ए.बी.पी. न्यूज़ में जिस तरह से मिलिंद खांडेकर और पुण्य प्रसून वाजपेयी की विदाई हुई और अभिसार शर्मा को खामोश किया गया,वह निश्चित ही सत्ता के दबाव का नतीजा है. ‘ मास्टरस्ट्रोक ’ का ‘ स्ट्रोक ’, ‘मास्टर’ को इस कदर चुभ गया कि ‘ मास्टर ’ ने स्ट्रोक लगाने वालों को निपटा दिया. सत्ता का संदेश साफ है या तो हमारी बोली बोलो, वरना झेलो.
इस मसले पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ हैं. एक जिसमें पुण्य प्रसून वाजपेयी समेत कतिपय टी.वी. पत्रकारों को मसीहा के रूप में पेश किया जा रहा है. दूसरी वह जो इनकी नौकरी जाने का उत्सव मना रहे हैं. वे बता रहे हैं कि “ बेचारी ” सरकार पर ये कितने कुत्सित हमले बोल रहे थे. ये दोनों ही अति किस्म की प्रतिक्रियाएँ हैं. बात इसके बीच में कहीं है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी से ही शुरू करें. क्या वे हमेशा से ऐसे ही घनघोर मोदी विरोधी रहे हैं, जैसा कि मास्टरस्ट्रोक के बाद उनपर सरकार के मंत्रियों ने तक आरोप लगाया ? अतीत में उत्तर तलाशने निकलेंगे तो जवाब कम से कम हाँ में नहीं मिलेगा. वैचारिक रूप से अतिवाम बताए जाने के बावजूद अतीत में दक्षिण को उन्होने अच्छे से साधा हुआ था. ढूंढ-खोज की जाएगी तो उनके लिखे हुए में, इस बात के सबूत भी मिल जाएँगे. सहारा के चैनल ‘ समय ’ में काम करने के दौरान,गुजरात विधानसभा के चुनाव में तो मोदी के खिलाफ उनके द्वारा खबर रोके जाने पर उनके वरिष्ठ सहकर्मी से उनका, ऑन एयर, लगभग तू-तू, मैं-मैं जैसा संवाद हो गया था.
इसी तरह आजकल मोदी भक्त जिस न्यूज़ चैनल और पत्रकार से सबसे ज्यादा खार खाते हैं, वो हैं एन.डी.टी.वी. और रवीश कुमार. उन्हें तो कई लोग एकतरफा विपक्ष मानते हैं. इसके लिए उन पर एक हिस्सा फिदा है तो एक हिस्से की भयानक घृणा के पात्र वे हैं. पर जो सवाल पुण्य प्रसून वाजपेयी के संदर्भ में था, वही रवीश के मामले में भी है ? क्या रवीश हमेशा से ही ऐसे घनघोर भाजपा विरोधी रहे हैं ? थोड़ा पीछे पलट कर देखेंगे तो पाएंगे कि इसका उत्तर भी हाँ में कम से कम नहीं है.
रवीश के मामले में तो बहुत पीछे नहीं जाना पड़ता. वर्तमान भाजपा सरकार आने के बाद टी.वी. डिबेट में भाजपा के साथ आर.एस.एस. के व्यक्ति को भी बुलाने का चलन मैंने तो पहले-पहल रवीश के शो में ही देखा. बाकियों के मुक़ाबले भाजपा को यह अतिरिक्त सहयोग देने जैसा ही था. पिछले बिहार विधानसभा के चुनाव को ही याद करें तो बिहार में भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री होने लायक एक उम्मीदवार भी रवीश कुमार ने खोजा और प्रचारित किया.
इन किस्सों का वर्णन यहाँ क्यूँ किया जा रहा है ? क्या इसलिए कि अतीत के इन किस्सों के आधार पर उक्त व्यक्तियों द्वारा वर्तमान में लिए जा रहे स्टैंड को कमतर सिद्ध किया जा सके या उन पर हमलावर भाजपा भक्तों की सहानुभूति इनके पक्ष में की जा सके ? जी नहीं. इन व्यक्तियों द्वारा वर्तमान सरकार को आईना दिखाने का जो काम किया गया, उसे किसी हालत में कमतर नहीं किया जा सकता. रही बात भाजपा भक्तों की सहानुभूति की, तो वह न इनको मिलने वाली है, न इसकी उन्हें जरूरत है.
इन किस्सों का निहितार्थ यह है कि मीडिया जगत में काम करने वालों का व्यक्तिगत पक्ष या मत जो भी है,लेकिन वहाँ काम करते हुए एक न्यूनतम संतुलन उन्हें साध कर चलना होता है. सत्ता के बारे में भी नीति यही रहती है कि घनघोर विरोध भी नहीं करना है और एकदम पक्ष में भी नहीं दिखाई देना है. मीडिया में काम करने वाला अगर एक्टिविस्ट नहीं हो सकता तो वह दरबारी भी नहीं हो सकता. सामान्य समयों में, बीच के रास्ते की इसी नीति पर मीडिया में काम करने वाले चलते हैं. लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद, हालात ऐसे बना दिये गए कि सब तरफ केवल “ मोदी……. मोदी……मोदी……मोदी ” करती भीड़ हो और कुछ भी नहीं. यह जनसभाओं में ही न हो बल्कि टी.वी. चैनलों पर भी ऐसी हो, इसी शैली में हो. मामूली सा भी कष्ट में डालने वाला कोई सवाल कहीं से न हो. हो तो बस यशोगान हो, जयजयकार हो. इसलिए प्रधानमंत्री के जो दो-चार इंटरव्यू भी हुए,वो इसी शैली वाले थे. इनमें रीझे हुए प्रसून जोशी हैं,जो पूछ रहे हैं, “ आप…. इतना कुछ….. कैसे…..मोदी जी ” ! बस ऐसा ही चाहिए, इसके इतर कुछ भी नहीं.
कुल मिला कर वह गीतकार हो या पत्रकार, इससे कोई लेना-देना नहीं पर इश्तेहार अच्छा से हो और सिर्फ इश्तेहार ही हो,इसके अलावा कुछ न हो, सारा ज़ोर इस पर आ गया.
जिनकी नय्या पहले से डोल रही थी, उन्हें चीयरलीडर बनने में भला क्या हर्ज हो सकता था. आदमी सौ करोड़ की अवैध वसूली के जुर्म में जेल जाने से बचने के लिए कुछ भी कर सकता है. यदि चौबीस घंटे,सत्ता के शिखर पुरुष के नाम का जाप करने से जेल जाने से बचा जा सकता हो और सत्ता की कृपा और हासिल हो जाये तो भला, बंदे को ऐसा करने से क्यूँ उज्र होगा ?
जिन नामों पर इस समय बहस गरम है,ऐसा नहीं था कि उन्हें सरकार के इश्तेहार से कोई बहुत दिक्कत थी. लेकिन वे बस इतना भर चाहते थे कि इश्तेहार के साथ थोड़ी- बहुत खबर भी दिखाई जाये. लेकिन सरकार को तो बस इश्तेहार के अलावा कुछ चाहिए ही नहीं था. सरकार होने के गुरुर में यही समझ बनी कि जो भी सवाल करता है, वह विरोधी है, विपक्षी है. इस तरह सवाल पूछने वालों को अपना विपक्ष बनाने में सरकार ने खुद ही रास्ता खोल दिया या यूं कहिए कि उनके सामने विपक्ष होने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा.यह पूर्वाग्रह या दुराग्रह इस हद तक पहुँच गया कि रामदेव से एक मामूली सवाल पूछने में पुण्य प्रसून वाजपेयी की नौकरी चली गयी. रवीश कुमार बेरोजगारी पर प्राइम टाइम करने लगे तो कतिपय हिंदूवादी सोशल मीडिया अकाउंटस् ने पोस्ट किया कि रवीश तो रोजगार के नाम पर हिन्दू युवाओं की एकता को तोड़ रहा है !
स्वस्थ लोकतन्त्र तो यही होता है कि सरकार सवाल जवाब के दायरे में हो. लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की चुनी हुई सरकार किसी तरह का सवाल उठाना गवारा नहीं करना चाहती. नतीजा, यह कि थोड़ी संख्या में ही सही,पर टेलिविजन जैसे आरामतलब माध्यम में नौकरी करने वाले भी अपना सब कुछ दांव पर लगा रहे हैं पर सवाल पूछने का अधिकार, सरेंडर करने को तैयार नहीं है.
इकबाल ने लिखा था कि “ तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से आप ख़ुदकुशी करेगी ”. हुकूमत, तहजीब तो नहीं होती पर खंजर तो वह तैयार कर ही रही है.