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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-तेरह

जयप्रकाश नारायण 

किसान गणतंत्र परेडः किसान आंदोलन में जन गोलबंदी का चरमोत्कर्ष

संयुक्त किसान मोर्चा ने 26 जनवरी 2021 के गणतंत्र दिवस पर किसान गणतंत्र परेड आयोजित करने का ऐलान किया ।

किसानों द्वारा मोर्चे के  एलान का जोरदार स्वागत हुआ। इस ऐलान ने किसानों के अंदर कृषि कानून को लेकर पल रहे विरोध को अभिव्यक्त करने का अवसर दे दिया।

एक जिज्ञासा भी पैदा हुई, कि हम राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस की किसान परेड का सहभागी होने जा रहे हैं।

इस रोमांचित करने वाले एहसास ने एक उत्तेजना और प्रसन्नता का माहौल गांवों के किसानों में बना दिया। किसानों के जत्थे गांव-गांव सजने लगे।

ट्रैक्टर को रथ की तरह सजाया जाने लगा। जनवरी की ठंड के बावजूद किसानों द्वारा ट्रैक्टरों पर सभी जरूरी सामान-साधन इकट्ठा किए जाने लगे ।

‘दिल्ली चलो’ के गीत  गांव-गांव, गलियों, चट्टी चौराहों और राजमार्गों, बाजारों, कस्बों में बजने लगे। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात सहित अनेक प्रांतों से किसानों के दिल्ली पहुंचने की उत्साह भरी खबरें आने लगी।

चारों तरफ उत्सवी माहौल सा बन गया। रोमांचित और गर्वित करने वाली किसानों की गोलबंदी की खबरें सोशल मीडिया सहित सारे स्थानीय और राष्ट्रीय समाचार माध्यमों से आने लगी थी।

कड़कड़ाती ठंड में एक महीने से दिल्ली के पांच सीमाओं पर बैठे हुए किसानों के आंदोलन ने दिल्ली के इर्द-गिर्द के 700 किलोमीटर से ज्यादा के क्षेत्र में  सरकार की उदासीनता, किसान आंदोलन के प्रति चलाए जा रहे दुष्प्रचार और छोटे-छोटे षड्यंत्रों के रचे जाने की खबर से किसानों में आक्रोश  फैल चुका था।

खासकर युवा किसान और महिलाओं में दिल्ली की किसान गणतंत्र परेड में भाग लेने की होड़ सी लग गयी।

24 जनवरी के सुबह से ही खबरें, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के सीमांत जिलों से किसानों के ट्रैक्टरों के झुंड के झुंड गांव से निकलने की आ रही थी।

ट्रैक्टरों पर किसान आंदोलन के नारे गूंजने लगे थे। आंदोलन से संबंधित गीत चारों तरफ राजमार्गों पर सुनाई देने लगे। युवा किसान, महिलाएं, बुजुर्ग उत्साह भरे नारों और अपने जोशीले तेवरों से एक नये तरह का आंदोलनात्मक समा बांध रहे थे।

इस तरह के दृश्य भारत के इतिहास में आजादी के दौर में भी शायद देखे गए हों। संपूर्ण भारत सहित और अंतरराष्ट्रीय जगत  किसानों की गोलबंदी, उनकी तैयारी, उनका जोश और दिल्ली पहुंचने की होड़ को उत्सुकता की नजरों से  देख रहा था।

इंद्रधनुषी नजारा था। दिल्ली  पहुंचने वाली सातों दिशाओं से आने वाली सड़कें लाल, हरे, सफेद, नीले, झंडों, वस्त्रों,  पगड़ियों, साफों, टोपियों से सजे-धजे किसानों से लदे ट्रैक्टरों से भर गयी। अंतहीन श्रृंखला। चारों तरफ ट्रैकर ही  ट्रैक्टर के हुजूम दिखाई दे रहे थे।

दिल्ली की गद्दी पर बैठे हुए आत्ममुग्ध बादशाह ने जब अपने खुफिया तंत्र के सेटेलाइट की आंखों से किसानों के इस अंतहीन काफिले को देखा होगा, तो कुछ क्षण के लिए वह चेतना शून्य अवश्य हो गया होगा।

सत्ता की कोटरी सक्रिय हो गयी होगी और उसने अपने चिर-परिचित आजमाये हथियार यानी षड्यंत्रकारी फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया होगा ।

यही नहीं, किसानों के एकताबद्ध दृश्य को देखकर कुछ क्षण के लिए शायद अपने कारपोरेट मित्रों के साथ विचार-विमर्श भी किया होगा ।

सत्ता की क्रूर बर्बर  ताकत के बल पर कारपोरेट मित्रों का खाया कर्ज और विश्व पूंजीवाद के पतन काल में उसे नई शक्ति और ऊर्जा देने के लिए विस्तृत भारतीय कृषि परिक्षेत्र की लूट से होने वाले मुनाफे को खोने की  आशंका से वह डर गया होगा।

फिर साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर अमल करते हुए पुलिस प्रशासनिक तंत्र और आधुनिक तकनीकी तंत्र की  ताकत के बल पर उसने किसान आंदोलन और किसानों की शक्ति को पराजित करने की रणनीति मध्य रात के अंधेरे में तैयार की होगी ।

उसको अंजाम तक पहुंचाने के लिए अनेकानेक लोगों को, जो किसी न किसी रूप में पूंजी के क्रीतदास बन चुके हैं, लगा दिया गया होगा ।

भोला-भाला किसान पूंजीवादी सभ्यता की धूर्तता और अमानवीयता से अनजान उत्साह के साथ नाचते-गाते जीवंत मानवीय गुणों के साथ दिल्ली की यात्रा पर अनवरत आगे बढ़ता जा रहा था ।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं द्वारा इस बड़े जन गोलबंदी को संभालने, नियंत्रित करने और सत्ता के षड्यंत्र से बचाने की भरपूर कोशिशें की गयी।

सरकार और उसकी मशीनरी की तरफ से अंतिम समय 25 जनवरी की शाम तक किसानों के परेड के मार्ग को निर्धारित करने की एक सूचना दी गयी ।

लेकिन न सरकार और न मीडिया, किसी तंत्र ने अपने विस्तारित प्रचार तंत्र के माध्यम से किसानों के लिए निर्धारित किये गये रास्तों से  अवगत कराने की कोशिश की ।

किसान नेताओं ने बड़ी तादात में  निर्धारित रूटों पर किसान वालंटियर लगा दिये थे। लेकिन सत्ता अपनी अ-दृश्य ताकत के बल पर  आंदोलन के विरोध में षड्यंत्र रचने और कुछ समय के लिए उन्हें लागू करने में कामयाब हो जाती है और ऐसा हुआ भी।

पुलिस ने कई जगह किसानों के निर्धारित मार्ग से सचेतन  तौर से  उन्हें डायवर्ट किया  और अपने चिर-परिचित एजेंडे को  आगे बढ़ाने के लिए किसानों को गलत दिशा में मोड़ दिया गया।

भाजपा के एक सांसद का तैयार किया हुआ कार्यकर्ता, जिसकी पहुंच गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के आवास तक थी, लाल किला तक  जाने में कामयाब हो  गया।

आरएसएस-नीति भाजपा  सरकार की षड्यंत्रकारी योजना अमल में लायी जा चुकी थी, लेकिन दूसरी तरफ लाखों की तादात में ट्रैक्टर पर लदे किसान नारे लगाते, गीत गाते निर्धारित मार्गों पर किसान परेड को सफल बना रहे थे।

लाखों-लाख दिल्ली के नागरिक फूल बरसा करते हुए किसानों  का स्वागत कर रहे थे, उन्हें पानी पिला रहे थे, रोटियां दे रहे थे, खाना खिला रहे थे।

दूध और बिस्किट के पैकेट किसानों के ट्रैक्टरों पर दौड़-दौड़ कर पकड़ा रहे थे।  सहयोग, समन्वय, प्यार, मोहब्बत का उत्कृष्ट मानवीय वातावरण था ।

लोग उत्साह से झूम रहे थे। दिल्ली शायद 26 जनवरी 1950 के गणतंत्र का वह मंजर देख रही थी, जब भारत एक लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के स्वरूप में जन्म ले रहा था ।

उसी तरह का उत्साह, प्यार, मोहब्बत, सहयोग, समन्वय चारों तरफ फैला हुआ था। सचमुच भारत की आत्मा, भारतीय संस्कृति की महानता, उसकी श्रेष्ठता, मानवीयता और स्वतंत्र आजाद संप्रभु गणतंत्र होने की उसकी आंतरिक आकांक्षा दिल्ली की सड़कों पर मूर्त रूप में दिख रही थी ।

किसान नेता संयुक्त मोर्चे के कर्ता-धर्ता यह समझ रहे थे, कि उन्होंने अपने अनुशासन, अपनी एकता का बेमिसाल इतिहास कायम किया है ।

लाखों ट्रैक्टरों पर लदे हुए दसियों लाख किसान जब दिल्ली की सड़कों पर गुजर रहे थे, तो एक भी घटना ऐसी कहीं नहीं दिखी, जहां किसानों के कारण दिल्ली के नागरिकों को किसी तरह का कष्ट, अपमान, दुख, यातना झेलनी पड़ी हो।

किसी और राजनीतिक दल या बजरंग दल, हिंदू युवा वाहिनी या  कांवरियों का कोई जत्था होता तो  महिलाएं, कमजोर, गरीब खोमचे वाले, दुकान वाले, फल-सब्जी बेचने वालों की क्या दुर्दशा हुई होती, यह हम सब भारतीय समझते हैं।

किसानों के आत्मानुशासन का दिल खोलकर राजधानी दिल्ली स्वागत और उत्सव मना रही थी।  संपूर्ण विश्व ने एक नये भारत का दृश्य देखा ।

यह  भारत 6 दिसंबर 1992  के बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन से सर्वथा भिन्न था । दिल्ली में एक नया भारत दिखा।

अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित  अनुशासन और एकता के मानवीय सूत्र से बना हुआ भारत। यही वह अलौकिक और आत्मानुशासन का मंजर है, जो उम्मीद बंधाता है, उत्साह जगाता है और भारत के सच्चे जन-गण की अजेय शक्ति का उद्घोष करता है।

भारत के जन-गण की गंगा-जमुनी सभ्यता की महान गौरवशाली परंपरा और एकता को कोई विध्वंशक, षड्यंत्रकारी, कारपोरेट की दलाल शक्ति खत्म नहीं कर सकती।

किसानों  की गणतंत्र परेड ने सैन्यवादी, सत्ताधारी, गणतंत्र परेड के रंग को फीका कर दिया । दिल्ली का शायद ही कोई नागरिक रहा हो, जो लाल किले की सरकारी परेड को देखने गया हो।

सबकी नजर किसानों के परेड पर लगी थी। उसका दिल खोलकर स्वागत कर रही थी, दर्शन कर रही थी, आह्लादित हो रही थी।

यही वह भारत है, यही वह हमारी गंगा-जमुनी सभ्यता की एकता है, जो इतने निर्मम हमलों,   षड्यंत्रों में मार्गदर्शक  बनकर रास्ता दिखा रही है।

हम किसानों के आंदोलनकारी उत्सव को देखकर आश्वस्त  हैं कि फासीवाद के आसन्न संकट  से घिरा हमारा  गणतंत्र इस संकट से पार जाकर और मजबूत हो कर आगे बढ़ेगा।

फासीवाद के संकट से बाहर निकालने की ताकत भारत के मेहनतकश जन-गण में ही निहित है।

संविधान का वह वाक्य, ‘हम भारत के लोग  सार्वभौम गणतांत्रिक भारत को अपने लिए अर्पित और समर्पित करते हैं’, यह विश्वास  उस दिन किसानों की शक्ति देख कर और मजबूत हुआ। आगे आने ‌वाला दिन शायद और रोमांचक होने वाला‌ था। किसानों को कठिन अग्नि-परीक्षा से गुजरना था।

(अगली कड़ी में जारी)

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