हिन्दी व अवधी के जाने-माने कवि आशाराम ‘जागरथ’ (फैजाबाद) की चर्चित कृति अवधी काव्यगाथा ‘पाहीमाफी’ का विमोचन यूपी प्रेस क्लब, हजरतगंज, लखनऊ में 20 नवम्बर को सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच (जसम) ने किया था। अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने की। उनका कहना था कि ‘पाहीमाफी’ में आशाराम जागरथ का जीवन संघर्ष है। उन्होंने जो भोगा, देखा, समझा उसे ही इसमें गुना है। इसमें वंचित-दलित जातियों का दर्द साहित्य में दर्ज हुआ है। एक हजार से अधिक अवधी के ऐसे शब्द आते हैं जो हम भूल गये थे। इससे अवधी शब्दकोष बनाया जा सकता है। यह महागाथा है जिसमें कई गाथाएं हैं। आप इसे कहीं से शुरू कर सकते हैं। शैली और कथ्य में अदभुत साम्य है।
जसम उप्र के कार्यकारी अध्यक्ष कवि कौशल किशोर ने कृति और कृतिकार का संक्षेप में परिचय दिया और कहा कि स्मृतियों के लोप के समय में यह कृति स्मृतियों में हस्तक्षेप करती है। अतीत के प्रति मोहग्रस्त न होकर उसके लिए यह वर्तमान का संघर्ष है। यही कारण है कि ‘पाहीमाफी’ का ‘तीत बतिया’ के रूप में आज भी लिखा जाना जारी है। इसकी शैली ऐसी है कि पढ़ने आौर सुनने वाला भाव विभोर हो जाय।
इस मौके पर आशाराम ‘जागरथ’ अपनी काव्यगाथा ‘पाहीमाफी’ से कुछ अंशों का पाठ भी किया। ज्ञात हो कि पाहीमाफी बस्ती जिला का एक गांव है जो बाढ़ और सरयू के कटान से विलुप्त हो गया। गांव के नाम पर बचा है तो सिर्फ नीम का पेड़। इस काव्यगाथा का सूत्रधार यही नीम का पेड़ है। जागरथ समाज में फैले जात-पांत पर कहते हैं ‘जात-पांत मा अइसन जीयैं/जइसन मूस रहैं बिल मा/यकतनहा नीम के पेड़ गवाह/बचा बा पाहीमाफी मा’। समाज की वर्चस्ववादी ताकतों को यह कहां स्वीकार कि दलित-वंचित को हक मिले। जागरथ अपनी कविता में इस यथार्थ को स्वर देते हैं, कुछ यूं ‘कहूं से आवत रहा करेठा/हमसे बोलिस कहो बरैठा/पढ़ि लेबा के कपड़ा धोई/फानौ जिन किस्मत कै रेखा’। समाज में व्यपाप्त गैर बराबरी व भेद-भाव को कटान के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘न ऊँच-नीच, ना भेद-भाव/सबकै घर कटै कटानी/यकतनहा नीम के पेड़ गवाह/बचा बा पाहीमाफी मा’।
‘पाहीमाफी’ पर गंभीर व सघन चर्चा हुई। शुरुआत युवा आलोचक जगन्नाथ दूबे ने की। उन्होंने कहा कि तुलसी के रामराज्य के बरक्स ‘पाहीमाफी’ विभाजित-विखंडित समाज का यथार्थ प्रस्तुत करती है। जातिदंश महाकलंक के रूप में आता है। भाषा जनमानस की मनःस्थिति को पकड़ती और व्यक्त करती है। परिचर्चा में फैजाबाद से आये कवि व गद्यकार स्वप्निल श्रीवास्तव का कहना था कि जब हम दुख में होते हैं तभी बड़ा साहित्य रचा जाता है। आशाराम जागरथ ने ऐसा ही किया है। ‘पाहीमाफी’ की भाषा ठेठ अवधी है। ‘नीम के पेड़’ के माध्ययम से इसमें पीड़ित समाज की घनीभूत पीड़ा व्यक्त हुई है। यह इसी भाषा में लिख जा सकता था। लोकभाषा की शक्ति सामने आती है।
कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर का कहना था कि बोलियों को लेकर हिन्दी बनी है। ‘पाहीमाफी’ में पूरब की अवधी है। बहुत से शब्द भोजपुरी से साम्य रखते हैं। भाषा सरल-सहज है। कवि ने अपने अनुभव को कविता में दर्ज किया है। ऐसा करना आसान नहीं होता है। इसमें पीड़ा के बिम्ब हैं तो वहीं पीड़ा के कारकों पर तंज भी है। इस कृति को मैं शब्दकोष की तरह देखता हूं।
कवि व आलोचक रघुवंश मणि ने कहा कि ‘पाहीमाफी’ में गांव के अपने समय का यथार्थ बड़े भावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह ‘अहा ग्राम्य जीवन’ से अलग दलितों-वंचितों की कहानी है। नीम का पेड़़ दीपक है जो सबकुछ विलुप्त होने के बाद भी बचा हुआ है। वहीं से कवि शुरू करता है और उसके माध्यम से जो गांव के साथ ंहुआ, उसे कहता है। रघुवंश मणि का यह भी कहना था कि यह अवधी की परम्परा में होकर भी उससे अलग है। इसके छन्द मिलकर इतिवृत की रचना करते हैं। निराला ने महाकाव्य के नियमों को तोड़ा था। आशाराम जागरथ की संवेदना, पीड़ा व भावनाओं में गहराई है। कटान के समय के दुख के वर्णन में यह दिखता है।
आरडी आनन्द ने ‘पाहीमाफी’ की रचना प्रक्रिया को साझा किया और कहा कि पांच दिनों में इसे पढ़कर खत्म किया। गौरतलब है कि आर डी आनन्द पर इस कृति का यह प्रभाव था कि उन्होंने इसे लेकर आख्यानमूलक एक किताब ‘पाहीमाफी – कलात्मक जीवनराग’ लिख डाली। कार्यक्रम के दौरान इसका लोकार्पण हुआ। उनका कहना था कि बड़े इलाके में और करीब आठ करोड लोग अवधी बोलते हैं। ‘पाहीमाफी’ में बहुत से नये शब्द हैं जो कहीं नहीं मिलेंगे। आशाराम जागरथ ने नीम के गूंगेपन को तोड़ा और उसके माध्यम से मनोदशा को व्यक्त किया। इस मायने में यह सामाजिक व्यवस्था का काव्यत्मक दस्तावेज है। इसमें दुख-दारिद्रय तथा जाति-पांति में जकड़े समाज के यथार्थ को जनता की बोली-बानी में रचा गया है। यह मार्मिक भी और प्रहार करने वाली भी है। पहीमाफी गांव के रहने वाले तथा वहां से विस्थापित धनश्याम गोण्डवी ने भी अपने विचार रखे तथा इस कृति के लिए आशाराम जागरथ को अपनी शुभकामनाएं दीं।
धन्यवाद ज्ञापन जन संस्कृति मंच, लखनऊ के सह संयोजक तथा कवि व मीडियाकर्मी कलीम खान ने दिया। इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार, अनीता श्रीवास्तव, शिवाजी राय, रामकृष्ण, सूरज बहादुर थापा, तुहिन देव, आर के सिन्हा, नगीना खान, लक्ष्मीनारायण एडवोकेट, राकेश सिंह सैनी, धर्मेन्द्र कुमार, आदियोग, रमेश सिंह सेंगर, सतीश राव, मोहित कुमार पाण्डेय, अनिल कुमार, अवन्तिका राय आदि उपस्थित थे।
(कलीम खान, सह संयोजक, जन संस्कृति मंच, लखनऊ)