अभिषेक मिश्र
“ हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
मिर्जा ग़ालिब अथवा मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान का यही अंदाज था जो आज भी उनकी प्रासंगिकता बनाए रखता है। आज के प्रसिद्ध कवि, शायर गुलजार जिनसे प्रेरणा पाते हैं, आमो-खास अपनी अलग-अलग भावनाओं को उनके शेरों की शक्ल देते हैं और प्रेमी-प्रेमिका आज भी एक-दूसरे के जज़्बातों को उनके शेरों के जरिये व्यक्त करते हैं.
मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और फारसी भाषा के महान शायर थे। हिंदी में फारसी शब्दों के प्रयोग को आम लोगों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता हैं। पत्र विधा को भी उन्होंने नई ऊंचाई दी थी, ग़ालिब के लिखे पत्रों को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है।
मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के काला महल में हुआ था। प्यार से उन्हें लोग मिर्जा नौशा के नाम से भी पुकारते थे। उनके पिता का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग खान और माता का नाम इज्ज़त निसा बेगम था। उनके पूर्वज तुर्की से भारत आए थे।
भारत में मुगलों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सन 1750 में इनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान जो सैनिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए थे समरकंद छोड़कर भारत में आकर बस गए। इन के पिता मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग खान ने आगरा की इज्ज़त निसा बेगम से निकाह किया और वहीं रहने लगे। उनके पिता लखनऊ में निजाम के यहाँ काम किया करते थे। मात्र 5 साल की उम्र में साल 1803 में इनके पिता की मृत्यु हो गयी। जिसके बाद कुछ सालों तक मिर्ज़ा अपने चाचा मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे, के साथ रहे। लेकिन कुछ समय बाद उनके चाचा की भी मृत्यु हो गयी।
छोटे से मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवनयापन चाचा की आने वाली पेंशन से होने लगा। 13 वर्ष की आयु में इनका विवाह लोहारू के नवाब मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी ‘उमराव बेगम’ के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था।
मात्र 11 साल की उम्र से उन्होंने शायरी शुरू कर दी थी। इसी पृष्ठभूमि से शायरी की सीढ़ियाँ चढ़ते वो दौर भी आया जब उन्होंने अपने जीवन की एक अहम यात्रा दिल्ली से कोलकाता के लिए तय की। इनके परिवार को मिलने वाली पेंशन अंग्रेजों के साथ हेर-फेर कर आधी कर दी गई थी, जिससे उन दिनों ये काफी आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे। उन्होंने इसी सिलसिले में कोलकाता जा पेंशन के संबंध में याचिका देने का निर्णय लिया। इसी क्रम में वो नवंबर, 1827 में कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद होते हुए गालिब बनारस पहुंचे।
उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, और वह वहाँ चंद दिन ही रुकना चाह रहे थे, लेकिन बनारस की कला, संस्कृति, आध्यात्मिकता से वह इतने प्रभावित हुए कि एक महीने तक रुक गए। इसे उन्होंने जिस नजरिए से देखा उसका चित्रण उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘चिराग-ए-दयार’ (मंदिर का दीया) में किया है।
इस रचना की 108 पंक्तियों में 69 पंक्तियों में बनारस की खूबसूरती का वर्णन है। इस यात्रा के वर्षों बाद उन्होंने अपने एक छात्र मियांदाद खान को लिखा कि बनारस एक अद्भुत शहर है और यह मेरा दुर्भाग्य है कि जब मेरी जिंदगी खत्म होने को थी तब मैं बनारस गया। जब इस शहर में गंगा किनारे सूरज ढलता है तो यूं लगता है कि यह नदी कोई नदी न होकर एक बड़ा सा जलता दिया हो। उनकी रचना का एक भाग और उसका अनूदित अंश:
“त आलल्ला बनारस चश्मे बद दूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर
इबातत ख़ानए नाकूसियाँ अस्त
हमाना कावए हिन्दोस्तां अस्त”
(अर्थात- हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना क्योंकि यह आनन्दमय स्वर्ग है। यह घंटा बजानेवालों अर्थात हिन्दुओं की पूजा का स्थान है यानी यही हिन्दुस्तान का क़ाबा है।)
वो जहां भी जाते थे, वहाँ के सकारात्मक पक्षों को लेते उससे एक रिश्ता कायम कर लेते थे। बनारस के साथ भी उनका यह रिश्ता बना रहा। आज हिन्दू-मुस्लिम भावनाओं की उग्रता को नियंत्रित करने के लिए रचनात्मक जगत से जिस पहल की जरूरत है ग़ालिब जैसे शायर उसकी नींव हो सकते हैं।
वर्ष 2019 उनकी 150 वीं पुण्यतिथि का वर्ष होगा। आशा है उनकी रचनाओं का न सिर्फ सार्थक पुनर्मूल्यांकन होगा बल्कि उनसे जुड़ी धरोहरों को भी सँजोये रखने की ठोस पहल होगी.
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