समकालीन जनमत
जनमत

यह सभ्यतागत आत्मविश्लेषण का क्षण है

हर्ष मंदर

लाॅकडाउन के दौरान भारत के मजदूर वर्ग से पल्ला झाड़ लेना सामाजिक अपराध में सामूहिक सहभागिता है.

राष्ट्रव्यापी लाॅकडाउन के लहूलुहान महीनों ने कुछ विशेषाधिकार-प्राप्त फँसे हुये लोगों से गरीब मजदूरों के अलगाव के बारे में कई विचलित करने वाली सच्चाइयों का पर्दाफ़ाश किया है। इसने एक ऐसे समाज को नंगा कर दिया है जिसमें कुछ विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों को असमानता से और न्यूनतम सद्भावना और एकजुटता के अभाव से कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि आधुनिकता का मुलम्मा और प्रगतिशीलता और संविधान के समतावादी मूल्य – बाबासाहब अम्बेडकर के विद्वतापूर्ण शब्दों में -रंगरोगन की पर्ताें से अधिक गहरे नहीं हैं।

गरीबों का निर्वासन

अपनी पुस्तकः ‘इनईक्वलिटी, प्रिजुडिस एण्ड इंडिफरेंस इन न्यू इंडिया’ में मैंने भारतीय धनिकों और मध्यवर्ग के लोगों को दुनिया के सबसे बेपरवाह लोगों के वर्ग में रखा है, अभी भी जाति एवं वर्ग की क्रूरताओं में मुब्तला, उनकी एक ही खासियत है दुनिया के अन्याय और कष्टों पर एक नज़र डालकर उन्हें अनदेखा कर देना और मुँह घुमाकर चल देना।

मैंने अपनी अन्तरात्मा और अन्तश्चेतना से उनकी बेदखली के बारे में लिखा है। इस लाॅकडाउन ने पूरी तरह से उजागर कर दिया है कि उनका निर्वासन कितना निरपेक्ष और निर्मम है। मध्यवर्गीय घरों में पलने वाले किसी भी नौजवान को गरीब हर जगह दिखायी तो देते हैं पर वे केवल ऐसे यंत्र के रूप में होते हैं जो हमारी हर जरूरत को पूरा करें। उनकी पहचान कभी सहपाठी, सहकर्मी या कार्यस्थल पर प्रतिस्पर्धी या खेल के मैदान में या सिनेमा/थियेटर में दोस्त के तौर पर नहीं होती।

कोविड-19 के संक्रमण का दौर आते ही हम अचानक इन गरीब मजदूरों को संक्रमण फैलाने वाले ख़तरनाक लोगों के तौर पर देखने लगे। हम अचानक यह चाहने लगे कि वे फौरन हमारी आँखों से दूर चले जाँय। हम भूल गये कि गरीबों ने हमें ख़तरे में नहीं डाला है बल्कि हमारे सम्पर्क में आने पर हमने ही उन्हें ख़तरे में डाला है। आखिरकार जो लोग हवाई जहाज का टिकट खरीद सकते हैं वही तो कोरोनावायरस को लेकर भारत में आये हैं।

हमने लाॅकडाउन की रणनीति का स्वागत किया- गोकि सम्भवतः यह विश्व का सबसे कठोर, सबसे लम्बा और न्यूनतम राहत पैकेज वाला लाॅकडाउन था। अपने घरों में खुद को बन्द करके हमने सुरक्षित महसूस किया। बाइयों की कमी तो खली पर अपनी सुरक्षा के ख्याल से हमने स्वेच्छा से समायोजन कर लिया। हमने घर से काम करना भी समायोजित कर लिया ताकि हमारे वेतन और बचत यथावत बने रहें। नलों से पानी बहा-बहा कर हमने नियमित रूप से अपने हाथ धुले। हमें प्रायः बोरियत और अवसाद ने जकड़ा लेकिन इसी दौर में हमारे परिवार के लोगों से हमारे सम्बन्धों को नयी मजबूती भी मिली।

लाॅकडाउन ने लाखों लोगों को दर-बदर कर दिया

हमें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा कि लाखों गरीब मजदूरों पर यह लाॅकडाउन वज्र बनकर टूटा है। इसके पहले उनके जीवन की गाड़ी बड़े आराम से राज्य के किसी तरह के सहयोग के बिना ही चल रही थी। मुमकिन है कि कुछ साल कम संसाधनों वाले विद्यालयों में गुजारने के बाद, अपने गाँवों में गरीबी और जाति-उत्पीड़न के अन्धे कुँए से बचने के लिये उन्होंने शहरों का रुख किया हो। कोई भी शहर उनका स्वागत करने के लिये तैयार नहीं बैठा था।

राज्यों ने मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करते हुये उनके लिये शानदार घर नहीं बना रखे थे। इसके उलट शहरों का रुख उनके लिये शत्रुतापूर्ण ही रहा, उनकी झुग्गियाँ और सड़क के किनारे की उनकी रेहड़ी बार-बार अवैध बताकर गिरायी जाती रहीं। इसके बावजूद उनमें से लाखों जिन्दा रहे, इन सारे हालात को शिकस्त देते रहे, कड़ी मेहनत करके शहर बनाते रहे, उन्हें साफ करते रहे, और राज्य से कोई इन्साफ या कोई तवज़्जुह पाये बिना अपना परिवार भी पालते रहे।

लाॅकडाउन की परिकल्पना ही ऐसी थी कि इसमें उनके लिये कुछ भी नहीं था सिवाय रातोंरात उनकी हाल-बेहाल जिन्दगी तबाह करने के। तंग, भीड़भरी झुग्गियों और टूटी-फूटी गलियों में सुरक्षा के लिये शारीरिक दूरी बनाये रखना और नियमित रूप से हाथ धुलना उनके लिये नामुमकिन था। राज्य की नीतियां उनके ऊपर उल्कापात रहीं, बरबादी के आलम में उन्हें अचानक उसी भूख के सामने खड़ा कर दिया गया जिससे भागकर उन्होंने एक दिन शहरों का रुख किया था। इसके बावजूद हम मध्यम वर्ग के लोगों ने लाॅकडाउन को तुरंत पूरा समर्थन दिया, जैसा कहा गया वैसे ही मजे से थालियाँ बजायीं, दिये और मोमबत्तियाँ जलायीं।

हमें जरा ग़ौर से सोचना होगा कि सड़कों पर पैदल घिसटते हुये, या इस खतरनाक मुहिम पर साइकिल से जाते हुये, रेल की पटरियों पर कट कर या भूख से या ट्रेनों में बिना भोजन-पानी के घुटकर मरने वाले अधिकांश पुरुष या महिलायें 15 से 30 साल के बीच की आयु के रहे। लेकिन अगर उनका जन्म संयोग से दूसरी जगह हुआ होता तो वे किसी स्कूल या विश्वविद्यालय में आनलाइन पढ़ाई कर रहे होते या अपने घरों की चहारदीवारी में सुरक्षित रह कर घर से काम कर रहे होेते और बोरियत मिटाने के लिये लगातार ‘नेटफ्लिक्स’ का आनन्द ले रहे होते।

राज्य की नीतियों के बेशर्म पक्षपात से हमें कोई परेशानी नहीं हुयी। सभी सरकारी और औपचारिक निजी क्षेत्रों के अधिकतर कर्मचारी इस मायने में सुरक्षित रहे कि लाॅकडाउन के दौरान भी उन्हें पूरा वेतन मिल जायेगा। गरीबों को अपना गुजारा अपनी मामूली बचत, जो दो दिन के लिये भी नाकाफी थी, मालिकों से प्रधानमंत्री की अपील कि वे अपने कर्मचारियों को वेतन दें, और रोजाना भोजन के लिये घंटो लाइन में खड़े रह कर ही करना था। उन्हें भयानक वंचना के हवाले कर दिया गया, उन्हें जीने के लिये अपने सम्मान से समझौता करना पड़ा और यह मान लिया गया कि बीच-बीच में लोग जो दान कर दे रहे हैं वही उनके लिये इष्ट है। इसे भी ठीक समझा गया कि हम अपने आरामदेह घरों या किराये पर लिये गये होटल के कमरों में क्वारैन्टीन रहें, और गरीबों को जेल जैसे गन्दे शौचालयों वाले भीड़भरे बरामदों में अखाद्य भोजन के भरोसे धकेल दिया जाय।

लेकिन सत्ताधारी वर्ग द्वारा घरवापसी के इच्छुक प्रवासी मजदूरों के साथ जैसा क्रूर बर्ताव किया गया उसकी मिसाल कहीं भी ढूँढे नहीं मिलेगी। विदेशों में फँसे लोगों, हाॅस्टलों में फँसे छात्रों, और तीर्थयात्रियों के लिये सरकार ने विशेष उड़ानों और बसों की व्यवस्था की। और प्रवासियों के लिये पहले तो सारी सीमायें सील कर दी गयीं, फिर ट्रेन और बसें रद्द कर दी गयीं। जब लाखों लोग अपनी बीवी-बच्चों के साथ हजारों किमी की यात्रा पर साइकिलों से ही निकल पड़े और दुर्घटनाओं, थकान और भूख से रास्ते में ही दम तोड़ने लगे तो आखीर में हार कर सरकार ने थोड़ी सी ट्रेनें चलाने की घोषणा की।

जबतक प्रवासियों का गुस्सा उस सीमा तक नहीं पहुँचा कि सरकारों को अपने कदम वापस खींचने पड़ें तबतक भुगतान उन्हें ही करना पड़ा। लेकिन सरकारी सुविधा देेने के लिये नौकरशाही ने एक जटिल मकड़जाल बुना। इच्छुक प्रवासी को पहले आनलाइन फाॅर्म भरकर सरकारी खानापूर्ति करनी पड़ती। सीट पा लेना लाटरी खुलने जैसा था जिसकी सूचना आननलाइन ही आती। जिन मजदूरों के पास अपने स्मार्टफोन नहीं होते उन्हें अपना काम निकालने के लिये उसी ठेकेदार पर निर्भर रहना होता जिसने उन्हें पहले भी ज़लील किया था। ट्रेनें प्रायः निरस्त हो जातीं या उनका रास्ता बदल दिया जाता, रास्ते में खाना-पानी का कोई इन्तज़ाम नहीं होता। सफ़र के दौरान लोगों की डिहाइड्रेशन और भूख से मौत हो गयी।

बसें फिर भी ठीक थीं। निजी कम्पनियों और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा, बस की छतों पर बैठकर यात्रा करने के लिये भी प्रवासियों से हजारों रुपये ऐंठे गये। भीड़भरी बसों और ट्रकों पर ठुँसे हुये लोग संक्रमण का खतरा झेलते हुये किसी तरह अपने गन्तव्य पर पहुँचे तो ऐसे भी उदाहरण रहे कि उनके ऊपर असुरक्षित कीटनाशकों का छिड़काव किया गया। कई जाँचस्थलों पर सरकारी कर्मचारियों ने रिश्वत भी माँगी। इसके अलावा कई बार मजदूरों ने ऐसी यात्रा के लिये हवाई टिकट से भी ज्यादा पैसे खर्च किये। यही प्रवासी जो कल तक गाँवों में अपने परिवारों का सहारा थे, उन्हें अपने घर वापस आने के लिये उन्हीं से पैसे माँगने पड़े, नतीजतन उनके कर्जों में नयी बढ़ोत्तरी हो गयी।

सरकारों और व्यापारियों ने उनकी कोई सहायता नहीं की क्योंकि उन्हें उनकी कोई चिन्ता ही नहीं थी और वे उन्हें जाने देना भी नहीं चाहते थे। उन्होंने उन्हें पूर्णरूप से मानव कभी माना ही नहीं बल्कि उन्हें उत्पादन का एक एक कारक, श्रम माना जिसे जब भी वे अपना उद्योग फिर से चलाना चाहें, बुलाने पर चुपचाप उपलब्ध होना चाहिये था।

अन्त में जब केन्द्रीय सरकार ने फिर से उड़ानें चालू करनी चाही तो मंत्री का कहना था कि यात्रा से पहले स्वास्थ्य प्रमाणपत्र और यात्रा के बाद क्वारैन्टाइन किया जाना ‘व्यावहारिक’ नहीं है (हाँलाकि कुछ राज्य सरकारों ने क्वारैन्टाइन किये जाने पर जोर दिया है)। लेकिन जो बाहर से आये और दूसरे हवाई यात्रियों के लिये ‘व्यावहारिक’ नहीं था वही सामाजिक रसूख से महरूम दीनहीन मजदूरों के लिये अनिवार्य बना दिया गया था।

इसे सभ्यतागत आत्मविश्लेषण का क्षण होना चाहिये। आने वाले महीनों में जब भूख व्यापेगी, नौकरियाँ हवा हो जायेंगी, बच्चों को उनके स्कूलों से खींचकर मजदूर बना दिया जायगा और गरीब अस्पताल, बिस्तरों और वेंटीलेटरों के अभाव में दम तोड़ने लगेंगे, तो क्या हम सिर्फ स्वयं को सुरक्षित रखने के निरर्थक प्रयास के लिये अपने ही लोगों को खारिज़ कर दिये जाने के सामाजिक अपराध में अपनी सामूहिक भागीदारी को स्वीकार करेंगे? क्या हम अपने नैतिक केन्द्र को पूरी तरह ध्वस्त हो जाने की पहचान कर पायेंगे? क्या हम कम से कम एकजुटता, समानता और न्याय का पाठ सीखेंगे ?

( मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं लेखक हर्ष मंदर का यह लेख ‘द हिन्दू’ में 30 मई को प्रकाशित हुआ है जिसे समकालीन जनमत के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है. लेख का हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है )

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