अच्युतानंद मिश्र
नई कहानी के दौर की अप्रतिम कथाकार मन्नू भंडारी नहीं रहीं. इस वाकये पर तथ्यात्मक तौर पर तो यकीन किया जा सकता है लेकिन पाठकों का जो उनके साथ भावात्मक और आत्मगत सम्बन्ध रहा है, वह इस तथ्य पर यकीन नहीं कर सकता. मन्नू भंडारी अपनी कहानियों, अद्वितीय उपन्यासों के रास्ते पाठकों के हृदय में सदैव बनी रहेंगी. हिंदी साहित्य में उनकी एक मुक्कमिल और अनिवार्य जगह है. बहुलताओं से भरा वह एक विस्तृत संसार है.
नई कहानी के कथाकारों ने प्रेमचन्द की कथा परम्परा से सहज रूप में खुद को अलग किया. दृश्यांकन को सूक्ष्म करते हुए वे घटनाओं की बजाय व्यक्तित्व के अंदरखाने में पैवस्त हुए. समय का बोध वहां गहन होता गया. कई बार इस हद तक कि लेखक समय के प्रवाह को थाम लेता सा प्रतीत होता है. ठहरे हुए समय में अंतर्मन की उहापोह, घुमड़न, द्वंद्व, अनिश्चयता, असमर्थता, बेचैनी, विराग, व्याकुलता आदि को बार बार पकड़ता है. वह जीवन की कठिन पगडंडी पर किसी निश्चित और वर्चस्ववादी दृष्टि से नहीं पहुँचता. वह यही सच है कि नायिका की तरह सच के तमाम कोनों-अंतरों से गुजरता जाता है और पाता है कि जो सच है या सच की तरह दिख रहा है, दर हकीकत वह सच नहीं. सच का अनुकूलन भर है.
मन्नू भंडारी अपनी कहानियों में सच के इस अनुकूलन से लगातार टकराती हैं, आत्महंता होने की हद तक. वे बने बनाये प्रतिमान और निष्कर्षों को नहीं स्वीकारती. वे इससे इतर चलने का माद्दा रखती हैं. वहां साहस या धैर्य का कोई आत्म-प्रदर्शन नहीं, बल्कि गहरी विकलता में राह पाने की अनिवार्य कोशिश है.
मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ को पहली स्त्रीवादी कहानी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है. पहली इसलिए कि उसमें स्त्री की अनिश्चितता, अनिर्णय और जीवन को परिणाम को बने बनाये खांचों में न देखने की जद्दोजेहद है.
एक स्त्री का जीवन बहुत सारे वस्तुपरक निर्णयों से अनुकूलित है. उसके जीवन में हर प्रश्न का उत्तर निर्धारित है. उसे क्या करना है, किससे मिलना है, कहाँ जाना है, क्या पहनना है, क्या पढना है, क्या सोचना है- ये सारे निर्णय पहले ही ले लिए जाते हैं. यही सच है की दीपा का जीवन दो प्रतिनिधि पुरुषों में उलझा है- संजय और निशीथ. कहानी के बाह्य आवरण में ये दोनों पुरुष भिन्न लगते हैं, लेकिन भीतरी दायरे में इनमें एक कॉमन है. दोनों दीपा के अभिभावक होना चाहते हैं. दीपा के जीवन के द्वंद्व की शुरुवात यहीं से हैं. ऐसे में वह दोनों के बीच के अनिर्णय को जीती है.
मन्नू भंडारी सूक्ष्मता से एक स्त्री के वास्तविक और भावी आत्मबोध को उसके अनिर्णय से बुनती हैं. कहानी में जो अनिर्णयात्मकता के क्षण हैं, वहीं स्त्री का प्राप्य है. वहीं से उसके रचनात्मक भविष्य की संकल्पना का आधार विकसित होगा.
मैं हार गयी, दो कलाकार, स्त्री सुबोधिनी, सयानी बुआ जैसी अद्वितीय कहानी लिखकर मन्नू भंडारी ने हिंदी कहानी की वसुंधरा को न सिर्फ विस्तृत किया बल्कि बाद की पीढ़ी के लिए बोने लायक उर्वर जमीन भी तैयार की.
उनका उपन्यास ‘आपका बंटी’, ‘यही सच है’ की नायिका के जीवन का अगला चरण है, जहाँ वह जीवन के बने बनाये, थोपे गये, पूर्वनिर्णित दायरे को अस्वीकार कर देती है.
मन्नू भंडारी की कहानियां –उपन्यास इस बात को रखती हैं कि जिसे स्त्री की कमजोरी, असहायता या निरुपायता की तरह पेश किया जाता है- वहीं से स्त्री के मुक्त होने, स्वतंत्र होने और अपना संसार चुनने का विकल्प भी निर्मित होता है . एक स्त्री क्या चुनती है- यह महत्वपूर्ण नहीं, वरन एक स्त्री क्या छोड़ती है किसे नकारती है- यह महत्वपूर्ण है.
यह न चुनने, छोड़ देने का रास्ता कठिन मगर उसका अपना रास्ता है. यहीं से वह अपना संसार बना सकती है.
मन्नू भंडारी पिछले कुछ दिनों से बीमार थीं. स्मृति दोष से भी ग्रस्त थीं लेकिन वो फिर भी रोजाना लिखती थी. उनकी कहानियां स्त्री का एक वास्तविक संसार रचने की कोशिश करती हैं. एक ऐसा संसार जिसमें एक अनुकूलित, तथाकथित सुरक्षित और स्वीकृत संसार में पराजय के लांछन के स्वीकार के बाद आत्मबोध के दिपदिपाते गौरव के साथ खड़े होने का साहस नज़र आता है.
भौतिक रूप में भले वो आज हमारे बीच नहीं हों, लेकिन उनके संसार में रहने का सुख हिंदी के पाठकों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों से कोई नहीं छीन सकता. सुरंग के उस पार की रौशनी की उम्मीद की तरह, उनकी कहानियाँ अँधेरे में हमसफर बनी रहेंगी. हमारी उंगली थामे रहेंगी.