समकालीन जनमत
सिनेमा

लस्ट स्टोरीज : अपनी राह तलाशती स्त्रियाँ

 

दिवस

फिल्म ‘आस्था’ के एक गाने की कुछ पंक्तियाँ हैं – ‘दो सोंधे-सोंधे से जिस्म जिस वक्त/ एक मुट्ठी में सो रहे थे/ बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था ?/ बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?/…मैं आरजू की तपिश में पिघल रही थी कहीं/ तुम्हारे जिस्म से होकर निकल रही थी कहीं/ बड़े हसीन थे जो राह में गुनाह मिले/ …तुम्हारी लौ को पकड़कर जलने की आरजू में/ जब अपने ही आपसे लिपटकर सुलग रहा था/ बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था ?/ बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी ?/ …तुम्हारी आँखों के साहिल पे दूर-दूर कहीं/ मैं ढूंढती थी मिले खुश्बुओं का नूर कहीं/ वहीँ रुकी हूँ जहाँ से तुम्हारी राह मिले…’

स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलताओं से साहित्य,सिनेमा और कलाएं भरी पड़ी हैं. इन जटिलताओं को समझने के लिए अनगिनत पन्ने व्याख्याकारों द्वारा रंगे जा चुके है. किसी ने इन संबंधों को सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों की कसौटी में कसकर देखने की कोशिश की, किसी ने मनोवैज्ञानिक पहलुओं को खंगाला, किसी ने परम्परा और वर्तमान की व्यवस्थाओं से उपजी विडम्बनाओं में इन जटिलताओं का उत्स पाया. लेकिन जैसा कि कभी-कहीं ‘गुलजार’ ने कहा है कि ‘स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ जटिलताएं हमेशा बनी रहेंगी.’

इन्हीं जटिलताओं के कुछ अन्य पहलुओं को लेकर ‘बॉम्बे टॉकीज’ के बाद अनुराग कश्यप, ज़ोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी और करण जोहर हाल ही में ‘नेटफ्लिक्स’ में रिलीज हुई चर्चित फिल्म ‘लस्ट स्टोरीज’ में एक बार फिर साथ आये हैं.

‘लस्ट स्टोरीज’ में चार छोटी-छोटी कहानियां हैं. अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित पार्ट एक शादी-शुदा कॉलेज की अपेक्षाकृत जवान महिला अध्यापक कालिंदी (राधिका आप्टे) का उसके स्टूडेंट तेजस (आकाश ठोसर) से संबंधों की कहानी है.

ज़ोया अख्तर ने घर में अकेले रहने वाले नौकरीपेशा अविवाहित नौजवान लड़के (नील भुपालम) के घर काम करने वाली मेड (भूमि पेडनेकर) के साथ संबंधों, दिबाकर ने एक मिडिलएज औरत (मनीषा कोइराला) के उसके ही पति (संजय कपूर) के दोस्त (जयदीप अहलावत) के साथ संबंधों, और फिल्म के अंतिम पार्ट में करन जौहर ने नौजवान शादी-शुदा औरत (किआरा आडवानी) का अपने पति (विकी कौशल) के साथ संबंधों से इतर सेक्सुअल ‘ऑर्गेजम’ को अनुभव करने की कहानी दर्शकों के सामने पेश किया है.

हिंदी फिल्मों में पिछले कुछ सालों में हुआ यह है कि परिवार और करियर के दो किनारों के अलावा बीच में औरतों के जो भिन्न रूप थे, उन्हें पर्याप्त मुखर अभिव्यक्ति मिलना शुरू हुई जो दर्शकों के इर्द-गिर्द ही मौजूद रही हैं लेकिन उनकी समझ व चेतना के दायरे से दूर थीं. लेकिन जैसे-जैसे इन औरतों ने अपनी आकाँक्षाओं, इच्छाओं और लालसाओं को खुलकर व्यक्त करना शुरू किया, वह दर्शकों के लिए उतनी ही परिचित चीज होती गई.

स्त्रियों के इन रूपों को हम कुछ समय पहले आई फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरखा’ में देख चुके हैं. ये अलहदा बात है कि पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ पुरुष समाज की इच्छाओं-जरूरतों को ही अहमियत मिलती रही है, औरतों की मुखरता पुरुष सत्ता द्वारा गले के नीचे उतार पाना आसान नहीं रहा है. लेकिन हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें एक पेंच पैदा हो गया. आज जिन स्त्रियों की मुखरता पुरुष सत्ता निगल नहीं पा रही, एक भारतीय-मध्यवर्गीय परिवार में वे स्त्रियाँ ही दूसरा पलड़ा हो सकती हैं.

ये स्त्रियाँ उस दौर की पैदाइश हैं जब इस देश में ‘ स्त्री-मुक्ति ’, ‘स्त्रीवाद’ जैसे पद अपने शैशवावस्था में था लेकिन इन स्त्रियों के साथ-साथ यह पद भी जवान होते-होते तीन दशक पुराना हो गया. इन पदों के साथ-साथ जवान होने वाली स्त्रियों के लिए सिर्फ परिवार, परम्परा, आदर्श जैसे खांचे का उपयोग करना पूरी वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करना होगा. एक समय था जब पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में परिवार-समाज के अन्दर स्पष्ट विभाजन थे जिसके चलते पुरषों-स्त्रियों के अलग-अलग मसलों पर अनुभव भी जुदा थे. लेकिन धीरे-धीरे पुरुषों की दुनिया में औरतों का भागीदार बनते जाने से अनुभवों में भी समानता आती गई.

अब तक दुनिया सिर्फ इसी बात से परिचित थी कि एक पुरुष, स्त्री के लिए ‘पजेसिव’ हो सकता था, एक पुरुष ही अपनी उम्र से छोटी-बड़ी स्त्री के साथ या विवाहेतर संबंधों में रह सकता था और रिश्ते में कमिटमेंट मांगने पर टाल-मटोल करता है. कालिंदी (राधिका आप्टे) पजेसिव भी है, अपनी उम्र से छोटे लड़के के साथ रिलेशनशिप में भी है, एक रिलेशनशिप को लेकर उसके खुद के कुछ विचार भी हैं, और कमिटमेंट भी नहीं रखना चाहती. इन्हीं विषयों पर ‘ प्यार का पंचनामा ’ जैसी फ़िल्में बनती हैं और दर्शकों द्वारा खूब सराही भी जाती हैं लेकिन ‘प्यार का पंचनामा’ वाले शायद यह कभी नहीं समझ सकते कि ये औरतें पितृसत्ता के बने-बनाये आरामगाह में दरार पैदा करती हैं जिन्हें वे ‘पंचनामा’ समझते हैं.

‘लस्ट स्टोरीज’ की खासियत यह है कि इसमें जहाँ एक तरफ ‘अपने प्रेम में न पड़ने की हिदायत देती’, ‘लड़के के लिए पजेसिव होती’, ‘अकेलेपन में रोती-टूटती’, ‘प्रेम-रिलेशन के अपने ही विचारों को गढ़ती’ लेकिन कमजोर पलों के बाद फिर संभलती पिछले एक-दो दशकों में पैदा हुई ‘नई स्त्री’ का प्रतिनिधित्व करती ‘कालिंदी’ जैसी पात्र है, वहीं एक घर है जहाँ घर की मालकिन और घर में काम करने वाली नौकरानी दोनों के ‘क्लास’ को यदि परे भी रख दें तो ‘जेंडर’ की पहचान में वे दोनों एक ही पायदान में खड़ी हैं. ज़ोया अख्तर ने जिस बारीकी से दृश्य रचे हैं उसमें घर के अन्दर के स्त्री-पुरुष के बीच के विभाजन के साथ-साथ वर्ग-विभाजन की खिंची हुई लकीर दर्शकों को स्पष्ट चमकती हुई दिख जाती है.

मुंबई के एक टू बीएचके फ्लैट में रह रहे अकेले नौकरीपेशा लड़के के यहाँ काम करने वाली सुधा (भूमि पेड्नेकर) साफ़-सफाई, नाश्ते की सभी जिम्मेदारियां अच्छे से देख रही है. लड़के (नील भुपालम) की माँ फ्लैट में घुसते ही अपने पति से बोलती है ‘फ्लैट जैसा छोड़कर गई थी एकदम वैसा ही है ’..लड़के को देखने आये एक परिवार से अपने लड़के का उलाहना देते हुए उसके पिता कहते हैं ..’ घर पेंट करवा लिया यही बहुत है.’

इन दो बातों में एक विशेष सम्बन्ध है घर में काम करने वाली ‘सुधा’ के आलावा घर की व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी लड़के की माँ की है..जो घर में काम करने वाली को घर से लाई चीजों का एक डिब्बा दे या दो इसका निर्णय लेने के लिए भी अपने पति पर निर्भर है, ..और जो बहू आएगी भले ही वो खुद नौकरी पेशा होगी लेकिन घर की की दीवारों में पेंटिंग टांगने की जिम्मेदारी के साथ लड़के की हर जरुरत का ख्याल रखेगी. इस घर में वो ‘ मर्द ’ है जिसे ‘ प्रेमिका को पत्नियों से अलग रखना आता है ’..लेकिन जब बात घर में काम करने वाली औरत की हो जो घर में अकेले ‘ मर्द ’ के साथ बिताये अन्तरंग पलों की एवज में कोई उम्मीद देख लेना चाह रही थी तब ‘मर्द’ अपनी आँखों को और निष्ठुर बना लेता है.

‘लस्ट स्टोरीज’ में दिबाकर बनर्जी द्वारा निर्देशित भाग मुझे सबसे ब्रिलिएंट इन अर्थों में लगा कि यह पितृसत्ता के छुपे हुए रूपों को उघाड़ के रख देता है. यहाँ पितृसत्ता की चालाकियां रीना (मनीषा कोइराला) की एक मुस्कान से ही सरेंडर कर देती हैं. मजेदार यह है कि यहाँ पितृसत्ता ‘प्रेम’ की खोल में है.

मैं कहानी की डिटेल में तो नहीं जाऊंगा, वो आप फिल्म में देखेंगे, लेकिन यहाँ रीना शहरी उच्च मध्यवर्ग से होते हुए भी उन तमाम औरतों, चाहे वो पढ़ी-लिखी हों या अनपढ़ हों, शहरी या ग्रामीण हों, को रिप्रेजेंट करती है जो रिश्तों के मामलों में एक पुरुष की अपेक्षा निर्णय लेने में कहीं अधिक साहसी होती हैं क्योंकि उनके पास पितृसत्ता की बेड़ियों को खोने के आलावा कुछ नहीं होता. इसके बरक्स पितृसत्ता व्यवस्था को बनाये रखने के टूल के रूप में पुरुष निर्णयात्मक साहस नहीं जुटा पाता.

‘रीना’ में उन तमाम औरतों को देखा जा सकता है जो अपने नीरस पारिवारिक संबंधों से बाहर निकलकर आज़ाद राहों में चलना चाहती हैं..वह आज़ादी जो किसी पति, पिता और भाई द्वारा निगोशिएशन में न मिली हो. ऊपर जिक्र कर चुके ‘आस्था’ फिल्म के गानें में एक पंक्ति है, ‘वहीँ रुकी हूँ जहाँ से तुम्हारी राह मिले..’ राह नहीं मिलती, मिलता है तो उलाहना कि ‘क्या है तुम्हारी लाइफ..ब्रांच मैनेजर,एम.जी. रोड..? ’ ये उलाहने उसे अपने अस्तित्व की मान्यता हासिल करने के लिए अन्य संबंधों की ओर ले जाते हैं लेकिन वहां भी ‘कमिटमेंट’ की जगह चालाक नसीहते मिलती हैं.

यहाँ विडंबना यह है कि आज़ादी की चाह के साथ सदियों से पत्नी और मातृत्व की लाद दी गई महानता उसमें ‘गिल्ट’ भी भरती जाती है..यह गिल्ट स्त्रियों के सम्बन्ध में सार्वभौमिक है..यहाँ रीना कहती है, ‘पति जासूसी कर रहा है, घर में बच्चे भूखे हैं, क्या बनती जा रही हूँ मैं..? ’ यहाँ ‘एड्रिअन लिने’ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘अनफेथफुल’ को याद किया जा सकता है जिसे पति के आलावा दूसरे पुरुष के साथ सम्बन्ध ऐसे ही गिल्ट से भर देते हैं.

बहरहाल रीना हो या ‘अनफेथफुल’ की कोन्नी समर(डायने लेन) हो, ये जिन भी प्रसंगों के साथ अपने पारिवारिक संबंधों से इतर संबंधों में गई हों, इन संबंधों को पुरुष सत्तात्मक समाज में ‘एडल्ट्री’ नाम दे दिया जायेगा..लेकिन रीना यहाँ ‘अनफेथफुल’ की ‘कोन्नी समर’ से अलग है. जहाँ ‘कोन्नी समर’ का अपने परिवार और पति से अलग होने का कोई इरादा नहीं है वहीँ रीना अपने पति से अलग होना चाहती है. इन सब में उसे उसके साथ तीन साल से संबंधों में अपने पति सलमान (संजय कपूर) के दोस्त सुधीर (जयदीप अहलावत) का साथ चाहिए, लेकिन सुधीर यहाँ पितृसत्ता व्यवस्था के रक्षक टूल में बदल जाता है और इस तरह कहीं मुक्ति न देखकर वह अपने पहले वाले सम्बन्ध के सेट-अप में सलमान और सुधीर दोनों से- एक के साथ उसके ही दोस्त के साथ संबंधों का खुलासा करके और दूसरे से सम्बंधों का अंत करके – अपने ही किस्म का बदला लेकर वापस लौट जाती है.

इस फिल्म का अंतिम भाग जिसे करण जौहर ने निर्देशत किया है, फिल्म का सबसे ज्यादा दर्शनीय भाग है जो फिल्म के पहले के तीन भागों की अपेक्षा दर्शकों को अपनी प्रस्तुति में तुरंत बाँध लेता है. यहाँ ध्यान यह देने की जरुरत है कि कहानी उस नवविवाहित स्त्री की है जो अपने पति के साथ-साथ ‘ऑर्गेज्म’ (चर्मोत्तेजन) का अनुभव करना चाहती है लेकिन इस सबमें कहीं भी भौंडापन नहीं आता बल्कि बहुत ही सहजता के साथ एक स्त्री के सेक्सुअल डिजायर के सवाल को दर्शकों के सामने रख देती है. साथ ही साथ समाज और परिवारों में सेक्सुअल डिजायर को व्यक्त करने को लेकर प्रचलित टैबू को भी एड्रेस करती जाती है.

‘लस्ट स्टोरीज’ पिछले तीन दशकों में हुए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक गहमागहमी से बनती गई नयी स्त्री और उसके पुरुष के साथ संबंधों को एक्सप्लोर करती है. यह स्त्री जो अलग-अलग तबकों से आती है लेकिन वह अपनी पूरी शारीरिकता के साथ मौजूद है और उसमें कोई और तरह का गिल्ट हो सकता है लेकिन अपनी शारीरिकता को लेकर आई सहजता के मामले में उसे कोई गिल्ट नहीं है, हाँ- अभी पुरुष समाज का स्त्री देह को लेकर सहज होना बांकी है.

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोध छात्र हैं [/author_info] [/author]

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion