समकालीन जनमत
शख्सियतसाहित्य-संस्कृति

व्यक्तित्व में सरल और विचार में दृढ़: राजेन्द्र कुमार

विनोद तिवारी

पचहत्तर पार : राजेंद्र कुमार
राजेंद्र सर हमारे प्रिय अध्यापकों में रहे हैं । वह अपने व्यक्तित्व में नितांत सहज, सरल और साधारण हैं । मनुष्यता इस सादगी, सहजता और सरलता का सत्त है । परंतु, आलोचना में वे अपनी सोच, धारणा और विचार में पूरी तरह से दृढ़ और अटल हैं । बीच का कोई रास्ता निकाल कर वह निकल जाएँ, ऐसा कहीं नहीं मिलता ।

राजेंद्र कुमार यह मानते हैं कि असंतोष, संशय और बौद्धिक साहस रचना और आलोचना दोनों के लिए जरूरी तत्व हैं । राजेंद्र कुमार की आलोचना में ये तीनों तत्व मौजूद हैं ।

समकालीन हिंदी रचना और आलोचना दोनों पर राजेंद्र कुमार की गहरी नजर रहती है । वह आज भी नए से नए रचनाकारों और आलोचकों को पढ़ते हैं । उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, कहीं कुछ गलत है तो, इशारों-इशारों में संकेत भी कर देते हैं । वह रचना और आलोचना के समकालीन परिदृश्य से आश्वस्त तो हैं पर उनकी कुछ प्रवृत्तियों से खासे विचलित भी हैं, खासकर; उन दो प्रवृत्तियों से बहुत अधिक, जिसमें से पहली प्रवृत्ति है समकालीन आलोचना का ‘प्रायोजित आलोचना’ के रूप में रेड्यूस होते जाना और आलोचना को केवल रचनाकार से संबंध और मैत्री निभाने के लिहाज से प्रचार-प्रसार का माध्यम भर बना देना ।

दूसरी प्रवृत्ति है, आलोचना-कर्म को ‘पौरोहित्य-कर्म’ में बदल देना – “कुछ आलोचक लेखकों को अपनी ओर अभिमुख करके तुरंत एक प्रलोभनकारी या बौद्धिक सम्मोहन की मुद्रा में आने की स्पृहा करने लग गए । लेखकों के बीच अपनी उपस्थिती का उन्होने प्रभामंडल बनाया और यह आभास कराया कि श्रेष्ठता की सूची कोई भी तैयार करे, नाम तो उसमें वही-वही शामिल किए जाएंगे जिन्हें आलोचक चुनेगा ।

आलोचना के इसी मोड़ पर कई लेखक – खासतौर से नए भटक जाते हैं । प्रतिभा को आत्मसंघर्ष के जरिये तपाकर निखारने देने का रास्ता कितना भी लंबा हो, मगर सच्ची रचनात्मक ऊर्जा का परिचय तो इसी पर चलने वाला लेखक दे पाता है । कुछ लेखक, जो वाकई प्रतिभाशाली होते हैं, आलोचकों द्वारा इस तरह लोक लिए जाते हैं कि उनका सहज विकास अवरूद्ध हो जाता है । ऐसे लेखकों में यदि आत्मसंघर्ष का धैर्य न हो तो वे आत्म-प्रतिष्ठा के लिए इतना ही पर्याप्त मान बैठते हैं कि कोई आलोचक किसी न किसी बहाने, कहीं न कहीं उनके नाम का भी उल्लेख कर दे । इस नीयत से वे अपने समाज से संस्कारित होने के बजाय किसी विशिष्ट आलोचक से संस्कारित होने को आतुर हो उठते हैं । आलोचना कर्म तब एक पौरोहित्य बन जाता है । यानी कर्म नहीं कर्म-कांड; ऐसा कर्म जो समाज द्वारा साहित्य से की जाने वाली अपेक्षाओं के औचित्य-अनौचित्य को समझने का खुला मौका लेखक को नहीं देता ।”

(विनोद तिवारी दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं ।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion