डॉ.दीना नाथ मौर्य
गायत्री अपने पति और बच्चों के साथ मुम्बई के धारावी इलाके में पिछले 20 सालों से रहती हैं। मूल रूप से उत्तर-प्रदेश प्रतापगढ़ के रहने वाले इस दम्पति के परिवार में दो बच्चों के साथ कुल चार लोग हैं। पति मुम्बई में एक ठेकेदार के साथ इमारतों के रंगरोगन का काम करता है। लाकडाउन में जब काम धंधा बंद हुआ तो ठेकेदार ने काम पर आने से मना कर दिया। मुम्बई में बिना किसी कमाई के उन्होंने महीना भर तो गुजारा किया, पर जब आगे भी काम अथवा रोजगार की संभावना न रही तो अन्य श्रमिक मजदूरों के साथ वे भी अपने गाँव को पैदल ही निकल पड़े।
गायत्री बताती हैं कि किस तरह लोग सहायता की पेशकश के लिए हमारे पास आते थे और हमारी मजबूरी में किसी दूसरे आश्वासन की चाहत उनकी आँखों में होती थी। महामारी के इस दौर में बेकार पड़े लोगों की बहू-बेटियों पर मुंबई के दलालों और ठेकेदारों की नजर इस महामारी में भी लगी हुई थी। मुम्बई से अपने गाँव तक के सफ़र को याद कर गायत्री सिहर जाती है। पेट की भूख और सयानी बेटी के साथ महामारी में मजबूरी का फायदा उठा लेने को आतुर लोगों के बीच रहना उसके लिए कितना कठिन था।
अब गाँव में आकर एक नयी जिंदगी की शुरुआत उसे फिर से करनी है। काम-धंधे की खोज के बाद बच्चों के स्कूल में दाखिले तक की बातें इन दिनों गायत्री के परिवार की चिंता में शामिल है। महामारी के चलते जब लाखों-लाख श्रमजीवी परिवार सड़कों पर निकल पड़ा तो मीडिया के कैमरे से दिखाए गये सच के साथ एक सच यह भी है जो हमारे जेहन में गायत्री जैसी स्त्रियों के कटु अनुभवों के दर्द भरी दास्तान के साथ दर्ज होता है। सरकारी आँकड़ों में गायत्री जैसी स्त्रियों की आवाज दर्ज होने की कल्पना फिलहाल अभी नहीं की जा सकती है। गायत्री की यह आपबीती हजारों उन बेबस महिलाओं के अनुभव हो सकते हैं जो इस महामारी के समय में अपने परिवार के साथ बड़े महानगरों से अपने गाँव को वापस लौटी हैं।
इलाहाबाद के हाइवे पर घर लौट रहे श्रमिकों को दाना-पानी दे रही एक स्वयंसेवी महिला साथी का यह अनुभव भी सामने आया कि ‘छोटे बच्चों और पीरियड के कठिन दिनों के साथ चिलचिलाती धूप में नंगे पैर पैदल सफ़र तय करना इन श्रमजीवी महिलाओं के लिए बेहद तकलीफदेह रहा। महामारी ने स्वच्छता और सेहत को जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में लगी इन महिलाओं के जीवन में दोयम दर्जे की चीज बनाकर रख दिया है। सेनेटरी पैड जैसी जरूरी चीज को काली पन्नी में छुपाकर खरीदने और बेचने के आदी समाज में मासिक धर्म जैसी जैविक प्रक्रिया के दौरान होने वाली शारीरिक तकलीफों पर बात करना भी जरूरी नहीं समझा जाता है। उनकी इन तकलीफों पर विचार करने के लिए न तो सरकार को फुर्सत है और न ही समाज को। नतीजन ये तकलीफें जिन्दगी का हिस्सा बनकर उनके साथ लिपटी होती हैं। समाज की निर्मित भौतिक परिस्थितियों में खुद उनको भी इन्हें सहजता से स्वीकारने की आदत बन चुकी है। दीगर बात है कि अपने पुरुष साथी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती ये महिलाएं स्त्री सशक्तिकरण की राजनीति की समझ से कोसों दूर हैं। राजनीति से उनके इस फासले का फायदा समाज की राजनीति हर स्तर पर उठाती है।
कोरोना काल की इस विभीषिका में स्त्री के जीवन के आकलन का दुखद पक्ष यह रहा कि मध्यवर्गीय दिखावे की प्रदर्शनकारी राजनीति ने इनकी यातनादायी यात्रा को भी जश्न में बदलने का कार्य किया। जिन कठिन परिस्थितियों में मजदूर अपने घरों को लौटे उन परिस्थितिजन्य संकटों पर बात करने के बजाय उनकी तकलीफों में भी तारीफ की गुंजाइश की खोजकर इस दौर की मीडिया ने बुनियादी चीजों से ध्यान भटकाकर नरैटिव को बदलने का कुचक्र भी खूब चला है। पूंजीवादी नजरिये का ही परिणाम रहा कि जिन स्थितियों पर संवेदित होकर गंभीरता के साथ उनसे निपटने के उपाय ढूंढ़ने की कोशिश करनी थी, उन दुखद स्थितियों पर जश्न मनाया गया। लज्जित होने के बजाय गर्व और गौरव की अनुभूति की गयी। महिला कामगारों के बारे में श्रम कानूनों के दुहरे मानदंड इसी तरह के नजरिये के व्यवहारिक उदाहरण हैं। श्रम की गरिमा के साथ जेंडर के प्रति भी गरिमाबोध का होना जरूरी ही नहीं अपरिहार्य भी है। समझना जरूरी है कि यह केवल बाहर के कार्यक्षेत्र का मामला ही नहीं है, बल्कि घर के भीतर की गरिमा का मसला भी है।
कोरोना के इस काल में जिस तरह से और दूसरी चीजें खुलकर सामने आयी हैं, स्त्री जीवन की ये दुखद स्थितियां भी हमारे सामने उपस्थित हैं। मजदूर महिलाएं जो अपने परिवार के साथ पैदल ही घर के लिए चल पड़ी थीं उनकी अपनी निजी समस्याओं की कहीं कोई सामूहिक सामाजिक चिंता नहीं दिखायी पड़ती है। इसका एक कारण तो यह है कि आज भी उन्हें उनकी संम्पूर्ण स्वायत्तता में न निजी जीवन में मिल सकी है और न ही सार्वजनिक जीवन में। दूसरा कारण है पूरी व्यवस्था में दोयम नागरिकता के अघोषित नियम और कानून। अपने सिर पर जिंदगी का बोझा उठाये महिलाओं की तस्वीरों को देखकर उनकी हिम्मत की तारीफ करना एक बात है और उनके दर्द में भागीदार होना दूसरी बात।
कोरोना की विभीषिका ने न सिर्फ महिलाओं की दुनिया की तकलीफों को बढ़ा दिया बल्कि इस दौरान यह तस्वीर भी साफ़ तौर पर सामने आयी कि स्त्री कोई एक समुदाय भर नहीं है। वह भी समाज के विविध वर्गीय खांचों में विभाजित अस्मिता के साथ अपने को प्रस्तुत करती है। लैंगिक स्तर पर सभी स्त्रियों के जीवन अनुभव समान हो सकते हैं पर जेंडर को लेकर निर्मित होने वाली सामाजिक वर्गिकी उनकी पूरी चेतना को प्रभावित करने वाली होती है। इसलिए मजदूर, दलित, आदिवासी के साथ गाँव और शहर की स्त्रियों के जीवन के बारे में भी बगैर उनकी सामाजिक वर्गीय संरचना को समझे कोई सामान्य राय कायम करना दरअसल स्थितियों को सपाट तरीके से देखना होगा।
स्त्रियों के जीवन की दुश्वारियों को रेखांकित करते हुए प्रो. वीर भारत तलवार ने अपनी पुस्तक ‘सामना’ में लिखा है कि “स्त्री का शोषण वैसा नहीं है जैसा मजदूर वर्ग का है। स्त्री के शोषण और दमन की व्यवस्था दुनिया की सबसे पुरानी, सबसे गहरी और सबसे जटिल व्यवस्था है, जिसकी जड़ें हमारे धर्म, संस्कृति और परम्पराओं में धंसी हुयी हैं। समाज और मनुष्यता की हमारी आम धारणाओं में धंसी हुयी हैं.” उन्होंने आगे लिखा है कि ‘प्रगतिशीलता की सीमा क्या हो, कौन सी प्रथा तोड़ी जाए और कौन सी नहीं, इसे तय करने का हक़ पुरुष सिर्फ अपने पास रखना चाहते हैं। स्त्री के प्रति पुरुष समाज का बुनियादी दृष्टिकोण ही ऐसा है कि उसने स्त्री के लिए गोपनीयता, शोभा, शालीनता इत्यादि मर्यादाओं को कट्टरता से लागू कर रखा है, लेकिन खुद अपने लिए इनकी परवाह नहीं करता। स्त्री को पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए, जोर-जोर से हँसना नहीं चाहिए, उसके कपड़े इधर-उधर नहीं होने चाहिए, उसे इस तरह नहीं चलना चाहिए, उस तरह नहीं उठना चाहिए। इस शालीनता, गोपनीयता और शोभा वगैरह का मनुष्य की जरूरतों, सहज स्वाभाविक स्थितियों और प्राकृतिक आवश्यकताओं से क्या कोई मेल है? शौचालयों की तरफ हमारा कोई ध्यान नहीं जाता। सारी इज्जत की पोटली हमने स्त्रियों के कंधे पर डाल रखी है पर इस बुनयादी जरूरत पर ध्यान लगभग न के बराबर दिया गया है। हाइवे पर निर्मित की गयी सुविधाएँ देखकर यह लगता है कि मानों यह दुनिया सिर्फ और सिर्फ पुरुषों के लिए बनाई गयी है। पैदल चलती स्त्रियों और लड़कियों के लिए अपनी दैनिक जरूरी चीजों के लिए भी कितनी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है।’
इस लाकडाउन के समय में केवल भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में कोरोना के चलते जिन दो अन्य खबरों ने हमारा ध्यान खींचा है उनमें हैं घरेलू हिंसा के बढ़ते मामले और घर में बच्चों के प्रति निर्मित होता असंवेदनशील माहौल। तनिक गहराई से विचार करें तो किसी एक बिंदु पर जाकर दोनों मामले एक दूसरे के साथ मिलते हैं। घरेलू हिंसा का दायरा सीमित लगता जरूर है पर उसके इतने अलग-अलग स्तर हैं कि वह किसी भी महिला और बच्चे के जीवन में एक त्रासदी के रूप में सामने आता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक लाकडाउन के दौरान पुलिस के पास दर्ज होने वाली बलात्कार की घटनाओं में कमी आयी है। पर इस दौरान घर और परिवार के बीच होने वाली छेड़खानी में बढ़ोत्तरी की ख़बरें लगातार आती रहीं। मामले दर्ज होने से अपराध में कमी आयी हो यह निष्कर्ष निकल लेना स्थितियों के सपाट विश्लेषण का एक उदाहरण होगा। जबकि हम सब जानते हैं कि इस समय मामले दर्ज न होने के अनेक कारणों में एक है पुलिस और प्रशासन की व्यस्तता और प्राथमिकता में दूसरी चीजों का होना।
मध्यवर्गीय स्त्री जीवन के संदर्भ को सामने रखते हुए ‘ हिन्दुस्तान ‘ दैनिक में छपे एक लेख में जयंती रंगनाथन में लिखती हैं कि ‘घरेलू हिंसा के बढ़ते आंकड़े इस बात को भी दर्शाते हैं कि भारत ही नहीं, विश्व के कई समाजों में स्त्रियों की भूमिका बहुत कम बदली है। वे चाहे नौकरी करें या घर पर रहें, घर के कामों की जिम्मेदारी उन पर ही होती है। आज के समय में जब पूरा परिवार साथ-साथ है, और घरेलू कामों में मदद करने वाली मेड भी काम पर नहीं आया रही है, तो घर के अन्दर की अव्यवस्था पर चढ़ा नकाब खुलने लगा है। घर का बढ़ा हुआ काम, कोरोना की वजह से ठप्प पड़ी जिन्दगी, आर्थिक दबाव और तनाव के बोझ झेलती औरतों को अपने पतियों के आतंक का भी मुकाबला भी करना पड़ रहा है। चाहे वजह यौन आपेक्षाएं हों या काम करने में आना कानी।’ जयंती अपने आलेख में यह भी रेखांकित करती हैं कि ‘इस बीच कुछ देशों में ऐसे विवादित निर्णय आये हैं कि घर के भीतर महिलाओं की स्थिति को और भी कमतर करने वाले कहे जा सकते हैं; मिसाल के तौर पर आर्थोडाक्स चर्च के बिशप पेंतिलिमों ने महिलाओं से यह गुजारिश की है कि वे इस समय अपने पति से झगड़े नहीं, उन पर तंज न कसें और उनका ख्याल रखें। मलेशिया में तो महिला कल्याण विभाग की तरफ से बाकायदा यह घोषणा की गयी कि महिलाएं अपने पति कि नालिश न करें। लाकडाउन का यह समय काटने के लिए वे अपने घर में सज धज कर रहें। कोरोना की महामारी में जीवन खतरे में है तो समाज और सभ्यता के घर के अन्दर फ़ैल रही इस महामारी पर जयंती कि यह चिंता वाजिब है कि ‘इस कठिन समय के गुजर जाने के बाद एक बार फिर से पूरी दुनिया में ‘लैंगिक समानता’ और संवेदनशीलता’ को नए ढंग से परिभाषित करना होगा।’
इसके साथ ही हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारत में महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण केवल मध्यवर्ग तक सीमित करना कतई ठीक नहीं होगा। जब दुनिया आज भारत के व्यापक अंतर्देशीय पलायन को देख रही है और यह भी नहीं छिपा है कि पलायन की त्रासदी के भागी केवल पुरुष समाज ही नहीं है बल्कि महिलाएं भी इन पुरुषों के साथ हैं। परिवार संस्था और सामाजिक नियोजन में महिलाओं की भूमिका को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि किसी भी सामाजिक आर्थिक बदलाव के परिणाम निश्चित रूप से समाज की इस आधी आबादी के बुनियादी सच्चाईयों से अनिवार्यतः जुड़ते हैं।
इतिहास इस बात की गवाही देता है कि आपदा और युद्ध दो ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिसकी पीड़ा का सर्वाधिक भुगतान स्त्रियों को करना पड़ता है। अपने विभिन्न रूपों में ये परिस्थितियां स्त्री जीवन को गहरे प्रभावित करती हैं जबकि हासिल के नाम पर इन दोनों से ही उन्हें कुछ नहीं मिलता। किसी समाज द्वारा आधी दुनिया की इन सच्चाइयों को स्वीकार करना और उनकी त्रासद स्थितियों से निजात में अपनी भूमिका तय करना दरअसल अपने परिप्रेक्ष्य को दुरुस्त करना भी होता है। एक लोकतांत्रिक समाज अपनी पहचान इस रूप में भी निर्मित करता है। स्त्री जीवन की समस्याओं पर विचार करते समय यह सनद रहे कि आधी दुनिया की तकलीफों से निजात में ही समूची दुनिया की खूबसूरती का राज छिपा है।
(लेखक एन.सी.ई.आर.टी. में प्रोजेक्ट फेलो रह चुके हैं, वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं, संपर्क–9999108490, dnathjnu@gmail.com )