( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की चौथी क़िस्त में प्रस्तुत है कुमाऊंनी भाषा के अनन्य संस्कृतिकर्मी और आकाशवाणी, लखनऊ के लोकप्रिय प्रोग्राम ‘ उत्तरायण ‘ के सूत्रधार – संयोजक बंसीधर पाठक ‘ जिज्ञासु ‘ की कहानी . सं.)
कोई 30-31 वर्ष तक आकाशवाणी के शॉर्ट वेव 61.48 यानी 4480 किलोहर्ट्ज पर रोज शाम सुदूर पर्वतीय अंचल (उत्तराखण्ड) के श्रोता ठीक शाम 5.45 बजे सुनते थे दो सुपरिचित आवाजें- ‘उत्तरायण का श्रोताओं की सेवा में वीर सिंह और शिवानंद को सादर नमस्कार.’
-‘भुला, शिवानंद’
-‘अं, दद्दा वीर सिंह’
अब न दद्दा वीर सिंह रहे न भुला शिवानंद और न ‘उत्तरायण’.
दद्दा वीर सिंह यानी जीत जरधारी. भुला शिवानंद हुए बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’. ‘उत्तरायण’ की विख्यात जोड़ी.
यह किस्सा भुला शिवानंद का है.
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सम्भवत: 2008 की बात है. ‘जिज्ञासु’ जी ने एक दिन अपने घर बुलवा कर मुझे एक कागज पकड़ाया था. उनके सुन्दर हस्तलेख में किसी रजिस्टर का एक पन्ना दोनों ओर लिखा हुआ था. शीर्षक था- ‘मेरी वसीयत.’ इस वसीयत में उन्होंने तीन सम्पतियों का जिक्र किया था. एक- ‘मेरे पिताश्री ने कोई वसीयत नहीं की थी, सो उनकी सम्पति पर मेरा कोई हक नहीं बनता.’ दो- ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे मरण के उपरांत कोई भी धार्मिक कर्म का आयोजन न किया जाए. मेरी देह का दान (मेडिकल कॉलेज) ट्रामा सेण्टर, लखनऊ को कर दिया जाए…’ और तीन- ‘मेरी पुस्तकों, पत्रिकाओं, उपयोगी कतरनों को मेरी श्रीमती किसी साहित्यिक संस्था, जो कि उत्तराखण्डीय प्रवासियों द्वारा लखनऊ में स्थापित की गयी हो, उन्हें दान स्वरूप प्रदान कर सकती हैं.’
इस वसीयत के अंत में चंद लाइनों की एक अर्जी ट्रामा सेण्टर प्रभारी के नाम थी कि ‘चिकित्सकों की शिक्षा के वास्ते मेरी निष्प्राण देह स्वीकार करने का मेरा निवेदन स्वीकार कर मुझे अनुग्रहीत करेंगे.’ मैंने उन्हें बताया कि मृत्यु के बाद देह दान के लिए बकायदा रजिस्ट्रेशन कराकर एक प्रपत्र गवाहों के हस्ताक्षर समेत मेडिकल कॉलेज में जमा करना होता है. उन्होंने यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी जिसे मैंने पूरा करा दिया था लेकिन उनके परिवार से इसकी चर्चा करने या अनुमति लेने का साहस तब मुझे नहीं हुआ था.
आठ जुलाई 2016 की सुबह जब जिज्ञासु जी के छोटे बेटे दीपू ने उनके निधन के खबर दी तो शोक के साथ मेरी पहली चिंता उनकी इस इच्छा को पूरा कराने की हुई. मैंने संसकोच दीपू से कहा कि देह दान किया था उन्होंने, मेडिकल कॉलेज को फोन करना होगा. दीपू ने बताया कि वह सब हो रहा है. देह दान तो पिता जी ने मम्मी का भी करा रखा है और मैंने अपना भी.
संतोष हुआ कि उनकी सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गयी. मुझे शंका थी कि उनकी धर्मप्राण, संस्कारी-कर्मकाण्डी पत्नी देहदान पर आपत्ति करेंगी और उन्हें मनाना मुश्किल होगा. लेकिन मैं गलत समझता रहा. वह स्त्री जो जीवन भर अपने पति की अप्रतिम सेवा करती रही और उसके हर फैसले में साथ रही, वह कैसे विरोध कर सकती थी. वे मुझे देखते ही आंसू बहाते हुए बताने लगीं- ‘कहते थे, नवीन को फोन कर देना, वह सब करा देगा.’
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सन 1970-71 का दौर. शाम ठीक पौने सात बजे मैं आकाशवाणी, लखनऊ के फाटक के सामने खड़ा हूं. पांच-दस मिनट के बाद सामने स्टूडियो की तरफ से वे आते दिखाई दिये. एक हाथ में स्पून-टेप, रजिस्टर, वगैरह और दूसरे हाथ में जलती सिगरेट का कश पूरे जोर से खींचते हुए. कार्यक्रम खत्म कर स्टूडियो से बाहर आते ही उनका पहला काम सिगरेट जलाना होता था. ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम तब पूरे एक घण्टे का हो चुका था और उसका संचालन करते हुए इतनी देर सिगरेट पीना मुश्किल ही होता था. तो भी वे पांच मिनट के समाचार ब्रेक में बाहर आकर दो-चार सुट्टे मार लिया करते थे. पूरे इतमीनान से सिगरेट कार्यक्रम खत्म होने के बाद ही पी जा सकती थी. मुझे फाटक के बाहर खड़ा देख कर वे हाथ हिलाते हैं कि अभी आया. सामान कमरे में रख कर वे आ गये हैं और कह रहे हैं- ‘आज विद्या के यहां चलें?’
-‘चलिए’. मैं उनके साथ चल पड़ता हूं. यह लगभग हर शाम का किस्सा होता. कभी वे कहते, चलो आज इगराल साब के यहां चलते हैं, कभी डॉ भाकूनी के यहां, कभी नजरबाग बीना के यहां, कभी सुंदर बाग, कभी मॉडल हाउस, कभी सदर, कभी निराला नगर, कभी महानगर. मुरली नगर, उदय गंज, क्ले स्क्वायर तो पड़ोस में ही हुआ. कभी मिल गयी तो सिटी बस, वर्ना लमालम पैदल. 1971 से अगले आठ-दस सालों में मैंने उनके साथ घूमते हुए लखनऊ के करीब-करीब सभी मुहल्लों में पहाड़ियों के घर छान लिए थे.
मैं दो-चार दिन उनसे मिलने नहीं जा पाता तो वे कैनाल कॉलोनी वाले हमारे डेरे पर चले आते. बाबू उनके नमस्कार का जवाब तो देते लेकिन उख़ड़े-उखड़े. उनकी समझ में नहीं आता था एक लड़के की अपने पिता की उम्र के व्यक्ति से यह कैसी दोस्ती है!
तो, कैसी दोस्ती थी यह?
दोस्ती के आवरण में यह गुरु-शिष्य का अनौपचारिक रिश्ता था. कोई स्कूल या आश्रम नहीं, कोई कक्षा या लेक्चर नहीं. यह सड़क के फुटपाथों और लखनऊ के पहाड़ियों के घरों में चलने वाली अनोखी दीक्षा होती थी. उन्हें ‘उत्तरायण’ के लिए कुमाऊंनी-गढ़वाली वार्ताकार चाहिए होते थे, कवि-गीतकार चाहिए थे, गायक-वादक चाहिए थे. इनकी तलाश में लखनऊ के पहाड़ियों के घर-घर जाते. जाते. मैं उनके साथ लगा रहता.
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‘स्याल्दे-बिखौती’ आ रहा है. इस पर कुमाऊंनी में वार्ता कौन लिखेगा? हम गुरु-शिष्य की जोड़ी पहुंच गई गौरी दत्त लोहनी जी के महानगर वाले घर. चाय पी जा रही है और द्वाराहट का कौतिक, लोक-गीत और ध्वज-निशाण सब साक्षात अवतरित हो जाते उस छोटी-सी बैठक में. फूलदेई पर वार्ता लिखनी है शांता पाण्डे को और उनके ड्राइंग रूम में गुनगुनाया जा रहा है- ‘लाओ चेलियो, कुकुड़ी का फूल… फूल टिपी तौ बोकिये ले खै छौ…’ और मेरी स्मृतियों में ताजा हो रहा है लिपी-पुती ऐपण डली छापरी सिर पर धरे बच्चों की टोली का देहरी पूजना, गुड़-चावल पाना और सुस्वादु ‘सै’ की गंध… किसी की कविता ठीक की जा रही है, बोली के शब्दों के अर्थ और अनर्थ समझाए जा रहे हैं. किसी की वार्ता को दुरुस्त किया जा रहा है, उसमें बोलियों के मुहावरे डाले जा रहे हैं, लोकोक्तियों की व्याख्या हो रही है और सुन-गुन रहा है यह शिष्य.
‘कल दिन में चारू चंद्र पाण्डे जी के यहां चलना है… जाड़ों की छुट्टियों में वे अपने भाई के यहां आ गये हैं.’ जिज्ञासु जी के साथ गायक लड़के-लड़कियों की छोटी-सी टोली और मैं. पाण्डे जी लोक धुनों के स्वर समझा रहे हैं, हारमोनियम पर स्वर निकाल रहे हैं, गायक-गायिकाओं के सुर साध रहे हैं. कभी पाण्डे जी को लेकर हम पहुंच गये हैं नजरबाग वीना तिवारी के यहां. कब शाम हो गयी पता ही नहीं चलता. उत्तराखण्ड की लोक धुनों के अध्येता ब्रजेंद्र लाल साह गीत नाटक-प्रभाग के उपनिदेशक बन कर लखनऊ क्या आये, जिज्ञासु जी ने लोक-संगीत प्रशिक्षण कार्यशाला ही चला दी. विज्ञानी दीवान सिंह भाकूनी जी से उनका ड्राइंग रूम दो घण्टे के लिए मांग लिया गया. रोज शाम को वहां लोक-संगीत सिखाने लगे साह जी. सीखने वाले, सिखाने वाले और सुनने वाले सब मगन. कभी केशव अनुरागी को डांटा जा रहा है कि यार अनुरागी जी, लखनऊ के बच्चों को कुछ सिखाते क्यों नहीं हो. अनुरागी जी हुए लोक संगीत और ‘ढोल सागर’ के गहरे जानकार.
बिना फिल्टर वाली सिगरेट को जीभ से गीला करके सुलगाते हुए धुआं उड़ाते जिज्ञासु जी और उनका यह अघोषित शिष्य दौड़े जा रहे हैं. उनके कंधे में लटके झोले में रखे हैं वार्ताकारों, कवियों, गायकों के कॉण्ट्रेक्ट. घर-घर जा कर हस्ताक्षर कराना तो बहाना है, असल मकसद है वार्ता, कविता और गीतों को देखना, दुरुस्त करना और अक्सर उनकी सामग्री भी लोगों को उपलब्ध कराना. लोक कथाओं की पुस्तिकाएं घर से ले जाकर दी जा रही हैं कि इसे पढ़कर अपनी बोली में लोक कथा लिख कर लाओ. ये लो, माधो सिह भण्डारी की कहानी, यह लो रामी बौराणी का काव्य, इन पर गढ़वाली में आठ-आठ मिनट की वार्ताएं लिखनी हैं. बीच-बीच में गीत के टुकड़े भी डाल देना, हां! उनकी इस दौड़ ने नये सम्भावनाशील रचनाकार तो तलाशे ही, कई छुपी प्रतिभाएं भी सामने ला दीं.
कभी आकाशवाणी के ‘उत्तरायण एकांश’ वाले कक्ष में जम जाती महफिल. नंद कुमार उप्रेती आ गये हैं, उनके सखा यज्ञदेव पण्डित जी विराजमान हैं. जरधारी जी को नाटक देखने रवींद्रालय जाना है फिर भी डटे हैं. और भी कई चेहरे हैं. बातचीत पांखू (पिथौरागढ़) के ओड्यारों से शुरू हो कर हैड़ाखान बाबा के आश्रम और जिम कॉर्बेट तक पहुंच गयी है. इतनी बातें कि अगले दिन मुझे हैड़ाखान बाबा और जिम कॉर्बेट पर किताबें मांगने जिज्ञासु जी के घर जाना पड़ता है. तब उनके किराये के घर की निशानी हुआ करती थी, हथेली में पर्वत धारण किए उड़ते हनुमान जी की मूर्तिवाला उदयगंज का मकान.
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गुरुवार को उनका साप्ताहिक अवकाश होता था. अवकाश में भी ‘उत्तरायण’ की सेवा में जाना पुनीत कर्तव्य जैसा था लेकिन किसी-किसी अवकाश को वे अपने काठ के दोनों बक्से खोल कर पूरा दिन उनकी उखेला-पुखेली और साज-सम्भाल में लगा देते. इस बीच यह शिष्य पहुंच गया तो सम्भाली चीजें फिर बाहर निकल आतीं- ‘तुमने नागार्जुन की कविताएं तो पढ़ी हैं लेकिन बाबा का गद्य देखा है क्या… ये ले जाओ, ‘रतिनाथ की चाची’ पढ़ना… पंत और निराला का कविता-विवाद जरूर पढ़ना चाहिए… और ये देखो, राम विलास शर्मा ने निराला पर कैसा अद्भुत लिखा है… अरे, तुमने ‘मुख सरोवर के हंस’ नहीं पढ़ा अभी तक? फिर क्या पढ़ा, यार! और देवेंद्र सत्यार्थी? लोक का अध्ययेता… यह लो तुम उस दिन मांग रहे थे चंद्र सिंह ‘गढ़वाली’ पर राहुल की पुस्तक….’ वे किताबें निकालते जाते, उनके बारे में बताते जाते… फिर कोई पुरानी पत्रिका का अंक खोल कर बैठ जाते, ये सुनो, गोपाल सिंह नेपाली का गीत- ‘मां, मत हो नाराज कि मैंने खुद ही मैली की न चुनरिया…’ और इसमें रामानंद दोषी के बहुत सुंदर गीत छपे हैं…ये देखो…’ शाम ढलने लगती और कई बार गरम किया खाना एक बार फिर गरम करतीं देवकी जी रसोई से डांट लगा रही होतीं- ‘नहीं खाते हो आज ये खाना?’
काठ के ये दो बक्से मिला कर उनकी बैठक में रखे रहते और बैठने के लिए ‘सैटी’ का काम करते. उस पर खाना भी हो जाता और वक्त-जरूरत थोड़ी झपकी भी ले ली जाती. ये बक्से जिज्ञासु जी की कीमती सम्पत्ति हैं और आज उनके नहीं रहने पर भी घर में उनकी उपस्थिति बनाये हुए हैं.
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करीब 31 वर्ष ‘उत्तरायण’ को पूरी तरह समर्पित करने के बाद जब 1994 में वे रिटायर हुए, तब तक कई रोगों ने उनके शरीर पर हमला बोल दिया था. एक्जीमा की सूखी पपड़ियां जब पूरे शरीर को ढक लेती थीं तो उनसे खुजाते भी न बनता था. उनकी सदा सेवारत पत्नी किसी तीली पर कोई तेल और दवा लगा कर उन पपड़ियों को सहलातीं और अपने हाथों उन्हें खाना खिलातीं. खूनी बवासीर जब जोर मारती तो रक्त चढ़ाने तक की नौबत आ जाती. रक्त चाप बढ़ा, हड्डियां कमजोर पड़ीं, कमर जल्दी झुक गयी, दांतों ने धीरे-धीरे साथ देना छोड़ दिया और चश्मे का शीशा हर साल और मोटा होता गया. उतनी उम्र नहीं हुई थी जितने के वे लगने लगे थे. तो भी सुबह बरामदे में और दिन में बैठक में कुर्सी मेज पर बैठ कर वे कविताएं रचते, लेख लिखते, अखबारों-पत्रिकाओं से कतरनें काटते-चिपकाते, अपनी किताबों की जिल्द सही करते, पुरानी चीजें निकाल कर पढ़ते और सारा दिन अपने को रचनात्मक रूप से व्यस्त रखते.
उनके रिटायर होने के बाद आकाशवाणी ने उनकी क्षमता और अनुभव का कोई मोल नहीं लगाया और न ही यह श्रेय उन्हें दिया कि ‘उत्तरायण’ की लोकप्रियता और स्तर के पीछे डेढ़ पसलियों के इस व्यक्ति का भी कोई हाथ था. ‘उत्तरायण’ क्रमश: अपनी गति को प्राप्त होता रहा और जिज्ञासु उपनामधारी व्यक्ति के भीतर उसके पतन की पीड़ा ग्रंथियां बन कर जमा होती रहीं. उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाली भीड़ नदारद हो चुकी थी. सुख-दुख बांटने के लिए नंद कुमार उप्रेती जैसे कुछेक दोस्त बचे थे लेकिन वे भी जल्दी साथ छोड़ गये. जब कभी मैं उनके पास जाता तो शिकायतों का पुलिंदा तैयार रहता- ‘कोई नहीं आता यार, अब. और मैं कहीं जा नहीं पाता. अब मैं पढ़ भी नहीं पाता.’ जबकि उनके हाथ का आकारवर्धक शीशा गवाही देता रहता कि पढ़ना कैसे छोड़ सकते हैं वे!
मुझसे भी शिकवा कम नहीं होता- ‘कहां रहते हो यार, तुम भी आज छह महीने बाद आये हो.’ एक महीना उन्हें छह महीने से ज्यादा ही लगता होगा. जब ज्यादा ही नराई लग जाती थी तब किसी सुबह पत्नी के साथ टेम्पो में बैठ कर हमारे घर आ जाते. अपने साथ कभी मेरे लेखों की कतरनें ले आते, कभी कोई पुरानी किताब या पत्रिकाओं के अंक और कभी पढ़ने के लिए ‘कुछ नया’ मांग ले जाते. एक-कर सबके हाल पूछते- ‘शेखर की कोई चिट्ठी आयी? अब चारु चंद्र जी भी पत्र नहीं लिखते. गिरीश क्या कर रहा है? ‘नैनीताल समाचार’ वाले तो अब अंक मुझे भेजते ही नहीं, पता नहीं ‘दुधबोली’ का अंक निकला या नहीं? जो-जो याद आ जाता, सबका हाल-चाल पूछते जब तक कि उनकी पत्नी लगभग डांटते हुए उन्हें उठा नहीं देती- चलो-चलो अब, लता को बैंक की देर हो गयी.
वह आदमी जो सारा लखनऊ पैदल नापा करता था, जो लखनऊ के तमाम मुहल्लों में रचनाधर्मी और संस्कृति प्रेमी पहाड़ियों के घर आंख बंद करके भी पहुंच जाता था, जो उत्तराखण्ड के मेलों-कौतिकों से लोकगीतों की रिकॉर्डिंग कर लाने के लिए कष्टदायी यात्राएं किया करता था, उसे लाचार होकर घर बैठे देखना बहुत पीड़ा दायक होता था. अंतिम छह-सात सालों से तो वे बिल्कुल ‘घरी’ गए थे और कोई साल भर बिस्तर पर, जबकि क्षीण कान-आंख के साथ स्मृति-लोप ने भी आ घेरा था.
आठ जुलाई 2016 को जो हुआ वह वास्तव में मुक्ति थी.
उनके साथ ‘उत्तरायण’ की भी मुक्ति हुई. उनके निधन के चंद सप्ताह में आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित होने वाला कुमाऊंनी-गढ़वाली बोलियों का एक घण्टे का यह कार्यक्रम बंद हो गया. बताते हैं कि ‘उत्तरायण’ जैसा कोई कार्यक्रम अब उत्तराखण्ड के कुछ केंद्रों से प्रसारित होता है लेकिन यह वह ‘उत्तरायण’ कतई नहीं है जिसमें जिज्ञासु जी के पूर्ण समर्पण से उत्तराखण्ड की सम्पन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा गूंजती थी. सूखने तो वह उनके रिटायर होने के बाद से ही लगा था.
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आकाशवाणी के लॉन की हरी दूब पर जाड़ों की धूप में बैठे जिज्ञासु जी मुझे सुना रहे हैं अपनी दास्तां-
“साढ़े तीन साल का था जब पिता मुझे अपने साथ देहरादून लेते गये. पिता विशारद-संस्कृत के छात्र थे और पुरोहिताई करते थे. वहीं मेरी पढ़ाई की शुरुआत उन्होंने संस्कृत श्लोक रटाने और पाटी में अ-आ लिखने से कराई. फिर हिंदी की किताबों के साथ-साथ ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ और ‘अमर कोश’ की बारी आई. एक श्लोक याद करने पर एक पैसा मिलता था और मैंने पिता से पैसे कमाने में कोई कोताही नहीं की. इस तरह स्कूली शिक्षा के साथ मैं वाल्मीकि रामायण, कालिदास, भर्तृहरि और भास के नाटक भी पढ़ गया. वे गीता प्रेस, गोरखपुर की छपी किताबें भी लाते थे.
“पिता जी और मैं देहरादून में एक कर्नल थापा के यहां रहते थे. जब कर्नल थापा का तबादला दिल्ली हुआ तो हम दोनों भी उनके साथ दिल्ली चले गये. कुछ समय बाद उन्हीं के साथ शिमला जाना हुआ. यह 1945-46 की बात है. शिमला में मुझे कक्षा छह में भर्ती कराया गया. 1950 में हाईस्कूल पास किया. शिमला में उन दिनों पंजाबी, उर्दू और हिंदी के कवि सम्मेलन और मुशायरे हुआ करते थे. एक कवि सम्मेलन में मदन लाल ‘मधु’ (जिन्होंने बाद में मास्को जाकर महत्वपूर्ण सोवियत साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया) को सुना जो तब शिमला में अध्यापक थे. तब कविता का चस्का लगा. शिमला बस अड्डे पर पूर्ण सिंह की धर्मशाला में एक कवि सम्मेलन सुना, जिसमें पंत, बच्चन, महादेवी और निराला ने काव्य पाठ किया था. उसके बाद कविता लिखना शुरू किया. तभी ‘जिज्ञासु’ उपनाम भी रखा.”
आकाशवाणी भवन के गेट पर एक पहाड़ी भाई के चाय के खोंचे पर जारी है कहानी-
“हाईस्कूल पास किया था कि पिता को वापस दिल्ली जाना पड़ा लेकिन मैंने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया. तब तक मेरी कविता-कहानियां पंजाब के अखबारों एवं कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे. उन दिनों के लगभग हर युवक की तरह मैंने भी हिंदी टाइपिंग सीखी. खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की शिमला शाखा में हिंदी टाइपिस्ट बन गया. संस्कृत की ट्यूशन पढ़ाने लगा था.
“दिन में दफ्तरों में ‘लोहा पीटता’ (टाइपिंग को उन्होंने यही नाम दिया था) और शामें सांस्कृतिक-साहित्यिक संध्या की तलाश में बिताता. उन्हीं दिनों एक रोज जयदेव शर्मा ‘कमल’ से भेंट हुई. कमल जी कवि थे और भारतेंदु विद्यापीठ में ‘रत्न भूषण’ और ‘प्रभाकर’ के विद्यार्थियों को हिंदी कविता पढ़ाया करते थे. यह 1953 का साल था. कमल जी ने अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ा देने का अनुरोध किया. एक हाथ लम्बा घूंघट काढ़ने वाली ‘भाभी जी’ को मैं संस्कृत पढ़ाने लगा. यहीं पड़ी हमारी पक्की पारिवारिक दोस्ती की नींव जो आजीवन मजबूत बनी रही. यही दोस्ती मेरे आकाशवाणी, लखनऊ में आने का कारण बनी.”
कभी नजरबाग-सुन्दरबाग और कभी क्ले-स्क्वायर-मुरलीनगर की गलियों से गुजरते हुए जारी रहता यह किस्सा. मैं कोचता और वे बताते जाते- “कुछ समय बाद मेरी तैनाती अम्बाला छावनी में खादी ग्रामोद्योग आयोग के कार्यालय में हो गयी. उसी दौरान कमल जी की नियुक्ति आकाशवाणी में हो गयी और वे वाया दिल्ली लखनऊ केंद्र में तैनात हो गये. एक दिन लखनऊ से कमल जी का अंतर्देशीय पत्र मिला कि मैं केंद्र निदेशक, आकाशवाणी के नाम विभागीय कलाकार के रूप में नियुक्ति हेतु आवेदन पत्र भेज दूं. 1962 के चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत पर्वतीय अंचल के श्रोताओं के लिए ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू करने का फैसला किया था, जिसे प्रसारित करने की जिम्मेदारी लखनऊ केंद्र को मिली थी. उसी में स्टाफ आर्टिस्ट की एक जगह निकली थी.
“मैं ‘लोहा पीटने’ की नौकरी से इतना ऊबा हुआ था कि आवेदन पत्र भेजने की बजाय तार भेज दिया कि मैं लखनऊ पहुंच रहा हूं. इस तरह सात जनवरी 1963 को ‘उत्तरायण’ में विभागीय कलाकार की हैसियत से आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र में काम करने लगा. कुमाऊंनी-गढ़वाली लोक भाषाओं में पंद्रह मिनट का यह कार्यक्रम अक्टूबर 1962 में शुरू हो चुका था, जिसे जीत जरधारी और कमल जी संचालित कर रहे थे. उसके बाद इसे मैंने और जीत जरधारी ने चलाया.”
जिज्ञासु जी ने उत्तरायण के लिए ‘चलाना’ शब्द इस्तेमाल किया था लेकिन जो उन्होंने किया वह ‘चलाना’ नहीं उसे सींचना, पालना, पोषना और निरंतर समृद्ध करना था. वे बताते थे कि जब मैं ‘उत्तरायण’ में तैनात हुआ तब मुझे खुद कुमाऊंनी नहीं आती थी. बचपन से देहरादून, दिल्ली, शिमला और अम्बाला रहा. पंजाबी को मैं अपनी मातृभाषा कहा करता था. फिर कुमाऊंनी सीखनी शुरू की. श्रीमती जी से शुरुआत की. फिर लखनऊ की कुछ सयानी कुमाऊंनी महिलाओं के साथ बैठा.
दरअसल, अपनी दुधबोली उन्हें ठीक-ठाक आती थी, लेकिन ‘उत्तरायण’ का नियोजन और संचालन करने के लिए उसमें पारंगत होना चाहते थे. ‘कुमाऊंनी सीखने’ से उनका मंतव्य बोली के विविध उच्चारण, इलाकाई विभेद, उच्चारण के जरा-सा अंतर से गहरा अर्थभेद, सब भली-भांति जान लेना था. एक साल होने पर ‘उत्तरायण’ का समय बढ़ा कर 30 मिनट कर दिया गया था. पंद्रह मिनट के कार्यक्रम में कुछ गीत और समाचार प्रसारित हो पाते थे. अब कुमाऊंनी-गढ़वाली गीतों, वार्ताओं, कविता-कहानियों, आदि के लिए अच्छा समय मिल गया.
जिज्ञासु जी के सामने इन प्रसारणों के लिए रचनाकार ढूंढने की समस्या आ खड़ी हुई. तब शुरू हुई उनकी दौड़. वे दिन में और अक्सर कार्यक्रम के बाद शाम से रात तक लखनऊ के पर्वतीयों के घर-घर जाकर उन्हें अपनी बोलियों में लिखने को प्रेरित करने लगे. हिंदी में लिखने वाले उत्तराखण्ड मूल के कई लेखक-कवियों से उन्होंने अपनी बोली में लिखवाया. पहाड़ के विभिन्न शहरों-कस्बों से बोली में अच्छा लिखने वालों को यात्रा-व्यय और पारिश्रमिक दिलवा कर उन्होंने ‘उत्तरायण’ के स्टूडियो में आमंत्रित किया. विभिन्न शहरों के आकाशवाणी केंद्रों से वहां रहने वाले पर्वतीय मूल के रचनाकारों की रिकॉर्डिंग मंगवाई. इस तरह जल्दी ही ‘उत्तरायण’ के पास विभिन्न विधाओं के रचनाकारों की बेहतर और बड़ी टीम हो गई थी. फिर तो बोलियों में नाटक-रूपक आदि भी प्रसारित किए जाने लगे.
1964 तक कुमाऊंनी बोली पर जिज्ञासु जी की बारीक पकड़ हो चुकी थी. जबलपुर वाले कुमाऊंनी भाषा और संस्कृति विशेषज्ञ त्रिलोचन पाण्डे जी से पत्र व्यवहार होता. 1938-40 में अल्मोड़ा से कुमाऊंनी में ‘अचल’ पत्रिका निकालने वाले जीवन चंद्र जोशी अपना बुढ़ापा लखनऊ में काट रहे थे. जिज्ञासु जी उनकी शरण भी जाते. अब वे लोगों को कुमाऊंनी उच्चारण और उसके भेद तक सिखाने लगे थे. इसके बाद शुरू हुआ कुमाऊंनी कवियों से सम्पर्क. खुद भी कुमाऊंनी में कविता, गीत, कहानी, रूपक और नाटक लिखने लगे. ओबीआर पार्टियों के साथ रिकॉर्डिंग मशीन लेकर पहाड़ के कौतिकों में घूमने लगे. ब्रजेंद्र लाल साह, चारु चंद्र पांडे, केशव अनुरागी की मार्फत लोक संगीत की समझ बढ़ी. आकाशवाणी के स्टूडियो में आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक भाषा की कवि गोष्ठियां और लोक संगीत संध्याएं आयोजित होने लगीं.
उत्तरायण कार्यक्रम की ऐसी धूम मची कि पहाड़ी गांव-कस्बों से ही नहीं, सीमांतों पर तैनात उत्तराखण्डी फौजियों की चिट्ठियों से उत्तरायण एकांश की मेजें और अल्मारियां भरने लगीं. पंद्रह मिनट से शुरू हुआ कार्यक्रम बहुत जल्दी पहले आधे घण्टे और फिर एक घण्टे का कर दिया गया. सांसदों-विधायकों की भेंट वार्ताओं, विकास की खोखली वार्ताओं, वगैरह की बजाय, वह सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक धड़कन बन गया. प्रवासी उत्तराखण्डियों के साथ-साथ समूचे उत्तराखण्ड के संस्कृतिकर्मियों का लोकप्रिय मंच वह बहुत अरसे तक बना रहा. उस दौर का कोई नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार, वगैरह नहीं बचा होगा जो उत्तरायण का मेहमान न बना हो और जिसकी रिकॉर्डिंग उसके संग्रह में मौजूद न हो.
उस मूल्यवान संग्रह को आकाशवाणी सम्भाल नहीं सकी. चंद ही मैग्नेटिक टेपों को डिजिटल में बदल कर सुरक्षित रखा जा सका. उनके बाद किसी ने उसकी कद्र नहीं की, यह भी जिज्ञासु जी का बड़ा दर्द था.
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हुसैनगंज चौराहे के बर्लिंगटन होटल के परिसर में मीटिंग हो रही है. जिज्ञासु जी ने पहाड़ के कई लोगों को बटोर रखा है. एक सांस्कृतिक संस्था बनाने की बात हो रही है. लोक नृत्य-गीतों के कार्यक्रम तो अन्य संस्थाएं भी करती ही थीं, जिज्ञासु जी चाहते हैं कि कुमाऊंनी-गढ़वाली में नाटक मंचित किये जाएं और बोलियों में पत्रिका का प्रकाशन हो. संस्था का नाम रखा गया ‘शिखर संगम’.
‘शिखर संगम’ ने 23 नवम्बर 1975 को लखनऊ के इतिहास में पहली बार एक कुमाऊंनी नाटक (मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं- लेखक/निर्देशक- नंद कुमार उप्रेती) और एक गढ़वाली नाटक (खाडू लापता, लेखक- ललित मोहन थपलियाल, निर्देशक- जीत जरधारी) मंच पर खेले. बंगाली क्लब के खचाखच भरे हॉल में बैठे दर्शक रोमांचित हुए और मुख्य अतिथि के रूप में आईं शिवानी ने ‘स्वतंत्र भारत’ के अपने ‘वातायन’ कॉलम में जी भर कर इन प्रस्तुतियों की सराहना की. उन्होंने लिखा था- “संभवत: पहली ही बार लखनऊ के प्रवासी पर्वत निवासियों ने अपनी मातृभाषा में इन दो नाटकों का प्रदर्शन किया. उससे भी सुखद अनुभूति हुई , गढ़वाली और कुमाउंनी बंधुओं के इस अपूर्व सांस्कृतिक संगम को देख कर.“ शिवानी ने उस दिन कुमाऊंनी–गढ़वाली बोली की हस्तलिखित साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका ‘त्वीले धारो बोला’ का भी लोकार्पण किया था जिसके सम्पादक जिज्ञासु ही थे. उस पत्रिका में जयंती पंत से लेकर नागेंद्र दत्त ढौंढियाल तक के लेख और कई कविताएं थीं, जो जिज्ञासु जी के उत्तरायण-संग्रह की देन थे. ‘शिखर संगम’ ने अपनी दूसरी प्रस्तुति में ‘खाडू लापता’ ’(लेखक-ललित मोहन थपलियाल) और ‘पुंतुरी’ (चारु चंद्र पाण्डे की हास्य कविता का नाट्य रूपांतर) के मंचन किये थे.
सन 1975 तक भी लखनऊ के पर्वतीय परिवारों को अपनी लड़कियों को नाटक में काम करने देने में बहुत संकोच था. जिज्ञासु समझाते कि लड़कियों को नाटक में भाग लेने भेजो. इस पर कोई कड़वी बात भी कह देता कि अपनी लड़कियों को क्यों नहीं नचाते. जिज्ञासु जी के उत्साह वर्धन पर लखनऊ विश्वविद्यालय से सात स्वर्ण पदक जीत कर संस्कृत में शोध कर रही रेणु मिश्रा, गृहिणी श्रीमती रमा गुसांर्इ और उषा खंडूरी ने यह तब चुनौती स्वीकार की थी. उसके बाद तो कर्इ लड़कियां नाट्य संस्था से जुड़ीं.
‘शिखर संगम’ संस्था ज्यादा समय नहीं चल पायी. जिज्ञासु दुखी तो हुए लेकिन हताश नहीं. नयी टीम जुटा कर ‘आंखर’ का गठन कर लिया. दौड़-भाग चल रही है. चंदा जुटाया जा रहा है. जिज्ञासु जी रसीद बुक लेकर पहाड़ियों के घर-घर जा रहे हैं. कहीं तीखी-कटु बातें भी सुनने को मिलती हैं लेकिन चंदा तो लेना ही है. कोई बाधा उनके संकल्प को तोड़ नहीं पाती. देखते-देखते बड़ी टीम खड़ी हो गयी जिसमें लड़कियों-महिलाओं की अच्छी संख्या थी. अगले करीब आठ वर्ष तक अपनी बोली के नाटकों का मंचन चलता रहा. बोली के नाटकों के अभाव में पर्वतीय पृष्ठभूमि वाली, गोविंद बल्लभ पंत, शेखर जोशी, शिवानी, हिमांशु जोशी, आदि की कहानियों के नाट्य रूपान्तर तैयार किये गये. इन नाट्य-मंचनों की टीम लेकर जिज्ञासु जी ने भोपाल, मुरादाबाद, पीलीभीत, कानपुर और अल्मोड़ा-नैनीताल तक की यात्राएं कीं. शेखर जोशी की चार कहानियों (दाज्यू, व्यतीत, बोझ और कोसी का घटवार) का निर्देशन मशहूर रंग निर्देशक देवेंद्र राज ‘अंकुर’ ने किया. अंकुर जी उन दिनों कहानियों के मंचन के लिए ख्यात थे.
जिज्ञासु जी की जिद थी कि कुमाऊंनी-गढ़वाली बोली में ‘आंखर’ पत्रिका नियमित निकाली जाए. ‘आंखर’ पत्रिका की शुरुआत नाटकों के मंचन के समय स्मारिका के रूप में हुई थी. फिर उसे त्रैमासिक निकालना शुरू किया. आईएएस अधिकारी रघुनंदन सिंह टोलिया तब पर्वतीय विकास विभाग के सचिव थे. उन्होंने बोली की पत्रिकाओं के लिए थोड़ा आर्थिक सहायता जुटा दी तो जनवरी 1993 से ‘आंखर’ मासिक निकलनी शुरू हुई. मैं इसके सम्पादन में उनका सहयोगी था. अप्रैल 1995 तक 28 अंक नियमित रूप से मासिक छपे. उसके बाद अक्टूबर 1995 तक दो अंक संयुक्तांक प्रकाशित हुए. तब तक ‘संस्था’ के रूप में ‘आंखर’ निष्क्रिय हो चुकी थी. संस्था के बचे-खुचे धन और कुछ अपनी जेब से लगा कर भी जिज्ञासु जी लगभग अकेले ही पत्रिका निकाल रहे थे. दुखी भी होते कि कोई सहयोग नहीं करता. फिर पत्रिका बंद करनी पड़ी. यह फैसला उन्होंने बहुत तकलीफ में लिया था. शारीरिक कष्ट भी कम न थे. शिकायतों-तकलीफों की गठरी लेकर वे घर भीतर सीमित हो गये. तब तक यह शिष्य भी ‘गुरू’ बन कर पत्रकारिता की अपनी दुनिया में ज्यादा रम गया था.
आकारवर्धक शीशा लेकर पढ़ना और छिट-पुट लिखना तब भी उनका जारी था. यदा-कदा कुछ पत्रिकाओं में वे छपे दिखाई देते थे या घर जाने पर दिखाते थे. उनका एक कविता संग्रह हिंदी में (मुझको प्यारे पर्वत सारे) और एक कुमाऊंनी में (सिसौण) छप पाया था. और संग्रहों के लिए पाण्डुलिपियां तैयार करते रहते थे लेकिन छापने वाला था कौन! मृत्यु से कुछ पहले आखिरी मुलाकात में भी कह रहे थे कि ‘नब्बू, कुछ कहानियां पूरी करनी हैं, संग्रह निकलवाना है. लेकिन यार, कोई छापने वाला ही नहीं मिलता. मैं भी अब कहां लिख पाता हूं.’
उनकी पत्नी देवकी पर्वतीया बताती हैं कि अंतिम सांस लेने तक सामने अल्मारी में सजी किताबों के संग्रह को निहारते रहे थे, जिनमें मैंने साफ जिल्द चढ़ा रखा है.
……..
एक बार किसी इण्टरव्यू के सिलसिले में मैंने उनसे पूछ लिया था- ‘अपनी रचनात्मक यात्रा में आपको परिवार का कितना सहयोग मिला?’
उनके जवाब ने मुझे स्तब्ध कर दिया था, जो शब्दश: इस तरह था- ‘खेद है कि परिवार की ओर से मुझे सहयोग नहीं मिला.’
मैंने सोचा था आप अपने परिवार को, खासकर पत्नी को पूरा श्रेय देंगे लेकिन यह क्या कह गये थे गुरू जी, आप? उस दिन, नहीं टोक पाया था. आज जब आप नहीं हैं तो यह लिखते हुए कुछ सवाल करने की गुस्ताखी करूं? आप नाराज मत होना. मुझसे आप नाराज हुए भी नहीं कभी, भरोसा करते रहे मुझ पर. तो बताइए, यह क्रूर जवाब आपने क्यों दिया था?
हां, आज भी आपका जवाब मुझे अन्यायपूर्ण लगता है.
पांच जून 1955 को अल्मोड़ा से जिस देवकी देवी को आप ब्याह लाये थे और उसने जिस तरह इतने वर्ष आपकी हर प्रकार सेवा की, अगर वह पूर्ण सहयोगी नहीं थी तो गुरू जी, कोई परिवार सहयोगी नहीं हो सकता.
मैंने आपको इतने लम्बे सम्पर्क में कभी एक दाना नीबू खरीदते नहीं देखा. आप सिर्फ एक चीज खरीद सकते थे, सिगरेट की डिब्बी. घर में किताबों के अलावा आपको सिर्फ ऐश-ट्रे और बाथरूम के मग्गे का पता होता था. आप पूरा वेतन ईमानदारी से श्रीमती जी के हाथ में रख देते थे और रोज घर छोड़ने से पहले उनके सामने अपना हाथ फैला देते थे, जिस पर वे हिसाब लगाकर आपकी दिन भर की सिगरेट और चाय का खर्च रख देती थीं. यदा-कदा इस शिकायत के साथ कि ‘कल तुमने एक डिब्बी सिगरेट ज्यादा खर्च की है.’
अक्सर वे कुछ अतिरिक्त पैसे आपकी हथेली पर रखते हुए यह ताकीद भी करती थीं कि-‘देखो, अपने पैसे से चाय पीना. हां!’ यह बिल्कुल सच है आपने आकाशवाणी में कभी किसी आमंत्रित कलाकार की चाय नहीं पी, हमेशा पिलाई ही. चाय आपको बहुत पसंद थी. किसी के घर गये हों तो शौक से वहां चाय पीते मगर दफ्तर में चंद दोस्तों को छोड़कर कभी किसी के पैसे से चाय नहीं पी.
जिज्ञासु जी अपनी पत्नी देवकी जी के साथ .
परिवार चलाना, बच्चे पालना क्या होता है, आप कतई नहीं जानते थे.
आप भूले हों तो हों, हम कैसे भूल सकते हैं कि खुर्रमनगर (पंतनगर) में जब आपका मकान बन रहा था तो देवकी जी फटी धोती पहन कर दिन भर ईंटा-गारा ढोती थीं कि रोज एक मजदूरी बचेगी. आपकी रोटी पकाने के बाद वे अंधेरे में सिर पर ईटें रख कर छत के ढोले तक पहुंचाया करती थीं ताकि सुबह आते ही राज मिस्त्री काम पर लग सके. जिस मकान पर आपके बेटे ने ही सही, बड़े फख्र से ‘बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ की तख्ती टांग दी थी, उसमें देवकी पर्वतीया का खून-पसीना लगा है. यह नाम कभी आपने ही उन्हें दिया था लेकिन नेम प्लेट पर अपने नाम के साथ इसे भी शोभायमान करना आप भूले ही रहे!
रिटायरमेण्ट के बाद जो बीमारियों का हमला आप पर हुआ, उनसे वे ही लड़ती रहीं. शरीर आपका था लेकिन युद्ध उनका. घंटों आपका मलपश खुजलाना है, दवा चुपड़नी है, अपने हाथों खाना खिलाना है. पिछले आठ-दस सालों में तो वे आपकी नींद सोती थीं, आपकी हर करवट पर जागती थीं. अपनी उनकी सिर्फ सांस थी और वह भी आप ही के लिए जरूरी थी. जाड़ों में धूप में बैठा कर दो-तीन बार हाथ-पैरों और कमर की मालिश से लेकर हर जरूरत का पूरा ध्यान. सुबह के दलिया से रात के दूध तक, समय-समय पर फल, जूस, बिस्कुट, जाने क्या-क्या, जिसका एक टुकड़ा कभी उनके अपने मुंह में नहीं गया. वह पतली-दुबली काठी दो रोटी और दाल-भात से चलती रही. उनकी चौकसी सीमा पर तैनात जवान की सतर्कता को मात करती थी. और जब कभी, आप कुछ खाने-पीने से मना कर देते थे तो क्या प्यारी डांट लगाती थीं, कि ‘बूड्ढे, खाओ-खाओ, खाओगे नहीं तो टिकोगे कैसे, और तुमको मैं मरने दूंगी क्या!’ उनकी प्यारी डांट सुनकर आपके होठों पर हंसी थिरक उठती थी और आप चुपचाप खा लेते थे. सब कहते थे कि जिज्ञासु जी को तो उनकी पत्नी ने टेक रखा है. बिल्कुल सच कहते थे. वह तो सृष्टि के अटूट नियम के टूटने का खतरा था, नहीं तो देखते कि आठ जुलाई को भी आप कैसे जाते!
आपकी सारी कविता-कहानियों के पीछे, ‘उत्तरायण’ के लिए आपकी भटकनों में, आपकी एकनिष्ठ कुमाऊंनी सेवा के पीछे वे अनिवार्य रूप से हैं, गुरू जी! उनका सहयोग अप्रतिम है. आपकी कुमाऊंनी सेवा का समादर समाज ने किया, आपको प्यार और सम्मान मिले. कुमाऊंनी की सेवा के लिए इस लोक में आपको याद रखा जाएगा. और, उस लोक में अब आपको खूब पता चल रहा होगा कि कौन थीं देवकी और उनका आपके जीवन एवं कर्म में कितना बड़ा योगदान रहा.
………
‘उत्तरायण’ कार्यक्रम को ‘जिज्ञासु’ नहीं मिलते तो जाने वह कैसी गति पाता. ‘जिज्ञासु’ को ‘उत्तरायण’ नहीं मिलता तो वे हिंदी कवि के रूप में जाने कहां खो गये होते. सत्य यही है कि इकतीस वर्ष तक ‘उत्तरायण’ और कालांतर में ‘आंखर’ के माध्यम से अपनी बोली के साहित्य, रंगमंच और सांस्कृतिक जगत के लिए जिज्ञासु जो कर गये, उसके सामने उनकी कविताओं का कोई मोल नहीं है. आठ जुलाई, 2016 को लखनऊ में उनके निधन के साथ कुमाऊंनी बोली का एक अप्रतिम सेवक, स्तम्भ और मंच जाता रहा. वे हमें जीवन चंद्र जोशी की परम्परा से जोड़ते थे जिन्होंने 1939-40 में अल्मोड़ा-नैनीताल से कुमाऊंनी मासिक ‘अचल’ का सम्पादन-प्रकाशन किया था और जो अपनी बोली के लिए आजीवन लड़ते-जूझते रहे.
कुमाऊंनी बोली में काम करने के लिए प्रतिबद्ध लोग और भी हुए, अब भी हैं और आगे भी होंगे लेकिन ‘जिज्ञासु’ इस सूची में चमचमाता सितारा बने रहेंगे.
( इस लेख की तस्वीरें शेखर पाठक और नवीन जोशी के सौजन्य से )
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