अभी हाल के दिनों में जन संस्कृति मंच की रायपुर ईकाई ने शब्द प्रसंग के तहत छत्तीसगढ़ के दस बेहद उर्वर कवियों को लेकर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया था. यह काव्य गोष्ठी कई मायनों में इसलिए भी अलग थी कि सभी कवियों ने समकाल की चुनौतियों के मद्देनजर खौफनाक समय से मुठभेड़ करती हुई कविताओं का पाठ किया. इस मौके पर युवा समीक्षक इंद्र कुमार राठौर ने कवि विनोद वर्मा, जया जादवानी, जिया हैदरी, वसु गंधर्व, सुमेधा अग्रश्री, बुद्धिलाल पाल, कमलेश्वर साहू और विनोद शर्मा की कविताओं पर केंद्रित जिस महत्वपूर्ण आधार लेख का वाचन किया उसे हम यहां जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं.
जैसा कि ज्ञात हो कि जसम रायपुर ईकाई अपनी, कुछ नया और बेहतर की मुहिम के साथ आगे बढ़ी है , उस पर गौर किया जा रहा है । यह आयोजन भी उसी तय मुहिम का हिस्सा था । इस तारतम्य में हमने अपने पहले आयोजन में रामजी राय की कृति ‘मुक्तिबोध : स्वदेश की खोज’ पर गंभीर विमर्श किया। उसके बाद अपना मोर्चा डाट काम के बैनर तले युवा उपन्यासकार किशन लाल के उपन्यास पर भी गंभीर मंत्रणा की । फिर हमने प्रेमचंद जयंती मनाई जिसके अंतर्गत ‘प्रेमचंद : कल आज और कल’ विषय पर युवा आलोचक भुवाल सिंह का व्याख्यान हुआ , तथा देश के दो शीर्ष कहानीकार हरि भटनागर व जया जादवानी ने अपनी कहानियों का पाठ किया । उन पर चर्चित आलोचक जयप्रकाश और सियाराम शर्मा के साथ कथाकार आनंद बहादुर ने भी अति महत्वपूर्ण टिप्पणी की। कहना न होगा कि इन महत्वपूर्ण आयोजनों की अनुगूंज देश भर में सुनी गई । देशभर की साहित्यिक बिरादरी का ध्यान हमारी ओर गया। यह बेहद प्रसन्नता का विषय है कि जसम के राष्ट्रीय अधिवेशन का आयोजन भी रायपुर के हिस्से में आया है, जो आगामी 8 व 9 अक्टूबर को होगा।
बहरहाल, मैं आज के इस आयोजन में जो साथी कवि काव्य पाठ करने वाले हैं, उनके संदर्भ में चंद बातें आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। वे अपनी कविताओं से कहना क्या चाह रहे हैं? क्या राय और विचार रखते हैं समकाल की चुनौतियों पर, उनकी कविताओं से गुजरते हुए जो एक समझ बन, विकसित होती है उसे लेकर मैं आपके सम्मुख उपस्थित हूं।
जया जादवानी की गतिशीलता कहानी और कविता की विधा में समान रूप से है । वे एक महत्वपूर्ण कथाकार और उपन्यासकार होने के साथ कवि के रूप में भी ख्यात हैं । उनकी कविताएं स्त्री मन की पीड़ा और गहन अनुभूतियों की कविताएं है । उनकी एक कविता में यह पंक्ति आई है-
“कहते हैं वह एक अच्छी औरत थी
उसके मुंह में जबान नहीं थी”
यह हमारा आज का कवि कह रहा है, और मैं कह रहा हूं कि यह प्रत्यय कोई चुटकुला नहीं है ; और न कोई गल्प । मैं तो कहूंगा कि कविता कम इतिहास अधिक है । स्त्री जीवन के संघर्ष और संकट के सच का इतिहास है । जो कि उनके सुख-दुख , मार्मिक सवालों और पीड़ाओं का एक जीवंत दस्तावेज है । यद्यपि स्त्री ताकतवर पितृसत्ता के चंगुल में कराह रही है अब भी । तो मानो इसलिए कि वह बच्चा जनने की मशीन ही हो, अभी भी । बहरहाल, अभी बहुत बाकी है । समय करवट ले रहा है । दादी की स्थिति को मैं बदलाव में देख प्रसन्न हूं कि उनकी ही थाती हैं जया जादवानी । जो हमें आश्वस्ति से भरती हैं । हमारे भीतर के विविध रंगों और पहलुओं के बीच, मानवीय जिजीविषाओं के साथ हमें और अधिक मनुष्य बनाने की प्रबल इच्छाओं , आकांक्षाओं का एक पूरा कोलाज खड़े करती हैं ।
जया जादवानी के यहां जो यथार्थ है वह नंगा यथार्थ है , खुला है । अदृश्य-सा या भुलावे में रख देने जैसा, कि कुछ भी बचाकर रख दें ; यह संभव नहीं है । उनकी अधिकांश कविताओं के केन्द्र में स्त्री है । जो फ़ौरी तौर पर एक खुद्दार, सेल्फ आईडेंटिटी से लैस दिखती है ; कि लगता है, उनका घर है, परिवार है । हालांकि, यह आधा भी सच नहीं है । इस पर मुझे ओमप्रकाश वाल्मीकि इसलिए याद आ रहे हैं कि दशा
“चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
कुछ इसी तरह की ही, भाव भूमि और मनोदशा है स्त्री के जीवन में । जो किन्हीं मायनों में उन दलित समाज की पीड़ाओं से भी अधिक ज्यादतियों के साथ उनके भीतर मौजूद है । यह कहते और इस बिंदु पर आते-आते कभी कभी मुझे लगता है कि स्त्री सर्वाधिक शोषित उत्पीड़ित और दलित है । जिसे जया जादवानी अभिव्यक्त भी करतीं हैं कि
“भोर से रात तक घर की चक्की घूमते
उसके तमाम एहसास पिस-पिसा कर आटा हो गए
जिसकी रोटी वह रोज़ पकाती है और खाती है”
जया जादवानी के यहां बिम्बात्मक प्रयोग की महीन परतों में कुछ ऐसा भी अनकहा अनछुआ सच है, जब झांकने लगता है और खदबदाने लगता है तब ज्ञात होता है कि विडंबनाओं का स्त्री जीवन और जाति में कितना गहरा विरोधाभास ; भरा पड़ा है ।
“वह आंसुओं के पर्वत पर खड़ी हंसती थी
पर कभी-कभी पानी के टब में देर तक
देखती न जाने क्या ढूंढती थी।
जया जादवानी की अनेक प्रकाशित कृतियों के बीच तीन हिंदी के कविता संग्रह हैं । ‘मैं शब्द हूं’ ‘अनंत संभावनाओं के बाद’, ‘उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य’ कम बात नहीं है
‘चांदी की दुनिया’ , ‘पानी का पता पूछ रही थी मछली’ , ‘किताब के समान खुलेंगी यदि आपके घर की खिड़कियां’ ; यह ही क्यों ?
‘कच्चा दूध’, ‘गर्भवती स्त्री’, ‘ममता दादुरिया दहेज कांड’, ‘खिलौनों से खेलने की उम्र में खिलौने बेचता बच्चा’, ‘स्वाति अग्निहोत्री के बहाने सात प्रेम कविताएं’ जैसी मार्मिक, मानवीय तथा उदात्त प्रेम और जीवन की कविताएं, फिर ‘जूते’, ‘बीस व्यक्तियों का संघर्ष गीत’, या ‘बस्तर सप्ताह के सात दिन’ का क्रमवार उल्लेख की कविता ‘रविवार’ ‘सोमवार’ ‘मंगलवार’ ‘बुधवार’ ‘गुरुवार’ ‘शुक्रवार’ ‘शनिवार’ और ‘रविवार’ के मार्फत, बस्तर के पुरा वैभव वैशिष्ट्य को अपने में समेटे, उसकी वैविधता इत्यादि को झांक, आज के नक्सलवाद को अपनी यात्रा में शामिल करने जिसने कम जद्दोजहद नहीं की ; फिर स्त्री पुरुष संबंध को पूरी एक श्रृंखला में सामने लाने वाले अंतिम दशक के प्रिय कवि, जिनके अब तक कि पांच संग्रह , ‘यदि लिखने को कहा जाए’, ‘पानी का पता पूछ रही थी मछली’, ‘कारीगर के हाथ सोने के नहीं होते’, ‘सत्य कथा असत्य कथा’ जैसी अविस्मरणीय संग्रह के कवि कमलेश्वर साहू को भी हमें सुनना है । कमलेश्वर साहू छत्तीसगढ़ से आने वाले वे महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके यहां चीजों का प्रायोगिक विज्ञान व कक्ष है । संवेदना जीवंत और मार्मिक हैं । वायवीय उथल-पुथल नहीं है । जो भी है सीधी साफ़ और सच बात है । पक्ष के चुनाव को लेकर कमलेश्वर विचारधारा के परस्पर ही मनुष्यता को कसौटी का आधार बनाते हैं । भेद रहित जीवन व्यवहार को प्राथमिक बनाते हैं । वर्ग विभाजन को डिक्लास करने की मुहिम में उस वर्ग के साथ होते हैं जो शोषित हैं उत्पीड़ित है । भेद रहित दुनिया के लिए उन्हें आड़े हाथ लेते हैं जो इस विषाद को बड़ा कर रहे होते हैं ।
कहते हैं
‘उनकी तृष्णा तक होती है चांदी की
वे पसंद करते हैं
चांदी के जूतों की मार
वे हमेशा चांदी नहीं बोते
मगर फसल चांदी की काटते हैं’
समाज में व्याप्त भेद को कमलेश्वर एक भाजक में रख, देखते हैं और उन चरित्रों की ख़ूब खैर लेते हैं । कि यह सिर्फ अधनंगा प्रदर्शन है
“बाहर से खूबसूरत दिखने वाली चांदी की दुनिया
भीतर से बेहद खोखली , भयानक क्रूर और यातनामयी है”
कमलेश्वर के यहां फैंटेसी का प्रयोग और उसका आधार समकालीन यथार्थ है । जादुई सौंदर्य का रचाव कि काले जादू के अविश्वसनीय चमत्कार जैसा नहीं है । चूंकि वह अपच्य हो जाता है
“जिस वक्त मैं
चांदी की दुनिया के अंधेरे यातना त्रासदी
और वहां के रहने वाले प्राणियों के बारे में
बता रहा था
एक आदमी आया
जैसे किसी फंतासी का कथा नायक
और मेरे देखते ही देखते
लगाया छलांग “
खैर, कमलेश्वर साहू को हम साथी कवियों के संग सुनने आए हैं । जरूर सुनेंगे ।
कवि भविष्यवेत्ता नहीं है । न कोई खगोल विज्ञानी ही । परन्तु वह जिस समय, समाज और अपने परिवेश तथा उसके प्राप्य में जो धारण करता है, उससे, उसके अनुभव का आकाश विस्तृत होता जाता है । वह दीर्घ जीवन अनुभव को हासिल करता है ; प्रौढ़ता को पा लेता । तो मैं वसु गंधर्व की बात कर रहा हूं वसु गंधर्व इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में आए उन नवोदित कवियों में हैं, जिनके यहां यह दीर्घ जीवन अनुभव व प्रौढ़ता उनमें पहले आ समायी है । वे कहते हैं
“मैं एक हज़ार आइनों के अपने प्रतिबिम्बों में
एक हज़ार बार हो चुका हूँ उम्रदराज़
और अपने भीतर दौड़ती एक हज़ारवें पुरखे की नवजात दृष्टि में
समाई बूंद भर रोशनी के उजास से टटोल चुका हूँ
अपनी आगामी पीढ़ियों के हिस्से की रातों का अंधकार।”
यह दृष्टि संपन्न चेतना है, कोई वायवीय घटना नहीं है । अनुभवों से अर्जित किए हुए हैं । देखे हुए हैं खुली आंखों से मंजर कि
“नींद में अक्षुण्ण गिरती है कथाओं में जली
लकड़ियों की राख
सपनों में कुनमुनाती है आगामी मिथकों को जन्मने वाली
हवा, और पानी, और घास की सनसनाहटें”
यह कवि भी मुक्तिबोध के मार्ग का कवि जान पड़ता है । ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इनके यहां भी वही बेचैनी, व्यग्रता और जद्दोजहद अपने गंभीर मंतव्य में जी उठे हैं । हालांकि उन्हें अभी, उनके मार्ग और उत्तराधिकार के लिए एक दीर्घ व लंबी यात्रा भी करनी होगी । कहना न होगा मुक्तिबोध वामधारा के अपने समकालीनों में जिस तरह से एक उबाऊ राजनैतिक घेरे में बंद इस देह की उदास सिलवटों सभ्यताओं के क्रंदन देख सके थे , वही यह अनुज कवि भी देख रहा है कि
“सीले पर पटक कर, घिस कर, चमका कर साफ
सुखाकर तपती धूप में हर रोज़
इसे गीदम के बाजार में ले जाता हूँ
दस रुपए में दाँव पर लगाने”
और साँझ होते
निंदुआई, उबासियों से भरी इस की आकृति को ढोकर
लौट आता हूँ घर वापस”
कह क्या रहा है यह वसु ?देखने की बात यह है कि
“कथाओं में रिसता रहता है वर्षाजल।”
इन अर्थों में वसु प्रागैतिहासिकता से समकालीनता तक की यात्रा का कोलम्बस है। वसु के काव्य में मौजूद बिम्ब विधान बेहद अलहदा प्रकार के हैं । बेहद विलक्षण भाव तथा विचार की चित्रावलियों की यात्रा कराने में समर्थ हैं।
वसु गंधर्व ने बहुत कम समय में देश के बहुत सारे जाने-माने लेखकों और आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया है। हरि भटनागर के अनुसार प्रथम दृष्टि में वसु की कविताएं अमूर्तन का भ्रम देती हैं, लेकिन इनके तल में जाने पर बात साफ होती है कि कवि अमूर्तन के बहाने, समय की पदचाप को, उसके द्वंद को काफी गहरे धंसकर सुनता है, रूप देता है। जिसमें हिंदी काव्य परंपरा के स्फुलिंग, आंखें मीचे मौन रूप में विद्यमान हैं। वहीं महेश वर्मा के अनुसार वसु की कविताएं एक सधी हुई भाषा में लिखी हुई सधी हुई कविताएं हैं, जो इन दिनों दुर्लभ मितकथन को सहज धर्म की तरह बरतती हैं । ये सादगी, चुप्पी और उम्मीद की कविताएं हैं।
वसु के काव्य में जो बिम्ब विधान हैं उससे वे ओरांग ऊटांग की गह्वर गुफ़ा से बातें कराते हैं कि
“तुम्हारी नींद में
पृथ्वी की नींद के गोशे हैं
वनस्पतियों का धीमे डोलना है
निविड़ एकांत में साँप सा सरसराता
धीमे से गुज़रता एक स्पर्श है
ऊँघते शहरों की तंद्रा है
जैसे एक बंदूक की खामोशी”
या कि देखें इस नवयुवा कवि की यह पंक्तियां
“अंतिम अलविदा का अनुगूँज हो सके ख़त्म
इसके पहले मैं लौट आऊँ घर
बुझी न हो दरवाज़े के पास जलती बत्ती
ख़त्म न हुआ हो मेरे हिस्से का भात।”
भात न सिर्फ हमारी जरूरत है । सनद रहे अधिकार भी है
साथियों! हमें वसु को भी सुनना है , फिर
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केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहूं तो “जाना एक खौफनाक क्रिया है”
यह इन अर्थों में है कि
“कोई कहीं जाता है
तो पूरी तरह कहां लौट पाता है?”
सवाल विनोद वर्मा के कहन में जो विद्यमान है , उसे देखने के लिए दृष्टि चाहिए , होता है । हमारे आस-पास की दुनियावी दुनिया में जो कुछ घट रहा है, वह घटता ही जा रहा है किसी खौफनाक क्रिया की तरह । सिमट रहा है लगातार, छोटा होता जा रहा है शनै: शनै : । अर्थात्
“वह थोड़ा बह जाता है
अंजुरी से झरते पानी के साथ
नदी में
थोड़ा
किसी जंगली फूल की पंखुड़ियों के साथ
जंगल में अटक जाता है
पहाड़ के शिखर पर
किसी पेड़ की शाख पर
टंगा रह जाता है थोड़ा”
यह कि हमारी व्यवहारिकी से इतर भी छूटने लगा है अनगिन कारवां इन दिनों । कि
“रह जाता है
शहर में सड़क के किनारे बैठे
बूढ़े की दयनीय आंखों में
ठहरे हुए पानी सा कभी
तो कभी किसी दुकान में सजे
कपड़ों के रंगों में”
जाने से चीजों के भीतर वीरानी छाई जाती है । छूटने लगते हैं स्पर्श अहसासात, इसलिए यह एक खौफनाक क्रिया है । और विनोद वर्मा उस खौफनाक क्रिया को महसूस कर सकें हैं कि कहते हैं
“लौटता हुआ व्यक्ति
कभी अशोक की तरह लौटता है
अपनी हिंसा छोड़कर
पश्चाताप से भरा
तो कभी
दुनियावी माया को छोड़कर
बुद्ध की तरह”
फिर भी जो रिक्ति बची रह जाती है, चकित करता है, चकित करता है
“तुम्हारा पूछना
कि कब लौटोगे”
जाने की प्रक्रिया में हमेशा , छूटा रह जाता है साथ किसी सवाल की तरह।
विनोद वर्मा की कविताओं में जो अटैचमेंट है वह अचीवमेंट में है । संभाव्य तथा प्राप्य में हैं । स्वायत्त, स्वशासी को बल देने के साथ यथार्थ से रूबरू कराने में हैं । मसलन देखें कि
“हर जाने वाला
लौटना ही चाहता है एक दिन”
उनके यहां नवीन जीवन बोध , चाह के बरक्स में है कि
“इतिहास से सीखना ज़रूर पर
उसके काले पन्नों को
वर्तमान से मत जोड़ना”
चूंकि जीवन एक संभावना है । सप्रमाण भी कि
“जीवन न चिता की राख में होता है
न कब्रों में दफ़्न”
अर्थात्
“कितनी भी महान यात्रा हो इतिहास की
वह भविष्य का पथ प्रदर्शक नहीं हो सकती”
चूंकि
यही वर्तमान
यही समय, देश और काल
हमारा तुम्हारा सच है”
और कि कहा जा सकता है
“लौटना तुम्हारा सपना हो सकता है
पर कोई नहीं लौट सकता
सपनों में”
विनोद वर्मा एक अचर्चित कवि हैं, किन्तु उनकी कविताओं से गुजरना एक अलग ही तरह के अनुभवों से गुजरना है । चूंकि उनके यहां यथार्थ का उद्घाटन जैसा सरल और सहज शब्दों में अखबारी रपटों की तरह हुआ है वह काव्यात्मकता में हुई है, संतोष से भरता है । अपनी कविताओं में वे बिल्कुल सूक्ष्म, अनुभूतिपरक संवेदनाओं के साथ साक्ष्य में आते हैं । उनकी कविता विदा और मिलन की ऐसी कड़ी है जहां अहसासात भरे हुए हैं उनकी प्रतीक्षा श्रृंखला की कविताएं प्रतीक्षा के इतने नानाविध रूपों को सामने रखती हैं जिनको पढ़ते हुए बरबस केदारनाथ अग्रवाल की हे मेरी तुम श्रृंखला की कविताओं की याद आ जाती है। कवि के रूप में आज विनोद वर्मा को पढ़ना , सुनना निस्संदेह स्मरणीय होता है।
ना राजा रहे और न रजवाड़े । फिर भी राजा की दुनिया का तिलिस्म कायम रहा । एक भी दिन नहीं बीता कि उसके तिलस्मी अस्तित्व से हम कभी ऊबर भी पाए हों । कुछ ऐसा ही ठोस दावा कर बीसवीं सदी के नवें दशक की हिंदी कविता में अपने स्थान को सुनिश्चित किए , कवि बुद्धि लाल पाल ने जो भी कहा है, बात मार्के की ; की है । और यह तभी कहा गया जब राजा का चारित्रिक स्तर ही अपनी पतनशीलता की गाथा बन गई । यह हमारे लिए काफ़ी निराशा की बात है । नहीं तो भला ऐसा भी क्या था ? कि देश में प्रधान तक को कहा जा रहा
“राजा कदम कदम पर
बहुत चौकन्ना होता है”
जबकि वस्तुत:
“यह उसका स्वभाव नहीं होता”
अलबत्ता
“उसकी आंखों में
पट्टी बांधी जाती है इसकी’
कि वह चौकन्ना है, घिरा है मक्कार चाटूकारों से। इस पर बसंत त्रिपाठी ठीक कहते हैं इतिहास और वर्तमान के घेरे में राजा की उपस्थिति एक ऐसा यथार्थ है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती । इस प्रजातांत्रिक देश में राजा और उसकी रुचियां धर्म, ईश्वर, कर्मकांड, चाटुकार, दरबारी भय का विस्तार, आर्थिक नाकेबंदी जनता की निरीहता और उसका द्वंद राजतंत्र की ऐसी छवियां हैं जिसे रोजमर्रा की जिंदगी में हम अक्सर देखते हैं और भोगते भी हैं । यह प्रजातांत्रिक देश में परंपराओं और मुहावरों के मैनेरिज्म के, टूटने का काल है । राजा लगातार नंगा हो रहा है कि उसकी व्यवस्थाएं रीति नीति का केंद्र शीर्ष है, सत्तासीन होना है । राजा का न्याय, मायाजाल, अदृश्यता, जैसी एक समग्र कविता के मार्फत कई कई दिशाओं और कोणों से बुद्धि लाल पाल वे सारी बातें कविताओं में दर्ज किए हुए हैं जिससे हमारे देश के राजनेताओं के राजनीतिक चरित्र की खासी समझ हम विकसित कर सकते हैं । राजा की दुनिया में सब अचरज है, अचंभा है । मुद्रा, विस्मयकारी है कि
“राजा अदृश्य होकर
वार करने की कला में माहिर होता है”
“वह अदृश्य ही रहता है
परंतु जब भी दृश्य में होता है
तो प्रकट होता है
ईश्वर की तरह
पीतांबर धारण किए होता है
मुद्रा तथास्तु की होती है !”
बुद्धिलाल पाल अपने तीन कविता संग्रहों के साथ अपनी आरंभिक उपस्थिति को बनाए हुए हैं । चांद जमीन पर , एक आकाश छोटा-सा , और राजा की दुनिया काफी चर्चित रही ।
“बेशक पत्थरों पर कालजयी ईबारतें लिखी जा सकती है
लेकिन
मैं छेनी नहीं , कलम हूं
मुझे जानने के लिए
तुम्हें कागज होना पड़ेगा
यह ठोस दावा, आग्रह सुमेधा अग्रश्री करती हैं । स्त्री विमर्श को एक नए आयाम दे वे नस्लभेद की तंगी को जैसे उजागर करतीं हैं वह उनमें नि:सृत अति मानवीय दृष्टि का परिणाम है । रूप सौंदर्य और आर्थिक सबलता ने हमारे भीतर की मनुष्यता को मारकर जो नैरेटिव ईर्ष्या पैदा की है , उनकी कविताओं में देखा जा सकता है
‘धीरे धीरे पकती है ये
तानों उलाहनों तिरस्कार अवहेलना की भट्टी पर’
अब तक “पुरौनी” और “नवदीप” दो कविता संग्रह के अलावा एक नाटक “तीन लघु नाटक” संग्रह प्रकाशित हैं ।
कहने सुनने की इस कड़ी में हमारे बीच एक मंझा हुआ, बेहद अज़ीम शायर मौजूद हैं । जिनकी उपस्थिति एक अलग ही डायमेंशन देते हैं । ये शायर है जनाब ज़िया हैदरी । जिया साहब ने शायरी विधा के मन मिजाज को खूब टटोल लिया है और बेहद कामयाब अशआर निकाले हैं। मुझे ऐसा लगता है कि उर्दू शायरी में रूमानियत की सबसे ज्यादा मजबूत उपस्थिति होती है, लेकिन ज़िया के अशआर रूमानियत से मुक्त होते हैं । बावजूद इसके कि वे उर्दू शायरी के ट्रेडीशन से पूरी तरह वाकिफ हैं। बल्कि उनके एहसास में एक नवीनता है, वे अपने जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले शायर हैं। उनकी भाषा बिल्कुल स्पष्ट और सादगी भरी हुई होती है उनमें क्लिष्ट क्लासिक शब्दों की वह भरमार नहीं है जिसके चलते उर्दू शायरी हिंदी जाने वालों के लिए अपरिचित होकर रह जाती है। बल्कि वे हिंदुस्तानी आम फहम जुबान में शायरी करने वाले शायर हैं, रायपुर में शायरी की एक बहुत ही स्वस्थ है और पुरजोर परंपरा रही है , उस परंपरा के सबसे बेहतरीन नुमाइंदे के रूप में ज़िया हैदरी साहब हमारे सामने हैं उनकी शायरी का एक अंदाज है जो शायरों के सफे में उन्हें एक अलग पहचान देती है। एक नमूना देखिए देखिए- वे कहते हैं कि
“मैं कि अब उम्र की ढलान में हूँ
फिर भी लगता है इक उड़ान में हूँ”
बावजूद कि
“कोई आता है और न जाता है
मैं मोहब्बत के जिस मकान में हूँ”
क्या हुआ हूँ अगर अकेला मैं
यही काफी है तेरे ध्यान में हूँ
अर्थात् जीवन को चाहिए ही क्या ? सूफियाना शायरी के इस कद्रदान शायर ने जता ही दिया कि बकौल नफ़स अम्बालवी
“उसे गुमां है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
मुझे यकीं है कि ये आसमां कुछ कम है”
जिया साहब उन पुराने और मंझे हुए शायरों में हैं जिनके यहां उदात्त जीवन अनुभव व आत्मविश्वास अपने लबरेज़ में है ।
वरिष्ठ आलोचक सियाराम शर्मा के अनुसार धरती और स्त्री अपने सौंदर्य के समस्त वैभव सृजनशीलता की बेचैनी और स्नेह की आद्रता के साथ विनोद शर्मा की कविताओं में उपस्थित है और उन शक्तियों की शिनाख्त करती हैं जो प्रेम प्रकृति और स्त्री की विरोधी हैं। विनोद प्रेम के महीन बारीक नरम और मुलायम एहसासों के कवि हैं। विनोद शर्मा की कविताएं सामाजिक अंतर्विरोधों और लोकतंत्र की विडंबनाओं को उजागर करती प्रगति और विकास के तमाम दावों को झुठलाती व्यवस्था विरोध की कविताएं हैं। इनके काव्यात्मक औजार बिंब, प्रतीक और उपमान प्रायः लोक जीवन से उठाए गए हैं। अनाम एहसासों को मूर्त करने के लिए जो उपमान चुने गए हैं वह परंपरा से अलग नए और टटके हैं।
तो साथियो,
अब तो होइए मुखातिब अपनी तरफ! कम से कम तय कीजिए कि आपके हाथ में कैसा शब्द और कैसा हथियार होना चाहिए, क्योंकि यह तय करने का वक्त अब आ गया है और यह उस लायक मौसम भी है।
फिर भी , इस कवि का मानना यह भी है कि
“धरती के गर्भ में भरा होता है नेह
कोमल और मुलायम जीने की लालसा जगाता हुआ
दौड़ने का दम भरता हुआ
कि थकी हुई पलकों पर उंगलियां फेरता हुआ”
उनका मानना है कि
धरती कभी बांझ नहीं होती !
यह एक आश्वस्ति बीज है । यह तमाम चीजों को अपने भीतर भाष्य बना लेने की जद्दोजहद में सूक्त वाक्य है । जो कवि गांठ रहा है अभी ।
इंद्र कुमार राठौर
संपर्क- 90986 49505
(अपना मोर्चा से साभार ।)