कमलानंद झा
तुम भले ऊँची करो दीवार जितनी
हम परिंदे हैं, उसे भी लाँघ जाएँगे।
अजीत कुमार वर्मा उन कवियों में हैं जो सिर्फ कविता नहीं लिखते बल्कि कविता के प्रश्न पर गंभीरता से विचार करते हैं। कविता क्या है, कविता से कितनी उम्मीद की जानी चाहिए, कविता आखिर करती क्या है, कविता-रचना की प्रक्रिया क्या होती है, कोई कविता अच्छी कैसे बन जाती है आदि प्रश्नों से लगातार अजीत कुमार वर्मा जूझते हैं।
छायावाद के जितने कवि हुए हैं लगभग सभी ने कविता के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया है। लेकिन आज सिर्फ कविता लिखी जाती है उस पर विचार कम होते हैं। अजीत कुमार वर्मा कविता पर विचार करते हुए कहते हैं, “स्वयं कविता होने की साधना प्रक्रिया में जो रस कवि के व्यक्तित्व में पूरा का पूरा जज़्ब होते-होते रह जाता है, छलक पड़ता है वही कविता है। यही छलकन, यही ‘सबद’ कविता का उत्स है।”
दूसरी महत्वपूर्ण बात जो उनकी कविता में भी देखने को मिलती है और विचार में भी, वह है-आखर की मितव्ययिता। दरअसल वर्मा मितव्ययी आखर के कवि हैं। इनकी कविता बड़बोलेपन का शिकार नहीं होती है। इनकी कविता या विचार में शब्दों की बौछार नहीं होती। इनकी मानें तो दो शब्दों के बीच में कहीं न कहीं कविता मौजूद होती है। इनकी कविता में मौन की प्रमुखता है। इनके एक संग्रह का नाम ही है ‘शब्द मौन है’।
शब्द और अर्थ का सार्थक समन्वय ही कविता नहीं है बल्कि अधिक गूढ़ गोताखोरी है कविकर्म। कवि अजित कुमार वर्मा के अनुसार शब्दों के बीच फैला मौन मेरे कवि को ज्यादा पसंद है। आवाज़ों के बीच पसरा सन्नाटा और सन्नाटे में गहरे उतरकर उसके संदर्भों को खींच लाना असली कविकर्म है। इनके अनुसार कविकर्म बैठे ठाले का काम नहीं है। काव्य-लेखन कितना दुरुह कार्य है, वे इस ओर संकेत करते हैं। यह संयोग नहीं है कि अजीत बाबू की कविताएँ संख्या में भले ही कम हों लेकिन गुणवत्ता में अपूर्व हैं।
अस्सी के पार कवि अपने मिज़ाज में और कविता में युवा हैं। युवा होने का अर्थ यह भी है कि मुक्ति की घनघोर आकांक्षा हम इनकी कविताओं में यहाँ से वहाँ तक देख सकते हैं। प्रेम मुक्ति की चाहत की अभिव्यक्ति है। अजीत बाबू की प्रेम कविताएँ प्रेम के विविध रूपों से साक्षात्कार कराती हैं। यह प्रेम कविताएँ भले ही एक स्तर पर आध्यात्मिकता की ओर जाती हैं लेकिन हैं सांसारिक प्रेम ही। इसमें अलौकिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रेम कविता लिखना कठिनतम काम है। प्रेम करना जितना कठिन है उससे अधिक कठिन अच्छी प्रेम कविता लिखना है। केदारनाथ सिंह जिन्होंने कई विलक्षण प्रेम कविताएँ लिखी हैं अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है प्रेम कविता लिखना मेरे लिए सर्वाधिक दुष्कर कविकर्म है। अजीत कुमार वर्मा की प्रेम कविताओं की आप जाँजाँचकरें तो प्रेम-कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती हैं। उनकी प्रेम कविता की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाएँ-
एक पल मुझमें कहीं कुछ बो गया ऐसा
पा सका न खुद को न फिर, मैं हो गया वैसा!…
छंद यह मधु-बंध का
मुझ में रचा तुमने ;
मन को गम-गम कमल-वन-सा
ठूंठ मैं फिर हो हरा मधुमास बन झूमा
तुमने सुरभित श्लोक-सा मुझको रचा ऐसा!
प्रोफेसर वर्मा की प्रेम कविता प्रेम में कायांतरित करनेवाली कविता है। एक से एक खराब मनुष्य को प्रेम बेहतर मनुष्य में रूपांतरित कर देता है। एक दूसरी प्रेम कविता इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है-
एक कतरा भर मिला था ओस का इस प्यार को
जो वास्ते इस तिश्नगी के आबे ज़मज़म हो गया ।
ए मेरे हमदम लगाया तुमने मुझको यूँ गले
तीरगी के तंग कूचा मैं मुनव्वर हो गया ।
कवि को अपनी कविता पर अगाध विश्वास है। जिसे अपनी कविता से प्यार नहीं होगा और अपनी कविता पर विश्वास नहीं होगा वह दूसरे की कविता से प्यार नहीं कर सकता। विद्यापति को भी अपनी कविता पर बहुत विश्वास था जब वे कहते हैं ‘बालचंद्र बिज़्जावई भाषा’, अब्दुल रहमान से लेकर तुलसीदास तक को अपनी कविता पर बहुत आस्था रही है। जितने बड़े और महत्वपूर्ण कवि हुए हैं लगभग सभी को अपनी कविता पर गर्व रहा है। अजीत कुमार वर्मा जिस मौन की बात करते हैं उस मौन की बदौलत उनकी कविता में आत्मविश्वास आता है-
यह चुप्पी इस कदर भारी
कि हर आवाज पर भारी।
यह रोशन इस कदर
कि सारा शहर सकते में
उसकी पुरकशिश आवाज कुछ ऐसी मुकद्दस थी
कभी गुनगुन ग़ज़ल लगती कभी अज़ान लगती थी
अजित कुमार वर्मा की कविता में एक तरफ आबे ज़मज़म है, अज़ान है तो दूसरी तरफ विविध प्रकार के छंद और श्लोक की भरमार है। यह जो शब्दों का विन्यास और रेंज है वह इनकी कविता को विस्तृत आयाम देता है।
अभी हिंदी साहित्य में लोग बहुत संभल-संभल कर लिख रहे हैं। थाह-थाह कर। सत्तातंत्र से गुस्ताख़ी से परहेज करते हुए। जब पत्रकार रवीश कुमार मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहते हैं तो साहित्य में भी ‘गोदी साहित्य’ होता है। ऐसे दौर में अजीत बाबू एक ऐसे कवि हैं जो कहते हैं कि मदांध सत्ताधारी को लगता है कि दूसरे की सत्ता जा सकती है मेरी सत्ता नहीं जाएगी-
तू नहीं आखिरी नज़्में-सुखन
फिर उड़ेगी नज़्म कोई सोच तू
कवि सत्ता व्यवस्था की निरंकुशता से साहस पूर्वक संवाद करते हैं। कवि अजीत कुमार वर्मा सभी तरह के सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देते हुए कहते हैं-
बादशाहत भी सदा किसकी रही
वक्त पल में छीन लेता सोच तू …
तू हजारों दीवारें खड़ी कर
धार लेगी राह अपनी सोच तू
कभी किसी का एक-सा है रात-दिन
वक़्त भी करवट बदलता है सोच तू।
ऐसे तंत्र को संभालने की चेतावनी देते हुए कवि कहता है-
ज़लज़ले और तूफां दरपेश है
अब भी सम्हल
आग की लपटें ये चारों ओर देख
जिंदगी से मौत का है खेल
अब भी सम्हल।
मेरा मानना है कि जो सच्चा कवि होगा वह जनवादी कवि भी होगा। अजीत कुमार वर्मा को जितना मैं जानता हूँ वह कभी किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य नहीं रहे लेकिन उनकी कविता में आप देखें कि जनवाद की स्प्ष्ट अनुगूंज सुनाई देती है। जन की पीड़ा और आकांक्षाओं को समझना और उसे सहज-सरल तरीके से काव्य में उतारना ही जनवादी कविता है। जन के साथ खड़ा हो जाना ही जनवाद है। इस तरह अजीत कुमार वर्मा की कविता को नागार्जुन की काव्य परंपरा में देखा जा सकता है। जब वह कहते हैं-
शब्द मेरे मर्म से उमड़ो
जन के मर्म में उतरो।
जन से जन की दूरियां
सेतु बनकर पाट दो।
मनुष्य-मनुष्य के बीच की सभी तरह की दूरियों को खत्म करने का आह्वान है अजीत कुमार वर्मा की कविताएँ। सामाजिक सरोकारों से निश्चिंत शाश्वत विषय पर कविता लिखना एक तरह की राजनीतिक चतुराई है। यह शाश्वत विषय एक तरह का पाखंड है, जीवन में विन्यस्त शोषण और उत्पीड़न से बच निकलने का चोर रास्ता । अजीत कुमार वर्मा की कविताएँ इस शाश्वत विषय रूपी चोर रास्ते को नामंजूर करती हैं-
आग लिख, पानी लिख,
अपनी जिंदगानी लिख ।
जो किस्तों में मरते हैं
उनकी दर्द कहानी लिख ।
मौसम ने बदले तेवर
नदियों की मनमानी लिख ।
व्याधों ने फेके दाने
पाखी की नादानी लिख ।
दिल को दिल से जोड़े जो
ऐसी एक कहानी लिख।
यहाँ कविता में कहानी लिखने की मांग अनूठी है।
जिंदगी के गीत तो सब लोग गाते हैं, गाना भी चाहिए। अपने जीते जी की खुशियाँ सब लोग देखते हैं। कबीर ने कहा जो घर जारे आपना चले हमारे साथ। कबीर घर जलाने की बात करते हैं, अजीत कुमार वर्मा खुद को जलाने की बात करते हैं और अपनी मृत्यु का उत्सव मनाते हैं। मृत्यु से सब कोई डरता है लेकिन कवि अजीत को मृत्यु से रत्ती भर डर नहीं लगता। उनकी कविता मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त कर लेती है-
सजाकर आग का पलंग
सो गया हूं ठाट से
और लपटों की रजाई
ओढ़ ली है ठाट से
रो रहा जहान अब
मैं हँस रहा हूँ ठाठ से
ज्वाल ज्वाल मैं चमक
दमक रहा हूं ठाठ से
यह ‘वहाँ’ जाने की ठाठ पूर्ण तैयारी है। आधुनिक कविता में इस तरह की निर्वेद कविता ढूंढ पाना कठिन है। इस तरह अजीत वर्मा की कविता मध्यकालीन भक्त कवियों से जुड़ जाती है।
स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा और आजादी के विविध स्वर यहाँ तलाशे जा सकते हैं। जहाँ कहीं भी आजादी पर प्रतिबंध लगते कवि को दिखता है वहाँ इनकी कविता खड्गहस्त हो जाती है। आज़ादी का सुख और मुक्ति का आनंद उनकी कविता में देखते ही बनता है। आज ऐसे लोग खूब मिल जाएंगे जो बोलते हैं कि अब स्त्री को आजादी की क्या आवश्यकता है? वह तो पूरी तरह आज़ाद हो चुकी है, कुछ ज्यादा ही बोलने लगी है। ऐसे माहौल में अजीत कुमार वर्मा स्त्रियों को जोर-जोर से बोलने के लिए न्योता देते हैं। जहाँ सुबह से शाम तक लड़कियों को नसीहत दी जाती है कि धीमे बोलो; लड़कियों को उठने-बैठने, चलने-फिरने, बोलने को नियंत्रित किया जाता है, अजीत कुमार वर्मा की कविता स्त्रियों पर आरोपित सभी तरह के नियंत्रण को ध्वस्त कर देती है। स्त्रियों पर लगाई गई वर्जनाओं को वे अपनी कविताओं में तोड़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का मूल मकसद है- स्त्रियों का आत्मनिर्णय। पैमाना यह होना चाहिए कि समाज ने अपनी बेटियों और बहुओं को आत्मनिर्णय के लिए कितना तैयार किया है। केवल नौकरी करने के लिए नहीं, शादी करने के लिए ही नहीं, विषम परिस्थिति में शादी तोड़ने तक के लिए भी आत्मनिर्णय। वर्मा जी की कविता स्त्रियों को आत्मनिर्णय के लिए प्रेरित करती है –
उसे मंजूर नहीं अब कि
वह सोचे तुम्हारे कहे को
बस, देखे उतना भर
जितने की छूट
दी है तुमने …
उसे कतई मंजूर नहीं जिंदगी की
थोपी गई परिभाषा ढोना जो
सिर्फ और सिर्फ उसके लिए गढ़ी गई थी
यह सारी परिभाषाएँ एक मादा को स्त्री बनाती है। अजीत की कविताएँ सवाल उठाती हैं मादा को स्त्री बनाने की पूरी परियोजना पर। उनकी कई कविताओं में यह सवाल सामने आता है-
वह भरेगी खुद अपनी उड़ान
खोलेगी खुद अपनी पाँख
और गढ़ेगी ख़ुद अपनी पाँख
और गढ़ेगी ख़ुद अपना आसमान
उड़ान के वास्ते
प्रोफेसर वर्मा की कविता उम्मीद और उजास की कविता है। वैसे वो कविता ही क्या जो हताश और निराश मन में उम्मीद की लौ न जगा दे। उम्मीद भी हवाई और बेतुकी नहीं, सार्थक और सर्जनात्मक-
माना कि घनी रात है
पर रात ही तो है
बस दो कदम आगे
देखो, प्रात भी तो है।
उम्मीद अपने विश्वास पर, अपनी प्रतिभा पर। ‘कभी उजास बाक़ी है’ कविता में वे कहते हैं कि जब तक साँस बाकी रहे, विश्वास को खोने नहीं देना है-
घनेरी रात है तो क्या ?
अभी तो साँस बाकी है
अभी विश्वास बाकी है ;
दीया की काँपती लौ में
अभी उजास बाकी है।
कविता तो एक तरफ अजीत कुमार की ग़ज़ल की धार भी बहुत पैनी है। ग़ज़ल के प्रतिमान पर खरी उतरने वाली ग़ज़लें। इनकी एक कविता में विज्ञापन की गुलामी पर तंज कसा गया है। रसोई से लेकर बेडरूम तक विज्ञापन की पहुँच हो गई है आज आदमी विज्ञापन का खिलौना बन गया है। आपके पॉकेट में अगर 2 रुपैया ही है तो 2 का शैंपू पाउच बाजार में उपलब्ध है। आपके पॉकेट में 200 रु नहीं है तो बाजार आपके पॉकेट से वह 2 रु भी निकाल लेगा। चिकनी मिट्टी और मुल्तानी मिट्टी पर 2 रु का शैंपू पाउच भारी पड़ता है। बाजार की टकटकी गरीब के उस 2 रु पर भी लगी हुई है। जो कविता कम से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह देती है इस मामले में ग़ज़ल विधा का जोड़ ढूंढ पाना कठिन है-
चाहे तो लोगों के क्या हँसी ख्वाब हैं
टांके गए दीवारों पर वादे क्या खूब हैं
दिले-नादाँ को बहलाने के लिए
चाहो तो ले लो किराए पर नंगी पीठ है
तुम्हें क्या चाहिए अब इश्तहारों के लिए।
अजीत कुमार वर्मा शब्द के सही अर्थों में साहित्य- विवेक- संपन्न व्यक्ति है। हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी, मैथिली, बांग्ला तथा उर्दू साहित्य का गहन अध्ययन उनके व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करता है। सौंदर्यशास्त्र, शास्त्रीय संगीत एवं ललित कलाओं में विशेष अभिरुचि के कारण इनकी कविता का कैनवास अत्यंत व्यापक बन पड़ा है।
‘शब्द मौन है’ है और ‘दूर्वा’ काव्य संग्रह के अतिरिक्त उनकी अनेक असंकलित कविताओं में हम इन अनुशासनों की रचनात्मक घुलावट को बहुत स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। कविता की तरह अजीत कुमार वर्मा का व्यक्तित्व अत्यंत कोमल और पारदर्शी है। समय और परिस्थिति की धमाचौकड़ी और उठापटक से निस्संग साहित्य की सेवा और ‘अन्य’ की चिंता इनके जीवन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य रहा है। किसी के व्यक्तित्व को मापना हो तो यह देखा जाना चाहिए कि उसके जीवन में ‘दूसरों’ के लिए कितना स्थान है।
अजीत बाबू अपने समकालीनों के अतिरिक्त अपने बाद की पीढ़ियों के रचनाकारों से निरंतर संवादरत रहते। उनकी छोटी-से-छोटी रचनाओं पर विमर्श करते, उत्साहवर्धन करते और मार्गदर्शन करते। वे विपरीत परिस्थिति में हमेशा दूसरों की मदद को तत्पर तैयार रहते। कुल मिलाकर उनका व्यक्तित्व काव्यमय है। अजीत कुमार वर्मा के लिए कविता और जीवन एक दूसरे का पर्याय है, संग- साथ है। अपनी कविताओं में जो लिखते हैं उसे जीने की ज़िद अजीत कुमार वर्मा को विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है-
कविता से कविता में
कविता बन उगे हम;
कविता में लीन हुए
तनिक नहीं दीन हुए।
अजीत कुमार की कविताएँ
1.
इनकी कह कि उनकी कह
जितनी सच है , उतनी कह ।
किस्से तो हजारों हैं
पर, याराँ तू अपनी कह ॥
दुनिया-भर दौड़ा अबतक
अब तो बंदे खुद में रह ।
जो देगा मालिक देगा
जग से क्या, मालिक से कह ।
सीधे-सादे लफ़्जों में
‘मीर’ सी ग़ज़ल नूरानी कह ।
फिर जाने कब मिलना हो
जो कहना है अब ही कह ।
खाली बस्ती, काली रात
कैसे मने दिवाली कह ।
दिन फिर भी कट जाता है
रात न कटे कहानी कह ।
अश्क़ के मोती फूट बहे
क्या थी पीड़ पुरानी कह ।
ऐ, मुख्तारे -मुल्क, जरा,
मेरा ज़ुर्म जुबानी कह ।
क्या ईमान और क्या ज़मीर
बात पुरानी अब मत कह ।
इस बाज़ारे-इल्म मे क्या –
नहीं बिकता है सच-सच कह ।
जो दस्तूर ज़माने का
उसका असली मक्सद कह ।
जो बिकता है चलता है
बिकने का गुर सच-सच कह ।
2.
घनेरी रात है तो क्या?
अभी तो साँस बाकी है
अभी विश्वास बाकी है ;
दीया की काँपती लौ में
अभी उजास बाकी है ।
जला हूँ दीप बनकर खुद
अमावस रात है तो क्या ?
गरज लें बादलों के झुंड
न मुझको रोक पाएंगे
करे तांडव प्रभंजन , पर,
कदम ये रुक न पाएंगे
मेरे पदचाप में उगती है
तस्वीर मंजिल की
न उसको मेट पाएगी
विकट बरसात है तो क्या ?
3.
वह भरेगी खुद अपनी उड़ान
खोलेगी खुद अपनी पाँख
और गढ़ेगी खुद अपना आसमान
उड़ान के वास्ते ।
वह समझ चुकी है
जीने को
उड़ने को
चाहिए
सिर्फ और सिर्फ
अपनी साँस
अपनी पॉख ।
वह तय करेगी खुद
अपने आसमान की ऊँचाई
उसका फैलाव
उड़ने का अपना ढंग
अपने सपनों के रंग
कि, गैर दखल मंजूर नहीं उसे !
जानती है वह
अपनी पहचान के वास्ते
चाहिए खुद का तप
तप जो श्रम है
तप जो स्वेद है
स्वेद जो श्रम का रस है ।
वह जान चुकी है इस रस का स्वाद
और है उसे खुद पर विश्वास !
4.
वह बोलेगी
तेज आवाज में बोलेगी ।
उसे मंजूर नहीं अब, कि-
आवाज उसकी दबी रहे , घुटी रहे ।
वह सोचेगी खुले मन
और,
देखेगी सपने आज़ाद आँखों !
हिम्मत जुटा ली है उसने कि-
कहे दुनिया को
अपने आजाद सपनों के किस्से
और कह दे कि-
सपने पूरे किए वगैर
चैन से नहीं बैठेगी वह !
उसे मंजूर नहीं अब कि
वह सोचे तुम्हारे कहे को,
बस , देखे उतना भर
जितने की छूट
दी है तुमने !
वह जिंदगी खुद
पढ़ने समझने लगी है
वह नए सिरे से परिभाषित
कर रही है जिंदगी !
उसे कतई मंजूर नहीं जिंदगी की
थोपी गयी परिभाषा ढोना
जो सिर्फ उसके लिए गढ़ी गयी थी।
वह अब आज़ाद गीत
आजाद आवाज़ में गाएगी ;
आज़ाद सपने
आज़ाद ऑखों देखेगी
आज़ाद साँसें आजाद सीने में भरेगी ।
ताज़ा-ताज़ा हँसेगी
कुछ भी बासी मंज़ूर नहीं उसे ।
जिएगी आज़ाद जिंदगी वह
मरेगी तो आज़ाद मौत !
5. एक पल मुझमें
एक पल मुझमें कहीं कुछ बो गया ऐसा
पा सका न खुद को फिर मैं हो गया वैसा ।
छंद यह मधु – बंध का मुझमें रचा तुमने
मन को गम् गम् कमलवन सा कर दिया तुमने
ठूंठ मैं फिर हो हरा मधुमास बन झूमा।
तुमने सुरभित श्लोक सा मुझको रचा ऐसा ।
एक दूरागत बंसी धुन में तुम बोले
एक पल ही मीत मेरे पास तुम ठहरे
पर हुआ उस पल का ही विस्तार कुछ ऐसा
जिसके परे ना रहा कुछ संसार के जैसा
एक पल की छुअन में सौ कल्प की सिहरन
एक स्वन में सम्पुटित सम्पूर्ण स्वर- कानन।
छू दिया तुमने मुझे मैं हो गया ऐसा
राम जाने तुमने मुझको कर दिया कैसा !
छू मेरे संन्यास को ऋतुराज कर डाला
हर उदासी को नशीली प्यास कर डाला
मुझमें जगा उन्माद पर विश्वास कुछ ऐसा
तेरा होकर हो गया खुद को अजाना सा ।
कौन मरघट कौन पनघट अब हुआ विस्मृत है।
एक समरस बोध का आलोक स्मृत है
आत्मगंधी श्वास अमृत पा गया ऐसा
मैं बन गया उत्सव अनश्वर गीत के जैसा ।
6.
सजाकर आग का पलंग
सो गया हूँ ठाठ से
और लपटों की रजाई
ओढ़ ली है ठाठ से
रो रहा जहान अब
मैं हँस रहा हूँ ठाठ से
ज्वाल-ज्वाल मैं चमक
दमक रहा हूँ ठाठ से ;
न कोई रंजो- ग़म मुझे
न दाह कोई चाह मुझे
मैं दुआ दुआ बना
बरस रहा हूँ ठाठ से
मैं चिता से फिर उगी
वीणा की झंकार हूँ
रेत के पहाड़ पर
शून्य के कछार पर
पाँच तार के सितार पर
उगी बहार हूँ !
क्योंकि
उस पार मेरा यार था
मध्य पारावार था
मैं चिता की धूल था
मैं चिता का फूल था
उड़ चला मैं बह चला
पार जा उससे मिला
उसने छू हरा किया
प्यार दे खड़ा किया
फिर उगा मैं बाँस बन
बनाई उसने बांसुरी
एक एक रंध्र पर
फेर अपनी आँगुरी
और होठों से लगा
अपनी साँसों से सजा
चूम चूम फूंक दी
मैं किरण किरण बजा
यार के ही स्वप्न के नाद का
विलास हूँ
काल के कपाल पर
अंकुरित प्रकाश हूँ !
देखताअवसान को
सोचता विहान हूँ
मैं मसान बैठकर
जोड़ता मचान हूँ ।
अस्सी पार के कवि अजित कुमार वर्मा मूल रूप से कवि हैं। कला के विविध रूप मसलन संगीत, नृत्य, पेंटिंग आदि की गहरी समझ रखते हुए इन विषयों पर आप लिखते भी रहे हैं। हिंदी, मैथिली, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा की अच्छी समझ के कारण आपके लेखन में एक विशेष प्रकार की विविधता है। मृदुभाषी अजित कुमार वर्मा प्रखर वक्ता के रूप में भी जाने जाते हैं। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक लोकप्रिय शिक्षक के रूप में आपकी ख्याति है। वहीं अध्यक्ष के पद से अवकाशमुक्त हुए। आपकी लेखनी आज भी अबाध गति से चल रही है। ‘दूर्वा’ और ‘शब्द मौन हैं’ आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं।
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मधुबनी, बिहार में जन्मे प्रोफ़ेसर कमलानंद झा की हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि है । वे सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन कर चुके हैं | तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध (वाणी प्रकाशन), पाठ्यपुस्तक की राजनीति (ग्रन्थशिल्पी), मस्ती की पाठशाला (प्रकाशन विभाग), राजाराधिकरमण प्रसाद सिंह की श्रेष्ठ कहानियां, सं0(नेशनल बुक ट्रस्ट), होतीं बस आँखें ही आँखें (यात्री-नागार्जुन का रचना-कर्म, विकल्प प्रकाशन) आदि इनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं । वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।
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