होगी?
मैं मुस्करा देती हूँ
रसोई से अवियल की गंध आ रही है

 

2.लोकतंत्र

खरगोश बाघों को बेचता था

फिर

अपना पेट भरता था

बिके बाघ

खरीदारों को खा गये

फिर बिकने बाजार

में आ गये

 

3.तुम सब शून्य कर दोगे

जब भी मेरे प्रेम पर चर्चा हो

तुम मेरे नाम के बग़ल में अपना नाम लिख देना

मेरे पापों की गणना हो

मेरे नाम के आगे अपना नाम लिख देना

तुम तो शून्य हो न

बग़ल में रहे तो दहाई कर दोगे

आगे लग गए तो इकाई कर दोगे

गुणा भी कर दिया किसी ने तो क्या मसला है

तुम सब शून्य कर दोगे

 

4.क्षमा

तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए

मैंने बीज के कणों में माफ़ी  दी

 

तुमने पानी से पाप किए

मैंने मीन- सी माफ़ी दी

 

तुम्हारे पापा आकाश हो गए

मेरी माफ़ी पंक्षी

 

तुम्हारे नश्वर पापों को

मैंने जीवन से भरी माफ़ी बख्शी

 

तुमने गलतियाँ गिनतियों में की

मैंने बेहिसाब माफ़ी दी

 

तुमने टहनी भर पाप किए

मैंने पत्तियों में  माफ़ी दी

 

तुमने झरनों में पाप किए

मैंने बूंदों में दी माफ़ी

 

तुमने पाप से तौबा किया

मैंने स्वयं को तुम्हें दे दिया

 

तुम साँझ से पाप करोगे

मैं डूबकर क्षमा दूँगी

 

तुम धूप से पाप करोगे

मैं  माफ़ी में छाँव दूँगी

 

नीरव, नि:शब्द पापों

को झिंगूर के तान वाली माफ़ी

 

वाचाल पापों को

को मौन वाली माफ़ी

 

वामन वाले पाप को

बलि वाली माफ़ी

 

तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा

मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे

वे दुःख…

जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे

 

5.माँ अकेली रह गयी

माँ अकेली रह गयी

ख़ाली समय में बटन से खेलती है

 

वे बटन जो वह पुराने कपड़ों से

निकाल लेती थी

 कि शायद काम आ जाए बाद में

 

हर बटन को छूती

 उसकी बनावट को महसूस करती

उससे जुड़े कपड़े और कपड़े से जुड़े लोग

उनसे लगाव और बिछड़ने को याद करती

 

हर रंग, हर आकार और बनावट के वे बटन

ये पुतली के छठे जन्मदिन के गाउन वाला

लाल फ्राक के ऊपर कितना फबता था न

 

मोतियों वाला ये सजावटी बटन

ये उनके रेशमी कुर्ते का बटन

ये बिट्टू के फ़ुल पैंट का बटन

 

कभी अख़बार पर सजाती

कभी हथेली पर रख खेलती

कौड़ी, झुटका खेलना याद आ जाता

नीम पेड़ के नीचे काली माँ के मंदिर के पास

 

फिर याद आ गया उसे अपनी माँ के ब्लाउज़ का बटन

वो हुक नहीं लगाती थी

कहती थी बूढ़ी आँखें बटन को टोह के लगा भी ले

पर हुक को फँदे में टोह कर फँसाना नहीं होता

 

बाबूजी के खादी के कुर्ते का बटन

होगी यहीं कहीं

ढूँढ़ती रही दिन भर

 

अपनों को याद करना भूल कर

दिन कटवा रहा है बटन

अकेलापन बाँट रहा है बटन

 

6.मैं टूटने की तरकीब हूँ

मैं कोट्टारक्करा तंपुरान (राजा) का रामनाट्टम हूँ ,मैं

मंदिरों में पुष्प बटोरती स्त्रियों का दासीअट्टम हूँ।

 

मैं हूँ और इसका उत्सव गीत कोई भी नहीं। मैं नहीं रहूँगी उसका ऐसा मातम मचेगा मानो क्षण भर के लिए बस मैं ही थी घर भर में।एक हरी सब्जी सा फेंट दी जाऊँगी पकते समय में और थोड़े से में कई रोटियों को खा लेने के अद्भुत साहस के साथ देवता आ बैठेंगे।

 

मैं टूटने की तरकीब हूँ

 

मैं बँधने का इशारा भी। मैं दो ध्रुवों को बाँधकर चलती हूँ। मैं विस्तार को लपेटकर संक्रीण गलियारों में खोया सच हूँ।

 

मैं असंबद्ध भाषाओं के बीच का विवेक हूँ जो

दृष्टि सामंजस्य से अनकहे को समझाता  है। मैं बार के कोने की टेबल पर बैठा हुआ एकांत हूँ। मैं बैरे की प्रश्नवाचक दृष्टि का अनसुलझा,अव्यक्त उत्तर हूँ।

 

 मैं यीशु के चरणों पर नहीं गिरूँगी, राम के भी नहीं, मुझमें न अहिल्या है, न निरर्थक की वृत्तियाँ।  मैं स्वयं का मातम मनाती एक कथा हूँ जो लिख रही हैं ध्वनि की आवृत्तियाँ। मैं बदल दूँगी वाक्यों के अर्थ ,कथा के हर्ष और विषाद के क्षणों को,तुम्हारे मानचित्र को,तुम्हारे झूठे ढकोसले वाली दुनिया के बदरंग सच को भी।

 

एक दम घोंटते सत्य को विखंडित करते कई शब्द। एक ढिठाई जो हमेशा से सरोकार हीन थी, एक दीनता जो एक दिन निर्णय लेकर पहुँच गयी पहाड़ी पर और कविता कब कैसे खड़ी हो गयी पर्वतों का हाथ थामे ।अब वह प्रपातों से नहीं डरती ,कलरव में केवल स्वर नहीं होता। इसमें ‌ गंध ,संघर्ष और गति भी होती है।

 

आश्वासन की तरह प्रेम बरसा और उसने चाहा विश्वास भीगे ,क्या संभव था?जब तक प्रेम विश्वास के साथ नहीं उखाड़ता जड़ता के बोध को व्यक्ति प्रेम नहीं करता।

 

जिनके के लिए प्रेम खेल है उनको प्रेम में खिलौने मिले।जिनके लिए प्रेम श्रद्धा थी,उन्हें प्रभु मिले।जिनके लिए साहचर्य ,उन्हें साथी मिले।जिनके लिए समर्पण उन्हें स्वर्ग ।

 जिनके लिए समय था, उन्हें जीवन के कुछ और वर्ष। जिनके लिए डर था उन्हें स्मृतियाँ मिली।जिनके लिए साहस, उन्हें साथ मिला।जिनके लिए सबकुछ उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम मिला।

 

7.नुक़्ता 

I.

वह अजीब था

कवि ही होगा

धूप की सीढ़ी पर  चढ़ता था

रात ढले

चाँदनी के साथ उतरता था

उस नदी के किनारे

जिसके पेट में थी कई और नदियाँ

 

वह कहता था

चलो दर्पण के द्वार खोलते हैं

अनुवाद करते हैं

आँखों की भाषा में

 

वैसे ओठों की लिपि भी बहुत सुंदर है

तुम्हें शायद आती नहीं होगी

 

मृत्यु के परे

एक सुनसान रात में

उसकी बालों की खुली टहनियों पर

सुगबुगा उठी प्रणय उत्सुक चिड़िया

 

उसके चेहरे पर जाग उठी मुस्कान

और धीमे से

नदी की देह में उतरा चाँद

 

रात के तीसरे पहर कोई राग मालकौंस गा रहा था

 

 II.

नमक चीनी घुली

शीशे की गिलास

चटकी धीमे से

खौलते विलयन को

देखकर दीवार हल्की सकपकायी

 

धीरे-धीरे उतरा  पानी

रंग चढ़ता गया

कड़कड़ा कर चलता पंखा

उफ़ कह कर रूक गया

 

रोम-रोम में खिले फूलों को

एक नाव में भरकर

वह धूप खरीदने निकला

 

 III.

 

किताबघर में

जिल्द उतरी किताब

से आँख मिली

 

जो आँखों ने देखा

वह भी आवरण ही था

 

जो उंगली ने पलटा

वह सच था

किताब का

 

 IV.

 

ऐरावत मेघ

नारियल से लिपटकर

किसी दरार में

बरस जाएगा

जोंक चिपक जाएगा

चिकनी फर्श पर

इश्क़ में नमक ज़रूरी नहीं हमेशा

 

 V.

 

मैं प्रेम में हूँ

पाप और लज्जा से दूर

तुम्हारे लिए लिखते वक़्त लगा

मैं बादल हूँ

और बरस रहा हूँ तुम पर

कहो न

तुम भीगी‌ क्या?

 

8.वे बच्चे

वे बच्चे जो पेंसिल छीलते रहते हैं

डस्टबिन के पास

जो कक्षा में होकर भी अलग-सी दुनिया

में होते हैं

ख़ुद से बातें करते

दूसरी दुनिया के चक्कर काटते ये बच्चे

अनछुए रह जाते हैं उस ज्ञान से

जिसे हम हर रोज़ परोसते हैं

 

प्रश्न की दीवारों को ताकते ये बच्चे

कहाँ पार कर पाते हैं परीक्षा की परिधि

केन्द्र से अछूते

आत्मलीन इन बच्चों की आँखों में क्या होता है?

चौकोर भोर जिसकी चारों भुजा एक सी

सब उसे वर्ग कहते हैं

ये दृष्टि

 

इनके पेट में एक उबाल होता है

आँखों में बेचैनी

पानी की बड़ी बड़ी घूँट पीते

उल्टे डी, बी ,उ ,अ लिखते

 हर गोल से भागते ये बच्चे

परिधिहीन दुनिया की सैर पर होते हैं

 

आसमान सबका होता है

ये सच भी है और

तय भी

ये बच्चे अपना आसमान स्वयं गढ़ते हैं

फिर उन पर हीरे-सा चमक उठते हैं

इनके आसमान में न चाँद होता है, न बादल

 

छूटते  सपनों के ये बाज़ीगर

खरीद लाते हैं कबाड़ के मोल में हीरा

और फिर लिखी कही जाती हैं

इन पर अनगिनत कहानियाँ

 

ये जो धूप का टुकड़ा लाते हैं

वह भी उजाले का हिस्सा है

इनकी कोरी कापियाँ  दस्तक है

हमारे  ज्ञान कोष पर

 

बड़ी-बड़ी आँखों वाला एबिन

झूठ नहीं कहता

वह सपने नहीं देखता

सपने उसे देखते हैं

 

9.रसूल का गाँव

रसूल के गाँव की समतल छत पर

बैठी चिड़िया

कभी-कभी भोर के कानों में

अवार में मिट्टी कह जाती है

 

शोरग़ुल के बीच

सिर्फ़ दो शब्द नसीहतों के

कह जाते हैं रसूल,  कानों में

 

मास्को की गलियों में उपले छपी दीवारें नहीं है

कहते थे रसूल के अब्बा

 

आँखों ‌में रौशनी की पुड़िया खोलती त्साता गाँव की लड़कियाँ

आज भी आती होंगी माथे पर जाड़न की गठरी लेकर

और सर्द पहाड़ियों पर कविता जन्म लेती होगी

 

रसूल क्या आपके गाँव में

अब भी वादियाँ हरी और घर पाषाणी हैं?

कल ही की बात हो जैसे

सिगरेट सुलगाते रसूल कहते हैं,

अपनी ज़बान और मेहमान को हिक़ारत से मत देखना

वरना बादल बिजली गिरेंगे हम पर, तुम पर, सब पर

 

मैं रसूल हमज़ातोव

आज भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देता हूँ खट-खट

मांस और बूज़ा परोसने का समय हो गया है उठ जाओ

मैं अंदर आऊँ या मेरे बिना ही तुम्हारा काम चल जाएगा

 

10. नौ नवम्बर

प्रेम की स्मृतियाँ

कहानी होती हैं

पर जब वे आँखों से टपकती हैं

तो छंद हो जाती हैं

 

कल पालयम जंक्शन पर

 मेरी कार के पास

कहानियों  से भरी एक बस आ रूकी

उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं

 

उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी

वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता

जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थी

 तन शांत था

उसके जूड़े में  कई छंद थें

जो उसके मुड़ने भर से

झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थें

मानो हरसिंगार गिर रहे हों ब्रह्म मुहूर्त में

 

ठीक उसी वक़्त

बस स्टैंड के पीले छप्पर

को नजर ने चखा भर था

तुम याद आ गये

 

“क्यों?

मैं पीला कहाँ पहनता हूँ? “

 

बस इसलिए ही तो याद आ गये!

 

उस रंगीन चेक वाली सर्ट पहनी

लड़की को देखते ही तुम मन में

शहद सा घुलने लगी थी

 

“वह क्यों?

मैं तो कभी नहीं पहनती सात रंग?”

 

तुम पहनती हो न इंद्रधनुषी मुस्कान

जिसमें सात मंज़िली खुशियों के असंख्य

वर्गाकार द्वार खुले होते हैं

बिल्कुल चेक की तरह

और मेरी आँखें हर द्वार से भीतर झाँक

मंत्रमुग्ध हुआ करती हैं

 

आज सुग्गे खेल रहे थे

लटकी बेलों की सूखी रस्सी पर

स्मृतियों की सूखी लता पर तुम्हारी यादें के हरे सुग्गे

मैंने रिक्त आँगन में खड़े होकर भरी आँखों से देखा था

वह दृश्य

 

तुम्हारी मुस्कान की नाव पर जो क़िस्से थें

मैं  उन्हें सुनना चाहती हूँ

ढाई आखर की छत पर दिन की लम्बी चादर को

बिछा कर

आओगे न?

 

तुम मेरे लिए  पासवर्ड थे

आजकल न ईमेल खोल पाती हूँ

न फेसबुक

न बैंक अकाउंट

बस बंद आँखों से

पासवर्ड को याद करती हूँ

क्या वह महीना था?

 नाम?

या फिर तारीख़!

 

11. तथाकथित प्रेम

अलाप्पुझा रेलवे स्टेशन पर

ईएसआई अस्पताल के पीछे जो मंदिर हैं

वहाँ मिलते हैं

फिर रेल पर चढ़कर दरवाज़े पर खड़े होकर

हाथों में हाथ डालकर बस एक बार ज़ोर से हँसेंगे

 

बस इतने से ही बहती हरियाली में

बने ईंट और फूस के घरों से झाँकती

हर पत्थर आँखों में एक संशय दरक उठेगा

डिब्बे में बैठे हर सीट पर लिपटी फटी आँखों में

मेरा सूना गला और तुम्हारी उम्र चोट करेगी

मेरा यौवन मेरे साधारण चेहरे पर भारी

तेरी उम्र तेरी छवि को लुढ़काकर भीड़ के दिमाग़ में ढनमना उठेगी

 

चरित्र में दोष ढूँढ़ते चश्मों में बल्ब जल उठेंगे

हमारे आँखों की भगजोगनी भूक-भूक

उनके आँखों के टार्च भक से

 

हम पलकें झुकाएँगे और भीड़ हमें दिन दहाड़े

या मध्यरात्रि में मौत की सेंक देगी

 

तथाकथित प्रेम, मिट्टी से रिस-रिस कर

उस नदी में मिल जाएगा

जिसे लोग पेरियार कहते हैं

 

12. मास्को में है क्या कोई बेगूसराय?

कल जब राजेश्वरी मंदिर

की सीढ़ी पर बैठकर

याद कर रही थी माँ को

तो बिंदुसर सरोवर में खिल गए

 लाल कमल

 

जब घर को याद किया

तो वह तिरहुत नागर शैली में

खड़ा कोई मंदिर लगा मुझे

 

खटांस खिखिर,सारण,लालसर,

बगेरी, पनडुक्की

कैथी की तरह विलुप्त हो गये

 

कल तिलकोर के पत्ते

पर पीठार लगा रही थी रमा

मैंने महसूस किया

उन हथेलियों की भंगिमा

और उसका रंग तुमसे मिलता जुलता है माँ

 

घीऊरा

और कटहल के बीज की चटनी

जब खाती हूँ

तो भुने धनिये की गंध मुझे रुला देती है

मेरी सासू माँ की उंगलियाँ पतली और

बहुत सुंदर हैं

 

भुन्ना मछली की चर्चा होते ही

मेरे भीतर पिता जाग उठते हैं

मैं पूरे दिन न कुछ खा पाती हूँ

न मुझे प्यास लगती है

 

कामनाएँ खिखिर की दुम हैं

जो रात में मोटी हो जाती है

आश्रय विहीन

वह रात भर करता रहता था विलाप

 

टिटही टाँग ऊपर करके सोता है

ताकि आसमान न गिरे ज़मीन पर

 

काँवर झील में प्रवासी पक्षी

कम हो गए

प्रेम की चाह अब भी बहुत बड़ी है

बस उसमें निर्मल जल

और मीन ही नहीं

मौसम जो बदला है

 

अधनंगा,सुरख़ाब,मजीठा,अरूण,चेंड

सब गये लौट क्या अपने देश

जुते खेत पर पसरी चांदनी हो गयी भदेस अब

कार्बोफुरान छींट भगाया अतिथि सुजान?

यह विचित्र देश

अतिथिदेवो भव का कौन कर रहा है

अब तक निर्लज्ज गान…

 

सलीम चिड़ियों के बारे में

कितना जानते थे

तुम प्रेम के बारे में क्या जानते हो?

 

बिहार का मास्को है बेगूसराय

मास्को में है क्या कोई बेगूसराय?

 

13. अवसाद

मैं  उम्र के चौथे दशक में हूँ

एक रिक्ति है जो दीवारों से घिरती जाती है

अकेलापन भीतर की ओर ढहाता जाता है

 आँखें जैसे कोई प्लेटफ़ार्म

इंतज़ार में  रेल के

जिससे मित्र आएगा

मन में  मित्र को बुनते रहना

कितना श्रमसाध्य है

खाँचा बना कर हर मिली मूरत को

उसमें समायोजित करने की कठिन जद्दोजहद

उम्मीद फाँसी के फंदे की तरह

आ लटकती है

चेहरे के ठीक सामने गले के बिल्कुल पास

 ज्यों ज्यों रिक्त  गहरा होता है

और अँधेरा बढ़ता है

दीवारें पहले से ज्यादा अभेद्य हो जाती हैं

ख़्वाबों में  विपदाएं पीछा करती हैं

क़लम किताब से अलग खड़ी

मैं  व्यक्ति ढूँढ़ती हूँ

कुछ सफ़ेद नीले चेहरे, रंग पुते

सामने विचित्र मुद्राओं में खड़े

मित्र की तलाश !

जो बैठे थामे हाथ सुने घंटों

तोड़े चुप्पी, साथ हँसे साथ रोए

जो निर्णय नहीं दे सलाह भी नहीं

पर समझ सकने का हुनर रखता हो

इससे पहले कि उन दीवारों के भीतर

अवसाद की कँटीली झाड़ियाँ उग आएँ

साँपों की नस्लें फुफकारें

विष के चढ़ने से ठीक पहले

मुझे ढहानी होंगी दीवारें

वे  अभेद्य क़िले

भरना होगा उस रिक्त को

कविता से

या फूलों की खेती से

14. प्रवासी प्रिय

दूरी के पलों और मीलों को लपेट कर ऊन का पोला बनाया है

सोचती हूँ इसे धीरे-धीरे खोलकर तुम्हारे नाप का स्वेटर बना लूँ

सुना है

तुम्हारे देश में ठंड बहुत है

मीलों दूर हैं हम एक दूसरे से

कई नदियाँ, पर्वत, पठार और शायद

एक समुद्र भी है हम दोनों के बीच

एक पतली रेशम की डोर जोड़ती है हमें

जरा सा खींचते ही वह डोर भी टूट जानी है

प्रवासी प्रेमिकाओं की दोनों आँखे

चिड़ियाँ हो जाना चाहती है

सर्द मन में यादों के फाहे गिरते ही

वह उड़ जाना चाहती हैं

प्रिय के देश

और देखना चाहती है

प्रिय के देह के भीतर जलते अलाव को

प्रवासी प्रेमी की बाहें हवाईजहाज़ के पंख बन घंटों में नाप लेना चाहती हैं

मीलों की दूरी

वह धीरे से उतरना चाहता है

उसके नीपे पोछे मन के आँगन में खड़े

नींबू के पेड़ के पास

जहाँ गहरे हरे अंधेरे के बीच

पीले बल्ब से नींबू चमक रहे हैं

और चूमना चाहता है

उसकी लिखती उंगलियों को

जो अब भी गर्म है कलम की छुअन से

अदृश्यता की पीड़ा गंभीर

तीर की नोंक-सी भेदक

विडियो काॅल बस एक यांत्रिक मिलन मात्र है

मानो भूतहे पोखर की सतह पर तैर रहा हो प्रिय का चेहरा

तृप्ति से मीलों दूर बेचैनी के गाँव में

पका विरह

गुलाब ख़ास के पके आम सा

आजकल में टपकेगा

फूल से कच्ची केरी

फिर शनै:-शनै: पकना उसका

कितना सुख देता था

विरह प्रेम के पेड़ से टपका सुख है

प्रवासी प्रिया को याद करता प्रेमी

राग मल्लहार हो जाता है

प्रवासी प्रेमी को याद करती प्रिया

वीणा के तार

(कवयित्री डाॅ. अनामिका अनु, एम एस सी  ( विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक), पी एच डी ( इंस्पायर अवार्ड ), 2020 भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार. देश भर की कई पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

सम्पर्क: anamikabiology248@gmail.com

टिप्पणीकार विशाखा मुलमुले कविताएँ व लेख लिखती हैं। कई पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

मराठी , पंजाबी , नेपाली व अंग्रेजी भाषा में इनकी कुछ कविताओं का अनुवाद हुआ है ।

पाँच साझा काव्य संकलनों में इनकी कविताएँ हैं ।

दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के अंतर्गत इनकी पांडुलिपि का चयन हुआ है । शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह जिसका शीर्षक ‘पानी का पुल’ है। सम्पर्क: vishakhamulmuley@gmail.com

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