प्रो. सदानंद शाही
कफ़न प्रेमचन्द की ही नहीं हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में एक है। कफ़न एक बहुस्तरीय कहानी है, जिसमें घीसू और माधव की बेबसी, अमानवीयता और निकम्मेपन के बहाने सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के दौर की सामाजिक आर्थिक संरचना और उसके अमानवीय /नृशंस रूप का पता मिलता है।
कफ़न एक ऐसे प्रतीक की तरह उभरता है जो कर्मकाण्डवादी व्यवस्था और सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के लिए कफन तैयार करता है। यह कहानी प्रेमचन्द युगीन समाज में सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ की छाया में बनी समाजार्थिक संरचना मानव विरोधी चरित्रको समझने मेँ मदद करती है ।
यह कहानी आदर्श और यथार्थ से आगे बढ़कर यथास्थिति के बरक्स एक नये समाज की संरचना के सूत्र भी देती है।
भारत वर्ष कहानियों का देश रहा है। पंचतन्त्र, कथा सरित्सागर से लेकर जातककथाओं तक की पूरी परम्परा रही है। किस्सागोई हमारे समाज में लगातार मौजूद रही है।
साहित्यिक विधा के रूप में कहानी का विकास आधुनिक घटना है। अंग्रेजी में उपलब्ध योरोपीय कथा साहित्य से हिन्दी कहानी के विकास की प्रेरणा मिली। हिन्दी में आरम्भिक कहानियाँ प्रायः रूमानी,कोरी कल्पना पर आधारित औरउपदेशपरक थीं।
प्रेमचन्द हिन्दी कहानी को उसकी वास्तविक जमीन पर ले गये।प्रेमचन्द के आगमन के बाद हिन्दी कहानी को उसका वास्तविक प्रकृति और परिवेशहासिल हुआ।
कथ्य के स्तर पर ही नहीं भाषा के स्तर पर भी यह परिवर्तन दिखाई पड़ता है।
प्रेमचन्द उर्दू से हिन्दी में आये थे। उर्दू गद्य काफी विकसित स्थिति में था। प्रेमचन्द के साथ गद्य का सहज और प्रवहमान रूप हिन्दी कहानी में आया। प्रेमचन्द सूक्ष्म दृष्टि विषय वैविध्य और समर्थ भाषा के प्रयोग से हिन्दी कहानी को काफी उचाई पर ले गये।
प्रेमचन्द ने ढ़ाई सौ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं। प्रेमचन्द के कहानी लेखन को चार चरणों में देख सकते हैं। 1907 से1911 के दौर में उनकी आरम्भिक दौर कीकहानियाँ हैं। जिसमें ऐतिहासिक घटनाओं, शौर्य एवं प्रेम गाथाओं और किंवदत्तियों पर आधारित कहानियाँ हैं। दूसरे चरण 1912से 1918 में प्रेमचन्द के व्यापक होते सामाजिक सरोकार, विषय वैविध्य एवं शिल्पगत उत्कृष्टता का विकास दिखाई देता है। तीसरे चरण में 1919 से 1929की कहानियाँ आती हैं जिनमें प्रेमचन्द पर गांधी और उनके विचारों का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है।
चौथे चरण 1930 से 1936 की कहानियों में भारतीय समाज के आर्थिक, समाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं की तीखी समालोचना दिखाई पड़ती है। कफ़न कहानी का सम्बन्ध इसी चैथे चरण से है। यह कहानी प्रेमचन्द ने मृत्यु के कुछ समय पूर्व 1936 में लिखी थी।
इस दौर में राजनीति के मंच पर अम्बेडकर आ चुके थे। गांधी के साथ उनकी तीखीबहस चल रही थी। गांधी के प्रति अपनी सारी श्रद्धा के बावजूद प्रेमचन्द तक अम्बेडकर के तर्क पहुँच रहे थे।
वर्ण व्यवस्था और उसके पाखण्ड की आलोचना से प्रेमचन्द सहमत थे। अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था की बुनियाद ही गड़बड़ है इसलिए नये समाज के लिए वर्ण व्यवस्था सबसे बड़ी चुनौती है, जबकि गांधी वर्णव्यवस्था में सुधार की गुंजाइश देख रहे थे। इस बहस में प्रेमचन्द अम्बेडकर से सहमत थे।
यही कारण है कि प्रेमचन्द ने इस दौर के लेखन में वर्ण व्यवस्था और उसके पाखण्ड पर खुला हमला कर दिया। परिणाम स्वरूपप्रेमचन्द को वर्ण व्यवस्था के हिमायती वर्ग का तीखा विरोध झेलना पड़ा। प्रेमचन्द को घृणा का प्रचारक कहा गया। सदगति, दूध का दाम, ठाकुर का कुँआ आदि ऐसी ही कहानियाँ है। पर कफन इस मामले में भिन्न कहानी है कि वह एक ओर समाज संरचना की उन खामियों को उजागर करती है जिनके आधार आर्थिक हैं तो दूसरी ओर यह कहानी वर्ण व्यवस्था के मूलाधार संस्कारों पर चोट करती है।
कफ़न घीसू और माधव की कहानी है। माधव की पत्नी बुधिया भीतर प्रसव वेदना से छटपटा रही है। और बाहर घीसू और माधव अलाव के पास बैठे भुने हुए आलू खाने में लगे है। उधर बुधिया असहय पीड़ा से चीख रही है इधर बाप-बेटा ठाकुर केयहाँ की दावत याद कर रहे है। इधर वे आलू खाकर अलाव के निकट ही सो जाते हैं उधर छटपटाती हुई बुधिया की मृत्यु हो जाती है। सुबह बुधिया की मौत पर दोनोरोना पीटना शुरू करते हैं। कुनबे के लोग जुटते हैं, अन्तिम संस्कार की तैयारी होने लगती है। घीसू माधव कफन आदि की व्यवस्था के लिए निकलते हैं। जमींदार से दो रुपये मिलने के बाद घीसू गाँव भर घूम कर पाँच रुपये से कुछ ज्यादा रकम जुटा लेता है। इधर कुनबे के लोग बाकी इन्तजाम में लगे हैं उधर बाप-बेटा कफन के लिए शहर जाते हैं। दो चार जगह कफन देखने के बाद दोनों शराब की दूकान पर पहुँचते हैं। जी भर कर शराब पीते हैं,दावत उड़ाते हैं, बचा हुआ खाना भिखारी को दान देते है और फिर नशे में मस्त होकर निर्गुण गाते हैं और निढाल होकर गिर पड़ते हैं। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।
कहानी पढ़ने पर सबसे पहली बात जिस पर ध्यान जाती है वह है घीसू और माधव की अमानवीयता। बुधिया, जिसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बेगैरतों का दोजख भरती रहती थी- के प्रति दोनो बाप बेटा अमानवीयता की हद तक बेपरवाह हैं। उधर वह दर्द से छटपटा रही है और इन दोनो को भुने हुए आलू की पड़ी हुई है।
कहानी कुल तीन खण्डों में है। पहले खण्ड में प्रेमचन्द ने अपने इन चरित्र नायकों का चित्र खींचा है। प्रेमचन्द स्वयं बताते हैं कि विचित्र था जीवन इनका। यह विचित्रता तीन बातों पर निर्भर थी। पहली बात यह कि दोनों परले दरजे के कामचोर थे। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव आया उघाते काम करता तो घण्टे भर चीलम पीता।
दूसरी बात कि दोनों में संतोष और धैर्य,संयम और नियम की पराकाष्ठा है। प्रेमचन्द लिखते हैं अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिल्कुल जरूरत न थी। यह तो इनकी प्रकृति थी।…घर में मिट्टी के दो चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जिये जाते थे।’
तीसरी बात यह है कि दोनों पात्र विचारशील हैं वे मेहनत करने वाले अपने साथ के लोगों का हश्र देख रहे थे।‘इसलिए घीसू किसानों के विचार शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की उत्सित मण्डली में जा मिला था।’
यानी जिस समाज में हाड़तोड़ मेहनत करने वाले भूखों मरने को विवश हों और आराम तलब लोगा उनकी मेहनत के बूते मौज उड़ा रहे हों वहाँ घीसू का यह कदम एक विचारशील कदम है।
‘आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पांव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।’
यहाँ तक आते-आते हमारे चरित्र नायक संत कवि मलूक दास जी याद दिलाते हैं-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम।।
ऐसा लगता है कि घीसू सच्चे अर्थों में मलूकदास का चेला हैै।
घीसू माधो दोनों की बेपरवाही इसी कोटि की है। कहानी में कम से कम दो वाकये इसकी पुष्टि करते हैं। माधव के यह कहने पर कि बुधिया को कहीं बाल बच्चा हुआ तो क्या होगा ? घर में तो कुछ है ही नहीं। इस पर घीसू कहता है- ‘सब कुछ आ जायेगा। भगवान दें तो! इसी तरह माधव के यह पूछने पर कि कफन का इन्तजाम होगा कैसे घीसू परम आश्वस्ति के साथ कहता है- यही लोग देंगे। हो सकता है पैसे न दें कफन ही ले आयें। यह आसदगी ही घीसू और माधो की कामचोरी और निकम्मेपन को सन्तों वाली इस दार्शनिक ऊंचाई तक ले जाती है।
प्रेमचन्द के दोनों विचित्र पात्र कामचोर हैं,निस्पृह हैं, बेपरवाह हैं पर विचारशील हैं। उनकी कामचोरी, निस्पृहता और बेपरवाही का सम्बन्ध उनकी विचारशीलता से है। उनकी यह विचित्रता विचार पूर्वक अर्जित की गई विचित्रता है।
सामाजिक संरचना ऐसी है कि ‘किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे।‘ किसान और मजदूर की हालत इस कदर खस्ता केवल उसकी आर्थिक स्थिति के नाते नहीं बल्कि उसकी वर्गीय स्थिति के नाते है। किसान में‘दुर्बलताएँ’ हैं। शोषक वर्ग न केवल इन दुर्बलताओं को जानता है बल्कि इन दुर्बलताओं से फायदा उठाना भी जानताहै। कफन कहानी में ही नहीं अपने समूचे लेखन में प्रेमचन्द इन दुर्बलताओं केखिलाफ संघर्ष करते लड़ते दिखाई पड़ते हैं।
घीसू माधो में चाहे जितना नाकारापन हो कम से कम वे दुर्बलताएँ नहीं है जिनका बेजाँ फायदा उठाया जा सके । उल्टे घीसू को शोषक शार्षक वर्ग की दुर्बलताओं की पहचान है और उनकी दुर्बलताओं से फायदा उठाने की समझ। सारी बदहाली फटेहाली के बावजूद घीसू अगर बेपरवाह दिखता है तो अपने इसी खासियत केचलते। शोषक वर्ग की दुर्बलताओं की समझ उसकी बेपरवाही के मूल में है।
प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘मगर इन दोनों को (मजदूरी के लिए) उसी वक्त बुलाते जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा कोई चारा नहोता।’ आमतौर पर शासक या जमीदार वर्ग के समाने किसान-मजदूर जिस तरह बेबस होते हैं घीसू माधों के सामने जमीदार/शासक समूहों के लोग उसी तरह बेबस हैं।
जाहिर है उस समय न तो काम के घण्टे तय थे और न ही न्यूनतम मजदूरी का कोई सिद्धान्त था। मजदूरी भी मनमानी थी और काम के घण्ट भी मनमाने ढंग से तय होते थे। घीसू माधों के आस-पास न तो काम के घण्टे और न्यूनतम मजदूरी जैसीकोई बात थी और न ही कोई आन्दोलन। लेकिन घीसू-माधो ने अपनी हिकमत (औरहिम्मत) से ऐसा तरीका ईजाद कर लिया था जिसमें वे अधिकतम काम और न्यूनतममजदूरी के प्रचलित व्यवहार की जगह न्यूनतम मजदूरी के लिए न्यूनतम काम कीशर्त को जाने अनजाने मनवा रहे थे।‘बुधिया के आने के बाद से तो इस बात कोलेकर घीसू माधव में एक अकड़ आ गयी थी और वे निव्र्याज भाव से दुगनी मजदूरीमागने लगे थे।’ संभव है उन्हें इसमें भी सफलता मिल गयी हो। इसके अलावा वेफटेहाल चाहे जितने हों खुद मुख्तार तो थे ही। अपने बाकी भाई बन्धुओं की तरहकोल्हू के बैल की तरह जुत तो नहीं रहे थे। यह सब इसलिए संभव हुआ कि उनकेभीतर वे दुर्बलताएँ नहीं थी जिनके आधार पर प्रभुवर्ग उनका शोषण कर सके।
सवा सेर गेहूँ कहानी के शंकर के जीवन की सारी त्रासदी के मूल में उसकी वेदुर्बलताएँ हैं जिन्हें पुरोहित वर्ग ने कहीं बहुत गहरे उसकी चेतना में रोप दिया है। घीसू और माधो की चेतना उन सभी पौरोहिती और वर्ण व्यवस्था जनितमान्यताओं को अस्वीकार कर देती है। प्रभुवर्ग की मान्यताओं का आत्मसातीकरण दलित समुदाय के दुखों के मूल में है। घीसू की चेतना इस अर्थ में विकसित है कि वह आत्मसातीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनता।
प्रेमचन्द की कोशिश है कि किसान मजदूर स्त्री दलित इस आत्मसातीकरण की प्रक्रिया से बाहर आयें। वे इसका हिस्सा बनने की बजाय इस प्रक्रिया से बाहर निकले और इसे रोक दें। इसके बगैर सच्ची मुक्ति की बात बेमानी है।
साहित्य का उद्देश्य निबन्ध में प्रेमचन्द सौन्दर्य का मेयार बदलने की बात करते हैं। वे सौन्दर्य की खोज में विशिष्ट की अपेक्षा साधारण की ओर जाने का प्रस्ताव करते हैंै। प्रेमचन्द साहित्य को जीवन की आलोचना कहते हैं। तो इसका अर्थ यह है कि जीवन में सुन्दर की खोज की जाय और असुन्दर को पहचान कर उसका निरीक्षण किया जाय। दलित जीवन की त्रासदी और अस्पृश्यता की समस्या के मूल में समाज में प्रभुत्व प्राप्त वर्णाश्रमी मूल्य ही हैं।
प्रेमचन्द इस तथ्य को अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए प्रेमचन्द वर्णाश्रमीमूल्यों-संस्कारों पर कुठाराघात करते हैं। दलित जीवन पर प्रेमचन्द का लेखनदरअस्ल वर्णाश्रमी मूल्यों-संस्कारों की समीक्षा ही है। गांधी मानते थे कि वर्ण व्यवस्था अपने आदर्श रूप में ठीक रही होगी। जरूरत इसकी विकृतियों को दूर करने की है। जबकि अम्बेडकर का मानना था कि सनातनी हिन्दू व्यवस्था के मूल में ही गड़बड़ी है इसलिए इसे पूरी तरह बदल देना जरुरी है। प्रेमचन्द का दलित जीवन पर केन्द्रित लेखन प्रमाणित करता है।कि वे वैचारिक रूप से अम्बेडकर के साथ खड़े हैं। इसीलिए वे सतानती हिन्दू समाज में आमूलचूल परिवर्तन की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं। दलित जीवन पर केन्द्रित प्रेमचन्द का लेखन इसी कोशिश का हिस्सा है।
कफ़न कहानी भी इसी कोशिश में शामिल है। कफन कहानी के मुख्य पात्रों का सम्बन्ध दलित जाति से है और ये पात्र बेहद अमानवीय, निष्ठुर, निकम्मे मानवीय सदगुणों से पुरी तरह रहित आदि दिखते हैं- इसलिए दलित चिन्तकों को आपत्ति है। प्रसिद्ध कथाकार ओमप्रकाश बाल्मिकी नेसबसे पहले कहानी के दलित विरोध रूप को चिन्हित किया था।
ओमप्रकाश बाल्मीकि की मुख्यतः दो आपत्तियाँ हैं बुधिया को अकेले मर जानेदेना और दलित पात्रों को निकम्मा और कामचोर चित्रित करके दलितों के बारे में चली आयी सवर्ण धारण को प्रतिष्ठित करना। बुधिया की मृत्यु सचमुचस्वाभाविक लगती है। यह सवाल उठाया जाता है कि बुधिया के मरने के बाद कुनबेके लोग खास तौर से औरतें आती हैं वे उस समय क्यों नहीं आते जब बुधिया दर्द से चीख चिल्ला रही थी और छटपटा रही थी।
कहानी के आरम्भ में ही बुधिया की मौत हो जाती है। कहानी के पहले खण्ड में प्रेमचन्द अपने पात्रों का चरित्र चित्रण करने में मशगूल हैं। तड़पति हुई बुधिया के तड़प के बरक्स घीसू-माधव का विभिन्न चरित्र उभरता है। वे आलू खाकर पानी पीकर धोती ओढ़कर सो जाते हैं उधर बुधिया की कराह जारी है। पूरी रात का घटना क्रम अनकहा रह गया है। बुधिया के ठण्डे पड़ जाने की सूचना के साथ भोर होती है।
प्रेमचन्द यह भी बताते हैं कि उसके पेट का बच्चा मर गया है। पूरी कहानी बुधिया की मृत्यु पर टिकी है। मृत्यु आकस्मिकता होती है। प्रेमचन्द अपनी कहानियों में मृत्युकी आकस्मिक का प्रयोग एक टेकनीक के रूप में करते हैं। गोदान में गाय औरमातादीन और झुनिया के बेटे की मृत्यु हो या सदगति में दुखी की या फिर दूध का दाम कहानी में गूदड़ और भूंगी की। प्रेमचन्द गूदड़ और भूंगी की मृत्यु का महज उल्लेख करके आगे बढ़ जाते हैं। इसके बाद वे कहानी के नायक मंगल कातफसील से वर्णन करते हैं।
गूदड़ और भूंगी के मृत्यु के बाद ही मंगल निरीहता की जीती जागती मूर्ति बन जाती है। यह इन्तिहां ही मंगल को वह ताकत देती है जो खेल के समय सुरेश बाबू और उनके साथियों की सारी हिकमत को ध्वस्त करदेती है। कफन में बुधिया की मृत्यु इतनी अकास्मिक है कि पाठक उसे सूचना कीतरह लेता है और आगे बढ़ जाता है। तड़पती और दर्द से कराहती बुधिया के पास कुनबे के लोग नहीं आते हैं, यह अस्वाभाविक तो है पर असंभव नहीं है। देर शाम जब घीसू और माधो आलू खाने में लगे थे- कुनबे के लोग गहरी नींद में हो सकते थे।
आलू खाने के लोभ में घीसू माधो बुधिया को देखने भीतर तो जा नहीं रहे हैं वे अगल-बगल किसी को बुलाने क्या जायेंगे। कुनबे के लोग यदि आ ही गये होते तो क्या फर्क पड़ जाता। जच्चे और बच्चे की मृत्यु को उस साधनहीनता में टाला नहीं जा सकता था। इसलिए इसी आधार पर कहानी को खारिज करना या प्रेमचन्द को कठघरे में खड़ा करना उचित नहीं है।
इससे प्रेमचन्द न तो कुनबे के लोगों की असंवेदनशीलता उजागर कर रहे हैं और हीं ऐसा उजागर होता है। अगले दिन कुनबे के लोग ही हैं जो जुटते हैं और घीसू माधो के निकल जाने के बाद बुधिया के लाश की देख-भाल करते हैं। इसलिए सब कुछ कहानी की मांग के अनुरूप होता है।
जहाँ तक घीसू और माधव के निकम्मेपन से समूचे दलित समाज को निकम्मा औरकमचोर समझे जाने की बात है। प्रेमचन्द स्वयं अपने इन चरित्रों को ‘विचित्र कहते हैं। वे विचित्र इसलिए हैं कि जब कुनबे के लोग हाड़ तोड़ मेहनत करके भी अधनंगे और भूखे रहने पर मजबूर हैं। वहाँ इनका निकम्पापन और कमचोरी इनकीविचारशीलता का प्रमाण है। प्रेमचन्द ने कहानी में विचारशीलता और कर्मशीलताके दो स्पष्ट विभाजन किये हैं। प्रेमचन्द उस कुत्सित मण्डली को विचारशील पाते हैं तो तीन तिकड़म करके भोले-भाले मेहनत कश लोगों को छलने और लूटने में लगे हैं।
रात को आलू उखाड़ने मक्का तोड़ने यहाँ तक की गन्ना तोड़कर खा जाने की घटनायें होती रहीं हैं। पेट भरने के दो चार रुपये का आलू उखाड़ लेने वाला घटिया और निकृष्ट करार दिया जाता है जबकि लाखों-करोड़ों का वारान्यारा करने वाले सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। कफन कहानी इस विडम्बना की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करती है।
ओम प्रकाश बाल्मीकि अपनी एक कविता में कहते हैं-
कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत खलिहान ठाकुर के
गली मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या
गाँव/ शहर/ देश
इसे पढ़ते ही प्रमचन्द की कहानी का कुंआ की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
‘‘ ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबी का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कँए से पानी भरने देंगे।
कहने की जरूरत नहीं कि ओम प्रकाश बाल्मीकि ने अपनी कविता में ‘ठाकुर काकुंआ’ के प्रतीक का उपयोग करते हैं। ठाकुर का कुँआ सामन्ती सत्ता का प्रतीक है जिसे चुनौती देने का साहस गंगी करती है। ओम प्रकश बाल्मीकि इस प्रतीक की व्याख्या करते हैं। कुँआ ही नहीं खेत खलिहान गल्ली मुहल्ले सब ठाकुर के हैं,यह यथास्थिति का बयान मात्र है। कविता जब यह सवाल करती है- फिर अपना क्या तब वह यथास्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। ‘ठाकुर का कुँआ’ के प्रतिक को कवि ओमप्रकाश बाल्मीकि समझते हैं और उसे अपने ढंग से रचनात्मक विस्तार देते हैं। पर विमर्शकार ओमप्रकाश बाल्मीकि कफन के प्रतीक को समझने के बजाय ऐसी चीजों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जहाँ से उनके विमर्शकार को तर्क मिलते हैं। ओमप्रकाश बाल्मीकि ठीक कहते हैं कि प्रेमचन्द को देवता बना दिया गया है। प्रेमचंद को देवता बनाना जितना गलत है उतना ही गलत है उनसे देवता जैसी पूर्णता की मांग करना। प्रेमचन्द मनुष्य थे। उनसे भी चूकहुई है। किसी तकनीकी चूक के आधार पर कहानी के मूल मन्तव्य को नकार देना कहाँ की समझदारी है। ‘लाश उठते उठते रात हो जाएगी’ इस वाक्य के आधर पर प्रेमचन्द के कुछ सवर्ण आलोचकों ने सवाल उठाया हैं कि रात में कहाँ उठती है? प्रेमचन्द को इस सच्चाई का ज्ञान नहीं था इसलिए पूरी कहानी रद्दी की टोकरी में टाल दी जाय। अरे भाई बेबी टब के गन्दे पानी को फेंकिए पर बेबी को तो बचा लिजिए। कथन के बहाने कहानी वर्णवादी संस्कारों पर सवाल उठाती है, सामंती औपनिवेशिक गठजोड़ से पैदा हुए समाज की विकृति पर सवाल उठाती है। महज कुछ तकनिकी बातों के आधार पर इन सवालों को गलफत करना दरअस्ल उसी वर्णवाद को मजबूत करना है।
कफन कहानी का सम्बन्ध अन्तिम संस्कार से है। बुधिया के अन्तिम संस्कार के लिए घीसू और माधव निकलते हैं। सारे ताम झाम के बाद भी कहानी में अन्तिम संस्कार नहीं हो पाता। कफन कहानी यहाँ गोदान उपन्यास से जुड़ती हैं। अन्तिम संस्कार का मामला वहाँ भी है। उपन्यास में गोदान कर्मकाण्ड के लिए धनिया की घृणा के स्वर तक पहुँची हुई विरक्ति देखने लायक है। कफन कहानी में यह जिम्मेदारी घीसू और माधो के कन्धे पर आती है। गोदान में धार्मिक सामाजिक आर्थिक शोषण तन्त्र के खिलाफ जूझते हुए होरी की मृत्यु होती है। जूझने की इस यात्रा में धनिया होरी के साथ है। वह देखती है कि मूल्यों मान्यताओं के साथ ताल मेल बिठाकार चलने वाले होरी महतो का क्या हश्र होता है।
(भोजपुरी अध्ययन केंद्र के संस्थापक, समन्वयक लेखक-आलोचक सदानंद शाही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं ।)
Email: sadanandshahi@gmail.com
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