कुमार मुकुल
लालसा सन्यास के पद गुनगुनाये
चाटुकारी जब रचे उपसर्ग प्रत्यय
तुष्ट होकर अहम सजधज मुस्कुराये।
वर्तमान समय की राजनीतिक उलटबांसी और उससे पैदा होती विडंबना को ये गीत ताकतवर और अर्थपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करते हैं। संस्कृतनिष्ठ शब्दों का इतना मारक प्रयोग वह भी गीतों में मैंने कम ही देखा है। ये गीत लेखक की अंतरवेदना को अभिव्यक्ति की ताकत बनाने का समर्थ उदाहरण हैं।
कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की पंक्तियां हैं –
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही
कल्पना मनोरमा के ये गीत शमशेर की पंक्त्यिों के निहितार्थ को पुष्ट करते हैं। इन गीतों में व्यंग्य की धार तेज है जो समय के छद्म को उसकी बहुस्तरियता में उद्घाटित करता है। गीतकार को अपनी परंपरा का बोध है और इस बोध की जमीन पर वह वर्तमान को परखता है और उसकी स्वस्थ आलोचना करता है। गीतकार के पास एक संवेदनशील मन है और संवेदना में पगी भाषा में जब वह अतीत के स्थापित सत्यों पर सवाल खड़ा करता है तो उन स्थापित सत्यों की सत्ता डोलने लगती है।
मनोरमा के ये गीत खुद बोलते हैं और उन्हें लोगों तक पहुंचने के लिए किसी मध्यस्त की जरूरत नहीं –
सुनो तथागत !
जब से तुमने मौन तलाशा
यशोधरा संवाद हो गई |
कल्पना मनोरमा के नवगीत
1. किसको पता
किसको पता
मोल करता मेमना जब मेमने का
कौन किसको भायेगा
किसको पता।
जब जुर्म , सम्पादित करेगा नीतियाँ
तो छत्त से निर्भय लड़ेगीं भित्तियाँ
मालिक बनेगा भूमि का भूचाल जबरन
फिर,चाल पर इतरायेंगीं बैसाखियाँ
मर्शिये के हाथ रौनक मुफलिसी की
कौन किसको गायेगा
किसको पता।
न्याय पथ पर संक्रमण करती वकालत
लखनवी अंदाज में चलती अदालत
अग्नि मुख को पाट कर बनते शिवाले
भीड़ को हरि कीर्तन की है बुरी लत
देखता है अब मदारी को मदारी
कौन किस पर छायेगा
किसको पता ।
व्याकरण सद मोक्ष का तृष्णा सिखाये
लालसा सन्यास के पद गुनगुनाये
चाटुकारी जब रचे उपसर्ग प्रत्यय
तुष्ट होकर अहम सजधज मुस्कुराये
पूछता है हाल धोखा सत्य से जब
कौन किसको पायेगा
किसको पता।
2. मीत मेरे
मीत मेरे कब तलक हम
गीत गायेंगे घुटन के ।
बाँस वन के गीत ही
बंसी सुनाती रोज मन से
जलतरंगों को लपेटे मीन
रखती है जतन से
तितलियों ने इल्लियों को
जाल में अपने फँसाया
मन मुताबिक़ गुनगुनाकर
काम अपना ही बनाया
सीप दोहराती रही है
उर्मियों सँग सिंधुगाथा
मीत मेरे कब तलक हम
गीत गाएंगे रटन के ।
नोच डाली मन्थरा ने
प्रेम की हर पाँखुरी तक
ऐषणाएं पी गईं अपनत्व
वाली माधुरी तक
भूलकर सब,वीतरागी
लघु शिखा जलती रहेगी
मान दीपक का बढ़ाकर
मौन हो गलती रहेगी
पुष्प तन थे जो सजीले
भेद डाले कंटकों ने
मीत मेरे कब तलक हम
गीत गाएंगे चुभन के ।
धूप का तकिया लगाना
माघ की ठंडी निशा में
एक तारा हौसले का
टाँकना धुँधली दिशा में
बंद द्वारे पर सजाना
कुनमुनाती अल्पनाएँ
जो हृदय में चुप्पियों के
रच सकें नव कल्पनायें
भूमि हो बंजर जहाँ भी
चाहतों के बीज बोना
मीत मेरे अब चलो हम
गीत गाएँ प्रस्फुटन के ।
3. देख चाँदनी झरी-झरी
देख चाँदनी झरी-झरी
कसक छिपाए फिरती संझा
देख चाँदनी झरी-झरी ।
गरम रेत पर पसरी रहती
मृगछौनों की कच्ची आशा
पहर बोलते दिन के सारे
कस्तूरी के मन की भाषा
आकुल हिरना प्यासा डोले
लेकर आँखें भरी-भरी ।
सुनती रहती घाटी चुपके
पदचापों की आतुर आहट
नहीं लौट कर आते हैं वे
जिन्हें मिल गए अमृत के घट
जीवन नदी बूझती पल-पल
लहर-लहर है डरी-डरी ।
कोने -कोने भर जाते जब
धूप पिघलकर बनती सोना
निहुरी-निहुरी फिरती छाया
ढूँढे अपनेपन का कोना
अनुभव बुनती रहती चुप्पी
मुस्कानें ले खरी-खरी ।
4. सुनो तथागत !
सुनो तथागत !
जब से तुमने मौन तलाशा
यशोधरा संवाद हो गई |
निष्ठाएँ हो गईं पराजित
हुआ समर्पण बोना
मुखरित जो दालान हुआ था
छिपा लिख रहा कोना
सुनो तथागत !
जब से तुमने त्यागी भाषा
यशोधरा अनुवाद हो गई |
सुख की लाल बही पर
कुण्ठाओं ने व्यथा उकेरी
प्रश्नों की जब हुई मुनादी
उभरी पीर घनेरी
सुनो तथागत !
जब से तुमने छोड़ी आशा
यशोधरा अवसाद हो गई |
दर्पण ने जब सत्य उकेरा
टूटा मन का सपना
शंखनाद जब हुआ समय का
सूरज भूला तपना
सुनो तथागत !
जब से तुमने रचा तमाशा
यशोधरा अपवाद हो गई |
5. खूँटियों पर टाँगते हम
खूँटियों पर टाँगते हम
बेहिचक अपनी उदासी |
मौन दरवाज़े संजोती
भोर से करतीं प्रतीक्षा
स्वेदकण भी साँझ ढलते
बाँचने लगते समीक्षा
सिर झुकाए सूना करतीं
जिन्दगी की उलटबाँसी |
सोचतीं रहतीं न कहतीं
अनमने मन की व्यथा को
पीढ़ियों से सुन रही हैं
अनकही धूसर कथा को
जब अबोलापन सताता
क्लांत मन भरतीं उबासी |
रातभर करतीं छिपाकर
हर थकन की मेजबानी
नोचतीं परिधान से वे
उलझनों की तर्जुमानी
6. हो अगर साहस
हो अगर साहस चलो !
धुँधला लिखा जो,बाँचते हैं ।
देर तक जिनकी प्रतीक्षा
में रहे, वे मौन हैं
दे रहे ढाँढस, बताओ
वे महाजन कौन हैं
मुक्ति का उल्ल्लास लेकर
खाइयों को लाँघते हैं ।
सच लिखे को लीप देता
है लिपिक कैसा भला
क्या इसे तकदीर ने
या कुटिलताओं ने छला
कुछ लिखे कुछ अधलिखे
सच्चे सफ़ों को छाँटते हैं ।
शीश धरकर ओखली में
दिन सदा रहता डटा
आ धमकती रात,ज्यों ही
सूर्य का पहरा हटा
दर्द की हर एक आहट पर
खुशी को टाँकते हैं ।
7.बेवजह यदि मौन को धारण किया तो
बेवजह यदि मौन को
धारण किया तो
सोच लो, फिर बाण शैया
ही मिलेगी ।
हिंस्र होकर कामनाएँ
सत्य को देतीं कुचल जब
धैर्य-संयम के पखेरू
तोड़ते दम दमित हो तब
त्रास की परछाइयाँ
जब ढूँढ़तीं कोने अँधेरे
डूब जाते करुण क्रंदन में
सदा हँसमुख बसेरे
बेवजह यदि क्रोध को
धारण किया तो
सोच लो,फिर आग जलती
ही मिलेगी ।
वक्त जब होता पराजित
यक्ष प्रश्नों से उलझकर
संकुचित, विस्तार होता
शुभ-अशुभ के जाल फँसकर
आँख भर आकाश है ये
सोचते जब शलभ मानी
दान कर ब्रह्माण्ड, पल में
चैन पाते कृपण दानी
बेवजह यदि लोभ को
धारण किया तो
सोच लो,अपकीर्ति जग में
ही मिलेगी ।
शांति विनिमय के लिए
लेतीं प्रतिज्ञा प्रार्थनाएँ
बेतुके सिद्धांत लेते प्रण,
सजाते लालसाएँ
बाँध पट्टी दृष्टि पर
संयम निभाता धर्म अपना
टूटते विश्वास पर भी
है मना किंचित सिसकना
बेवज़ह यदि झूठ को
धारण किया तो
सोच लो, फिर हार बरबस
ही मिलेगी ।
दो गज़लें
खिलेंगे फूल खुशियों के ,अमन की धूप आने दो
मिलेंगे सब खुले दिल से, सबा को गुनगुनाने दो।।
छुड़ाना है अगर सच में ,छुड़ाओ हाथ वहशत से
झुके हों जो इबादत में, उन्हें नज़दीक आने दो ।।
मशालें जगमगाएँ यदि ,वतन के प्रेम की ख़ातिर
करो स्वागत तहे दिल से ,निडर हो जगमगाने दो।।
बिठालें सब तुम्हें सिर पर,करो संगत गुलाबों की
न करना भेद मज़हब में , महक हर ओर छाने दो ।।
न आए दोष नज़रों में , नज़ारे जाँच कर चुनना
पड़े जो राह में ज़बरन, उसे चुपचाप जाने दो।।
सहारा बन उठा लेना ,गिरी हर वस्तु को बढ़कर
गिरे हों जो गिराने में , उन्हें मुँह की ही खाने दो ।।
लचीलापन सदा रखना , इरादे और गर्दन में
अहम के सामने जब हो ,अकड़ क़दमों में आने दो।।
सो रही दुनियाँ मगर वो जागती है।
दर्द की पाती छिपाकर बाँचती है।
पीर की थाती न कोई देख पाए ,
याद की चादर बिछाकर झाड़ती है।
कामनाओं को दवाकर आह भरती,
राख चूल्हे की सपन पर डालती है।
सामने कितने मुखौटे रोज आते ,
मौन हिरनी सी-सभी को जाँचती है।
भीड़ में रिश्तों की राहों पर भटकती ,
रोज अंधे कूप में , सिर मारती है।
वक्त से पहले झरीं अमराइयां सब ,
हैं बचीं सूखी टहनियाँ ताकती है।
रोशनी की चाह में हैं कल्प बीते
रोशनी छाया से उसकी भागती है।
(उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जन्मी कवयित्री कल्पना मनोरमा अपनी पहली कृति ‘कब तक सूरजमुखी बनें हम’ के माध्यम से अपनी रचनात्मक एवं संवेदनात्मक समझ के साथ साहित्यिक धरातल पर मज़बूती से पाँव जमा चुकीं समर्थ रचनाकर हैं ।
कल्पना के गीत -नवगीत हों उनकी गज़लें हों या मुक्तछंद कविताएँ , सभी लोक चेतना की पड़ताल करती हुईं आम आदमी की भावनाओं को अभिव्यक्ति देती हुई दिखाई देती हैं । पेशे से शिक्षकीय कार्य में संलग्न कल्पना मनोरमा वर्तमान में दिल्ली में रहती हैं। सम्पर्क: bajpaikalpna1972@gmail.com
टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.)