समकालीन जनमत
जनमत

क्या श्रीलंका पत्रकार लसांथा विक्रमतुंगे की चेतावनियों को अनसुना करने की कीमत चुका रहा है ?

संभव है कि आपमें से बहुत कम लोगों ने श्रीलंकाई पत्रकार-संपादक लसांथा विक्रमतुंगे का नाम सुना होगा. वे ‘द संडे लीडर’ के संपादक और संस्थापक थे. वर्ष 2009 में कोलम्बो में दिन-दहाड़े उनकी हत्या कर दी गई थी.

लसांथा को अपनी हत्या का पहले से ही अंदेशा हो गया था. वे अपनी हत्या से कुछ दिन पहले ही एक सम्पादकीय लिख गए थे जो उनकी उनकी हत्या के दो दिन बाद उनके अखबार में छपा. यह सम्पादकीय श्रीलंका के मौजूदा संकट के मुख्य किरदारों- राजपक्षे परिवार की राजनीति की समस्याओं और उसके नतीजों के बारे में देश को चेताता है.

लेकिन श्रीलंका की जनता के बड़े हिस्से ने उन्हें और उनकी चेतावनियों को नहीं सुना.

लसांथा विक्रमतुंगे आज से 15 साल पहले जब राजपक्षे परिवार की बहुसंख्यक सिंहला उग्र राष्ट्रवाद की राजनीति के खतरों और उसकी आड़ में सत्ता के संकेन्द्रण और भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और मनमानेपन के बारे में देश को चेता रहे थे तो उनकी किसी ने नहीं सुनी.

उन जैसे अनेकों पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चेतावनियों को भी लोगों ने अनदेखा किया.

उन्हें गद्दार तक कहा गया. उनपर और उनके अख़बार पर सत्ता के संरक्षण में हमले हुए. पुलिस आरोपियों को बचाने में लगी रही. कोर्ट भी आँखें मूंदे रहे या आरोपियों को बचाने में शामिल हो गए.

उलटे 2009 में लसांथा विक्रमतुंगे की दिन-दहाड़े कोलम्बो में हत्या कर दी गई. उस दौरान कई और पत्रकारों की हत्याएं हुईं, कई को अगवा करके यातनाएं दी गईं, कई पत्रकारों-बुद्धिजीवियों-सामाजिक कार्यकर्ताओं को देश छोड़कर भागना पड़ा.

इसीलिए श्रीलंका के आज के संकट को समझने के लिए फ्लैशबैक में जाना जरूरी है. श्रीलंका के मौजूदा संकट की कहानी का एक सिरा साल 2009, मौजूदा राष्ट्रपति और तबके रक्षा सचिव गोटाबाया राजपक्षे और ‘द संडे लीडर’ अख़बार के संपादक लसांथा विक्रमतुंगे के साथ भी जुड़ा है.

लेकिन इस कहानी की ओर थोड़ी देर में लौटते हैं. पहले आज के श्रीलंका पर एक निगाह डालते हैं.

श्रीलंका: अप्रैल-जुलाई 2022   

देश गुस्से में उबल रहा है. अर्थव्यवस्था दिवालिया और ध्वस्त हो चुकी है. देश पेट्रोल, रसोई गैस, दवाइयों, खाद्यान्नों की भारी किल्लत से जूझ रहा है. देश के पास इनका आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं है. महंगाई आसमान छू रही है. मुद्रास्फीति की दर 50 फीसदी से ज्यादा पहुँच चुकी है. लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर हैं. वे पिछले दो-ढाई महीने से राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं. लेकिन वे हटने को तैयार नहीं थे.

आख़िरकार इस शनिवार को लोगों के सब्र का बाँध टूट गया. राजधानी कोलम्बो में जुटे लाखों प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति निवास में घुस गए और उसपर कब्ज़ा कर लिया. राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को इसका अंदाज़ा हो गया था, इसलिए वे शुक्रवार को ही घर छोड़कर भाग चुके थे. इससे ठीक दो महीने पहले गोटाबाया के बड़े भाई और तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को भी ऐसे ही इस्तीफ़ा देकर घर छोड़कर भागना पड़ा था.

श्रीलंका में हालात हर घंटे बदल रहे हैं. सरकार का इकबाल बहुत पहले ही खत्म हो चुका था. अब नाम की भी सरकार नहीं रह गई है. देश आर्थिक तबाही के साथ राजनीतिक अराजकता के कगार पर खड़ा है.

बास्तील के किले की तरह ढह गया राष्ट्रपति निवास

ख़बरों के मुताबिक, गोटाबाया इस बुधवार को इस्तीफा देने के लिए भी राजी हो गए हैं. उधर, प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे ने भी इस्तीफ़ा दे दिया है. शनिवार की रात उनका निजी घर भी आग़ के हवाले कर दिया गया.

लेकिन श्रीलंका एक महीने या साल में इस हालत में नहीं पहुंचा है. उसकी नींव बहुत पहले रखी जा चुकी थी.

श्रीलंका लम्बे अरसे से जिस बड़ी राजनीतिक और आर्थिक आपदा की ओर बढ़ रहा था, उसमें निरंकुशता, भ्रष्टाचार, पक्षपात और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे राजपक्षे परिवार की भूमिका के बारे में पत्रकार, बुद्धिजीवी और सामाजिक/मानवाधिकार कार्यकर्त्ता देश को बहुत पहले से आगाह कर रहे थे.

उनमें से ही एक पत्रकार-संपादक का नाम था- लसांथा विक्रमतुंगे जो अपने अख़बार ‘द संडे लीडर’ के जरिये देश को तब से चेता रहे थे जब राजपक्षे परिवार और उसके मुखिया और तबके राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की सत्ता के शुरूआती साल थे.

यह 2000 का दशक था. उस समय श्रीलंका खासकर बहुसंख्यक- सिंहला समुदाय पर राजपक्षे परिवार का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था. कोई राजपक्षे परिवार के खिलाफ एक शब्द सुनने को तैयार नहीं था. महिंदा राजपक्षे और गोटाबाया राजपक्षे हीरो थे क्योंकि वे तमिल अलगाववादी विद्रोहियों को कुचलने के अभियान में लगे थे जिसे एथनिक बहुसंख्यक सिंहला बौद्ध समुदाय का भारी समर्थन हासिल था.

याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि इसी सिंहला बौद्ध राष्ट्रवाद को हवा देकर और उसके कंधे पर चढ़कर राजपक्षे परिवार ने पहले मानवाधिकारों की अनदेखी करते हुए निर्ममता से सैन्य ताकत के बल पर अल्पसंख्यक तमिल अलगाववादी विद्रोहियों का सफाया किया और फिर एथनिक विभाजन और नफ़रत की राजनीति को आगे बढ़ाना और उसकी आड़ में राजनीतिक ताकत को संकेंद्रित करना शुरू किया.

महिंदा और गोटाबाया राजपक्षे

उस दौरान ही लसांथा विक्रमसिंघे ने दीवार पर लिखी जा रही इबारत को पढ़ लिया था कि देश किस ओर जा रहा है?

लेकिन देश ने लसांथा विक्रमतुंगे को नहीं सुना. उन जैसे और पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को नहीं सुना. वे सिंहला राष्ट्रवाद के नशे में थे. वही लोग जो इनदिनों कई महीनों से सड़कों पर हैं. “गो गोटा गो” के नारे लगा रहे हैं, वे तब महिंदा और गोटाबाया के दीवाने थे. राजपक्षे परिवार की आलोचना सुनने को कोई तैयार नहीं था.

फ्लैशबैक: श्रीलंका: कोलम्बो, 8 जनवरी 2009

उस दिन कोलम्बो के आसमान में हलके बादल छाए हुए थे. तापमान 28 डिग्री सेंटीग्रेड के आसपास था. दफ़्तर का समय हो गया था. रोज की तरह लसांथा उस दिन भी समय पर दफ़्तर के लिए निकले. वे अपनी कार खुद चला रहे थे. जब वे 10.45 के आसपास माउंट लाविनिया पुलिस स्टेशन के अत्तिदिया रोड के क्रासिंग पर पहुंचे तो पहले से उनका पीछा कर रहे चार मोटर साइकिल सवार हमलावरों ने उनका रास्ता रोका. यह जगह रत्मलाना सैन्य बेस के पास है.

रिपोर्टों के मुताबिक, लसांथा की किसी धारदार और भारी हथियार से मारकर लहुलुहान कर दिया. उन्हें बाद में कालुबोविला टीचिंग अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनकी दोपहर 2.10 बजे मौत हो गई. लसांथा की कुछ ही सप्ताहों पहले शादी हुई थी. उनकी सहकर्मी और पत्नी सोनाली समरसिंघे ने बाद में बताया कि उस दिन सुबह भी बाज़ार में कुछ लोग लसांथा का पीछा कर रहे थे. लेकिन यह कोई नहीं बात नहीं थी. लसांथा को काफी दिनों से धमकियाँ मिल रही थीं, उनपर और उनके अखबार पर हमले हो चुके थे.

लसांथा विक्रमतुंगे का शव और परिवार के लोग

यही नहीं, लसांथा को आभास था कि उनकी हत्या हो सकती है. उन्होंने अपनी हत्या से कुछ दिनों पहले ही अपनी हत्या की भविष्यवाणी करते हुए एक सम्पादकीय लिखा था. उन्होंने इस सम्पादकीय में साफ़ इशारा किया था कि उनकी हत्या के लिए कौन लोग और शक्तियां जिम्मेदार होंगी? उनका इशारा तत्कालीन महिंदा राजपक्षे की सरकार की ओर था.

असल में, लसांथा को अगले कुछ दिनों में तत्कालीन रक्षा सचिव गोटाबाया राजपक्षे की ओर से दाखिल मानहानि के मामले में कोर्ट में पेश होकर लड़ाकू विमानों की खरीद में हुए भ्रष्टाचार पर गवाही देनी थी. लसांथा के अखबार ‘द संडे लीडर’ ने मिग लड़ाकू विमानों की खरीद में गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार की रिपोर्ट छापी थी. अखबार साहस के साथ महिंदा राजपक्षे की सरकार की गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ कर रहा था. साथ ही, वह उसकी नीतियों का भी कटु आलोचक था.

आश्चर्य नहीं कि लसांथा की हत्या के बाद उसकी जांच को प्रभावित करने, उसे भटकाने और ठप्प करने की पूरी कोशिश की गई. जाहिर है कि जांच कहीं नहीं पहुंची. इस बीच, लसांथा की पत्नी सोनाली को देश छोड़कर जाना पड़ा. अगले कुछ सालों में अखबार ‘द संडे लीडर’ को सरकार समर्थित एक कारोबारी ने खरीद लिया और उसकी संपादक को बर्खास्त कर दिया. अखबार में सरकार की आलोचना बंद हो गई और उसके बाद अख़बार भी बंद हो गया.

अगले छह सालों तक जब तक महिंदा राजपक्षे की सरकार रही, जांच के नामपर पर लीपापोती होती रही. लेकिन जब 2015 में मैत्रीपाला सिरिसेना राष्ट्रपति चुने गए तो उम्मीद जगी कि वास्तविक हत्यारे पकड़े जाएंगे.

नई सरकार ने जांच का काम अपराध अनुसन्धान विभाग (सीआईडी) को सौंपा. जांच अधिकारी निशान्था सिल्वा ने बारीकी और नए सिरे से जांच शुरू की. एक-एक तथ्य, सबूत और परिस्थितियों को जांचते और जोड़ते हुए सिल्वा ने हत्या की गुत्थियों को सुलझाना शुरू किया. यहाँ तक कि कई सालों बाद लसांथा के शव को कब्र से फिर से निकाला गया और उसका पोस्टमार्टम हुआ.

लेकिन जब तक जांच किसी नतीजे तक पहुँचती और दोषियों को सजा होती, 2019 के नवंबर में गोटाबाया राजपक्षे की सरकार फिर से सत्ता में आ गई. जांच अधिकारी निशान्था सिल्वा को देश छोड़कर भागना पड़ा. लेकिन अपनी जांच में सिल्वा इस नतीजे पर पहुँच गए थे कि लसांथा की हत्या के पीछे कोई और नहीं बल्कि तत्कालीन रक्षा सचिव गोटाबाया राजपक्षे का हाथ था. सिल्वा ने इस साल 13 मई को हेग में एक अंतरराष्ट्रीय पीपुल्स ट्रिब्यूनल के सामने गवाही में कई विस्फोटक खुलासे किए. गोटाबाया ने हत्या के लिए श्रीलंकाई सेना के ताकतवर इंटेलिजेंस विभाग के त्रिपोली प्लाटून का इस्तेमाल किया था.

यह त्रिपोली प्लाटून तत्कालीन रक्षा सचिव गोटाबाया राजपक्षे के अधीन काम करती थी और चेन आफ कमांड में बीच में सिर्फ तीन अफसर थे. त्रिपोली प्लाटून पर और भी कई पत्रकारों को धमकाने, उन्हें अगवा करके मारपीट करने और सरकार के विरोधी पत्रकारों को गायब कराने से लेकर उनकी हत्याएं कराने तक के आरोप लगे थे. 2005-2015 के बीच त्रिपोली प्लाटून की सफ़ेद वैन श्रीलंका में राज्य आतंक का पर्याय बन गई थी.

आश्चर्य नहीं कि लसांथा के परिवार और खासकर उनकी बेटी अहिम्सा विक्रमतुंगे ने भी हत्या का आरोप गोटाबाया राजपक्षे पर ही लगाया था. अहिम्सा ने बहुत बाद में गोटाबाया के खिलाफ एक अमेरिकी कोर्ट में मुक़दमा भी दाखिल किया था क्योंकि गोटाबाया राजपक्षे के पास श्रीलंका और अमेरिका की दोहरी नागरिकता है. लेकिन राष्ट्रपति के पद पर होने के कारण प्राप्त इम्यूनिटी का हवाला देकर कोर्ट ने उसे स्वीकार नहीं किया.

श्रीलंका, 2022              

श्रीलंका में आज जो कुछ हो रहा है, वह कुछ विश्लेषकों को हैरान कर रहा है. खासकर श्रीलंका की राजनीति और सत्ता पर पिछले दो दशकों से दबदबा जमाए बैठे राजपक्षे परिवार के खिलाफ जिस तरह से लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है, उसकी कुछ महीनों पहले तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था.

श्रीलंका में राजपक्षे परिवार के एकछत्र राज का अंदाज़ा सिर्फ एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गोटाबाया राजपक्षे जहाँ राष्ट्रपति थे, वहीँ उनके बड़े भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री थे जबकि सबसे छोटे भाई बासिल राजपक्षे वित्त मंत्री और सबसे बड़े भाई चमाल राजपक्षे सिंचाई मंत्री थे. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के बेटे नमाल राजपक्षे युवा और खेल मंत्री थे.

राजपक्ष परिवार (साभार: टाईम न्यूज)

 

भाई-भतीजावाद का आलम यह कि कहा जाता है कि जब महिंदा राजपक्षे वर्ष 2010-15 के बीच राष्ट्रपति थे तो उस समय कैबिनेट से लेकर सरकार में राजपक्ष वंश के 40 सदस्य विभिन्न पदों पर क़ाबिज थे. हालाँकि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, मनमानी, भारी विदेशी कर्ज लेकर सफ़ेद हाथी की तरह बड़े-बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट लांच करने, राजनीतिक निरंकुशता और उत्पीड़न के आरोपों से घिरे राजपक्षे परिवार को वर्ष 2015 के राष्ट्रपति चुनावों में मुंह की खानी पड़ी. ऐसा लगा कि राजपक्षे परिवार राजनीतिक बियाबान की ओर ढकेल दिया गया है.

लेकिन कुछ ही सालों में सत्तारूढ़ गठबंधन के अंदरूनी झगड़ों और खींचतान के बीच राजनीतिक हालात खासकर अप्रैल’19 में ईस्टर के दौरान हुए आतंकवादी बम धमाकों के बाद ऐसे बदले कि नवंबर’19 में गोटाबाया राजपक्षे आसानी से राष्ट्रपति चुन लिए गए. फिर 2020 के संसदीय चुनावों में भी उनकी श्रीलंका पोदुजना पेरामुना (एसएलपीपी) की जीत हुई. महिंदा राजपक्षे की प्रधानमंत्री बन गए. इस बार और बेशर्मी से परिवार के सदस्यों को कैबिनेट में मंत्री बनाने से लेकर सरकार में जिम्मेदार पदों बैठाने का खेल शुरू हो गया.

यही नहीं, राजपक्षे परिवार ने एक बार फिर मनमाने तरीके से फैसले करने शुरू कर दिए. हालाँकि आर्थिक संकट के शुरूआती संकेत मिलने लगे थे. इसके बावजूद विशेषज्ञों की सलाह को अनदेखा करके एक झटके में टैक्सों में भारी कटौती और जैविक खेती अपनाने जैसे तुगलकी फैसले किए गए जिससे संकट और गहराने लगा. दूसरी ओर, एथनिक/धार्मिक भावनाओं को भड़काने, सिंहला राष्ट्रवाद को उकसाने और आतंकवाद से लड़ाई के नामपर विरोधियों के दमन और मीडिया को चुप कराने की राजनीति को जोरशोर से आगे बढ़ाया गया.

राजपक्षे परिवार को अपनी राजनीतिक ताकत और प्रभाव का इतना गुमान हो गया था कि वे बढ़ते आर्थिक संकट और ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था के बावजूद न सिर्फ उसे नज़रअंदाज़ करते रहे बल्कि वे इतने निश्चिंत और आत्मविश्वास में थे कि चीजें खुद ब खुद ठीक हो जायेंगी. लेकिन रही-सही कसर कोरोना महामारी और उसके बाद यूक्रेन-रूस युद्ध ने पूरी कर दी.

नतीजा, सबके सामने है.

सबक: सत्ता के तीखे आलोचक पत्रकारों/संपादकों/बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों को ध्यान से सुनिए. उन्हें न सुनने की देश को और आपको खुद बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.     

Fearlessly expressing peoples opinion