कविता अपने समय को रचती है और समय भी अपने कवि को बनाता है। कोरोना काल मानव जाति के लिए बड़ा संकट का काल है। बेचैनी का समय है। कविता मानव मन के उथल-पुथल को सबसे पहले पकड़ती है, व्यक्त करती है। मुसीबत में उसके साथ होती है। आज जो कविताएँ आ रही हैं, वे ऐसी ही हैं। ये चिंता की कविताएँ है, चिन्तन की कविताएँ है। ये कोरोना तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि उसके पार जाती हैं। दुनिया की पड़ताल करती हैं। ऐसी ही कविताओं का पाठ फेसबुक लाइव के माध्यम से 19 अप्रैल को किया गया। इसका संयोजन और कविताओं का पाठ कवि व जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने किया।
कर्यक्रम के आरम्भ में कौशल किशोर ने कहा कि काले कानूनों से देश चलाने की ओर सत्ता अग्रसर है। लोकतांत्रिक आवाजों को दबाया जा रहा है जिसके तहत आनन्द तेलतुमड़े और गौतम नवलखा की डाॅ अम्बेडकर जयन्ती के दिन गिरफ्तारी है। कविता संवाद के इस कार्यक्रम के माध्यम से हम इस पर अपना प्रतिवाद दर्ज करते हैं। इस मौके पर रघुवीर सहाय की कविता ‘निर्धन जनता का शोषण है/कहकर आप हंसे/लोकतंत्र का अन्तिम क्षण है/कहकर आप हंसे/सबके सब हैं भ्रष्टाचारी/कहकर आप हंसे’ के पाठ से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।
नौ कवियों की कविताएं सुनाई गयी। कवि शैलेन्द्र शांत (कोलकता) की ग़ज़ल का पाठ हुआ। कोरोना की वजह से बड़े पैमाने पर जो विस्थापन हुआ, उस दर्द को उकेरते हुए वे कहते हैं ‘रिसते दिखे पाँवों से खून, इस पर क्या लिखूं/दिखे आंखों से बहते खून, इस पर क्या लिखूं’।
इसी भाव को विस्तार देते हैं देवेन्द्र आर्य (गोरखपुर) अपने इस शेर में ‘ रस्ता है न मंजिल है न रोटी न ठिकाना/गुरबा का मेरे देश में क्या कोई वली है ? ’ आगे वे कहते हैं ‘दो दिन में ही पेड़ों की नसें पड़ गयीं ढीली/कश्मीर में सोचो कि हवा कैसी चली है?’
कोरोना ने जनजीवन पर असर डाला है कि सारे कार्य व्यापार ठप हो गये, इसे महेन्द्र नेह (कोटा, राजस्थान) अपनी ग़ज़ल में यूं व्यक्त करते हैं ‘ एक बीमारी के डर से उजड़ गयी दुनिया/कौन है इसका गुनहगार, चलो फिर सोचें’।
कोरोना काल ने आदमी की जीवनचर्या को बदल दिया है। उसने कभी लाॅक डाउन जैसे दिन नहीं देखे और सोशल डिस्टैंसिंग अर्थात देह से दूरी जैसी स्थिति से उसे कभी गुजरना नहीं पड़ा। डी एम मिश्र (सुल्तानपुर) इस कठिन दौर के बारे में अपनी ग़ज़ल में कहते हैं ‘कल लगाता था गले अब छू नहीं सकता उन्हें/मुश्किलों का दौर आया लाॅक डाउन हो गया।’ रामकुमार कृषक (दिल्ली) की ग़ज़ल के साथ उनके दोहे भी सुनाये गये । हम आपस में भले भेदभाव करें पर कोरोना की नजर में सब बराबर है। बड़े व रसूखदार लोगों की क्या हालत हुई है, यह भाव दोहे में यूं व्यक्त होता है ‘अब घर में महरी नहीं, ना दर पर दरबान/कोरोना ने झाड़ दी, शोखी शेखी शान!’ एक अन्य दोहे में कहते हैं ‘हाथ न अपना फेरिए, अपने मुंह पर आप/मुंह से कुछ करना अगर, सिर्फ कीजिए जाप !’
दिविक रमेश (दिल्ली) अपनी कविता के माध्यम से मेहनतकश लोगों की हालत का जहां वर्णन करते हैं, वहीं सत्ता की धूर्तता को सामने लाते हैं। उनके अनुसार कोरोना ने समाज की सच्चाई को सामने ला दिया है। सत्ता के पाखण्ड को उजागर करते हुए वे कहते हैं ‘वे क्षमा मांगेगे/पर चाहेंगे कि बनी रहे तुम्हारी/भूख सदाबहार,/कि बने रहें वे ही/तुम्हारी भूख मिटाने वाले देवता।’
हमारे लोकतंत्र में लोक का किस तरह अपहरण हुआ है, इस बेचैनी को भगवान स्वरूप कटियार अपनी कविता में व्यक्त करते हैं। वे जननायकों को याद करते हुए कहते हैं ‘ऐसे जलते समय में लगता है/कोई “चार्ली” होता/जो “ग्रेट डिक्टेटर” बनाने की हिम्मत करता/“संसद से सडक तक” रचने वाला/कोई बेखौफ कवि धूमिल होता/माँ, गोदान और स्पार्टकस लिखने वाले/गोर्की, प्रेमचंद और फास्ट होते’।
इस मौके पर मूसा खान अशांत बाराबंकवी की ग़ज़ल का पाठ भी हुआ। समापन हृदयेश मयंक (मुम्बई) की ग़ज़ल और मुक्तक से हुआ जिसमें वे उम्मीद की लौ को जलाए रखते हैं ‘कटेगी रात तो बिहान नया रच लेंगे/रहेगी जान तो जहान नया रच लेंगे।’ कविता संवाद का अगला कार्यक्रम 26 अप्रैल को होगा जिसमें स्त्री रचनाकारों की कविताओं का पाठ किया जाएगा।