जयप्रकाश नारायण
किसान आंदोलन के सघन पूंजी निवेश वाले क्षेत्र के बाहर विस्तार का सवाल
ओबीसी जातियों का अधिकांश हिस्सा छोटे-मझोले और सीमांत किसानों का है। अभी भी उनकी संख्या का बहुलांश खेती-किसानी, पशुपालन जैसे कृषि कार्यों से जुड़ा हुआ है।
कृषि और उसके सहायक अन्य परंपरागत कारोबार को आधुनिक खेती के विकास के कारण मरणांतक चोट पड़ी। लकड़ी, लोहे, पटसन, मिट्टी के कारोबार जैसे क्षेत्रों में लगे हुए कृषि के सहायक रोजगार वालों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा।
रोजगार छिन जाने के कारण इन जातियों के बहुत बड़े श्रम समूहों को दूसरे रोजगार की तलाश में गांव से बाहर जाना पड़ा। मशीनीकरण और तकनीकी विकास के कारण कृषि का पूरा ढांचा और स्वरूप परिवर्तित हो गया।
डीजल, बिजली के इंजन, सिंचाई और खेती के नए साधनों के आगमन, जैसे ट्रैक्टर, हार्वेस्टर ने कृषि में रोजगार का स्वरूप बदला दिया।
दक्ष, हुनरमंद किसान की जरूरत कृषि को उसी तरह से होने लगी जैसे औद्योगिक संस्थानों को होती है। इस यांत्रिक विकास ने कृषि से उत्पादक समूह को गांव से खदेड़ना शुरू किया। जो अपने जीवन निर्वाह के लिए शहरों की तरफ पलायन को मजबूर हुआ।
आधुनिक खेती के विकास ने गांव को बाजार से जोड़ दिया। अन्य वैकल्पिक रोजगार के विनाश के कारण कृषक जातियों के एक हिस्से को पशु व्यापार की तरफ धकेल दिया। जिससे दूध के व्यापार के साथ-साथ मांस के व्यापार में भी भारत में लगातार बढ़ोतरी होती गई।
पशुपालन के साथ वृक्षों की देखभाल तथा मछली या अन्य कारोबार कृषि क्षेत्रों के सहायक रोजगार के रूप में विकसित हुए हैं ।
गांव से शहरों की तरफ श्रम-शक्ति का पलायन, शहरीकरण की गति तेज हुई। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारत के विकास की नींव रखी गई। जिसने विविध क्षेत्रों में रोजगार के नये दरवाजे खोले थे। इसके साथ शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी गुणात्मक प्रसार हुआ।
आधुनिक औद्योगिक विकास ने शिक्षा स्वास्थ्य जैसी ढांचागत सुविधाओं के विकास से जुड़कर भारत को एक विकासमान राष्ट्र के रूप में दुनिया के मंच पर ला दिया था। लेकिन 1990 के दशक तक आते-आते यह विकास यात्रा ठहर गई और शहरों में भी रोजगार के वैकल्पिक साधन लगभग चुकने लगे।
जिससे जो कुछ पूंजी इन गरीबों के पास इकट्ठा हुई थी उसे लेकर फिर उल्टी दिशा में गांव की तरफ आने लगे। पहले चरण की समाप्ति के बाद जब वह गांव की तरफ लौटे, तो छोटे-छोटे कस्बे, चट्टियों, बाजारों, कस्बाईनुमा शहरों के विकास को आवेग मिला।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से गांव की तरफ पूंजी का प्रवाह हुआ। कृषि क्षेत्र के लिए पूंजी की उपलब्धता बड़ी। धीरे-धीरे भारत के गांव शहरीकृत होने की तरफ बढ़ने लगे।
वहां भी कुछ वैकल्पिक रोजगार, तकनीशियन, ट्रैक्टर के ड्राइवर, मैकेनिक, उपभोक्ता सामग्रियों की दुकानें, खाद, बीज, कीटनाशक के साथ शिक्षा के प्रसार से स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों में लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए।
लेकिन भारत को आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र के निर्माण के लिए बुनियादी सामाजिक संरचनात्मक तैयारी और बदलाव की आवश्यकता थी।
भारतीय शासक वर्ग उसके लिए तैयार न था। उसकी आंतरिक संरचनात्मक बुनावट में मौजूद विदेशी पूंजी के साथ भारतीय नौकरशाही के गठजोड़ और सामंती ताकतों के साथ उनके रणनीतिक संबंध ने भारत को आधुनिकता की दूसरी मंजिल में नेतृत्व देने के अयोग्य बना दिया था।
इस कारण एलपीजी की नीतियां आने के बाद भारत का शासक वर्ग पूर्णतया साम्राज्यवादी पूंजी और कारपोरेट गठजोड़ की गिरफ्त में आ गया।
संकटग्रस्त भारत जाति-धर्म के पिछड़े जीवन मूल्यों की शरण में चला गया। उसके विकास की गत्यात्मकता चुक गई। और वह एक जड़, ठहरा हुआ, दिशाहीन राष्ट्र बन गया।
आंतरिक रूप से तनावग्रस्त भविष्य के प्रति चिंतित और मानसिक रूप से विभाजित समाज जैसा हो सकता था, हम भी उसी दिशा में आगे बढ़े।
इस स्थिति में भारत के विस्तारित कृषि क्षेत्र पर आश्रित बहुत बडी जनसंख्या के सामने एक अवरुद्ध आर्थिक, सामाजिक जीवन ही शेष बचा था।
यह अवसर भारत में कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ को आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त था। मोदी की सरकार आते ही भारतीय बाजार और संसाधन पर विकास के नाम पर कारपोरेट पूंजी ने नियंत्रण कर लिया।
कारपोरेट जगत के सहयोग से इसी उद्देश्य के लिए मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार लायी गई थी। जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं।
केंद्र में भाजपा सरकार आने और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनते ही कारपोरेट और हिंदुत्व के मेलजोल की परियोजना आगे बढ़ा दी गई ।
सबसे पहले यह भारत के पशुपालक किसानों पर गोवंश की रक्षा के नाम पर हुआ। जिस तरह के कदम उठाए गए वह किसानों के अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ने के लिए काफी थे।
साथ ही, अन्य सहायक रोजगार का बाजार सिकुड़ गया। छोटी जोतवाले किसानों के लिए कृषि में पूंजी निवेश की संभावनाएं बहुत सीमित हैं। क्योंकि छोटी जोत वाले किसान कृषि को बिना सरकारी सहयोग और समर्थन से उन्नत स्तर पर नहीं ले जा सकते।
इनके पास अपना जीवन, परिवार चलाने के लिए वैकल्पिक रास्ते की तलाश करनी पड़ती है। उत्तर प्रदेश के विस्तृत क्षेत्रों में पिछड़े, दलित और यहां तक कि उच्च जातियों का भी एक बहुत बड़ा समूह छोटी-मझोली जोतों से बंधा है।
उनके लिए कृषि क्षेत्र में बहुत गुंजाइश नहीं बची है। जहां से वे अपनी आर्थिक, सामाजिक हैसियत को उन्नत कर सकें। मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार के विस्तृत इलाकों में नगदी फसल का एकमात्र स्रोत गन्ना उत्पादन है।
गन्ना उत्पादक किसानों को मिलों द्वारा समय पर भुगतान न करने, गन्ना मूल्यों में लम्बे समय से स्थिरता के चलते गन्ना किसान आर्थिक संकट में फंस गए। जिससे गन्ना उत्पादन के प्रति किसानों में अरुचि पैदा हुई।
उत्तर प्रदेश में कुर्मी और कुशवाहा दो कृषक जातियां हैं, जिनके अर्थव्यवस्था का आधार मुख्यतः कृषि उत्पादन से आता है।
इसलिए जब टिकैट जी के आंदोलन का प्रभाव अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैला था तो इन जातियों में भी किसान यूनियनों में संगठित होने की प्रवृत्ति दिखी।
लेकिन ’90 के बाद किसान यूनियनों की भी गति धीमी पड़ गई । बाराबंकी, बस्ती, अंबेडकर नगर, फैजाबाद, भदोही, मिर्जापुर, बनारस, चंदौली के इलाकों में अलग-अलग किसान यूनियनें, अलग-अलग दौर में बनीं।
अभी भी अवशेष रूप में वे काम करती रहतीं हैं। उनके अंदर वर्तमान किसान आंदोलन को लेकर एक सक्रियता दिखी है और जब भी कोई आवाहन आंदोलन के मंच से आता है, तो वाम धारा के किसान संगठनों के साथ मिलकर सड़कों पर होने वाले प्रतिवाद में वे उतरती हैं।
बिहार के उत्तरी क्षेत्रों में गन्ना, मक्का, केला, मखाना जैसे नगदी फसल के चलते वहां भी किसानों में बाजार अर्थव्यवस्था का असर और संगठित होने की प्रवृत्ति मौजूद है।
लेकिन बिहार सरकार ने मंडी सिस्टम को खत्म कर बिहार के व्यापक किसानों की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। कृषि बाजार के खिलाड़ियों के चलते मूल्यों के उतार-चढ़ाव के कारण किसान जर्जर आर्थिक स्थिति में जी रहे हैं।
कृषि अर्थव्यवस्था दम तोड़ रही है। इसलिए बिहार के किसानों में कृषि को उत्पादक बनाने, पूंजी निवेश करने और कृषि व्यापार को उन्नत करने की प्रवृत्ति कमजोर पड़ी है ।
उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक दूसरी बड़ी कृषक जाति यादव समाज से आती है । पशुपालन करना उसका सहायक कारोबार है।
इस सहायक कारोबार के साथ कृषि में उत्पादकता बढ़ाने, उससे अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और एक उद्यमी किसान के रूप में रूपांतरित होने की प्रवृत्ति इनके अंदर बहुत कमजोर है।
शिक्षा आदि से जुड़ने के कारण पढ़ा-लिखा शिक्षित वर्ग भी इस समाज में मजबूत स्थिति में है। संख्या और ताकत के चलते लोकतांत्रिक संस्थाओं पर इनकी पकड़ मजबूत हो जाने के कारण इनके आय के स्रोत कृषि के अलावा दूसरे क्षेत्रभी है।
राजनीतिक सत्ता का प्रयोग कर विकास योजनाओं के पैसे का बंदरबांट और विकास योजनाओं में ठेकेदारी प्रथा का फायदा उठाकर समाज में फैले हुए ढेर सारे वैध-अवैध कारोबार का जाल, जिसे राजनीतिक संरक्षण में संचालित किया जाता है, उसका प्रयोग करते हुए पिछड़ी जातियों में ताकतवर मध्यवर्गीय समूहों का छोटा सा गुट पैदा हुआ है।
जो मूलतः राजनीति और समाज पर अपना गहरा प्रभाव रखता है। और लोकतांत्रिक संस्थाओं की अगुवाई करता है। सत्ता का आक्रामक ढंग से अपने स्वार्थों में प्रयोग करने और उसे नियंत्रित करने की कोशिश करता है।
एक दौर में पिछड़ी जातियों का बहुत बड़ा वर्णक्रम निषाद, चौहान, साहनी जैसी जातियां इनके साथ आ गई थी। लेकिन इन जातियों की बढ़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति न हो पाने और भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की षड्यंत्रकारी परियोजना के चलते धीरे-धीरे ये जातियां यादव नेतृत्व से बाहर निकल गई।
नब्बे के दशक में बाबरी मस्जिद के इर्द-गिर्द केंद्रित, संगठित और आक्रामक हिंदुत्व के हमले से उत्तर प्रदेश और बिहार में मुस्लिम समाज ने इस ताकतवर समूह के साथ अपने को जोड़ा।
शुरुआती वर्षों में राजद और सपा जैसी पार्टियों ने ऊपरी स्तर पर ही सही अल्पसंख्यकों के सवाल को अपने एजेंडे में रखा और अल्पसंख्यकों के हितों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई ।
लेकिन नव उदारवादी नीतियों के प्रभाव ने जैसे-जैसे भारतीय समाज को अपने आगोश में लेना शुरू किया, इस गठजोड़ की सत्ता पर पकड़ धीमी हो गई।
एक ऐसा मौका आया था, जब यह सामाजिक, राजनीतिक गठजोड़, जो मूलत कृषक समाज से आता है, कृषि विकास का एक मुकम्मल एजेंडा सामने ला सकता था।
लेकिन कृषि विकास के लिए कोई मुकम्मल परियोजना तैयार करने की उदारवाद के दौर में समझ न होने के कारण या इसके वर्ग चरित्र के चलते कृषि विकास का सवाल इसके सरोकार के क्षेत्र में ही नहीं आ सका।
उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा के विस्तृत मैदानों में फैले हुए कृषक समाज को सपा और राजद की सरकारों ने एक नीतिगत परियोजना के तहत आधुनिक उत्पादक खेती की तरफ मोड़ा होता तो आज उत्तर प्रदेश और बिहार के कृषक मैदानों का परिदृश्य कुछ और हुआ होता।
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपनी छोटी दृष्टि के चलते ये सर छोटूराम होने से वंचित रह गये। और उत्तर भारत में आधुनिक खेती के विकास की बहुत बड़ी संभावना को समय रहते धरातल पर उतारा नहीं जा सका।
जिस कारण से यह विस्तृत क्षेत्र उद्यमी किसानों का क्षेत्र नहीं बन पाया। और आज भी श्रमिक उत्पादक पिछड़ा इलाका बनकर रह गया है।
दूसरा उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश करना, बढ़ाना और कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक संरचनात्मक ढांचे का विस्तार करना, भंडारण, विपणन की प्रणाली को सुदृढ़ करना, मंडी प्रणाली को सुव्यवस्थित करते हुए उसे भ्रष्टाचार मुक्त करना तथा किसानों के लिए पूंजी की जरूरतों को सुलभ बनाने जैसी योजनाएं उनके पास नहीं थी।
जिस कारण से कृषक सामाजिक आधार में कृषि उत्पादकता को उन्नत करने का आवेग नहीं पैदा हो पाया। बाद के काल में सहकारी बैंकों, सोसाइटियों और मंडियों पर इन राजनीतिक शक्तियों का नियंत्रण हो गया था।
लेकिन सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व ने इन सब संस्थाओं का इस्तेमाल अपने निजी स्वार्थों में किया और न संस्थाओं को भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के केंद्र में बदल दिया। जिस कारण से ये कृषक हितकारी संस्थाएं धीरे-धीरे स्वतः मृतप्राय हो गई।
उत्तर प्रदेश और बिहार के विस्तृत इलाके कृषि विकास और पूंजी उत्पादन के केंद्र होने से वंचित हो गए। जिस कारण से एक आधुनिक किसान, उत्पादक किसान के निर्माण और उसकी अपनी राजनीतिक, आर्थिक आकांक्षा को आगे नहीं बढ़ाया जा सका।
इन राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक हित साधने के लिए जातीय संगठन के ढांचे के अंतर्गत सत्ता में भागीदारी के विमर्श को केंद्रीय राजनीतिक विमर्श में बदल दिया। इससे नकारात्मक तत्वों का विस्तार इतना तेजी से हुआ कि इस विस्तृत इलाके में नागरिक निर्माण की गति अवरुद्ध हो गई।
इस विश्लेषण के आधार से हम वर्तमान दौर के किसान आंदोलन के भविष्य और गतिकी की खोज कर सकते हैं। और इस विस्तृत इलाकों में दिल्ली के इर्द-गिर्द चल रहे किसान आंदोलन की आग को आगे ले जा सकते हैं। महामारी की मार सबसे ज्यादा इसी क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर पड़ी। जिनका रोजगार छिना, मौतें हुईं, हजारों किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा, भुखमरी और मौत के शिकार हुए। इस तबाही की मार की जद में अति पिछड़ी जातियों से लेकर समृद्धि पिछड़ी जातियों तक का एक बड़ा समूह आ गया।
इसलिए रोजगार, सम्मानजनक जिंदगी, कृषि विकास की एक मुकम्मल परियोजना और इस इलाके में पूंजी निवेश के मुद्दे, मंडी व्यवस्था को बहाल करने, एमएसपी पर खरीद की गारंटी करने के सवाल को छात्रों-नौजवानों के रोजगार के साथ जोड़ते हुए किसान आंदोलन को विस्तारित करने की बेहतरीन परिस्थिति मौजूद है।
कृषि क्षेत्र में कार्यरत किसान संगठनों को इस जिम्मेदारी को गंभीरता से लेना होगा, तभी दिल्ली के चारों तरफ चल रहे किसान आंदोलन को हम निर्णायक मंजिल तक ले जा सकते हैं।
(अगली कड़ी में जारी)