जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद और ‘कला कम्यून’ के संस्थापक चित्रकार राकेश दिवाकर का सड़क दुर्घटना में निधन
राकेश दिवाकर आधुनिक चित्रकला, खासकर जनपक्षीय चित्रकला के अध्येता कलाकार थे
पटना। युवा चित्रकार, कवि, रंगकर्मी, समीक्षक और कला-शिक्षक राकेश कुमार दिवाकर और उनके सहकर्मी शिक्षक राजेश कुमार की बालू लदे अनियंत्रित ट्रैक्टर द्वारा कुचल दिये जाने के कारण हुई मौत पर गहरा शोक जाहिर करते हुए जन संस्कृति मंच ने इसे प्रगतिशील-जनवादी कला-संस्कृति और शिक्षा जगत के लिए अपूरणीय क्षति बताया है।
जन संस्कृति मंच की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि बालू माफिया, पुलिस और प्रशासन ने लोभ और स्वार्थ में जिस अराजक स्थिति को जन्म दिया है यह उसी का नतीजा है, कि आये दिन लोगों की जान जा रही है। आज राकेश दिवाकर जैसे प्रतिभाशाली कलाकार-साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी तथा उनके सहकर्मी शिक्षक राजेश कुमार बाइक से स्कूल जाते वक्त इन भीषण स्वार्थलोलुप तत्वों की तेज रफ्तार की चपेट में आ गये। जसम जिला प्रशासन से यह माँग करता है कि बालू के धंघे में लगे तत्वों की जानलेवा रफ्तार पर रोक लगायी जाये, साथी राकेश दिवाकर और राजेश कुमार के मौत के लिए दोषी लोगों को दंडित किया जाए और उनके परिजनों को तत्काल मुआवजा दिया जाए।
जन संस्कृति मंच की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि राकेश दिवाकर ने चित्रकला को भोजपुर की क्रांतिकारी आग की लपटों से रंगीन बनाया। उसे न्याय और सामाजिक बराबरी के मूल्यों से लैस किया। जब बेगुनाह बच्चे, महिलाएं, दलित और खेत मजदूरों का कत्लेआम किया जा रहा था, तब राकेश दिवाकर ने ‘कला-कम्यून’ जैसा चित्रकारों का संगठन बनाकर उसके विरोध में पूरे भोजपुर में जगह-जगह चित्र-प्रदर्शनी लगाये। मेहनतकश जनता के संघर्ष और आकांक्षा को अपने चित्रों का विषय बनाया और आधुनिक चित्रकला के अपने गहरे अध्ययन से उन्होंने ऐसे संदर्भों से लोगों को अवगत कराया, जब दुनिया के चित्रकारों ने चित्रकला को जनसंघर्षों और जनप्रतिरोध का माध्यम बना दिया।
राकेश दिवाकर और उनके साथी चित्रकारों ने खुद अपनी चित्रकला को जनता के सवालों से जोड़ा और आंदोलनात्मक पहलकदमियाँ लीं। चाहे सड़क निर्माण का सवाल हो, अपराध और दमन के मामले हों या युद्धोन्माद हो, राकेश दिवाकर ने उसके विरुद्ध चित्रकला को प्रतिरोध का माध्यम बनाया।
राकेश दिवाकर लंबे समय से जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद थे। उन्होंने ‘युवानीति’ के नाटकों में अभिनय भी किये।
भोजपुर आंदोलन के संस्थापक जगदीश मास्टर पर केंद्रित महाश्वेता देवी द्वारा लिखित उपन्यास ‘मास्साहेब’ के नाट्य मंचन के दौरान उनके द्वारा शहर की दीवारों पर बनाये गयी बड़ी-बड़ी वाल पेंटिंग्स ने नाटक के संदेश को दर्शकों तक पहुंचाने और उसके प्रति उनको आकर्षित करने में अहम भूमिका निभायी थी। उस नाटक का आमंत्रण-पत्र भी उनके द्वारा बनाये गये एक स्केच से बना था। उन्होंने स्वयं उसमें मास्टर साहब के एक साथी शिक्षक का अभिनय किया था।
राकेश दिवाकर का जन्म 2 अगस्त 1978 को हुआ था। वे संदेश प्रखंड के प्रतापपुर गाँव के सेवानिवृत्त भारतीय सैनिक राममोहन सिंह और रामकालो देवी के पुत्र थे। उनके पिता ने 1971 की लड़ाई में भी भाग लिया था। पिता का संवेदनशील स्वभाव उन्हें विरासत में मिला था। करुणा, न्याय और सामाजिक समानता जैसे मूल्यों के प्रति पक्षधरता ने ही उनके विचारों को दिशा दिया। वे वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध और अपने हर काम को गंभीरता से लेने वाले संस्कृतिकर्मी और शिक्षक थे।
सृजनात्मकता कोई दैवीय चीज नहीं होती, बल्कि उसके पीछे अपार लगन और मेहनत की जरूरत होती है, राकेश के व्यक्तित्व, जीवन और उनके सृजनात्मक काम को देखकर यही प्रतीत होता है। वे आधुनिक चित्रकला, खासकर जनपक्षीय चित्रकला की गहरी समझ रखने वाले बिहार के महत्त्वपूर्ण कलाकार थे। हाल के वर्षों में उन्होंने समकालीन युवा चित्रकारों की कला पर लगातार समीक्षाएं लिखीं, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा।
अभी 16 मई को उन्होंने पटना में लगी चार कला प्रदर्शनियों के बारे में फेसबुक पोस्ट लिखा था। पटना के साथ-साथ बनारस, दिल्ली, लखनऊ आदि विभिन्न जगहों पर काम कर रहे कलाकारों और कला का अध्ययन कर रहे छात्रों से उनका गहरा संबंध था। वरिष्ठ चित्रकार मिलन दास और दिनेश कुमार उनके उस्ताद थे। प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक से उनके गहरे संबंध थे।
राकेश एक अच्छे सांस्कृतिक संगठक थे। चित्रकला पर समीक्षाएं लिखने के साथ वे साहित्यिक समीक्षाएं भी लिखते थे। रंगकर्मी थे।जनता के ज्वलंत मुद्दों पर केंद्रित हर कार्यक्रम में वे अपनी कूची और रंग के साथ हाजिर रहते थे। कविता-पोस्टर को वे जनपक्षीय कला का अनिवार्य अंग मानते थे।
राकेश ने आजीविका के लिए पहले एक-दो निजी स्कूलों में अध्यापन किया, एक अखबार में काम किया। जिस आरा आर्ट कॉलेज से उन्होंने फाइन आर्ट से स्नातक किया था, जब विश्वविद्यालय ने उसकी डिग्री को मान्यता देने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने अपने साथियों के साथ कानूनी लड़ाई लड़कर डिग्री हासिल की। उसके बाद भोजपुर के पवना हाई स्कूल में उनकी नियुक्ति हुई। निधन के ठीक एक दिन पहले उसी समय एक संस्कृतिकर्मी साथी से बातचीत करते हुए उन्होंने कोविड और लॉक डाउन के बाद सांस्कृतिक गतिविधियां तेज करने की जरूरत पर लंबी बातचीत की थी। इस माह के अंत में उनकी आरा में कला-कम्यून की वार्षिक प्रदर्शनी आयोजित करने की योजना थी।
वे अपने पीछे पत्नी पूनम देवी, बेटा विक्रांत कुमार और बेटी पलक कुमारी को छोड़ गये हैं। जन संस्कृति मंच इस शोक की घड़ी में उनके परिवार और उनके चाहने वालों की कतार, जो भोजपुर, बिहार से लेकर पूरे देश भर तक फैली हुई है, अपने संवेदना जाहिर करती है।
आज सुबह राकेश दिवाकर के निधन की खबर सुनते हुए जसम बिहार के राज्य अध्यक्ष जितेंद्र कुमार, सहसचिव सुमन कुमार सिंह, रंगकर्मी श्रीधर शर्मा, कवि सिद्धार्थ वल्लभ, शिक्षक व रंगकर्मी सुभाषचंद्र बसु, भाकपा-माले केंद्रीय कमेटी सदस्य संतोष सहर, जिला कार्यालय सचिव जितेंद्र कुमार, माले विधायक सुदामा प्रसाद और मनोज मंजिल पहले आरा सदर अस्पताल और फिर राकेश दिवाकर के गांव प्रतापपुर पहुंचे। उनके साथ भाकपा-माले के पोलित ब्यूरो सदस्य स्वदेश भट्टाचार्य, विधायक अजीत कुशवाहा, मूर्तिकार ओमप्रकाश सिंह, चित्रकार कौशलेश, रंगकर्मी सूर्यप्रकाश, कवि अरविंद अनुराग, कवि सुनील चौधरी, संजय कुमार, सत्यदेव, शिक्षक नीलेश, और माले आरा नगर सचिव दिलराज प्रीतम भी उनके गांव पहुंचे, उन्हें श्रद्धांजलि दी, सोन तट पर उनके शरीर को अग्नि के हवाले किया और उन्हें आखिरी विदाई दी।
(सुधीर सुमन, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)