समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

अंतःकरण और मुक्तिबोध के बहाने

(मुक्तिबोध के जन्मदिन पर समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय का आलेख)

2017 में मुक्तिबोध की जन्मशताब्दी गुज़री है और 2018 मार्क्स के जन्म की द्विशाताब्दी है। मुक्तिबोध की रचना और विश्वदृष्टि का मार्क्स की विश्वदृष्टि से गहरा नाता है। यह जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है कि मार्क्स को गुज़रे 200 वर्ष हो गए, दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई, वे अब पुराने पड़ गए। अब मार्क्सवाद प्रासंगिक नहीं रहा। भारत में तो सत्तारूढ़ दल उन्हें यह कह कर भी नकार रहे हैं कि मार्क्स विदेशी थे उनका भारत में क्या काम आदि। तो क्या फिर मुक्तिबोध भी अप्रासंगिक हो चले हैं? उन्हें अप्रासंगिक तो सीधे कोई नहीं कह पा रहा है लेकिन खुले-ढंके रूप से उनकी विचारधारा पर हमले कम नहीं हैं और मज़ा तो यह कि ऐसा उन्हीं को ढाल बना कर किया जा रहा है।

पहले मार्क्स की प्रासंगिकता पर कुछेक बातें कर लेना अप्रासंगिक न होगा। प्रसिद्ध इतिहासकार इरिक हाब्सवाम ने 2011 के अपने एक लेख ‘मार्क्स और आज का हमारा समय’ में मार्क्स के वापसी की बात लिखी। लिखा कि “अभी हाल ही में बीबीसी द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार बी.बी.सी. के कार्यक्रम के श्रोताओं ने कार्ल मार्क्स को महानतम् दार्शनिक बताया है। इस बात की सच्चाई को लेकर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन अगर गूगल के सर्च कालम में मार्क्स का नाम टाइप करके बटन दबायें तो आपको मालूम हो जायेगा कि डार्विन और आइन्स्टीन के साथ मार्क्स ही महानतम् बुद्धिजीवी के रूप में सामने आयेंगे। एडम स्मिथ (पश्चिमी दुनिया के आधुनिक अर्थशास्त्रियों के आदि पूर्वज) और फ्रायड उनसे मीलों पीछे हैं।….
”कुछ समय पहले तक जो लेखक कम्यूनिज़्म और मार्क्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ लिया करते थे उन्होंने भी बाद में अपना रवैया बदल दिया। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण नाम है याक अताली का जिन्होंने मार्क्स के जीवन और लेखन पर लिखना शुरू कर दिया। अताली यह भी सोचते हैं कि हममें से वे लोग जो दुनिया का अलग किस्म का और बेहतर रूप देखना चाहते हैं उनसे कहने के लिये मार्क्स के पास बहुत कुछ है। अपने इस समकाल में हम कार्ल मार्क्स को कैसे देखें? सम्पूर्ण मानवता के चिंतक के रूप में अथवा इसके किसी एक हिस्से के? दार्शनिक के रूप में, अर्थशास्त्री के रूप में, आधुनिक समाज विज्ञान के संस्थापक पिता और मानव इतिहास की बुद्धिसम्मत समझ के मार्गदर्शक के रूप में? यह सब तो ठीक लेकिन जिस बिन्दु को अताली ने प्रमुखता दी है वह है मार्क्स के चिंतक रूप का सार्वभौमिक विस्तार। पारंपरिक अर्थ में यह ‘अंतरअनुशासनात्मक’ नहीं है अपितु सारे अनुशासनों को एकजुट करता है। अताली का कथन हैः “उनके पहले दार्शनिकों ने मनुष्य को एक साकल्यता, समुच्चय के रूप में देखा है लेकिन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दुनिया को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखा जो एक साथ ही राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक है।”
“इक्कीसवीं सदी में दुनिया के सामने आने वाली समस्याओं के समाधानों की हम पूर्व-कल्पना करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन अगर इन समाधानों की सफलता का कोई संयोग बनता है तो उन्हें मार्क्स द्वारा पूछे गये प्रश्नों को फिर से पूछना पड़ेगा चाहे वे मार्क्स के अनेक शिष्यों द्वारा दिये अथवा सुझाये गये उत्तरों से सहमत न भी हों।
“नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री सर जॉन हिक्स के शब्दों में: “वे लोग जो इतिहास की गति को एक निश्चित स्वरूप देना चाहते हैं, उनमें से अधिकांश मार्क्स के प्रवर्गों अथवा इन प्रवर्गों के किंचित संशोधित रूपों का प्रयोग करना चाहेगें क्योंकि कोई अन्य विकल्प उपलब्ध है ही नहीं।” (हाउ टु चेंज द वर्ल्ड, (2011) से)

आप चाहें तो इसमें एक बिल्कुल नया नाम फुकुयामा का जोड़ ले सकते हैं, जिन्होंने सोवियत रूस के पतन के साथ ‘एंड ऑफ़ हिस्ट्री’ नाम से एक लेख और बाद को किताब भी लिखी थी। इसमें ‘पश्चिम के विजय’ की स्पष्ट घोषणा के साथ कहा गया था कि बीसवीं सदी में अधिनायकवाद (पढ़ें साम्यवाद-लेखक) को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने निर्णायक रूप से हरा दिया है और यह मनुष्यता के विचारधारात्मक विकास का अंतिम बिंदु– ‘एंड पवाइंट’-था। वैश्विक स्तर पर आये आर्थिक संकट और बढ़ रही अनुदारवादी राजनीति के मद्दे-नज़र हाल ही में आई उनकी नई किताब जैसे यह कहने लगी है कि ‘इतिहास का अंत’ अभी नहीं हुआ है। बेशक, वे समाजवाद को पूंजीवादी उदार लोकतंत्र का विकल्प अभी भी नहीं मान रहे हैं लेकिन अभी वे अत्यधिक उत्पादन, कामगारों की वंचना और अपर्याप्त मांग पर कार्ल मार्क्स की समझ को सही ठहरा रहे हैं।

मुक्तिबोध मार्क्सवाद को किस रूप में देखते हैं

मुक्तिबोध अपने वक़्त में ही अताली की बात को अपने तरह से कहते हैं- “मार्क्सावादी दर्शन एक यथार्थ दर्शन है; यथार्थ विकास का, मानव संज्ञा के विकास का, दर्शन है। अतएव उसके लिए सर्वाधिक मूलभूत और महत्वपूर्ण है, जीवन-तथ्यों की वास्तविकता, जो राजनीति, समाजनीति, कला आदि को उपस्थित कराती है।…” आगे वे इस दृष्टि को साहित्य में घटित करते हुए कहते हैं- “मार्क्सावाद अगर एक विज्ञान है (जैसा कि वह है), तो वैसी स्थिति में उसके लिए तथ्यानुशीलन—जीवनगत और काव्यगत, दोनों एक साथ—प्राथमिक और प्रधान महत्व रखता है.”…..

इस पृष्टभूमि के साथ आइये अब मुक्तिबोध के जन्मशती वर्ष पर उनके सन्दर्भ में उठी ‘इमानदारी’, ‘नैतिकता’ और खासकर ‘अंतःकरण’ को लेकर बहसों पर बात की जाये। कहा गया कि मुक्तिबोध की कविताएँ राजनैतिक नहीं, ‘नैतिकता’ की कविताएँ हैं। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी और कविताओं में ‘इमानदारी’ की, ‘अंतःकरण’ की बात की, उसे बरता और उसकी आवाज़ सुनी।

बेशक, ये बातें-बहसें मूलतः गैर-प्रगतिवादी या गैर-जनवादी इदारे से आईं और यह अच्छी बात हुई। इस सन्दर्भ में गौर करने लायक कुछ अच्छी बहसें भी आईं। मुझे आजकल के आलोचक प्रवर में शुमार किये जाने को उत्सुक अशोक वाजपेयी की बातें केवल सुनने को मिलीं (इस सब पर अगर कहीं उन्होंने लिखा भी हो तो क्षमा चाहता हूँ की अब तक मैंने वह सब नहीं देखा है) लेकिन मेरे मित्र और आलोचक गोपेश्वर सिंह का एक लेख मुझे व्हाटसअप पर पढ़ने को मिला। उस लेख में ये सारी बातें बहुत सलीके और प्रतिनिधि तौर पर उठाई गई लगीं। मैंने उसे ही अपनी इस टिप्पणी का आधार बनाया है।

उक्त लेख में कहा गया और ठीक ही कहा गया है कि “लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल मुक्तिबोध के यहाँ प्रमुख है, जिसकी चर्चा प्रगतिवादी जमात में प्रायः नहीं होती।”

आगे अंतःकरण के प्रश्न को एक जरुरी सन्दर्भ देते हुए कहा गया है- “अंतःकरण का अर्थ है मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को प्रश्नांकित करना जो तब की तुलना में अब और अधिक ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध’ हो चुका है। ‘भूतों की शादी में कनात से तन’ जाने वाले इस वर्ग की ‘उदरम्भरि’ प्रवृत्ति खतरनाक रूप ले चुकी है। ‘स्वार्थों के टेरियर कुत्ते’ पालने वाले इस वर्ग के भीतर का ‘राक्षसी-स्वार्थ’ अट्टाहास कर रहा है। मुक्तिबोध की कविताएँ उस वर्ग को ‘बौद्धिक जुगाली’ से मुक्त होकर अपने अंतःकरण में झांकने और उसके आयतन को विस्तृत करने का आह्वान करती हैं।”

यह सब और इसके अलावा भी लेख में महत्व की और सही, कई बातें कही गई हैं जो विचारणीय हैं। लेकिन यहाँ से स्टीयरिंग और दिशा में मुड़ने लगती है। बहसकर्ताओं का अन्तः-उद्देश्य सामने आने लगता है, उनके द्वारा अंतःकरण को विचारधारा से भिड़ा देने का अन्तः-उद्देश्य। लेकिन उसपर कुछ देर बाद बात करना बेहतर होगा।

तो पहले ‘ईमानदारी’ और ‘नैतिकता’ के प्रश्न को ही लिया जाए कि मुक्तिबोध उसे कैसे देखते हैं। यहाँ यह भी ध्यान में रखना जरुरी होगा कि मुक्तिबोध ने ये बातें ‘सौन्दर्य के क्षणवादियों’ को ध्यान में रखते हुए या उनके जवाब में कही हैं-

“मैं सौन्दर्यानुभूति की भावार्द्र दशा में प्राप्त सम्पूर्ण अनुभवात्मक अंतर्जगत की तेजस्क्रिय सम्पन्नता की कलात्मक अभिव्यक्ति के पक्ष में हूँ। तभी आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यापरायाणता (शब्द पुराना है, नए लोग क्षमा करेंगे) प्राप्त हो सकेगी। आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यापरायणता का योग अंतःकरण में ही होता है। यदि वह अंतःकरण में न हो तो ऐसी स्थिति में आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यापरायणता दोनों दिखावा-भर है। असल में इस तरह का अंतर करना असंगत है। ‘ईमानदारी’ के भीतर ही दोनों का अर्थ व्याप्त होना चाहिए। …क्योंकि सत्य-भाव के सन्दर्भ बाह्य और अंतर, इन दोनों लोकों में एक साथ और अविभाज्य रूप से स्थित है। आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यापरायणता इन दोनों का अंतःकरण में जो संवेदनात्मक योग होता है, वह जीवन-विवेक का प्राण है…..लेखक अपने अंतर्वैभव का विकास करते हुए, वास्तविक जीवन-विवेक की पीड़ाओं में से गुजरते हुए, सामाजिक अनुरोधों और आग्रहों का ऐसा अभ्यांतारिकरण कर सकता है, कि जिनसे वे एकदम निजी और अनुभवजन्य हो उठें। संक्षेप में, लेखक-कलाकार के ये आतंरिक कार्य उसकी नैतिकता हैं। केवल रचना-कर्म ही उसका आत्म-धर्म नहीं है… ”

अब स्टीयरिंग घूमती है

लेखक कहता है “मार्क्सवादी मुक्तिबोध यदि प्रगतिवादियों की … कड़ी आलोचना कर रहे हैं तो इसलिए कि वे खुद ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ के भीतर अटके हुए नहीं हैं। उनकी दृष्टि ‘जीवन-तथ्यों की वास्तविकता’ पर भी है। जीवन और रचना में यह काम वही करेगा जो जरुरत पड़ने पर ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ का अतिक्रमण करेगा। इस अतिक्रमण का साहस वही कर सकता है जिसे अपने अंतःकरण पर भरोसा हो। यह सवाल भी वही उठा सकता है जो संगठन और विचारधारा के अतिक्रमण का साहस करता है और अन्तःकरण की आवाज सुनता है।”

संगठन तक भी बात समझ में आ सकती है, हालांकि कहीं भी और कभी भी मुक्तिबोध सिरे से प्रगतिशील आन्दोलन को न तो ख़ारिज करते हैं न ही सिरे से उसका विरोध करते हैं।

मुक्तिबोध ने अगर प्रगतिवादी आचार्यों की भूलों, उनके सैद्धांतिक रूप से पिछड़ जाने, उसको अद्यतन न बनाने और उनके द्वारा एक काव्य-प्रणाली मात्र को प्रतिक्रियावादी ठहराने की आलोचना की तो उसी के साथ अपने समय में जीवन के हर क्षेत्र में हुए अद्यतन अध्ययनों का अनुशीलन करते हुए मार्क्सवादी साहित्य-समीक्षा सिद्धांत-व्यवस्था को विकसित करने का काम भी किया, जिसका उल्लेख लेखक भी करता है। लेकिन नयी कविता के आचार्यों द्वारा उपस्थित विचार प्रणाली में इधर-उधर बिखरे हुए सत्य के अणु-परमाणुओं को बीनते हुए मुक्तिबोध ने प्रगतिवादियों से कहीं तीखी आलोचना नयी कविता के आचार्यों की की। ऐसा इसलिए कि “उनकी मुख्य लड़ाई साम्यवाद-प्रगतिवाद से थी।” इस बात को लेखक बहुत नरम ढंग से कहता है और उसके तीखेपन को हवा कर देता है।

मुक्तिबोध लिखते हैं “प्रगतिवादियों की तुलना में निःसंदेह ये नए लोग अधिक कला-मर्मज्ञ थे। किन्तु साहित्यिक प्रवृत्तियों को वे एक भिन्न प्रकार की दिशा देना चाहते थे। वे साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में, एक विशेष प्रेरणा से, अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहते थे। और वह प्रेरणा अपना एक राज दर्शन, अपनी एक राजनीति, रखती थी। विश्व में चलते हुए शीतयुद्ध से और शीतयुद्ध की भावनाओं से वे प्रेरित थे।…..उन्होंने कलाकार-व्यक्तित्व को अनेक प्रकोष्ठों में विभाजित कर दिया, मानो उन प्रकोष्ठों के बीच कोई द्वार-मार्ग न हो, ऐसे द्वार मार्ग जो प्रकोष्ठों में परस्पर-संपर्क स्थापित न करते हों, और इस तरह एक प्रकोष्ठ का दूसरे प्रकोष्ठ पर सघन और स्थायी परस्पर-प्रभाव उपस्थित न करते हों। इस प्रकार उन्होंने कलाकार-व्यक्तित्व का विभाजन कर डाला।”

उन लोगों द्वारा कलाकार के सामाजिक अनुरोध, राजनैतिक अनुरोध, नैतिक अनुरोध—इन सारे अनुरोधों को कला-बाह्य अनुरोध ठहरा देने, वास्तविक सृजन-प्रक्रिया से जिनका कोई सम्बन्ध नहीं होता, कहकर खारिज कर देने की कड़ी आलोचना करते हुए मुक्तिबोध ने कहा-“…इस प्रकार के आग्रह करना कलाकार को उसके धर्म से गिराना है, कलाकार के सृजन-प्रक्रिया पर विजातीय तत्वों को लादना है, कलाकार की सृजन-प्रक्रियात्मक मानसिक स्वतंत्रता को नष्ट करना है, उसके सृजन-प्रक्रिया के भीतर संनिविष्ट जीवन-विवेक की, उसकी स्वतन्त्र निर्णय-शक्ति की हत्या करना है, उसके आत्म-स्वातंत्र्य को भ्रष्ट करना है।”

आइये अब अंतःकरण को विचारधारा से भिड़ा देने को समझा जाये?
आगे की तर्क-योजना देखिये-

“अंतःकरण की भूमिका वैचारिक रूढ़ियों से लेखक को मुक्त करने में है। …. जगत ज्ञान जब अन्तःकरण के इलाके से गुजरता है तभी वह महत्त्वपूर्ण और भरोसे का साहित्य बनता है। ….. अन्तःकरण के रूप में मुक्तिबोध सृजन के लिए ज्ञान के साथ एक ऐसे स्पेस की ओर इशारा करते हैं जो भारत की विकसनशील चिन्ताधारा के मूल में है। जीवन और रचना में यह काम वही करेगा जो जरुरत पड़ने पर ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ का अतिक्रमण करेगा। इस अतिक्रमण का साहस वही कर सकता है जिसे अपने अंतःकरण पर भरोसा हो।“
ऐसे आलोचकों-विचारकों का असल उद्देश्य तो विचारधारा को प्रश्नांकित करना ही नज़र आता है।

पहले यह देखिये की अंतःकरण को मुक्तिबोध के हवाले से पूरी तरह भारतीय बना दिया गया- ‘अन्तःकरण के रूप में मुक्तिबोध सृजन के लिए ज्ञान के साथ एक ऐसे स्पेस की ओर इशारा करते हैं जो भारत की विकसनशील चिन्ताधारा के मूल में है।‘

इस सन्दर्भ में मुक्तिबोध क्या कहते हैं? मुक्तिबोध आत्मा, अंतरात्मा शब्द का प्रयोग अंतःकरण के अर्थ में ही करते हैं। मुक्तिबोध की एक कविता है ‘अंतःकरण का आयतन’। इस कविता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ‘अंतरात्मा और पक्षधरता’ शीर्षक से एक निबंध लिखा। यहाँ यह याद दिलाना शायद प्रासंगिक होगा कि पक्षधरता के प्रश्न को आधुनिक समय में प्रगतिशील आन्दोलन ने ही सबसे प्रमुख प्रश्न बनाया। उक्त निबंध की प्रारम्भिक पंक्तियाँ ही हैं- “पक्षधरता का प्रश्न हमारी आत्मा, हमारी अंतरात्मा का प्रश्न है।“

वे आगे कहते हैं – “मैं उस आत्मा, उस अंतरात्मा का पक्षधर हूँ और, चूँकि मेरी अंतरात्मा की हलचल और बेचैनी आपकी अंतरात्मा की हलचल और बेचैनी से मिलाती-जुलती है, इसलिए जहां तक अंतरात्मा का प्रश्न है, मैं आपका भी पक्षधर हूँ, और आप मेरे भी पक्षधर हैं। और चूँकि हम-आप-जैसे अंतरात्मावाले बहुत-से लोग इस संसार में हैं, इसलिए हम सब उन सबके और वे सब हम सबके पक्षधर हैं, चाहे वे हिन्दी क्षेत्र के हों, या अन्य भाषा-क्षेत्र के, भारत भूमि के हों, या उसके बाहर के। संक्षेप में, हम सब एक प्रवृत्ति हैं, एक धारा हैं—भाव-धारा, विचार-धारा, जीवन-धारा—और हम सब उसी धारा के अंग हैं। और हम इस धारा के पक्षधर हैं। और हम बिना इस पक्षधरता के अपने-आपको अपूर्ण, मूल्यहीन और निरर्थक पाते हैं।“
ध्यान में रखिये कि यहाँ अंतःकरण में विचारधारा भी शामिल है, जिसे प्रश्नांकित करना ही ऐसे आलोचकों-विचारकों का असल उद्देश्य है।

‘सिद्धांत-व्यवस्था’ पद का इस्तेमाल मुक्तिबोध ने भी किया है और लेखक ने भी। तो उसे विचारधारा क्यों माना जाए? इसलिये निम्न पैराग्राफ को भी देखते चला जाए ताकि कोई भ्रम न हो।

“कई बार हमारी वैचारिक चेतना और भले-बुरे का विवेक करने वाले अन्तःकरण के बीच पटरी नहीं बैठती। जो लोग वैचारिक चेतना को प्रमुखता देते हैं, वे इन दोनों के सामंजस्य की चिंता नहीं करते। वे ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने के दबाव के तहत रचते हैं और अन्तःकरण की आवाज की अनसुनी करते हैं। मुक्तिबोध के यहाँ वैचारिक चेतना और अन्तःकरण में द्वंद्व है। उनका साहित्य उनके इसी संघर्ष का परिणाम है।”

इस तरह स्पष्ट है कि अंतःकरण और विचारधारा को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा किया जा रहा है। तो वे आलोचक जो मुक्तिबोध की विचारधारा को प्रश्नांकित करने का प्रयास कर रहे हैं क्या वे बताएँगे कि मुक्तिबोध उसका अतिक्रमण कर फिर किस विचारधारा के पक्षधर बने? जिसके बगैर ‘वे अपने आपको और अपने जैसी अंतरात्मा वालों को अपूर्ण, मूल्यहीन और निरर्थक पाते हैं। वे यह बताने की जहमत नहीं उठायेंगे क्योंकि इतने मात्र से ही उनका काम बनता है।
दूसरी बात सिद्धांत-व्यवस्था शब्द का प्रयोग मुक्तिबोध ने अपने प्रगतिशील साथियों के लिए भी किया है जो उसी में अटक गए थे, लेकिन उसके लिये भी मुक्तिबोध के यहाँ ‘अतिक्रमण’ शब्द का व्यवहार कहीं भी नहीं मिलता। वे उसके लिए वे हमेशा ‘विकास’ की आवश्यकता की बात करते हैं- “मनुष्य के बौद्धिक उपादान क्रमशः विकसित होते हैं….बौद्धिक उपादान पीछे छूट जाते हैं कभी-कभी। इसलिए बौद्धिक उपादानों के निरंतर विकास की भी आवश्यकता होती है….जिस प्रकार न्यूटन का सिद्धांत आइन्स्टाइन के सिद्धांत में समाविष्ट और विकसित है।”

अन्तःकरण क्या है?

लेखक के अनुसार “जगत-संघर्ष की दृष्टि या विचारधारा मनुष्य विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करता है और चेतना संपन्न बनता है। लेकिन उसका अन्तःकरण तो उसके संस्कार, उसके अनुभव, पारिवारिक-सामाजिक परिवेश आदि से निर्मित होता है। एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान भले-बुरे का विवेक करने वाला भीतरी इन्द्रिय बोध ही अन्तःकरण का रूप ग्रहण करता है। मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष उनके अन्तःकरण और बाह्य संघर्ष के द्वंद्व का प्रतिफल है जिसके कारण वे हिंदी कविता का विशिष्ट स्वर बनकर उभरते हैं।”
आगे बढ़िये तो अन्तःकरण और अंतरात्मा अलग-अलग हो जाती है-

“उनका यह अन्तःकरण उन कलाप्रेमियों से भी उन्हें पृथक करता है जो अपनी अंतरात्मा की आवाज तो सुनते हैं लेकिन समाज की पुकार उन्हें नहीं सुनाई पड़ती।”

यानी मुक्तिबोध के पास अंतःकरण है और कलाप्रेमियों के पास अंतरात्मा है। कलाप्रेमी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ तो सुनते हैं लेकिन समाज की पुकार उन्हें नहीं सुनाई पड़ती। अर्थ यह हुआ कि मुक्तिबोध को समाज की आवाज सुनाई पड़ती है इसलिए उनका अंतःकरण कलाप्रेमियों से भी उन्हें पृथक करता है। तो क्या मुक्तिबोध को अंतरात्मा की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ती?

और आगे बढिए तो यह अंतःकरण न जाने कैसे कला-चेतना हो जाता है-
“वे उनकी समाज विमुखता की आलोचना करते हैं लेकिन उनकी कला-चेतना की तारीफ भी करते हैं।”
फिर तो यह हुआ कि कला-चेतना अंतरात्मा है और समाज-चेतना अंतःकरण!?

बहुत गड़बड़झाला लग रहा है। है न! इस अंतःकरण को लेकर ऐसे गड़बड़झाले इस लेख में और भी हैं लेकिन सब पर बात जरुरी नहीं है। आइये, देखा जाए मुक्तिबोध की समझ इस बारे में क्या है।

अंतःकरण और मुक्तिबोध

मुझे लगता है कि यह गड़बड़झाला इसलिए है कि अंतःकरण को लेकर लेखक की दृष्टि भाववादी है। पहले ही कहा जा चुका है कि मुक्तिबोध आत्मा, अंतरात्मा को अंतःकरण के अर्थ में ही प्रयोग करते हैं। इसी तरह अंतःकरण को भी आत्मा और अंतरात्मा के अर्थ में। मुक्तिबोध की एक कविता है, ‘अंतःकरण का आयतन’। लेखक ने इसका भी ज़िक्र किया है। आयतन भौतिकशास्त्र का शब्द है और यहाँ इसका प्रयोग भी कवि ने ठोस भौतिक अर्थों में ही किया है। किसी सिक्स्थ सेन्स, इंट्यूशन या गैर-भौतिक अर्थ में नहीं। मुक्तिबोध उसे धारा कहते हैं—भाव-धारा, विचार-धारा, जीवन-धारा—और कहते हैं हम सब उसी धारा के अंग हैं। ये सब धारा भी भौतिक ही हैं। लेखक भी मानता है कि उसका निर्माण होता है, इसी जीवन-जगत में। लेकिन लेखक अपने लेख में इस बात को इस तरह बरतता है कि दुविधा बनी रहे। उसका मन तो ‘अंतःकरण’ को ‘इंट्यूशन’ जैसा ही कुछ मानने को करता है लेकिन वह इसे साफ़ नहीं कहता। शायद इस नाते भी कि सामने मुक्तिबोध हैं।

आगे मुक्तिबोध उसके निर्माण और विकास की प्रक्रिया को इंगित करते हुए कहते हैं- “हम अपनी अंतरात्मा की और अपनी जैसी अन्य अंतरात्माओं की पक्षधरता और मजबूत बनायेंगे। इस धारा को दृढ़ करेंगे, विस्तृत करेंगे। और अगर विपक्षी हमारी धारा पर हंसते हैं, धिक्कारते हैं, चिड़चिड़ाते है, तो उन्हें हंसने दो या खीझने दो, क्योंकि वे वे हैं और हम हम हैं।”

आगे मुक्तिबोध यह भी कहते हैं कि पिछड़ी हुई और असंस्कृत अंतरात्माएं भी हो सकती हैं, यथार्थ से अपनी दूरी को और बढ़ते हुए। आज के सन्दर्भ में देखिये तो ऐसी आत्माएं सबकुछ देखते हुए अपने स्वार्थ में पतन और नृशंसता की नई ऊचाइयां छू रही हैं। यह भी कहा कि “जिस समाज में हर चीज़ जब खरीदी और बेची जाती है, जहां बुद्धि बिकती है, और बुद्धिजीवी-वर्ग बुद्धि बेचता है अपने शारीरिक अस्तित्व के लिए, जहां उदारवादी की जगह उदरवादी हुआ जाता है, जहां स्त्री बिकती है, श्रम बिकता है, वहां अंतरात्मा भी बिकती है। वहां अंतरात्मा का प्रश्न ही नहीं उठता।” हाँ यह उठता है और खूब उठता है धनी वर्ग के यहाँ, क्योंकि ‘वह विक्रीता आत्माओं द्वारा, अपने प्रभाव और जीवन को स्थाई बनाता है।‘

जो हो फिर भी मुक्तिबोध खुद से और इसके जरिये हम सब से यह प्रश्न पूछते हैं “कि हमारी अन्तरात्मा कहाँ तक विकसित है! स्वयं के अनन्यीकरण, इतरीकरण के साथ, मैं कहाँ तक जगत के साथ, अनन्यीकरण और उसका स्वकीयीकरण कर सका हूँ? दूसरे शब्दों में, अपनी अंतरात्मा के प्रयोजन को मैं कहाँ तक दृढ़ कर सका हूँ।” गौर करिए; यहाँ मुक्तिबोध ‘अंतःकरण’ के बारे में एक नई बात कहते नज़र आते हैं। वह यह कि ‘अंतःकरण’ का एक निश्चित प्रयोजन भी होता है। आगे वे इस ‘प्रयोजन पर जोर देते हैं।

वे कहते हैं कि “आत्मालोचन नि:संदेह आवश्यक है। जब तक हमारे कार्य तथा अनुभव प्राप्त ज्ञान से संपादित आत्म-संशोधन अंतरात्मा के प्रयोजन को ही दृढ़ और बलवान करते हैं, तभी तक उनकी सार्थकता है….” ऐसा इसलिये क्योंकि बहुतेरी बाधाएं, स्वयं के बनाए जाल, वर्ग की खाइयाँ, अहं आदि मन को रास्ते से भटकाते रहते हैं और इसके वशीभूत हो जाने पर संपादित आत्मसंशोधन आत्मा के प्रयोजन से हट जा सकता है, यहाँ तक कि विकृत भी हो सकता है।

इस सन्दर्भ को स्पष्ट करने के लिये अपने निजी अनुभव को सामने रखते हुए वे कहते हैं – “प्रयोजन मेरे निजत्व का मूल चक्र है।“ और प्रश्न करते हैं- “ये प्रयोजन क्या हैं?”

इस प्रयोजन को लेकर मुक्तिबोध ने जगह-जगह बताया है। उसे यहाँ देने और विश्लेषित करने की जरुरत शायद नहीं है। संक्षेप में ये प्रयोजन समाजवादी प्रयोजन ही हैं। इसपर कई जगह, कई सन्दर्भों में मुक्तिबोध ने अपनी बात कही है। मेरे मित्र गोपेश्वर सिंह भी उन अंशों से गुज़रे होंगे और आप भी चाहें तो उन्हें स्पष्ट और किंचित विस्तार के साथ ‘मुक्तिबोध रचानावली’ के खंड तीन के दो निबंधों ‘समीक्षा की समस्याएँ’ और ‘अंतरात्मा और पक्षधरता’ में खुद देख सकते हैं और देखना चाहिए भी।
मित्र आलोचक गोपेश्वर सिंह के इस लेख में कई सार्थक बिंदु हैं जो बहस के लिए उकसाते हैं। यह लेख की सार्थकता है। और इसने मुझे भी इस सन्दर्भ में अपनी बात कहने के लिए उकसाया। यह इस महत्वपूर्ण विषय पर मेरा एक विनम्र हस्तक्षेप भर है। इसमें लेख को समझने की भी भूल हो सकती है और मेरी बातों में ग़लतियाँ भी होंगी। इसपर बात बढ़े, जो कि बढ़नी भी चाहिए तो खुद को, अपने समय के सवालों को, उससे जूझने के रास्तों को समझने में शायद मदद मिले। अभी तो हम-
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदंती
से आगे बढ़ना तो दूर इसी में और उलझते जा रहे हैं।

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