स्मृति दिवस पर विशेष
1917 ईस्वी में रूस में सम्पन्न हुई मजदूरों की क्रांति ने सारी दुनिया के समाजों के प्रतिक्रियावादी तत्वों को भयभीत, चौकन्ना और आक्रामक बना दिया था। विचारधारा के स्तर पर जो फासीवाद विगत शती से ही आकार ग्रहण करता आ रहा था, वह प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और इटली में राजनीतिक सत्ता पर काबिज हो गया। इनके प्रभाव में यूरोप के और भी देशों में फासीवादी दल अस्तित्व में आये। एशिया में जापान का एक बड़ी फासिस्ट ताकत के रूप में उदय हुआ। भारत में इस समय आजादी का संघर्ष नये और अधिक आक्रामक चरण में प्रवेश कर रहा था। किसानों और श्रमिकों के संगठन वजूद में आ गए थे और उनके जुझारू आंदोलनों ने आजादी की मांग को जनवादी मोड़ देना शुरू कर दिया था। ठीक इसी समय भारत में हम फासिस्ट विचारधारा का उद्भव देखते हैं। यदि हम कालगत समानता पर गौर करें तो इटली-जर्मनी के फासीवाद के साथ भारतीय फासीवाद के गहन सम्पर्क के संकेत मिलते हैं। हिटलर की नफरत की भावना से ओतप्रेत किताब ‘मीन कैम्फ’ का अंग्रेजी संस्करण दुनिया को 1938 में उपलब्ध हुआ। इसी समय मुसोलिनी की रचना ‘कैरेक्टर ऑफ रेस’ आई जिसमें आर्य नस्ल को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए इटली के लोगों को आर्य नस्ल का बताया गया। गौरतलब है कि एम एस गोलवलकर की किताब ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ का प्रकाशन वर्ष भी 1938 ही है।
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में आजादी की लड़ाई के अग्रणी नेताओं में से एक, जवाहरलाल नेहरू हमें फासीवादी खतरे के प्रति सजग दिखाई देते हैं। ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में वे लिखते हैं-“जब से हिटलर सत्ता में आया तभी से मैंने नाजी तौर-तरीकों और प्रोपेगैंडा का गहन अध्ययन करना शुरू कर दिया था। मैं आश्चर्य चकित था कि भारत में भी ठीक उसी प्रकार की चीजें घटित हो रही थीं।”
एक मजबूत प्रचार-तंत्र के जरिये प्रोपेगैंडा करना और झूठ को सच में तब्दील करना फासीवादी कार्यप्रणाली की अहम विशेषता है। आज इसे हम कहीं बृहद स्तर पर अपनी आँखों से अपने समाज में घटित होता देख रहे हैं।सुखद आश्चर्य है कि नेहरू 30 के दशक में न केवल इसे पहचानते थे बल्कि अपनी सजगता के चलते इसका शिकार बनने से बचे भी रहे। नेहरू की पत्नी कमला नेहरू के निधन पर मुसोलनी ने शोक-संदेश भेजे और मिलकर दुख व्यक्त करने का आग्रह किया। नेहरू के अस्वीकार के बावजूद यह आग्रह जारी रहा। यूरोप से भारत यात्रा के दौरान जब जब नेहरू का जहाज रोम हवाई अड्डे पर रुका तो एक उच्चपदस्थ अधिकारी ने पुनः उनसे मुसोलनी से मिलने का आग्रह किया। उसका कहना था कि आपको बस उनसे हाथ मिलाना है और उनकी संवेदनायें प्राप्त करनी है। आखिर नेहरू नहीं माने। नेहरू के ही शब्दों में इसकी वजह निम्न थी:-
“मैं हाल में घटित कई ऐसी घटनाओं को जानता था जिसमें इटली आने वाले भारतीय विद्यार्थियों और अन्य लोगों का उपयोग, उनकी इच्छा के और कई बार तो बिना उनकी जानकारी के, फासिस्ट प्रोपेगेंडा के लिए कर लिया गया।इसी तरह गांधीजी का एक जाली साक्षात्कार भी 1931 में ‘Giornal the Italia’ में प्रकाशित कराया गया था।”
बहुत साफ है कि नेहरू ने आरंभ में ही फासीवादी विचारधारा के मानव-विरोधी चेहरे को पहचान लिया था और उसे निहायत त्याज्य और गर्हित किस्म की चीज समझते थे। किंतु भारत में तत्समय मौजूद भूस्वामियों के प्रभुत्व वाले साम्प्रदायिक फासिस्टों का रुख इसके ठीक विपरीत था।
मुस्लिम लीग ने 1937 में आठ प्रान्तों में क़ायम हुई कांग्रेसी सरकारों के विरुद्ध मुसलमानों के उत्पीड़न को लेकर जोरदार प्रचार अभियान चलाया। ‘पीरपुर रिपोर्ट’ और ‘शरीफ रिपोर्ट’ में यह अभियान शिखर पर पहुँच गया।रोचक है कि आरोपों की जाँच मुख्य न्यायाधीश मॉरिस गवॉयर से कराने के कांग्रेस के प्रस्ताव को लीग ने अस्वीकार कर दिया। डिसकवरी ऑफ इंडिया में नेहरू लिखते हैं कि मुसलमानों की स्थिति की तुलना लीग के प्रवक्ता ने चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलैंड के प्रान्तों के (कथित तौर पर) बदहाल जर्मनों से की। विदित है कि सुडेटनलैंड में जर्मनों पर अत्याचार का प्रोपेगेंडा खड़ा कर ही हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को अपने नाजी अभियान का ग्रास बनाया था।
इतिहास के इस चरण में हिंदू सम्प्रदायवादियों का फासिस्ट चेहरा खुलकर सामने आया। उन्होंने यूरोपीय फासीवादियों को अपने-अपने राष्ट्रों का सेवक माना और उनको खुला समर्थन व्यक्त किया। साथ ही उनके विचारों को भरतीय समाज में भी लागू करने के लिए गम्भीर वैचारिक और सांगठनिक तैयारी शुरू की। नस्ल, भाषा, रक्त और धर्म की शुद्धता और श्रेष्ठता के विचार को प्रसारित करने का अभियान शुरू हुआ। वी डी सावरकर और एम एस गोलवलकर ने हिंदुत्व के राजनीतिक दर्शन की अवधारणा प्रस्तुत की जो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आंदोलन और किसान-मजदूर-दलितों और स्त्रियों बढ़ते आंदोलनों के दबाव में यूरोपीय फासीवादी विचारधारा के साथ अंतर्क्रिया का परिणाम है। हिटलर के समर्थन में सावरकर लिखते हैं:- “यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिटलर को अनिवार्यतया इसलिये राक्षस मानें क्योंकि वह नाजी है और चर्चिल को महज इसलिए देवता मानें कि वह स्वयं को लोकतांत्रिक कहता है। नाजियों ने जर्मनी की रक्षा उन परिस्थितियों में की है जिसमें उनको डाल दिया गया था।इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता।” खुद सावरकर का उपरोक्त कथन फासीवादी प्रोपेगेंडा का अच्छा उदाहरण है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के साथ चर्चिल के रिश्ते हमेशा बहुत खराब रहे। भारत में जो हिटलर और नाजीवाद के विरोधी थे वे हरगिज चर्चिल के प्रशंसक नहीं थे जैसाकि उपरोक्त कथन में कहने का प्रयास किया गया है।
भारत में फासीवादी विचारधारा का व्यवहारिक निदर्शन करते हुए एम एस गोलवलकर ने लिखा:- “भारत में रह रही विदेशी जातियाँ या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाएं; हिंदू धर्म के प्रति सम्मान और श्रद्धा रखना सीखें; हिंदू नस्ल और संस्कृति का गौरवगान करें और अपने स्वतंत्र वजूद को समाप्त कर खुद को हिंदू नस्ल में समाहित करें या फिर हिंदू राष्ट्र की अधीनस्थ स्थिति में रहें; बिना किसी चीज का दावा किये, बिना किसी विशेषाधिकार के, बिना किसी प्राथमिकता की अपेक्षा के, यहां तक कि नागरिक अधिकारों के बिना।”
प्रतिक्रियावादी ताक़तों के मध्य फासीवाद के प्रति बढ़ती ललक के पीछे भारतीय समाज में आ रहे ऐतिहासिक बदलाव थे। भगतसिंह के बलिदान ने युवाओं और छात्रों में आमूल बदलाव की इच्छा को जन्म दिया था। महात्मा फुले और अम्बेडकर का आंदोलन अछूतों की समस्या को वृहद स्तर पर उठाने में कामयाब हो रहा था। कराची और फैजपुर कांग्रेस में पारित किसानों से सम्बंधित प्रस्ताव कांग्रेस पर बढ़ते वामपंथी प्रभाव को दर्शाते हैं। इससे भूस्वामी वर्ग चौकन्ना हो रहा था। 1936 में तमाम प्रांतीय कृषक संगठनों को एक मंच पर लाकर अखिल भारतीय किसान सभा अस्तित्व में आ चुकी थी जो स्वामी सहजानन्द के नेतृत्व में अधिकाधिक जुझारू रुख अख्तियार करती जा रही थी। रियासतों की जनता शेष भारत की जनता के साथ ही आंदोलित होकर रजवाड़ों को चुनौती दे रही थी जो प्रतिक्रियावाद के सबसे मजबूत गढ़ थे। किसानों-मजदूरों-रियासतों के आंदोलनों को काँग्रेस की तरफ से प्रायः सबसे पहले और सबसे मजबूत समर्थन नेहरू की तरफ से मिलता था। यह बहुत स्वाभाविक था कि वे देश की फासीवादी ताक़तों के निशाने पर सबसे पहले आते। यह क्रम आज तक जारी है। नेहरू के नाजी जर्मनी के विरोध का विरोध करते हुए सावरकर ने कहा कि हम जर्मनी को बताने वाले कौन होते हैं कि वे क्या करें और क्या न करें? वे लिखते हैं:-“निश्चय ही हिटलर पंडित नेहरू से बेहतर जानते हैं कि जर्मनी के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं।”
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान देश और दुनिया ने पहली बार फासीवादी बर्बरता के ताप को महसूस किया। जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के नेता के तौर पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर फासिज्म के विरुद्ध सशक्त भूमिका निभाई।कहना न होगा कि विदेश नीति के मोर्चे पर उनको अधिक सफलता मिली।आजादी की लड़ाई के दौरान नेहरू कांग्रेस की विदेश नीति निर्धारण में अग्रगण्य भूमिका निभाते रहे थे। इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार:-“अंतर्राष्ट्रीय मामलों में कांग्रेस का ढर्रा स्पष्ट रूप से वामपंथ ने ही तय किया जिसका श्रेय मुख्यरूप से जवाहरलाल नेहरू के सुसंगत समर्थन और नेतृत्व को जाता है।”
नेहरू ने अबीसीनिया, स्पेन, चेकोस्लोवाकिया तथा चीन पर फासीवादी हमले का विरोध किया। उस दौर में जब ब्रिटेन और फ्राँस जर्मनी का तुष्टीकरण इस उम्मीद पर कर रहे थी कि नाजी जर्मनी सोवियत संघ में गठित मजदूरों की सरकार को तहस-नहस कर देगी, नेहरू ने ब्रिटेन और फ्राँस की कड़ी आलोचना की। चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी के बर्बर अधिकार के सम्बंध में उन्होंने टिप्पणी की कि” ब्रिटेन और फ्राँस चेकोस्लोवाकिया को दबोचे हुए थे जब जर्मनी ने उसके साथ बलात्कार किया।”
1932 में नेहरू मैड्रिड की रक्षा कर रहे इंटरनेशनल बिग्रेड से एकजुटता प्रदर्शित करने के उद्देश्य से स्पेन गये। उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने भी गणतंत्रवादी स्पेन और चीन पर फासीवादी हमले की भर्त्सना की थी।चीनी नेता चु-ते की अपील पर कांग्रेस ने चीनी देशभक्तों की मदद के लिए डॉ कोटनिस के नेतृत्व में चिकित्सा दल चीन भेजा। डॉ कोटनिस को साम्राज्यवाद विरोधी इस संघर्ष में अंततः शहादत मिली और वे भारत में अंतरराष्ट्रीयतावाद के अमर प्रतीक बन गये।
फासीवाद के संदर्भ में नेहरू कभी भी ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की नीति के हिमायती नहीं हुए। विश्वयुद्ध के दौरान जब जापानी बर्मा तक विजय हासिल करते चले आये और भारत उनके हमले की जद में आ गया तब नेहरू ने जापानी आक्रांताओं के विरूद्ध छापामार प्रतिरोध अपनाये जाने पर बल दिया। गांधीजी की तरह उन्होंने भी कभी नहीं माना कि जापानी मुक्तिदाता हो सकते। फासीवादी सत्ता से यह उम्मीद करना कि वह किसी भी मानव समाज के लिए आजादी और लोकतंत्र लाएंगे, निर्मूल है। दुर्भाग्य से आजादी के बाद समाजवादियों ने नेहरू की यह सीख संजो के नहीं रखी और कांग्रेसी भ्रष्टाचार के विरोध में उन्होंने फासीवादी ताक़तों से भी हाथ मिला लिया।यह भूल बार-बार दुहरायी गई जिसका परिणाम हमारे सामने है।
घरेलू मोर्चे पर नेहरू को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कहीं अधिक द्वंद से गुजरना पड़ा। भारतीय आजादी के लिए छेड़ा जाने वाला कोई भी आंदोलन निश्चय ही धुरी शक्तियों के विरुद्ध मित्र शक्तियों को कमजोर करता। दूसरी तरफ आजादी और लोकतंत्र के लिए विगत कई दशकों से चला आ रहा भारतीय जनता का महान संघर्ष था। 1941 के आखिरी में जर्मनी के सोवियत संघ पर हमले ने और जापानी सेनाओं की दक्षिण-पूर्व एशिया में चमत्कृत कर देनी वाली सफलता ने तनाव को और बढ़ा दिया। एक तरफ रूस और चीन का भविष्य दांव पर था तो दूसरी ओर फासीवादी सेना दरवाजे तक आ पहुंची थी। 42 में आये क्रिप्स मिशन के साथ किसी समझौते पर पहुँचने के लिए नेहरू व्यग्र रहे।किन्तु चर्चिल के घनघोर साम्राज्यवादी नजरिये के चलते समझौता सम्भव न हो सका। युद्ध जनित स्थितियों में भारतीय जनता की बदहाली बढ़ रही थी और गांधीजी आश्चर्यजनक रूप से ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आक्रामक होते जा रहे थे।नेहरू की मनःस्थिति को इतिहासकार सुमित सरकार ने सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:-
“क्रिप्स मिशन के असफल होने के बाद 27 अप्रैल से 1 मई तक चलने वाली वर्किंग कमेटी के अत्यंत महत्वपूर्ण अधिवेशन में गांधीजी के कड़े रवैये का समर्थन करने वालों में पटेल,राजेन्द्र प्रसाद और कृपलानी जैसे दक्षिण पंथी थे तो समाजवादी (अच्युत पटवर्धन और नरेंद्र देश) भी थे,जबकि नेहरू ने स्वयं को परम नरम दलीय राजगोपालाचारी और भूलाभाई देसाई के साथ खड़ा पाया।”
अंततः अगस्त में पारित भारत छोड़ो प्रस्ताव के समय केवल कम्युनिस्टों ने अंतरराष्ट्रीयतावाद को तरजीह दी।नेहरू ने एक जगह इस बेबसी को लिखा भी है कि “जब राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयतावाद में संघर्ष होता है तो राष्ट्रवाद जीत के लिए विवश होता है।”
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी नेहरू फासीवद को लेकर चौकन्ने बने रहे।देश के विभाजन, विभाजन जनित त्रासदी और गांधीजी की हत्या ने उनको सन्नद्ध कर दिया था।पूंजीपति वर्ग के साथ ही वे भारतीय समाज मे विद्यमान भूस्वामी वर्ग की सशक्त उपस्थिति को लेकर जागरूक थे।यहाँ तक कि मध्य वर्ग को लेकर भी उनकी अपनी शंकाएं थीं। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि जर्मनी में फासीवाद की शक्ति का मुख्य आधार यही वर्ग था।हम अपने वर्तमान अनुभवों से समझ सकते हैं कि उनकी शंकाएं कितनी वाजिब थी।
इन स्थितियों में नेहरू ने फासीवादी समस्या का स्थायी हल देश में समाजवादी ढंग के समाज की स्थापना में पाया। वे इसके लिए प्रतिबद्ध थे। किंतु समाजवाद को लेकर उनकी अपनी धारणा थी और उसे पाने को लेकर अपना तरीका था।1948 में जय प्रकाश नारायण को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं कि अपरिपक्व स्थिति में समाज पर वामपंथ को थोपना प्रतिक्रियावाद को मजबूत बनाएगा। उनकी इच्छा जनता के बीच समाजवादी विचार को धीरे-धीरे लोकप्रिय बनाकर आम सहमति के साथ आगे बढ़ने की थी। वे मानते थे कि भारत मे वामपंथ घटना के रूप में नहीं, प्रक्रिया के रूप में आना चाहिए। संक्षेप में, वे अहिंसात्मक ढंग से संसदीय लोकतंत्र के रास्ते क्रमिक रूप से आगे बढ़ना चाहते थे।इस दिशा में उठाये गए प्रत्येक कदम को वे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहते थे। आजकल यह शब्द खास प्रकार के युद्धवादी अर्थ में लोकप्रिय है।
फासीवाद का समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ नैसर्गिक विरोध है। ये सिद्धान्त आजादी, बराबरी और सामाजिक न्याय को मजबूत बनाते हैं। जबकि फासीवाद का बल नस्लीय और धार्मिक श्रेष्ठता तथा अतीत के गौरवगान पर रहता है। यह दृष्टि उसे यथास्थितिवादी/प्रतिक्रियावादी बनाती है।वह सामाजिक व्यवस्था में वर्चस्वशाली तबकों के हितों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए चलित होता है। नस्ल, धर्म और राष्ट्र का गौरवगान जनता को बरगलाने के लिए किया जाता है।फासिस्ट विचारधारा के चिंतक कभी नारी, दलित,अछूत; गरीबी,अशिक्षा, स्वास्थ्य और आदिवासी, किसान, मजदूर की स्थितियों पर कोई विमर्श नहीं करते। भारत में वामपंथी दलों के अलावा नेहरू ऐसे नेता के रूप में सामने आते हैं जो फासिस्ट विचारधारा के न केवल आजीवन विरोधी रहे वरन इसकी कार्यनीति और इसके विद्यमान सामाजिक-आर्थिक आधार को विश्लेषित करने का प्रयत्न करते हैं।
किंतु अहम सवाल भारत में फासीवादी तत्वों को मिली सफलता का है। नेहरू की संसदीय कानूनों के जरिये, अहिंसक ढंग से क्रमिक रूप से और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा के प्रसार के द्वारा समाज को रूपांतरित करने की पद्धति विफल सिध्द हुई। अंततः अपने सारे लक्षणों के साथ फासीवाद हमारे सामने है। यह सच है कि इस विफलता के लिए अकेले नेहरू नहीं जिम्मेदार हैं। बल्कि यह तत्कालीन भारतीय समय-समाज की विफलता भी है। लेकिन यह भी सच है कि वे सफलता के साथ भूमि सुधार नहीं ला सके। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संगठित संघर्ष नहीं छेड़ सके। उनकी यह सोच भी गलत सिद्ध हुई कि आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ साम्प्रदायिकता की समस्या स्वतः समाप्त हो जाएगी। वे स्वयं कांग्रेस में मौजूद दक्षिण पंथी तत्वों को नियंत्रित करने में विफल रहे।फासीवाद के विरुद्ध प्रतिबद्धता और गहन समझ के बावजूद इस लड़ाई में उनकी विफलता यह बतलाती है कि इस समस्या से निपटने का रास्ता एक ही है और वह है इसकी सामाजिक-आर्थिक जड़ों पर प्रहार। इसका एक ही वास्तविक रास्ता वर्ग-संघर्ष है। शोषित जन की एकता जाति-धर्म से परे जाकर शोषकों के विरुद्ध सड़क पर चलने वाले संघर्ष से ही स्थापित हो सकती है। इसके बिना हमारी लड़ाई वस्तुतः समस्या से नहीं, उसकी छाया से ही चालित है।
किन्तु नेहरू की आस्था संसदीय लोकतंत्र और गांधीजी के साधन के पवित्रता के सिद्धांत पर बढ़ती गई थी। तीस के आसपास उनकी जिस वैचारिकी की प्रशंसा भगतसिंह ने की थी वह आजादी के समय और उसके बाद जस की तस नहीं रही थी। तेलांगना के किसान विद्रोह (1946-1951)के प्रति भारत सरकार ने भी दमन का वही नजरिया अपनाया जो पूर्व की निजाम शाही का था। जबकि आजादी के ठीक पहले तक किसानों का अप्रतिम छापामार प्रतिरोध आजादी की लड़ाई का ही विस्तार था।वामपंथी प्रधानमंत्री के इस रवैये से कम्युनिस्ट आहत हुए।हालाँकि एक नजरिया यह भी है कि नेहरू भी आजाद भारत के उनकी नेतृत्व में गठित सरकार के विरुद्ध कम्युनिस्टों के विद्रोह जारी रखने के निर्णय से आहत थे।महान कवि पाब्लो नेरुदा जब आजाद भारत में सोवियत प्रतिनिधि के बतौर आये तो उनके साथ नेहरू के उपेक्षापूर्ण व्यवहार की वजह यही बताई जाती है। किंतु इस बात की संगति आजाद भारत मे केरल में गठित पहली गैरकांग्रेसी वामपंथी सरकार को बर्खास्त करने और पुनः उसी राज्य में सम्प्रदायवादी मुस्लिम लीग के साथ सरकार बना लेने से नहीं बैठाई जा सकती। ऐसा ही विचलन 62 के युद्ध के दौरान आर एस एस को दिल्ली की परेड में आमंत्रित करना था।वस्तुतः 1937 के आसपास लीग की व्यापक साम्प्रदायिक उभार के समय से ही नेहरू यह समझ गए थे कि बिना सामाजिक-आर्थिक संघर्ष को तीव्र किये साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात सम्भव नहीं।उन्होंने ऐसा अभियान चलाने की घोषणा भी की। किन्तु वर्ग संघर्ष से बचने की उनकी और कांग्रेस की इच्छा के चलते अभियान की विफलता निश्चित थी। उल्टे प्रतिक्रियावादी और चौकन्ने हो गए। आजादी के बाद की कहानी भी इससे अलग नहीं है। आगे सोवियत संघ के अवसान और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद जब कांग्रेस ने समाजवाद की राह भी त्याग दी तो फासीवाद के उभार का राजमार्ग तैयार हो गया।
(सन्दर्भ ग्रन्थ-भारत का स्वतंत्रता संघर्ष-विपिन चन्द्र,आजादी के बाद भारत-विपिनचन्द्र,आधुनिक भारत (1885-1947)-सुमित सरकार,गोलवलकर की वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड का आलोचनात्मक पाठ-शमशुल इस्लाम, डिस्कवरी ऑफ इंडिया-जवाहरलाल नेहरू,इंडिया आफ्टर गांधी-रामचन्द्र गुहा,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड-एम एस गोलवलकर।)
(डिस्क्लेमर- यह लेखक के निजी विचार हैं।)