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यूरोपीय संसद की मानवाधिकार उपसमिति ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर चिंता जतायी

यूरोपीय संसद की मानवाधिकारों की उपसमिति ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन करने वालों की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त करते हुए गृहमंत्री को पत्र लिखकर सभी की अविलम्ब रिहाई की मांग की है।

उपसमिति ने कहा है कि अत्यंत व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का प्रयोग करके मानवाधिकार समर्थकों के कार्यों में बाधा पहुँचाने और उनके अपराधीकरण पर तत्काल रोक लगायी जाय और उनकी संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाय।

यूरोपीय संसद की मानवाधिकारों की उपसमिति एक संसदीय पीठ है जो सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकारों के विकास की सक्रिय निगरानी और मौलिक अधिकारों के प्रति सम्मान की वकालत करती है।

यूरोपीय संसद की मानवाधिकारों की उपसमिति की पीठासीन अधिकारी मरिया अरीना ने 28 मई को लिखे इस पत्र में कहा है कि ‘ हम पूरे एहतियात से भारत में मानवाधिकारों के समर्थकों की सुरक्षा पर भी नज़र बनाये हुये हैं और राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी द्वारा आनन्द तेलतुम्बडे और गौतम नवलखा की हालिया गिरफ्तारी पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त करना चाहते हैं। यह जानकारी विशेष रूप से चिन्ता का विषय है कि मानवाधिकार समर्थक किसी संत्रास के दबाव में आये बिना निडर होकर भारत के सबसे गरीब और हाशिये के समुदायों के हक में खड़े नहीं हो सकते, पर यह भी चिन्ता का विषय है कि उनकी आवाज़ दबाने के लिये उनपर गैर कानूनी गतिविधियां निरोधक कानून (यू0ए0पी0ए0) समेत आतंकवाद के अनेक आरोप लगाये जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र विशेष प्रविधियां (यूनाइटेड नेशन्स स्पेशल प्रोसीजर्स) की नज़र में यह अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का स्पष्ट उल्लंघन है। ‘

उन्होंने पत्र में लिखा है कि ‘ वर्तमान में यूरोपीय संसद के संज्ञान में आया है कि कानूनों, नीतियों और नागरिकता संशोधन कानून समेत सरकार के विभिन्न क्रियाकलापों के विरुद्ध विधिसम्मत शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों को इस कानून के अन्तर्गत आतंकवादी गतिविधियां मानकर अनेकों गिरफ्तारियां की गयी हैं। विशेषतः सफूरा जारगर, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, मीरान हैदर, शिफा-उर-रहमान, डा0 कफील खान, आसिफ इकबाल और शरजील इमाम, जिनकी हाल में ही पुलिस द्वारा गिरफ्तारियां की गयी हैं, के मामले निश्चित ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के हैं। ‘

पत्र में लिखा गया है कि इस पृष्ठभूमि में इस बात की भी भय बढ़ गया है कि इस कानून से राज्य अभिकरण को अबाध विवेकाधीन शक्तियां मिल जाती हैं। वस्तुतः ‘गैरकानूनी गतिविधियां’ और ‘आतंकवादी संगठनों की सदस्यता’ की अस्पष्ट परिभाषा के चलते राज्य को यह कानून लागू करने में अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने का अबाध अवसर मिल जाता है। इस तरह की प्रक्रिया से देश में न्यायिक प्रबन्धन एवं नागरिक स्वतंत्रता प्रभावी रूप से कमजोर हो जाती है। इसलिये हमारा दृढ़ मत है कि अत्यंत व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का प्रयोग करके मानवाधिकार समर्थकों के कार्यों में बाधा पहुँचाने और उनके अपराधीकरण पर तत्काल रोक लगायी जाय और उनकी संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाय। देश में कार्यरत नागरिक समाजों के क्रियाकलापों के लिये सुरक्षित और हितकारी वातावरण सुनिश्चित करने के लिये भारत को बहुत कुछ करना चाहिये और मानवाधिकार समर्थकों की सुरक्षा के लिये कानून भी बनाना चाहिये। कोविड-19 की अप्रत्याशित स्थितियों में संयुक्त राष्ट्र ने बार-बार कहा है कि इसके प्रसार को रोकने के लिये मतवैभिन्य के आधार पर बनाये गये बन्दियों की अविलम्ब रिहाई कर दी जाय।

मरिया अरीना ने पत्र में लिखा है कि ‘ मानवाधिकार की उपसमिति की 11 मई 2020 की बैठक में इसी सामूहिक प्रयास को प्रतिध्वनित किया गया था। हमें विश्वास है कि बिना किसी भेदभाव के मानवाधिकारों की रक्षा करना और इस प्रकार ऐसे कठिन समय में बन्दियों की संख्या घटाने के अपने ही उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों को लागू करने में भारत को प्रोत्साहित करना हमारा साझा कर्तव्य भी है और दायित्व भी। इससे पहले कि यह महामारी मानवाधिकारों के लिये खतरा बन जाय, यह वास्तव में जरूरी हो गया है कि हम मिलकर अपनी समस्त शक्तियों और संसाधनों को इस लड़ाई में झोंक दें। ‘

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