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प्रकृति के प्रांगण में मानव की विनाश लीला!

हर शहर कोहरे के साये में लिपटा हुआ है। हर तरफ़ सांसें उखड़ रहीं हैं और हर जिंदगी परेशान सी है; यह सब क्यों हो रहा और इतने मुश्किल हालात किसकी वजह से हैं?
धरती पर एक मानव ही वह जीव है, जिसके विकास और विस्तार के लिए परिवार, शासन-अनुशासन और शिक्षण संस्थाएं स्थापित की गई हैं, ताकि वह इस ग्रह (धरती) का बेहतर जीव बन सके। मगर उससे यह अब तक न हो पाया, जबकि धरती पर उसे आए हुए हजारों साल हो गए हैं। इस मामले में उसका ट्रेक रिकार्ड शेष जीवों की तुलना में कहीं नहीं ठहरता। अड़ियल और नामुराद बच्चे की तरह मानव प्रकृति से वफादारी निभाना अभी तक नहीं सीख पाया। यह सदी इंसान और धरती के संबंध के लिहाज़ से बेहद नाजुक रही है। इंसान अपनी करनी से धरती के जीवन को तबाह कर रहा है।
पर्यावरण चिंतकों का मानना है कि मानव धरती का सबसे महंगी संतान साबित हुआ है बिल्कुल अमीरों की बच्चों की तरह, जिन्हें करुणा और प्रेम का पाठ पढ़ाने पर पर हजारों रूपए के वारे-न्यारे हो जाते हैं, जबकि दूसरे जीव (वनस्पति और जंतु) बिना किसी बाह्य प्रशिक्षण के प्रकृति के साथ बेहतर रिश्ता बना पाने में कामयाब रहे हैं। आगे बढ़ने और बात बढ़ाने के पहले शुरूआत एक मासूम सवाल से करते हैं – एक बच्चा महसूसता है कि उसके अभिभावक उसके भविष्य को लेकर तनाव में रह रहे हैं। मॉ-बाप की चिंता बच्चे के जेहन में तनाव के रूप में दाखिल होती है। बच्चे को मानसिक रूप से परेशान पाकर उसकी माँ उसे बाल मनोवैज्ञानिक के पास ले जाती है। मनोवैज्ञानिक बच्चे से अकेले में सवाल करती है – बेटे तुम परेशान क्यों रहते हो ?
बच्चा जवाब देता है – डॉक्टर मैं जीवन के सत्य को जान चुका हूं। मेरे मम्मी-पापा नाहक परेशान हो रहे हैं।
बाल मनोचिकित्सक सात साल के बच्चे से संत वाणी सुनकर घबड़ा जाती है, फिर भी सवाल करती है – बेटा तुम क्या जान चुके हो, मुझे भी बताओ ताकि मैं भी तुम सा समझदार हो सकूं।
कुछ बताने के भाव से बच्चे का चेहरा खिल जाता है। वह जवाब में बाल-मनोवैज्ञानिक से जो कहा, वह गौरतलब है – मम्मी-पापा अक्सर कहते रहते हैं कि मैं खूब मन लगाकर हमेशा पढ़ता रहूं, ताकि एक दिन सफल आदमी बन सकूं। सफल आदमी क्या होता है, यह बात समझ में नहीं आती है। किताबों में पढ़ाया जाता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और यह सब ऐसे ही होता रहा तो धरती तथा धरती को जीव कुछ दिनों में नष्ट हो जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आता कि मैं सफल होकर क्या करूंगा, जब धरती रहेगी ही नहीं।
बच्चे का सवाल वाजिब सवाल है, जो मनुष्य की समझदारी और धरती के साथ उसके आचरण पर सवालिया निशान लगा देता है। मनुष्य की उपस्थिति के अलावा अगर दूसरे जीवों की उपस्थिति और पृथ्वी के साथ उनके रिश्तों का आकलन करें तो बहुत कुछ साफ – साफ दिखाई पड़ने लगता है – इस उपग्रह के दूसरे जीव (ऑक्सीकारक और अनॉक्सीकारक) अपनी उपस्थिति से प्रकृति को कुछ न कुछ देते हैं। उनका अंशदान ही प्राकृतिक संपदा के रूप में संग्रहित होता है। उदाहरण के लिए प्रोकैरियोटिक जीवों से लेकर नीले – हरे शैवालों तक इस धरती को भोजन और पानी से भरने का काम करते हैं। लाइकेन, शैवाल और कवक के सहजीवन का बेहतरीन नमूना है, जो अपनी अपस्थिति से बताता है कि धरती और धरती वायुमंडल कितना स्वस्थ है। पर्यावरणशास्त्री लाइकेन की अपस्थिति से पर्यावरण की स्वस्थता का आकलन करते हैं। प्रकृति के छोटे – छोटे कीड़े धरती को रौशन करते हैं। जुगनू जंगल में भटके राही का रास्ता दिखाते हैं (हालांकि वायु और ध्वनि प्रदूषण से इनकी संख्या धरती पर कम हो गई जिससे जैव – रौशनी की आमद से धरती महरूम होती जा रही है।)
चूंकि धरती और प्रकृति में सबका महत्व है – पहाड़ और गिलहरी तक की भूमिकाएं तय हैं। विशाल हाथी और विशाल ह्वेल से लेकर छोटे तथा ऑख से न दिखाई पड़ने वाले कीड़ों की उपस्थिति से ही धरती का जीवन आबाद हो पाता है। छोटे – छोटे कीड़े और मधु मक्खियॉ पौधों से सौरभ लेने के बदले उनके निषेचन को संभव बनाती हैं, जिन पर विशाल बरगद से लेकर मझोले गुलाब के पेड़ों का अस्तित्व निर्भर करता है।
कबूतर, गौरेया, कौवा और चिल जैसे पक्षी हो सकता है कि हमें ठीक न लगते हों, मगर जब वे कैथी, बरगद और पीपल के फल को खाते हैं, तो बदले में उसके बीजों को दूर, जहॉ उन पेड़ों की उपस्थिति नहीं होती और प्रतिस्पर्धा कम रहती है, वहॉ बो देते हैं। गाय-भैंस भी यही काम करती हैं। धरती के उपग्रह का हर जीव एक दूसरे से जितना लेता है, उतना उसे लौटाता भी है। परस्पर सहयोग से ही धरती के पर्यावरण का कारोबार चलता है। मनुष्य धरती से जितना लेता है, बदले में उसे क्या लौटाता है ?
आइए कुछ और पहलुओं पर विचार करें और एकदम से नाजुक जीवों की भूमिका और पृथ्वी के प्रति उनकी जिम्मेदारी-जवाबदेही को समझने का प्रयास करें। सायनोबैक्ट्रिया प्रोकैरियोटिक जीव हैं। प्रोकैरियोटिक, वे जीव होते हैं, जो कोशिका के विकास के प्रथम चरण में विकसित हुए थे (जैव-विकास के क्रम को समझने में इन जीवों की भूमिका निर्विवादित है)। इनकी कोशिका पूर्ण विकसित नहीं होती। साइनोबैक्ट्रिया अपनी अर्धविकसित कोशिका के सहारे पानी में रहने वाले जीवों के लिए (पर्णहरित की उपस्थिति के कारण प्रकाश संश्लेषण करने की विशेष योग्यता के कारण) खुराक की व्यवस्था करते हैं। सूरज की किरणें पानी की ऊपरी सतह को भेद कर जबअंदर प्रवेश करती हैं, तो सायनोबैक्ट्रिया किरणों का कुछ हिस्सा सोखकर प्रकाश संश्लेषण करके ग्लूकोज का निर्माण करते हैं, जिन पर पानी के मध्य स्तर में पाए जाने वाले जीवों – कछुओं, मछलियों, जोंक और करोड़ों कीड़ों (सूक्ष्मजीवों) का जीवन निर्भर करता है। जंतु वैज्ञानिकों ने पाया कि जलोद्भिद जीवों को कायम रहने में सायनोबैक्ट्रिया की उपस्थिति बहुत मायने रखती है। यही कारण है कि इस बैक्ट्रिया को मित्र-बैक्ट्रिया के साथ – साथ पानी की जैव-विविधता को जिलाए रखने वाला आहारदाता कहा जाता है।
बच्चों को ड्रैगनफ्लाई बहुत आकर्षित करते हैं। ड्रैगनफ्लाई बहुत जरूरी का कीड़ा है – पर्यावरण परिवर्तन का संवादिया । इसे प्राकृतिक सूचनादाता भी कहा जाता है। दुनियॉ के कई हिस्सों में इससे औषधियॉ बनाई जाती हैं। अमेरीका के मूलनिवासी आदिवासी – पोएब्लो, होपी और जूनी (Pueblo, Hopi, and Zuni) इसका इस्तेमाल सर्प-दंश उपचार में करते हैं। यहीं का दूसरा आदिवासी कबिला (नवाजो-Navajo) इसकी उपस्थिति को शुद्ध पानी के स्रोत के रूप में देखते हैं। दरअसल ड्रैगलफ्लाई की कुछ जातियॉ बहते जल के आसपास वास करती हैं। शुद्ध पानी की तलाश में भटकते नवाजो आदिवासियों को पीने के साफ पानी को उपलब्ध कराने में ड्रैगनफ्लाई की यह जाति किसी फरिश्ता से कम नहीं। इतना ही नहीं जापान में ड्रैगनफ्लाई की एक जाति बसंत के आगमन की अग्रदूत मानी जाती है। इसीलिए जापानी साहित्य में इन्हें – पुनर्जन्म, साहस और प्रसन्नता के प्रतीक के रूप में दर्ज़ किया गया है।
प्रकृति और धरती के प्रति हमारी भूमिका भले ही अत्यल्प हो और भले ही हम सूक्ष्मजीवों से बेपनाह नफ़रत करते हों मगर कुदरत ने हमारी हिफ़ाजत के लिए लगभग सौ पद्म अर्थात सौ खरब सूक्ष्मजीवों की लंबी-चौड़ी फौज़ लगा रखी है, जो शरीर-क्रिया का संचालन करते हैं। हालांकि बदले में हम इन सूक्ष्मजीवों को तबाह ही करते हैं। दुनियॉ के किसी धर्म और दर्शन में इन सूक्ष्म के प्रति कृतज्ञ होना नहीं सिखाया गया है – यह हमारे मानसिक चिंतन की दरिद्रता है इसका एक कारण यह भी है कि हम वैज्ञानिक चिंतन से दूरी बनाकर रहा करते हैं।
आइए बच्चे के सवाल की ओर लौटें और गहराई से परखें-देखें कि हम आने वाली पीढ़ी के लिए कैसी आबो-हवा और दुनियॉ छोड़ रहे हैं। साथ ही यह भी देखें कि बड़ी – बड़ी महाशक्तियॉ और हम धरती, आकाश और पानी-पहाड़ और पेड़ों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं। हमने आकाश को विषैली गैसों से भर दिया है, जिससे जगह – जगह अम्लीय वर्षा होने लगी है। विलासी चीजों के आधिक्य ने धरती के साथ-साथ आकाश को भी कार्बनडाई ऑक्सॉइड से जाम कर दिया है, जिससे आकाश में उड़ने वाले जीवों की सेहत और जीवन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव के कारण जैव मंडल की जैव विविधता प्रभावित हुई है – इसके कारण धरती से कुछ ऊंचाई बना कर उड़ने वाली सुंदर तितलियॉ कम पड़ गई हैं। फलस्वरूप तितलियों के कारण होने वाला परागकण की प्रक्रिया थम गई है। अर्थात कई सुंदर फूलों वाले पौधों का अस्तित्व संकटापन्न हो गया है। आकाश में कार्बनडाई ऑक्सॉइड की अधिकता का एक असर वैश्विक ताप में हुई वृद्धि भी है। वैश्विक ताप बढ़ने से बर्फिले पहाड़ पिघलने लगते हैं, जिससे सागर का जल स्तर बढ़ जाता है। सागर किनारे बसे शहरों के अस्तित्व पर संकट बढ़ जाता है। नदी और समुद्र में बर्फ की आमद से जल-मंडलीय पारिस्थिकी असंतुलित हो जाती है, जिसका सीधा प्रभाव जलीय जीवन पर पड़ता है। निश्चित ही कार्बनडाई ऑक्सॉइड केवल बर्फं को गलाकर हिमालय जैसे नए बर्फिले पर्वतों की सेहत खराब नहीं कर रहा, बल्कि जलीय जैव-विविधता को नष्ट करके भविष्य में नए प्रकार का संकट खड़ा रहा है, जिसका भुगतान आने वाली पीढ़ी को सब कुछ लुटाकर कर करना पड़ेगा। इसे कुछ उदाहरणों से समझा सकता है। जिस तरह स्थल पर खाद्य श्रृंखला काम करती है, उसी तरह जल मंडल में भी खाद्य श्रृंखला काम करती है। जिस तरह मेढकों की संख्या कम होने से टिड्डों और कीड़ों की संख्या सहसा इतनी बढ़ जाती है कि हजारों एकड़ की फसल कुछ मिनटों में तबाह हो जाती है। और जिस तरह हिरनों और शाकाहरी जानवरों की कमी से जंगल के हिंसक और मांसाहारी जानवर गॉव और शहर की ओर बढ़ आते हैं और आदमखोर हो जाते हैं, उसी तरह जल-मंडल की खाद्य श्रृंखला के भंग होने से जलीय जीव पानी के बाहर के प्राणियों का शिकार करने लगते हैं। लब्बोलुआब यह कि हमने जिस तेजी कॉर्बनडॉई ऑक्सॉइड का उत्सर्जन बढ़ाया है, उससे बादलों का फटना, सागरों के जल स्तर का बढ़ना और सागरीय तूफानों में इजाफा हुआ है, कल्पना कीजिए कि लवणीय जल का संतुलन बिगड़ेगा, तब क्या होगा ?
प्रकृति के तत्वों और कारकों में परस्पर निर्भरता पाई जाती है। कायनात का ज़र्रा – ज़र्रा एक दूसरे को सिद्दत से चाहता है। इसी से दुनियॉ का कोरोबार रौशन है। पीपल के पेंड़ पर बरगद का पेंड़ उगता है। कोयल के अंडे को कौआ सेता है। पेप्टोस्ट्रेप्टोकॉकस जिवाणु हमारे शरीर के आंतरिक हिस्सों की जतन में सहायक होते हैं।
धरती जीवन की संभावना अपने आप में जितना जटिल है, उससे कहीं ज्यादा दिलचस्प है। इस ग्रह के जीवन को समझने का बहुत प्रयास हुआ। जैव और अजैव घटकों के रिश्तों को समझने के लिए कई मानक और सिद्धांत रचे गए। गैया मानक या सिद्धांत (Gaia theory ) इसी दिशा में एक कोशिश है। इस सिद्धांत को जैम्स लवलॉक (James Lovelock) (Lynn Margulis) 1970 में विकसित किया। जैविक-अजैविक घटकों के संबंधों को समझने में यह सिद्धांत मदत पहुंचाता है। गैया सिद्धांत के अनुसार सूक्ष्म जीवों का धरती के अकार्बनिक और कार्बनिक परिवेश से अंत:क्रिया होती है, जिससे सहजीवन, पृथ्वी के जीवन का आत्म-संचालन और जटिल जीवन प्रणाली संभव हो पाती है। धरती के जीवन की संभावना सूक्ष्मजीवों और कार्बनिक-अकार्बनिक तत्वों की भूमिका निर्णायक होती है।
ऊपर दिए गए उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए जब प्रकृति के हित में मनुष्य की भूमिका पर बिचार किया जाता है तो बड़ी निराशा हॉथ लगती है। वास्तव में प्रकृति के लिए मनुष्य की नियति एक धूर्त व्यापारी की है – एक ऐसा व्यापारी जिसने लालचवश जीवन की संपूर्ण संभावना को दाव पर लगा दिया है। मनुष्य की मूर्खता के कारण जीवन की रचना करने वाले सारे जैव-अजैव कारक मौत की टाइम मशीन पर बैठ, मौत का इंतजार करने मजबूर हो गए हैं।

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