समकालीन जनमत
स्मृति

ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

 

( उर्दू के महान हास्य-व्यंग्य लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी द्वारा लिखित यह लेख (संस्मरण) उनकी अंतिम किताब “शाम-ए-शेर-ए-याराँ (1914) से लिया गया है। उन्होंने यह लेख फ़ैज़ साहब के 90वें जन्मदिन के समारोह में आर्ट्स कौंसिल ऑफ़ पाकिस्तान, कराची में 25 मार्च 2001. को पढ़ा था। यूसुफ़ी साहब इसका आरम्भ वर्तमान दौर में साहित्यिक समारोहों और रक़्स (नृत्य) के बारे में हास्य-व-व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियों से करते हैं, फिर बीसवीं शताब्दी के उर्दू के सबसे लोकप्रिय शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के साथ अपनी मुलाक़ातों के अनुभवों और उनके बारे में मित्रों से सुनी हुई बातों का उल्लेख करते हैं। चूँकि यह लेख एक ख़ास सन्दर्भ में पढ़ा गया और विषयांतर यूसुफ़ी साहब की लेखन शैली की महत्वपूर्ण विशेषता है, इस कारण कभी-कभी नैरन्तर्य के अभाव का आभास ज़रूर होता है। लेकिन यह विषयांतर यूसुफ़ी साहब की रचना शैली को रंगारंग और सशक्त भी बनाता है। अतः यूसुफ़ी साहब की अन्य रचनाओं की तरह इस लेख में भी उनकी रचना शैली की पूरी काट, चमक-दमक और बुद्धिमत्ता मौजूद है।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू के ऐसे कवि हैं जो हिन्दी पाठकों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उर्दू पाठकों में। ऐसे हिन्दी पाठकों की संख्या कम नहीं है जो फ़ैज़ के बारे में बड़ी गहरी और विस्तृत जानकारी रखते। लेकिन अधिक संभावना है कि इन पाठकों ने भी फ़ैज़ के मनमोहक व्यक्तित्व की ये झलकियाँ न देखी हों जो इस लेख में देखने को मिलेंगी।

यूसुफ़ी साहब की दूसरी रचनाओं की तरह इसमें भी ‘मिर्ज़ा’ को कई बार उद्धृत किया गया है। ‘मिर्ज़ा’ जिनका पूरा नाम ‘मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग’ है, यूसुफ़ी के मित्र या हमज़ाद (छायापुरुष) के रूप में उनकी अधिकतर रचनाओं में मौजूद होते हैं। यह पात्र अपने ऊटपटांग विचारों और विचित्र दलीलों के लिए जाना जाता है। यूसुफ़ी अपनी अकथनीय, उत्तेजक और गुस्ताख़ाना बातें मिर्ज़ा की ज़ुबान से कहलवाते हैं। ये किरदार हमें मुल्ला नसरुद्दीन की याद दिलाता है। 

       बात से बात निकालना, लेखनी के हाथों में ख़ुद को सौंपकर मानो केले के छिलके पर फिसलते जाना अर्थात विषयांतर, हास्यास्पद परिस्थितियों का निर्माण, अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन, किरदारों की सनक और विचित्र तर्कशैली, एक ही वाक्य में असंगत शब्दों का जमावड़ा, शब्द-क्रीड़ा,  अनुप्रास अलंकार, हास्यास्पद उपमाएं व रूपक, , सांकेतिक भाषा, अप्रत्याशित मोड़, कविता की पंक्तियों का उद्धरण, पैरोडी और मज़ाक़ की फुलझड़ियों व  हास्य रस की फुहारों के बीच साहित्यिक संकेत व दार्शनिक टिप्पणियाँ, और प्रखर बुद्धिमत्ता यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की विशेषताएँ हैं। उनके फ़ुटनोट भी बहुत दिलचस्प होते हैं। इस निबंध में यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं।अनुवादक )

लेख के कुछ वाक्य देखें :

1.“… डांस के बाद भाषण देना तो ऐसा ही है जैसे अत्यंत स्वादिष्ट और शानदार डिनर में मेहमानों को आइसक्रीम खिलाने के बाद आप मिट्टी की प्यालियों में सत्तू यह कहकर पेश करें कि इस फ़क़ीर ने गेहूँ और जौ के दाने अपने कर कमलों से भूने और पीसे हैं।”

  1. पहले-पहल जो ज़िन्दा नाच अपनी ज़िन्दगी में देखा उसकी दहशत लम्बे समय तक दिल पर बैठी रही। इस यादगार नृत्य का आयोजन चाचा जी ने हमारे ख़त्नों की ख़ुशी में किया था। यह नृत्य देखकर हमारा कच्चा मन इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि आइन्दा भी नृत्य देखने से पहले हर बार इस चरण से गुज़रना पड़ेगा। अतः एक मुद्दत तक नृत्य के नाम ही से बदन में एक कंपकंपी महसूस होती थी।
  1. यह सब अपनी जगह, मगर हमारे छैल छबीले यार मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग कहते हैं कि इन डांसेज़ में इतने कोकशास्त्रीय पैंतरे, ऐसी निर्लज्जता, और इस क़दर गुप्तांग-प्रदर्शन और नग्नता होती है कि ख़ुदा की क़सम पलक झपकने को जी नहीं चाहता!

***

महान स्वर्गवासियों की याद में समारोह विशेष रूप से प्रशंसनीय व बधाई योग्य हैं। इसलिए कि वे सही अर्थों में प्रेम व श्रद्धा और काव्य-मर्मज्ञ व्यक्तियों की सराहना की सच्ची, निःस्वार्थ, शुद्ध व निश्छल अभिव्यक्ति होते हैं। वर्ना जहाँ तक जीवितों का संबंध है, कोई महीना ऐसा नहीं जाता जब उनकी नई पुस्तकों के लोकार्पण के तीन-चार समारोह न होते हों। दो-तीन घंटों में कविता-संग्रह और पुस्तक के लेखक यानी उस शाम के नायक की जितनी और जैसी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की जाती है, वह उसे उम्र भर ग़लतफ़हमी में रखने के लिए काफ़ी होती है। यह छत निश्चित रूप से बेहद मज़बूत और टिकाऊ है। इसके नीचे इतना झूठ बोला गया है कि मामूली छत तो कभी की हम पर गिर गई होती! ऐसा लगता है कि इसी के अद्वितीय आर्किटेक्ट ने हमारी अदालतों, असेम्बलियों और प्लानिंग कमीशन की इमारतें डिज़ाइन की हैं। इसलिए कि सबसे ज़्यादा झूठ उन्हीं की छत तले बोला जाता है।

रोज़ एक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ

( क़सीदा—प्रशस्ति; तश्बीब– प्रस्तावना)

यह बात मैं अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने वालों पर व्यंग्य व परिहास के तौर पर नहीं कह रहा, इसलिए कि इस तरह की शामों में दिल रखने के लिए अतिरंजना करने वालों की सूची में मेरा भी नाम कहीं न कहीं ज़रूर आएगा। यह और बात है कि यह उस ज़माने का क़िस्सा है जब मैं साहित्यिक एकांतवास में नहीं गया था।

इस समारोह में थोड़ी देर बाद शीमा किरमानी फ़ैज़ साहब की तीन सुन्दर और विचारोत्तेजक नज़्मों (कविताओं) पर आधारित अपनी कोरियोग्राफ़ी के मनमोहक कला-कौशल का प्रदर्शन करेंगी। ऐसी चल-कला-वीथियों और औपचारिक नृत्य में वही अंतर है जो अकेली पोर्ट्रेट पेंट करने और म्यूरल में होता है। या बुद्ध की मूर्ति और अजंता, एलोरा और खजुराहो के फ़्रेस्कोज़ और दृश्य-चित्रण में पाया जाता है। ऐसे नृत्य से पहले भाषण देने में दोष यह है कि श्रोतागण बार-बार घड़ी देखते हैं और मन में कहते हैं, यह आदमी स्टेज से दफ़ान हो तो असल प्रोग्राम शुरू हो। रहा डांस के बाद भाषण देना तो यह ऐसा ही है जैसे बेहद लज़ीज़ और शानदार डिनर में मेहमानों को आइसक्रीम खिलाने के बाद आप मिट्टी की प्यालियों में सत्तू यह कहकर पेश करें कि इस फ़क़ीर ने गेहूँ और जौ के दाने अपने कर कमलों से भूने और पीसे हैं।

ऐसे अध्यक्षीय भाषण को थिएटर की शब्दावली में curtain-raiser कहा जा सकता है। कर्टेन-रेज़र का मक़सद यह होता है कि जब तक असल ते वडा खेल शुरू न हो, दर्शकों का जी किसी बिल्कुल असंबद्ध हल्के-फुल्के आइटम से बहलाया जाए। इस उपाय से गंजे एक्टरों को इत्मीनान से विग और दाढ़ी-मूँछ लगाने और मेकअप से स्याह को सफ़ेद और सफ़ेद को स्याह करने का अवसर मिल जाता है। इस तरह एक्ट्रेसों को अपने फ़िगर की ढलान को उठान और उठान को ढलान बनाने के लिए अतिरिक्त समय मिल जाता है। इस बहाने कुछ और टिकट भी बिक जाते हैं।

रक़्स (नृत्य) हमारे यहाँ, अभी तक वर्जित, घृणित व कुत्सित कला है। हमारी conditioning कुछ ऐसी हुई है कि जिस काम या व्यवहार में हमें आनंद व आह्लाद या सिर्फ़ सुख महसूस हो, उसमें हमें गुनाह की मिलावट नज़र आती है!  ख़ैर, मर्द तो अपनी फ़क़ीरी, मयनोशी,  आज़ादी और रुसवाई (बदनामी) पर हमेशा फ़ख़्र करते रहे हैं :

बसद सामान-ए-रुसवाई  सर-ए-बाज़ार मी रक़सम

(मैं अपमान के सैकड़ों सामानों के साथ बीच बाज़ार में रक़्स [नृत्य] कर रहा हूँ)

लेकिन बेचारी  नर्तकी ज़्यादा-से-ज़्यादा इतना ही दावा कर सकती थी कि

बसद सामान-ए-ज़ेबाई पस-ए-दीवार मी रक़सम

(मैं सुन्दरता के सैकड़ों सामानों के साथ दीवार के पीछे रक़्स कर रही हूँ)

यादों का भला हो, हमारी जवानी के दिनों में, शरीफ़ (कुलीन) घरानों में मोर के नाच के अलावा किसी और का नाच देखने की इजाज़त नहीं थी। शौचालय में एक पैसे की सिग्रेट छिपकर पीने का शुमार ऐयाशी बल्कि निरी बदमाशी में होता था! इससे उस ज़माने में सिग्रेट की फुटकर क़ीमत के अलावा मासूम बुज़ुर्गों की ऐयाशी के स्तर और मनोरंजन के मानदंड का भी अंदाज़ा होता है। तो मैं निवेदन करने चला था कि पहले-पहल जो ज़िन्दा नाच अपनी ज़िन्दगी में देखा उसकी दहशत लम्बे समय तक दिल पर बैठी रही। इस यादगार नृत्य का आयोजन चाचा जी ने हमारे ख़त्नों की ख़ुशी में किया था। यह नृत्य देखकर हमारा कच्चा मन इस नतीजे पर पहुँचा कि आइन्दा भी नृत्य देखने से पहले हर बार इस चरण से गुज़रना पड़ेगा। लिहाज़ा एक मुद्दत तक नृत्य के नाम ही से बदन में एक कंपकंपी महसूस होती थी। बाद में तो सिर्फ़ पलंग की चादर और पिश्वाज़1. देखकर यही दशा होने लगी। वह तो ख़ुदा भला करे नाहीद सिद्दिक़ी और शीमा बीबी का जिनके अघातक नृत्य देखकर यह डर दिल से निकला और हमारा हियाव खुला। जैसा कि आपने हमारी बातों से ख़ुद भाँप लिया होगा।

शीमा किरमानी अपने टैबल्यूज़ और विषयगत नृत्य में नाटकीय situation और कविताओं को कलात्मक ढंग से रूप देती व मूर्त बनाती हैं। मतलब यह कि उन्हें “नृत्याने” का हुनर जानती हैं। एक बुद्धिमान, निपुण, और आधुनिक कोरियोग्राफ़र की तरह वे इस मर्म से परिचित हैं कि नृत्य उस अनमोल घड़ी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है जब नृत्यांगना नज़र आनी बंद हो जाए और सिर्फ़ नृत्य नज़र आये! अंग बातें करे और बातों से ख़ुशबू आए। नृत्य चाहे भरतनाट्यम हो या कत्थक, या मनीपुरी हो या ओडिसी— उसमें विचार और भावनाओं की अभिव्यक्ति, आँखों, भौहों और हाथों की चेष्टाओं और चेहरे के उतार-चढ़ाव से की जाती है। और यही क्लासिकी अंदाज़, रख-रखाव और नृत्य ठाठ शीमा ने अपनाया और बरता है।

जिस प्रकार के डांस और जिस ढंग के डांसर आजकल ज़ी. टीवी और उस जैसे दूसरे इंडियन चैनेल्ज़ पर दिखाए जा रहे हैं, उनमें जिस्म का सिर्फ़ एक अंग प्रयोग किया जाता है। हर भावना और हर ऐसी ख़्वाहिश का इज़हार व ऐलान जिससे घर बिगड़े, अब केवल कूल्हों के ज़रिए किया जाता है। हम तो बचपन से यही सुनते और समझते आये थे कि कूल्हे केवल बैठने, पतलून को फिसलने से रोकने और स्कूल में छड़ी से पिटने के लिए बनाए गए हैं। अब तो यह देखा कि पूरी emotional range अर्थात भावनाओं की सारी सरगम कूल्हों से इस प्रकार अदा की जाती है कि क्या बताएँ, दिल पे छुरी सी चल जाती है। मटकने, मटकाने और ठुमका लगाने यानी hip-swinging और wiggling को कला का दर्जा देने का श्रेय इन चैनेल्ज़ को जाता है।

यह सब अपनी जगह, मगर हमारे छैल छबीले यार मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग कहते हैं कि इन डांसेज़ में इतने कोकशास्त्रीय पैंतरे, ऐसी बेहयाई, और इस क़दर गुप्तांग-प्रदर्शन और नंगापन होता है कि ख़ुदा की क़सम पलक झपकने को जी नहीं चाहता! कुछ इलाज इसका भी साहब-ए-नज़राँ है कि नहीं?

जिम्नास्टिक और ऐसे डांस में फ़र्क़ यह है कि जिम्नास्टिक एक rhythm, लय, लोच, तारतम्य व रचनात्मक सौन्दर्य होता है। जिम्नास्टिक के कुछ नियम व अनुशासन भी होते हैं। इसके अलावा हमारे समय में जिम्नास्टिक करते समय कम-से-कम नैकर पहनना ज़रूरी समझा जाता था।  ज़ी. टीवी वाले डांसेज़ में चोली और पिश्वाज़ की जगह चार-गिरह से भी कम की धज्जी से हमारी दृष्टि शक्ति और ईमान की आज़माइश इस तरह ली जाती है कि कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाए न बने। ग़ालिब ही ने ग़ालिबन (संभवतः) ऐसे ही अंग-आच्छादन के लिए कहा था:

हैफ़ उस चार-गिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
(हैफ़ – हाय, अफ़सोस;  गिरह— एक गज़ का 1/16 वाँ अंश)

रहे मर्द नाचने वाले, सो वे भी अब टाई ग़लत जगह बाँधने लगे हैं!

‘जोश’ साहब का यह कथन अब तो कहावत का स्थान प्राप्त कर चुका है कि रक़्स (नृत्य) अंगों की शायरी है। मिर्ज़ा को यह कथन इतना पसंद आया कि अक्सर फ़रमाते हैं, शायरी अल्फ़ाज़ (शब्दों) का रक़्स-ए-ताऊस (मयूर-नृत्य है)!

लिखते-लिखते यूँ ही ख़याल आया कि “रक़्स” अरबी शब्द है। ज़रा शब्दकोश में इसका अर्थ तो देखें। कभी-कभी शब्दकोश देखने से भी कोई नया विन्दु या अनोखी बात हाथ लग जाती है, जिसकी क़दर, बदक़िस्मती  से, सिर्फ़ शब्दकोश संकलित करने वाले और उसके प्रूफ़ पढ़ने वाले ही कर सकते हैं।  चाहता हूँ कि आप भी मेरे विस्मय और आह्लाद में शरीक हों। इस शब्द का अर्थ देखें। आपका ध्यान चाहता हूँ: ऊँट की उछलते और कूदते हुए दौड़। यानी रक़्स-ए-शुतुर (ऊँट का नृत्य), शुतुर-ग़म्ज़ों (नाज़-नख़रों) समेत।

हैरत होती है कि अपने युग के जिस अरबी मनीषी ने इस शब्द का आविष्कार व सृजन किया, उसने हज़ारों वर्ष पूर्व ज़ी. टीवी और POP राग और रक़्स(नृत्य) का ऐसा realistic चित्रण करके रख दिया कि जितना वाह, वाह! करें कम है।

यह तो विषयांतर था जो शीमा बीबी के रक़्स (नृत्य) ने लिखवा दिया। बात तो महान व्यक्तियों से शुरू हुई थी। मुझे तो फ़ैज़ साहब की शायरी और उनके मनमोहक व्यक्तित्व को याद करना था जो मतभेद व वाद-विवाद से हमेशा ऊपर रहा। शायद ही कोई शायर अपने जीवन में इस तरह सराहा गया हो जिस तरह फ़ैज़ साहब सराहे और चाहे गए। और कौन है जिसने अपने जीवन में अर्ध-शताब्दी तक शायरी के साम्राज्य में दिलों पर यूँ राज रजा हो और इतना प्रेम और इतनी श्रद्धाएँ समेटी हों?

‘फ़ैज़’ साहब से मेरी पहली औपचारिक मुलाक़ात लन्दन में माननीय माजिद अली साहब और मोहतरमा ज़हरा निगाह के यहाँ हुई। यह वही माजिद साहब हैं जिनसे जुड़ा एक मशहूर चुटकला है। एक बार उनके बॉस यानी वित्तमंत्री के दफ़्तर के सामने कुछ दूर लोग माननीय मंत्री महोदय के विरुद्ध “अय्यूब ख़ान का चमचा!  अय्यूब ख़ान का चमचा!” के नारे लगा रहे थे। मंत्री महोदय ने माजिद साहब से पूछा“ ये लोग क्यों शोर मचा रहे हैं?” उन्होंने जवाब दिया “सर! यूँही कुछ कटलरी के बारे में हल्ला-गुल्ला कर रहे हैं!” मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि माजिद साहब ने फ़ैज़ साहब से मेरा परिचय कराया या नहीं। फ़ैज़ साहब उस वक़्त हस्बेमामूल श्रद्धालुओं के हुजूम में घिरे बैठे थे। मैं भी हस्बेमामूल बिल्कुल ख़ामोश बैठा मज़े-मज़े की बातों का आनंद लेता रहा। फ़ैज़ साहब उन दिनों देश-निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे थे और तात्कालिक परिस्थितियों पर बहुत नपी-तुली और विनोदप्रिय टिप्पणी कर रहे थे, जिसमें कड़वाहट और व्यंग्य का पुट तक न था। मेरा विचार है कि समसामयिक परिस्थितियों पर टिप्पणी करते समय जो व्यक्ति अपने ब्लड- प्रेशर और गाली पर क़ाबू रख सके वह या तो संत है, या फिर वह स्वयं ही उन परिस्थितियों का ज़िम्मेदार है। एक साहब जिनकी आवाज़ ऐसी थी जैसे कोई प्लास से लकड़ी में से ज़ंग लगी कील खींच रहा हो, थोड़े-थोड़े अंतराल पर ऐलान फ़रमा रहे थे कि ‘पाकिस्तान बड़े नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है।’ मैं यह जुमला सुनता हूँ तो इस सोच में पड़ जाता हूँ कि जबसे पाकिस्तान वजूद में आया है, कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रा कि किसी न किसी लीडर ने यह शुभसमाचार न दिया हो कि पाकिस्तान बड़े नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है! साहिबो! यह कैसी नज़ाकत है कि 45 साल से बदस्तूर चली आ रही है!  यह तो बड़ी मज़बूत बनावट की नज़ाकत मालूम होती है।

दूसरे दिन सुबह तड़के प्रिय इफ़्तिख़ार आरिफ़2 का फ़ोन आया कि फ़ैज़ साहब आपके यहाँ आज किसी वक़्त आना चाहते हैं। हुआ यह कि आपके जाने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि वो साहब जो अपनी बेगम के गिरेबान में मुँह डाले गुमसुम बैठे थे वे कौन थे? मैंने उन्हें बताया कि वे यूसुफ़ी साहब थे और यह उनका नॉर्मल पोज़ और पड़ोस है! वे बहुत शर्मीले, बंद-बंद से आदमी हैं। जबतक ढाई-तीन सौ लोग मौजूद न हों, खुलते नहीं! फ़ैज़ साहब कहने लगे “तुमने तआरुफ़ (परिचय) क्यों नहीं कराया?  मैंने कहा, फ़ैज़ साहब!  मैं तो सोच भी नहीं सकता कि यूसुफ़ी साहब आपसे कभी नहीं मिले। कहने लगे “हाँ! कुछ ऐसा ही मामला है। मुझे याद नहीं। बड़ी शर्मिंदगी है। सुबह ही मुझे ले चलो।

मैंने इफ़्तिख़ार आरिफ़ से कहा “‘फ़ैज़’ साहब से अर्ज़ कर दीजिये कि आज शाम अत्तार (गन्धी) ख़ुद ख़िदमत (सेवा) में हाज़िर होकर अपनी मुश्क (कस्तूरी) का तआरुफ़ करवा देगा। घटना-स्थल वही हम सबकी तीर्थ-स्थली यानी माजिद अली और ज़हरा निगाह का दौलतख़ाना (मकान) जहाँ माजिद साहब उर्दू के उत्कृष्ट अनर्गल शेरों से, जो उन्हें बहुत ज़्यादा याद हैं, महफ़िल को गर्माते हैं। फ़रमाते हैं “उत्कृष्ट अनर्गल शेर कहने के लिए बड़ी मेधा और दैवीय-प्रेरणा चाहिए जो ऐसे-वैसे शायर का काम नहीं। उर्दू शायरी में एक ख़राबी यह है कि घटिया आदमी बड़े बढ़िया शेर निकाल सकता है।” इसकी वजह रदीफ़-क़ाफ़िये (तुकबंदी) की बैसाखियाँ हैं। पर ग़ज़ल है बड़ी ज़ालिम विधा। अपने चाहने वालों को कहीं का नहीं रखती।

ग़ज़ल खा गई नौजवाँ कैसे-कैसे

(मूल पंक्ति—ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे-कैसे)

शाम को मुलाक़ात हुई तो फ़ैज़ साहब ख़ामख़ाह इतने शर्मिंदा थे कि ख़ुद मुझे अपने आपसे शर्म आने लगी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वे ख़ुद को इस कोताही पर भी क़ुसूरवार ठहरा रहे हैं कि मेरी और उनकी मुलाक़ात पंद्रह-बीस साल पहले क्यों न हुई! फ़ैज़ साहब की इस विनम्रता और शालीनता से मैं इसलिए और भी प्रभावित हुआ कि न जाने क्यों मेरा ख़याल था कि उन्होंने मेरी कोई रचना नहीं पढ़ी। सुनी-सुनाई तारीफ़ पर ईमान ले आए हैं। बात सिर्फ़ इतनी सी थी कि वे मितभाषी थे और मैं हस्बेमामूल अपने कोकून में बंद, और जब दोनों सीनियर पक्ष शर्मीले हों तो हमारे प्रिय इफ़्तिख़ार आरिफ़ का तूती अगर बोले नहीं तो क्या करे।

उसके बाद जब मिले तो यूँ लगा जैसे वे मुझे वर्षों से जानते हों।

यह तो हुई लन्दन में पहली मुलाक़ात। अब एक और यादगार मुलाक़ात की झलक देखें। हफ़्ते की सुबह थी, जो लन्दन की सुबह के बजाय किसी और मुल्क की सुबह मालूम होती थी। इसलिए कि शर्मीला सूरज कई दिन बाद काले बादलों की घूँघट उलट के पूरी आबोताब से चमक रहा था। फ़ैज़ साहब जिस सुन्दर मकान में रहते थे वहाँ नाश्ते में एक दिन पोरिज और दूसरे दिन कॉर्न-फ़्लेक्स और आधा उबला अंडा मिलता था। उस समय वे बहुत ख़ुश थे कि आज हरी मिर्च, प्याज़ और ज़ीरे वाले पाकिस्तानी आमलेट की बारी थी। गहरे नेवी-ब्लू सूट और चटकीली टाई में वे बहुत स्मार्ट लग रहे थे। वे अपना बिस्तर ख़ुद बनाते, कपड़े ख़ुद तह करते, और कमरे की चीज़ें ठिकाने से रखते। किसी को अपना बनियान मशीन में भी नहीं धोने देते थे। उस समय मातृभूमि सियालकोट की बातें कर रहे थे, जो देश-निर्वासन के दिनों में उनका प्रिय विषय था। दूसरा मनपसंद विषय वह ज़माना था जब उन्होंने फ़िल्म बनाई थी। उसका उल्लेख वे बड़ी तफ़सील और ललक से करते थे। इन विषयों के साथ कम समय में इमरजेंसी इंसाफ़ करने के बाद मेज़बान को मुख़ातिब करते हुए कहा “भई यह क्या हर वक़्त ग़ालिब, ग़ालिब करते रहते हैं आप लोग? ‘सौदा’ को पढ़िए, सौदा बड़ा जानदार, बहुत तहदार शायर है।” इसपर मेज़बान बोले कि “जोश साहब को इसपर बहुत आग्रह है कि ‘कलकत्ते या सरगोधे जाना है’, बोला जाए। ‘सरगोधा जाना है’, ग़लत है। इसलिए कि ‘घोड़ा की दुम’ और ‘ताला की चाबी’ नहीं कहते। तो जनाब-ए-वाला, यह नाचीज़ ग्रामर और इमले के इसी नियम के अनुसार इसी इमले में जुमले गढ़कर निवेदन करता है कि ‘सौदे’ के क़सीदे और ‘इन्शे’ की ग़ज़लें अब फ़ैशन में नहीं रहीं। शोधकर्ताओं ने ‘शैफ़ते’ की ज़िंदगी में नज़ाकत नामक एक तवायफ़ का सुराग़ लगाया है। सुराग़ क्या, ख़ुद उनके कलाम में ज़िक्र है। बक़ौल यूसुफ़ी साहब “चेह दिलावर अस्त दुज़्दी कि बकफ़ सुराग़ दारद 3।” (एक चोर कितना दिलेर है कि अपनी हथेली पर सुराग़ रखे है)  फ़ैज़ साहब आमलेट का टुकड़ा काँटे में अटकाए, मेज़बान के प्रवचन को ख़ामोशी से सुनते रहे। ‘जोश’ साहब के बारे में एक शब्द न कहा।

नाश्ते की मेज़ के पास एक और मेहमान जिनका शेव बढ़ा हुआ था फ़र्श पर आल्ती-पाल्ती मारे अजीब तरीक़े से नाश्ता कर रहे थे। वे रात भर कहीं मयनोशी करके आये थे। सुबह अपनी मेज़बान से कहा कि बीबी! हम तो मलंग आदमी हैं। सूखी-बासी रोटी से नाश्ता करेंगे। ऐसी रोटी मिलने में बिल्कुल दिक़्कत नहीं हुई, इसलिए कि लन्दन में जो ताज़ी रोटी “ग्रीक ब्रेड” या “यूनानी नान” के नाम से मिलती है, उसमें ये दोनों ख़ूबियाँ मौजूद होती हैं। हम जिस वक़्त पहुँचे तो यह मस्त-मलंग वाक़ई सूखी रोटी खा रहा था— एक प्याले में डुबो-डुबोकर जो “रॉयल सैल्यूट” से छलक रहा था। परिचय होते ही हमें “तुम” कहने लगे और अब किसी क्षण भी “तू” कह सकते थे। फ़रमाने लगे “तुम्हें सुनकर अफ़सोस होगा कि आजकल मति काम नहीं कर रही।” हम समझे कि मति से तात्पर्य इनकी श्रीमती हैं जो बासी नान की तरह नाम से यूनानी मूल की मालूम होती थीं। इसलिए हमने हमदर्दी जताते हुए पूछा:

How long has she been unemployed?

झुंझलाके बोले, मेरी चेतना-शक्ति फ़ेल हो गई। अब हम यह समझे कि जैसे इनकी और शक्तियाँ बारी-बारी जवाब दे चुकी हैं, वैसे यह भी कोई शक्ति होगी जो अचानक दग़ा दे गई। फ़ैज़ साहब ने स्पष्ट किया कि इनका तात्पर्य सद्बुद्धि या विवेक शक्ति है तो हमने इत्मीनान की साँस ली। फिर न जाने किस सन्दर्भ में यहूदी लॉबी का ज़िक्र आया तो कहने लगे मेरा विचार है कि हज़रत मूसा ने लाठी कोह-ए-तूर4 की अप्रत्याशित घटना के बाद रखनी शुरू की होगी। वे तरंग में थे। फ़ैज़ साहब भी ख़ामोश सुनते रहे। उनकी किसी भी बात का खंडन मुश्किल था। कहने लगे, मैंने प्रोफ़ेसरों तक को इक़बाल का यह मिसरा (पंक्ति) इस तरह पढ़ते सुना है, जो सरासर ग़लत है:

या तो ख़ुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर

(आशकार होना—प्रकट होना)

असल मिसरा यूँ है:

या तो ख़ुद आ! शिकार हो, या मुझे, आ! शिकार कर

हमने निवेदन किया, मगर इस तरह तो छंदभंग होता है, झटका लगता है। इस पर उन्होंने मिसरा अपनी तुरंत कम्पोज़ की हुई अनुनासिक धुन में गाकर सुनाया, जिसमें हर अक्षर की आवाज़ मुँह के बजाय नाक से निकल रही थी। इसमें छंदभंग का सवाल ही पैदा नहीं होता था। पूछने लगे कहाँ है झटका? उन्हें नज़र न आया, वर्ना शेर और शिकार दोनों का झटका हो चुका था! कुछ देर बाद जैसे ही बासी नान का नशा चढ़ा तो कहने लगे “साहब! एक नया development हुआ है! यह ज़माने को क्या हो गया? बीवियों ने मरना ही छोड़ दिया! यह रीत ही दुनिया से उठ गई। ख़ुदा की क़सम!”

यह बुरी ख़बर सुनाने के बाद इन साहब ने फ़ैज़ साहब को शायरी से संबंधित कुछ निर्देश दिए। फ़ैज़ साहब की एक बहुत ही हसीन नज़्म “तन्हाई” के बारे में फ़रमाया कि अच्छी है। मगर सुनसान बहुत है! इसमें तन्हाई ऐसे महसूस होती है जैसे लन्दन में सर्दी, यानी लगती है तो लगती ही चली जाती है। कम-से-कम एक लाइन में तो महबूबा (प्रेमिका) को डालिए। उनका आग्रह बढ़ा तो फ़ैज़ साहब चाय की चुस्की एक सुरीली सी सिसकी के साथ लेते हुए बोले “ हाँ, भई ई ई, अगले एडिशन में डाल देंगे।”

उर्दू साहित्य के इतिहास में तीन साधु स्वभाव लेखक ऐसे हुए हैं जिनकी निजी भलमनसाहट, शिष्टता, महानता और विशिष्टता उनकी रचनाओं से भी झलकती है। ये तीनों अपने स्वभाव व मूल्यों की उच्चता, मधुरता और शिष्टता को अपने शब्दों में समो देते हैं। और अपने स्वर में अपने स्वभाव व चरित्र का सारा सौन्दर्य उंडेल देते हैं। ये हैं ख़्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली, रशीद अहमद सिद्दिक़ी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। जहाँ कथन, व्यवहार को अपने पीछे हाँफता छोड़ आए, वहाँ शब्द अपनी आबरू व असर खो देता है। ख़ाली बर्तन की तरह शब्द भी जितने थोथे होते हैं, उतने ही ज़्यादा बजते हैं:

छिछले आँसू, छिछली लाग

कच्चा पानी,  कच्ची आग

बेअसर शब्द बूमरंग की भांति हर बार शायर के पास आ जाता है। जो शब्द किसी तजुर्बे और आदर्श की आँच पर न तपाया गया हो वह कभी दिल में नहीं उतरता। यह बात न दक्षता से आती है, न छंदशास्त्र के ज्ञान व अभ्यास से। शायरी में फ़ैज़ साहब का रिश्ता धर्मशास्त्रियों से नहीं रहस्य-दर्शियों से है। उन्होंने इस भेद को सफ़र की शुरुआत से ही पा लिया कि सिर्फ़ एक सच्ची भावना और दिल की तपन है जो

हर्फ़-ए-सादा को इनायत करे एजाज़ का रंग

( हर्फ़-ए-सादा – सरल शब्द; इनायत करना–प्रदान करना; एजाज़—चमत्कार)

फ़ैज़ साहब के स्वभाव में धैर्य व धीरज, सहनशीलता और मधुरता कूट-कूटकर भरी थी। बल्कि मात्रा के लिहाज़ से ऐसा लगता था कि कूट-कूटकर नहीं, समूची भर दी गई है। लोग इसी को काहिली या आलस्य का नाम देते थे। इसके भी चुटकले मशहूर हैं। मसलन एक युवक ने पूछा “फ़ैज़ साहब!  इंतज़ार करते-करते इतने दिन हो गए। आख़िर इन्क़लाब कब आएगा?” फ़रमाया “भईईई— आ जाएगा। अभी आपकी उम्र ही क्या है।”

कुछ बातें ऐसी हैं जो ‘फ़ैज़’ साहब के स्वभाव और सिद्धांत के ख़िलाफ़ थीं। मसलन उन्हें कभी रूपए का ज़िक्र करते नहीं सुना, अपनी किसी ज़रुरत का ज़िक्र करते हुए नहीं सुना। ज़माने की शिकायत या अपने राजनीतिक मत  के बारे में गद्य में कभी गुफ़्तगू करते नहीं सुना। किसी की चुग़ली या पीठ पीछे बुराई नहीं सुन सकते थे। कोई उनके सामने अदबदाकर किसी का ज़िक्र बुराई के के साथ करता तो वे अपना मन, ज़ुबान और कान सब सुइच-ऑफ़ कर देते थे। एक दफ़ा मुझसे पूछा “आजकल कुछ लिख रहे हैं या बैंक के काम से फ़ुर्सत नहीं मिलती?” मैंने कहा फ़ुर्सत तो बहुत है मगर काहिल हो गया हूँ। पित्ता नहीं मारा जाता। पढ़ाई की ऐयाशी में पड़ गया हूँ। और जब किसी लिखने वाले को पढ़ने में अधिक आनंद आने लगे तो जानिए निरी हरामख़ोरी पर उतर आया है।” मैं बहुत देर तक ख़ुद को इसी तरह बुरा-भला कहता रहा। ‘फ़ैज़’ साहब ख़ामोश सुनते रहे। फिर स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखके इतने क़रीब आ गए कि उनकी सिग्रेट की राख मेरी टाई पर गिरने लगी। कहने लगे “भई, हम किसी की बुराई नहीं सुन सकते। किसी के लिए मन में मैल रखना अच्छा नहीं। अपने आपको माफ़ कर दिया कीजिये। माफ़ और अनदेखा करना सवाब (पुण्य) का काम है।”

सिग्रेट के ज़िक्र पर याद आया कि फ़ैज़ साहब कभी ऐशट्रे के मोहताज नहीं रहे। उनकी कुशलता का यह हाल था कि राख हमेशा उनकी टाई पर ही गिरती थी। कभी इधर-उधर गिरते नहीं देखा।

फ़ैज़ साहब की स्वाभाविक नरमी व विनम्रता, मधुरता व सहनशीलता की अनगिनत घटनाएँ हैं जिनमें से दो नमूने के तौर पर बयान करता हूँ। इनसे आपको अंदाज़ा होगा कि वे कैसे-कैसे पड़ावों से आसान गुज़र जाते थे।

यह कोई पचीस वर्ष पहले की बात है। सुना है कराची में एक निजी मुशायरे की महफ़िल थी, जो इतनी निजी भी नहीं थी। कोई पचास-साठ लोग मौजूद होंगे जिनमें चालीस तो शायर थे। बाक़ी मिसरा उठाने वाले। एक साहब पिंग-पांग की गेंद की तरह उछल-उछलकर दाद दे रहे थे। ऐसा लगता था कि दाद के जुमले किसी किताब से रटकर आए हैं। कुछ याद रह गए: “भई वाह! क्या क़यामत शेर निकाला है!” “ग़ालिब की ज़मीन अब आपकी हो गई।” “वाह वाह! मियाँ जीते रहो! ज़रा फिर से पढ़ना!” “क्या नुक्ता पैदा किया है। पढ़ते जाओ, जी ख़ुश कर दिया।” “ हुज़ूर, फिर इनायत (कृपा) कीजिए।” “वल्लाह दिल नहीं भरा! सुबहान अल्लाह! क्या तेवर हैं।” “तारीफ़ का मोहताज नहीं है! वाह क्या मिसरा लगाया है। तारीफ़ नहीं हो सकती!” “हाय! मक़ता क्या है, जैसे कलेजे में कील ठोंक दी।” “दोबारा इनायत (कृपा) हो!” रात के ढाई बजे फ़ैज़ साहब की बारी आई। कई ग़ज़लें और नज़्में सुनाईं। जब इस शेर पर पहुँचे

इन तौक़ व सलासिल को हम तुम,

सिखलाएँगे शोरिश-ए-बरबत व नै

वो शोरिश जिसके आगे ज़ुबूँ

हंगामा-ए-तबल-ए-क़ैसर व कै

( तौक़- अपराधियों के गले में पड़ने वाला लोहे का छल्ला;  सलासिल- ज़ंजीरें;  शोरिश-ए-बरबत व नै—बरबत व बाँसुरी की बग़ावत; ज़ुबूँ—कमज़ोर,मजबूर;  तबल- ढोल व नगाड़े;  क़ैसर व कै- रूम और ईरान के  सम्राटों के नाम)

तो वो साहब बोले “सुबहान अल्लाह! सुबहान अल्लाह! क्या ठाठ हैं, क्या तनतना है! रियासत बोल रही है!” फ़ैज़ साहब हौले से मुस्कुरा दिए। फिर उन्ही साहब की फ़रमाइश पर एक और ग़ज़ल शुरू की। एक मिसरा (पंक्ति) पर उन साहब ने ऐसी दाद दी कि निज़ाम दीन के तंबू-क़नातों को सर पर उठा लिया। बार-बार वह मिसरा पढ़वाया। जब कोई शायर दूसरे शायर को बेतहाशा दाद देकर इस तरह बार-बार मिसरा पढ़वाए तो इसका मतलब यह होता है कि उसे शेर में कोई ख़ामी या छंदीय दोष नज़र आ रहा है जिसे वह शायर की ज़ुबान से ही उजागर कराना चाहता है। जब फ़ैज़ साहब ने वह शेर चौथी बार पढ़ा तो उन साहब ने दूसरे मिसरे में सुधार करके बुलंद आवाज़ में पढ़ दिया। फ़ैज़ साहब थोड़ी देर ख़ामोश रहे। फिर मुस्कुराकर मिसरे को उसी तरह पढ़ दिया जिस तरह वे साहब चाहते थे। मज़े की बात यह है कि फ़ैज़ साहब के मिसरे में बिल्कुल कोई दोष नहीं था! मुशायरा ख़त्म हुआ तो लोगों ने उन साहब के परख़चे उड़ा दिए।

एक महफ़िल में फ़ैज़ साहब अपनी नज़्म (कविता) “रक़ीब5 से” सुना रहे थे, जिसका शुमार, उन्ही की नहीं, उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में होता है। महफ़िल में हमारे छैल-छबीले शायर साक़ी फ़ारूक़ी भी मौजूद थे। वे पचीस साल से लन्दन में हैं और दोस्तों से युद्धरत हैं। अपनी ऑस्ट्रियन बीवी को प्यार से गुंडी और Rottweiler कुत्ते को एक दिल दुखाने वाले नाम से पुकारते हैं—कामरेड । कुत्ते ने तो अपने नाम और साक़ी के प्यार की ताब न लाकर प्राण त्याग दिए। उन्होंने मेंढक, कुत्ते, ख़रगोश, मकड़े, बिल्ले आदि पर बहुत सुन्दर और विचारोत्तेजक कविताएँ लिखी हैं। चार टाँगों से कम के किसी प्राणी से साक़ी प्रेम नहीं कर सकते। जबसे उन्होंने घोषणा की है कि वे हम से प्यार करते हैं, हम रातों को उठ-उठकर अपनी टाँगें टटोल-टटोलकर गिनते हैं कि कहीं हम अपने बारे में किसी भ्रान्ति का शिकार तो नहीं रहे हैं। जिस दिन से उनकी कृपादृष्टि हम पर हुई है, उन्होंने ज़मीन पर क़दम रखना छोड़ दिया है। मतलब यह कि उनका हर पग हमारे पांडित्य की पगड़ी पर पड़ता है।

नकचढ़े ऐसे कि बोर आदमी, ख़राब शेर, और नेकचलन औरत को एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। लन्दन की एक साहित्य सभा में एक अस्सी साल के बुज़ुर्ग शायर अपने उस्ताद स्वर्गीय पंडित लब्भू राम जोश का सौ-सवा-सौ शेरों पर आधारित मर्सिया पढ़ रहे थे। अभी आठ दस शेर ही पढ़े होंगे कि साक़ी ने अपना हाथ उठाया। फिर ख़ुद खड़े हो गए और बुलंद आवाज़ में फ़रमाया “आपके उस्ताद तो आपसे भी ज़्यादा नालायक़ थे।” यह कहा और वाक-आउट करके निकटतम पब में चले गए।

तो हम यह कह रहे थे कि फ़ैज़ साहब अपनी नज़्म “रक़ीब से” सुना रहे थे। इस नज़्म में फ़ैज़ ने रक़ीब को एक बिल्कुल नए दृष्टिकोण से देखा और दिखाया है। बहुत कुछ न कहकर भी सब कुछ कह दिया है। ऐसा लगता है जैसे प्रेम की घटना को एक युग बीत गया है। कामनाओं के नगर में जिस धनक तले, दिल पहले-पहल धड़का था वह अब निगाहों से ओझल है लेकिन उसके सारे रंग पिघलकर हृदय की धमनियों में उतर चुके हैं। लहू में जूनून का जो अलाव भड़का करता था, उसके शोले सालों व महीनों की धूल से काले पड़ गए, लेकिन धीमी-धीमी आँच बाक़ी है क्योंकि आग अब रौशनी में बदल चुकी है और यादों की इस वसंत-बहार रौशनी में माशूक़ (प्रेमिका) का मुखड़ा और भी सुन्दर हो गया है। अब रक़ीब से भी एक तरह की आत्मीयता व अंतरंगता  महसूस होती है क्योंकि उसने भी उन्ही सुर्ख़ होंठों और साहिर (जादू भरी) आँखों को चाहा था। कौन नाकाम हुआ और कौन कामयाब, इससे अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। रक़ीब को मुख़ातिब करके कहते हैं:

तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें

उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है

तुझपे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर

जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तूने देखी है वह पेशानी, वह रुख़सार, वो होंठ

ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने

तुझपे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें

तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या पाया है

जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ

(महबूब- प्रेमिका; मलबूस- लिबास,वस्त्र;  अफ़सुर्दा-उदास; बाम-छत;  महताब- चाँद; रुख़सार-गाल, चेहरा; तसव्वुर-कल्पना;  साहिर-जादूगर;  जुज़ –सिवाय)

फ़ैज़ साहब जब आख़िरी लाइन पर पहुँचे तो साक़ी फ़ारूक़ी ने बुलंद आवाज़ और बड़े गुस्ताख़ लहजे में कहा “बस। यहीं ख़त्म हो जाती है। आगे मत सुनाइये।” फ़ैज़ साहब को अपनी सारी शायराना महानता के बावजूद, दोस्तों और अपने अनुजों की दिलदारी इतनी प्रिय थी कि उन्होंने बाक़ी नज़्म नहीं सुनाई। अहमद फ़राज़, ज़हरा निगाह और शोहरत बुख़ारी ने जो वहाँ मौजूद थे, बहुतेरा कहा कि बाक़ी हिस्सा सुनाइये। मगर फ़ैज़ साहब बोले “ नहीं भई! जब साक़ी नहीं सुनना चाहता तो हम कुछ और सुनाएँगे।”

वे किसी का दिल दुखाने या मायूस करने की सोच भी नहीं सकते थे। यही नहीं, मुरौवत और दिलदारी का यह हाल था कि एक दिन लन्दन के श्रृद्धालुओं के झुरमुट में बैठे कलाम सुना रहे थे कि एक सरदार जी उन्हें लेने आ गए और वे उठकर उनके साथ बर्मिंघम चले गए। मालूम हुआ कि सरदार जी उन्हें अपनी बेकरी का उदघाटन कराने के लिए ले गए हैं! बाद में किसी ने दबे शब्दों में आश्चर्य व्यक्त किया तो कहने लगे कि सरदार जी ने हमें बड़ी मुहब्बत से बुलाया था। ब्रतानिया या पाकिस्तान में हमसे किसी ने किताबों की दुकान का उदघाटन नहीं कराया। बिस्कुट बुरे नहीं थे। सरदार जी तो एक तरफ़ रहे, फ़ैज़ साहब को तो उनके बिस्कुटों से भी मुहब्बत और वफ़ा की बू आ रही थी!

फ़ैज़ साहब ने अपने बारे में लिखा है:

हम जीते जी मसरूफ़ रहे

कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया

काम, इश्क़ के आड़े आता रहा

और काम से इश्क़ उलझता रहा

फिर आख़िर तंग आकर हमने

दोनों को अधूरा छोड़ दिया

ख़ैर, शायरी के बारे में तो फ़ैज़ साहब ने ग़लत-बयानी की हद को छूती हुई विनम्रता से काम लिया है। रहा उनका इश्क़ तो यह बात ज़ेहन में रखिये कि हमारे यहाँ इश्क़ का कारोबार जिस फ़ुर्सत, मेहनत, मशक़्क़त और ज़िल्लत (अपमान) का मुतालबा करता है, फ़ैज़ साहब की स्वाभाविक काहिली उसकी अनुमति नहीं देती थी। अपने एक इंटरव्यू में वे ख़ुद कहते हैं कि इश्क़ के लिए जितनी फ़ुर्सत चाहिए, उतनी मुझे नसीब नहीं होती। फ़ैज़ साहब की एक प्रशंसिका ख़दीजा बेगम उनकी बेनियाज़ी (उदासीनता) के बारे में लिखती हैं कि “ मैं बहुत मज़े-मज़े के खाने उनके लिए बड़े चाव व चाहत से पकाती। मगर हर बार देखा कि जो चीज़ बहुत नज़दीक होती बस वही खाते रहते। दाल क़रीब है तो दाल खा रहे हैं। मछली दूर है तो वह माँग नहीं रहे हैं। कभी कोई फ़र्क़ ही महसूस नहीं किया कि बैंगन का भुरता खा रहे हैं कि भेजा! शाही टुकड़े ले लिए हैं कि बघारे आलू।” कवि जब ज़िंदगी में ही “लेजंड” बन जाता है तो यार लोग उसके बारे में तरह-तरह के क़िस्से गढ़ लेते हैं। मसलन यही कि फ़लाँ कवि या लेखक सुन्दर मुखड़ों में दिलचस्पी रखता है। हमने लन्दन में छह सात साल फ़ैज़ साहब को और उनके निशदिन को काफ़ी निकट से देखा है। हमें तो वे निर्लिप्त व निष्काम से लगे। हमने तो पार्टियों में यही देखा कि अगर कोई शाही टुकड़ा ख़ुद चलकर उनके पहलू में पहुँच गया तो फ़ैज़ साहब ने हमारे हिस्से में आये बैंगन के भुरते को आँख उठाकर न देखा।

फ़ैज़ के ज़माने की शायरी का परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य कुछ यूँ है कि उर्दू शायरी अभी पूरी तरह गुलो-बुलबुल, आशियाना (नीड़) और बिजली (उस ज़माने में बिजली को आसमान की बिजली नहीं कहते थे), विरह की रातों की लंबाई, दिलो-जिगर से ख़ून का निष्कासन, मौत के बाद भी शरीयत द्वारा वर्जित कामनाओं का उफान, क़ब्र पर सफ़ाई, मरम्मत और रौशनी की अपर्याप्त व्यवस्था, क़ब्र के अन्दर स्वर्गीय की शान में फ़रिश्तों की बढ़ती हुई गुस्ताख़ियाँ वग़ैरह जैसे विषय से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा पाई थी। आशिक़ को हिज्र (विरह) में ज़्यादा मज़ा आता था:

हिज्र से शाद, वस्ल से नाशाद

क्या तबीयत जिगर ने पाई है

(शाद- प्रसन्न; वस्ल- प्रेम मिलन; नाशाद-अप्रसन्न)

हम भी एक मुद्दत तक इस शेर के भाव की रमणीयता, और विचार की नज़ाकत पर सर धुनते रहे, यहाँ तक कि एक दिन मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग ने यह कहकर सारा मज़ा किरकिरा कर दिया कि इस स्थिति का क्रेडिट स्वभाव को नहीं, स्वास्थ्य को जाता है!

फ़ैज़ की शायरी का सारा चमत्कार और उसकी सारी-की सारी उदासी और लयात्मकता उनके विशिष्ट स्वर में निहित है। स्वर में बड़े शायर की छब, छाप, तिलक और पहचान होती है। स्वर शब्द का तीसरा आयाम है। स्वर वह तिलिस्म है जिससे तासीर (प्रभाव) के ख़ज़ाने का सिमसिम और अर्थ-जगत का रम्य द्वार खुलता है। यह शब्द को नया स्वभाव देता है। ताज़ी तवानाई (ऊर्जा), तेवर और काट प्रदान करता है। स्वर शब्द की साख है। स्वर शब्द का सम्पूर्ण ठाठ है। यह आभूषण नहीं शब्द की गरिमा और ईसा की सांसों की गर्मी है। यह हृदय-गुफा के रहस्यों का हमराज़ है। स्वर नीयतों और भावों का धरोहरी है। स्वर इंसान की पहचान है। स्वर स्वयं इंसान है।

और इंसान भी कैसा। वह इंसान जिसके दिल में खोट-कपट, मैल, द्वेष, व शत्रुता का कोई गुज़र न था। जिसने जीवन के हर रंग और इंसान के हर रूप से प्रेम किया और टूटकर प्रेम किया।

फ़ैज़ की शायरी केवल शब्दों की मणिकारी नहीं। न उनकी कला मणिकार का काम है। उनका डिक्शन, बुनियादी तौर पर ग़ज़ल का डिक्शन है।  नज़्म में भी। लेकिन स्वर उनका अपना है। इससे पहले, इस स्वर में, और इस तरह किसी ने अपने तन्हाई के ग़म को ज़माने के ग़म से और प्रेम की पीड़ा को जन-जीवन की पीड़ा से नहीं मिलाया था। उनके अपने दर्द का ताना-बाना अपने युग के दुःख और सन्ताप से मिलता है। फ़ैज़ के स्वभाव में जो संयम व ठहराव था वह सारा-का सारा उन्होंने अपने धीमे-धीमे उदास स्वर की शायरी में समो दिया है। मद्धिम सुरों में ज़िन्दगी का गिला और ज़माने और लोगों की शिकायत तो है, लेकिन मायूसी, कड़वाहट, और क्रोध बिल्कुल नहीं, मोहतसिब6 एक सिम्बल और प्रतीक है। वे उस तक को बुरा नहीं कहते क्योंकि सारी चहल- पहल उसी के दम-क़दम से हैं:

मोहतसिब की ख़ैर, ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से

रिंद का, साक़ी का, मय का, पैमाने का नाम

(फ़ैज़ से –कृपा से, रिंद-शराबी, साक़ी-शराब पिलाने वाला/वाली; मय-शराब, प्रेमिका )

स्वर में एक मीठी सी कसक होती है जो दर्द थमने के बाद न सिर्फ़ जान को घुला देने वाली यातना व  पीड़ा का पता देती है, बल्कि क़दमों के ताज़ा निशान भी संयम के उस पथ पर दिखाती है जहाँ से कोई सभ्य दीवाना अभी-अभी पाबजौलाँ7 (पैरों में बेड़ियाँ डाले) और मस्त व रक़्साँ (नृत्य करता हुआ) गुज़रा है।

फ़ैज़ साहब ने सादा व सहज शब्दों को चमत्कार का ऐसा रंग प्रदान किया कि अपने कलाम को बिगाड़कर पढ़ने की बेहद कोशिश के बावजूद, उनके चाहने वालों को उनकी पढ़त की उखड़ी-उखड़ी शैली ऐसी भाई कि मुशायरों में वही शेर सुनाने का मापदंड ठहरा। गुफ़्तगू में भी वे सिग्रेट के कश से कॉमा, फ़ुलस्टॉप लगाते जाते। सिग्रेट मुँह में न हो, तब भी कश की सिसकी उसी तरह लेते रहते। मिसरे और जुमले की साँस टूट जाती। थोड़े-थोड़े अंतराल पर घायल सी सिसकी सुनाई देती। और सुनने वालों का प्यार, शायरी के ठहराव में मिठास घोलता चला जाता। दरअसल वे अपना कलाम इस तरह पढ़ते थे कि जैसे शायर अपने दुश्मनों का कलाम पढ़ते हैं। यानी सही शेर में जगह-जगह सकता (छंदभंग) पैदा करके। मगर यह भी उनकी मनमोहक अदा थी जिस पर हम ऐसे श्रद्धालु तो मुग्ध थे ही, उनकी नक़ल करने वालों को भी उनके शेर पढ़ने का अंदाज़ ऐसा भाया कि पढ़ते वक़्त शेर के अतिरिक्त स्वयं पर सकता (मूर्छा) तारी करने लगे। किसी कहने वाले ने विनोदपूर्वक कहा भी कि फ़ैज़ साहब ने तहतुल-लफ़्ज़8 पढ़ने की यह ख़ास शैली दरअसल अपनी नक़ल करने वालों का हाल और भी ख़स्ता करने के मक़सद से ईजाद की है।

इस बात की अब ऐतिहासिक हैसियत रह गई है कि फ़ैज़ साहब का राजनितिक मत क्या था। राजनीतिक मत, और आर्थिक दृष्टिकोण के मतभेद व टकराव से अलग हटकर देखने और याद रखने की बात यह है कि फ़ैज़ साहब की अपने मत, जीवन मूल्य और जीने के अंदाज़ से वफ़ादारी कितनी मज़बूत थी और उसपर क़ायम रहने में उन्होंने कैसे दृढ़ संकल्प व ठहराव का सबूत दिया। सोचने और अभिव्यक्ति की आज़ादी, मानवता का सम्मान और मानव मूल्यों की पहरेदारी में वे किसी समझौते के क़ायल न थे। जिस बाँके विचार-पथ की दिशा में उन्होंने एक दफ़ा अपना रुख़ कर लिया, फिर सारी उम्र उसे न बदला। और इसी वफ़ादारी के नुस्ख़े में इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-व नहार  ढूँढा9। फ़ैज़ साहब के कमिटमेंट और दृढ़ता को ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखना होगा। यूँ तो हमारे यहाँ ऐसे शायर और लेखक भी हैं जिन्होंने हर दौर में हर हुकूमत का विरोध किया। जैसे— नाम क्या लूँ, कोई अल्लाह का बंदा होगा। और अपनी जानकारी में ऐसे भी शेर-ए-बेशा (जंगल के शेर) और नौकरी-पेशा हैं जिन्होंने हर हुकूमत के समर्थन और आज्ञापालन को अपने पद संबंधी कर्तव्य की तरह निभाया। मसलन— अब नाम क्या गिनवाऊँ। सूची में सबसे ऊपर अपना ही नाम लेते हुए शर्म आती है।  आख़िर विनम्रता भी कोई चीज़ है। जिराफ़ को ऊँट की गर्दन पर ऐतराज़ करने का हक़ नहीं पहुँचता। हुकूमतों को और भी ख़राब व ख़्वार (अपमानित) करने में कुछ लेखक सबसे आगे न सही, सबसे पीछे भी नहीं रहे। सियासी शक्ति व सत्ता में ख़ुद से बिगड़ने और गुमराह होने की महान क्षमता निहित होती है। सरकारों का दुखद हाल Max Miller की नौजवान हीरोइन जैसा होता है:

When she was good, she was very very good, when she was bad, she was very very popular.

मुझ जैसे अशिष्ट लेखक के अनुशासन के लिए कभी-कभार शाही अस्तबल से कोई काठ का घोड़ा सुनहरी ज़ीन समेत मिल भी जाता है तो उससे मंज़िल तय होती है, न पद व प्रतिष्ठा पाने की इच्छा की तुष्टि होती है। पंजाबी की एक कहावत है कि ‘घोड़ी चढाते लगदा थानेदारनी माए।’ यानी जब वह घोड़ी पे चढ़ता है तो बिल्कुल थानेदार लगता है। मगर हम घोड़ी पे चढ़ के भी घोड़ी ही लगते हैं। यानी वह घोड़ी जिसपे थानेदार चढ़ता है!  मीडिया हो या लेखकों, कवियों और बुद्धिजीवियों की दुनिया, हर युग में सत्ताधारियों का स्तुति गान करने वाले ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं रही जिनकी रज़ामंदी का रंग-ढंग जेम्स जोयस की Molly Bloom के तन-समर्पण की याद दिलाता है।

“He asked me with his eyes, yes, and with his hands, yes, and yes, I said, yes, I will, yes!”

देवियों व सज्जनों! यह मनोविश्लेषण की समस्या नहीं, स्वार्थ के तिरस्कार का केस है।

इस सन्दर्भ और ऐसे वातावरण में हम पीछे मुड़ के देखते हैं तो फ़ैज़ उस क़बीले की आँख का तारा नज़र आते हैं जिसका असल विषय, आरम्भ से अंत तक, इंसान का दुःख और उसका निवारण रहा है। फ़ैज़ ने यह भी स्पस्ट कर दिया कि यह दुःख किसी अंधी नियति का पैदा किया हुआ नहीं है। जीवन की त्रासदी यह है कि इंसान के सारे दुःख-दर्द का स्रोत ख़ुद इंसान ही है। लेकिन इसी से कुछ आस भी बंधती है। इसलिए कि मर्ज़ इलाज-योग्य और अपराध सुधार-व सज़ा-योग्य है:

जज़ा सज़ा सब यहीं होगी, यहीं अज़ाब-व-सवाब होगा

यहीं से उट्ठेगा रोज़-ए-महशर, यहीं पे रोज़-ए-हिसाब होगा

(जज़ा-इनाम;  अज़ाब-गुनाह की सज़ा;   सवाब-नेकी का इनाम;  रोज़-ए-महशर-क़यामत का दिन; रोज़-ए-हिसाब-हिसाब का दिन अर्थात जिस दिन ख़ुदा लोगों के कर्मों का हिसाब करेगा।)

तीसरी दुनिया के दुःख और उसके कारणों पर फ़ैज़ की बड़ी गहरी नज़र थी। तीसरी दुनिया का असल दुःख भूख, दरिद्रता और अकाल नहीं है। तीसरी दुनिया का दुःख भलेमानुसों व योग्य व्यक्तियों का अकाल भी नहीं है, जिसका इतना रोना रोया जाता है। तीसरी दुनिया भलेमानुसों व योग्य व्यक्तियों के अकाल की नहीं, निकम्मों व नालायक़ व्यक्तियों के अत्याचार की मारी हुई है।

फ़ैज़ साहब की वैचारिक प्रतिबद्धता कुछ भी रही हो, उनका व्यक्तित्व और शायरी हर विवाद और मतभेद से ऊपर रही है। विरला ही कोई शायर अपने जीवन में उस तरह चाहा और सराहा गया होगा जिस तरह फ़ैज़ साहब लोगों के ध्यान का केंद्र रहे। उन्होंने अर्ध-शताब्दी से अधिक समय तक कविता जगत में लोगों के दिलों पर राज किया और उनकी मुहब्बतें व श्रद्धाएँ समेटीं? साथ ही साथ फ़ैज़ ने लाहौर क़िले और जेल में भी निवास किया। कारावास के कष्ट झेले। सरकारी आजीविका के दरवाज़े उनपर बंद किये गए। देश-निर्वासन का जीवन जिया। कोपभाजन रहे। अगर कोई नौकरी मिली भी तो उसकी हैसियत उस वज़ीफ़े से अधिक न थी जो दकन के आला हज़रत निज़ाम राजसी करुणावश उन लोगों के लिए सुनिश्चित कर देते थे जिनसे वे हमेशा के लिए ख़फ़ा हो जाते थे। यह वज़ीफ़ा-ए-इताब (क्षुब्ध-वृत्तिका) कहलाता था। मगर यह कैसा क़ैदी है कि क़ैद के दौरान ख़ुद जेलर उसके सम्मान में महफ़िल सजाता है, और यह कैसा अलबेला कोपभाजन है कि वित्तमंत्री उसके शरों का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने को सम्मान व पापों से मुक्ति का माध्यम समझता है। डॉक्टर महबू-बुल-हक़ के 5-year प्लान तो जल्द या देर में इतिहास के कबाड़ख़ाने में पहुँच जाएँगे जहाँ समय की सत्ता- विस्मारक दीमक उन्हें बहुत बारीक कतर-कतर के रख देगी। क्या आश्चर्य कि वे सिर्फ़ इसी अनुवाद के नाते याद रखे और पाप-मुक्त कर दिए जाएँ। फ़ैज़ की शायरी इतनी सख़्त-जान निकली कि अंग्रेज़ी अनुवाद भी उसका कुछ न बिगाड़ सके। यह मुझे इसलिए कहना पड़ा कि फ़ैज़ की शायरी में पहले प्यार की छलकती मदहोशी और आत्म-समर्पण है जिसकी ताब अंग्रेज़ी भाषा नहीं ला सकती। अंग्रेज़ी भाषा casual affairs और dating की अभिव्यक्ति के लिए बहुत उपयोगी माध्यम है। आदमी ज़िन्दगी में इश्क़ एक ही बार करता है। दूसरी बार ऐयाशी। और उसके बाद निरी बदमाशी। अंग्रेज़ी भाषा दूसरी और तीसरी स्थितियों के रहस्यों की अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत अनुकूल है। मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग भी इसका समर्थन करते हैं कि पहला प्रेम बिल्कुल सच्चा, genuine और पवित्र होता है। इसलिए कि उस ज़माने में इतनी समझ नहीं होती!

कुछ देर के बाद आप फ़ैज़ का कलाम प्रतिष्ठित गायकों से सुनेंगे। ऐसा सुअवसर कम होता है कि ख़ूबसूरत कलाम को, गाने वाला भी अच्छा मिल जाए। मीर तक़ी मीर ने इसी बात पर ग़रीबी और तंगदस्ती के बावजूद, अच्छी भली नौकरी पर लात मार दी। हुआ यह कि एक दिन रियायत ख़ाँ नामक उनके आक़ा (स्वामी) ने फ़रमाइश की कि मीर साहब! इस गवैये के लौंडे को अपने दो-तीन शेर रेख़्ता (उर्दू) के याद करा दीजिये तो यह अपने साज़ दुरुस्त करके गा लेगा। मीर साहब ने इसे अपनी और अपने कलाम की तौहीन समझा। इसलिए अपनी आपबीती में लिखते हैं कि मैंने जवाब दिया “यह मुझसे नहीं हो सकता।” कहने लगा, मेरी ख़ातिर से! चूँकि नौकरी का लिहाज़ था इसलिए अनमने तौर पर तामील (पालन) की और पाँच-छह शेर रेख़्ता के उसे याद करा दिए। मगर यह बात मेरे नाज़ुक मिज़ाज को बुरी लगी। आख़िर दो-तीन दिन बाद घर बैठ रहा। उसने बहुत बुलाया। नहीं गया। और उसकी नौकरी पर लात मार दी।”

लेकिन फ़ैज़ के कलाम की लयात्मकता ने गायकों और उनकी गायकी को भी लोकप्रियता व अमरत्व प्रदान कर दिया। मेहदी हसन ने उनकी “गुलों में रंग भरे” वाली ग़ज़ल ऐसी गाई कि दोनों एक-दूसरे बल्कि एक-तीसरे से जुड़ गये।  इक़बाल बानो ने “हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम देखेंगे” अपनी सदा-सुहागन आवाज़ में ऐसे जी-जान से गाया है कि सुनने वाले का दिल, ‘वह दिन कि जिसका वादा है’, देखने के लिए ज़िन्दा रहने को चाहता है। मादाम नूरजहाँ, फ़रीदा ख़ानम, ग़ुलाम अली, नैयरा नूर, टीना सानी—  सभी ने कलाम और गायकी का हक़ अदा किया है। माफ़ कीजिये। हम ताहिरा सैयद का नाम लेना भूल गए। वो बीबी तो हमें बहुत ही पसंद हैं। हमारा इमला बहुत कमज़ोर है। गाने के साथ-साथ वे हमें अल्फ़ाज़ के हिज्जे भी याद करा देती हैं!

फ़ैज़ का शुमार दुनिया से बहुत कुछ लेने वालों में नहीं होगा। वे दुनिया को बहुत कुछ देकर जाने वालों में से थे। महान कलाकार की पहचान यह है कि वह अपनी ज़िन्दगी से चुराई हुई एक दुर्लभ घड़ी को भी अमरत्व प्रदान कर देता है और एक ताज़ा क्षण को शाश्वत बना देता है। उसकी हर बात इक मुक़ाम से होती है। विषय, निजी ग़म हो, या इंसान का जनम-जनम का दुःख, फ़ैज़ ने अनुभूति की सतह को एक नई ऊँचाई प्रदान की और स्वर को एक नया विश्वास और अंदाज़ दिया। यह कहना तो कम-बयानी होगी कि फ़ैज़ अपने युग की आवाज़ थे। उनकी आवाज़ उनकी अपनी आवाज़ थी। इसकी गूँज इतनी दूर तक और देर तलक सुनाई देगी कि उनका युग उनकी आवाज़ से पहचाना जाएगा। इस आवाज़ ने आज के दुःख से निढाल लोगों को कल के लिए जीने का हौसला दिया। हम ख़ुशनसीब हैं कि हमने यह युग देखा और उम्मीद और दर्द में डूबी हुई यह आवाज़ सुनी। अर्ध-शताब्दी पूर्व लिखी हुई फ़ैज़ की नज़्म “बोल” हमारे दौर का धर्मग्रन्थ है, जिसके शब्दों में युद्धगीत गाने वालों की गर्म साँसों की आँच होती है। इसके राग-सुर में प्राचीन काल की आकाशवाणियों का वैभव और रौब व दबदबा गूँज रहा है।

बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल, ज़ुबाँ आब तक तेरी है

तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा

बोल, कि जाँ अब तक तेरी है

देख कि आहनगर की दुकाँ में

तुन्द हैं शोले, सुर्ख़ है आहन

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन

बोल, यह थोड़ा वक़्त बहुत है

जिस्म व ज़ुबाँ की मौत से पहले

बोल, कि सच ज़िन्दा है अब तक

बोल, जो कुछ कहना हो कह ले

(सुतवाँ-छरहरा;  आहनगर-लोहार;  तुन्द- तेज़;  आहन-लोहा;  क़ुफ़्लों के दहाने-तालों के मुँह)


अनुवादक : डॉ. आफ़ताब अहमद

वरिष्ठ व्याख्याता, हिंदीउर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क 

  1. पिश्वाज़- नृत्य के समय पहना जाने वाला लहंगा ।

2 इफ़्तिख़ार आरिफ़: उर्दू के एक नामचीन शायर।

3 यह पंक्ति दरअसल फ़ारसी कवि हाफ़िज़ शीराज़ी के प्रसिद्द शेर की किसी और रचना में यूसुफ़ी साहब द्वारा की गई पैरोडी है: मूल शेर यह है:

ब-फ़रोग़ चेहरा ज़ुल्फ़त हमे शब ज़नद रह-ए-दिल

चे दिलावर अस्त दुज़्दी कि बकफ़ चिराग़ दारद

(अर्थात चेहरे की रौशनी के साथ तेरी ज़ुल्फ़ ने सारी रात दिल के रास्ते पर डाका डाला । एक चोर (तेरी ज़ुल्फ़) कितनी दिलेर है कि हथेली में (चेहरे का) चिराग़ लिए हुए है। यूसुफ़ी साहब ने “चिराग़” को “सुराग़” कर दिया है।

4 कोह-ए-तूर– तूर पर्वत जहाँ हज़रत मूसा को ख़ुदा का दर्शन हुआ था, और वे बेहोश होकर गिर पड़े थे।

5 रक़ीब- प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रतिद्वंदी।

6  (i.) मोहतसिब-हिसाब लेने वाला, मुग़लकाल में नैतिक क़ानून का उलंघन करने वालों को सज़ा देने वाला अधिकारी;  उर्दू ग़ज़ल में इसका ज़िक्र एक सख़्त, अहंकारी, बदमिज़ाज व्यक्ति के रूप में बहुत हुआ है।

7 फ़ैज़ की एक कविता जिसे पाँच पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं:

चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं

तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं

आज बाज़ार में पा-बजौलाँ चलो

दस्त अफ़्शां चलो मस्त-व-रक़्साँ

ख़ाक बर सर चलो खूँ बा-दामाँ चलो

(चश्म-ए-नम—भीगी आँखें; जान-ए-शोरीदा-विक्षिप्त या उद्विग्न प्राण; तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा- गुप्त प्रेम का आरोप; पा-बजौलाँ-पैरों में बेड़ियों के साथ; दस्त अफ़्शां- नृत्य के दौरान हाथ नचाते हुए; मस्त-व-रक़्साँ – मस्त और नाचते हुए; ख़ाक बर सर-सर पर धूल लिए; खूँ बा-दामाँ- दामन पर ख़ून लिए)

8 तहतुल-लफ़्ज़ : शेर को गाकर (तरन्नुम में) सुनाने के बरक्स पढ़कर सुनाना।

9 फ़ैज़ की नज़्म “निसार मैं तेरी गलियों के ” की आख़िरी दो पंक्तियों की ओर संकेत  हैं :

जो तुझसे अहद-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं

इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार रखते हैं

अर्थात ऐ वतन तेरे प्रेमी जिनका तुझसे वफ़ादारी का संकल्प दृढ़ है, उनके पास रात-दिन के चक्करों की उठा-पठक का इलाज मौजूद है।

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion