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बहुत दिनों से अधर में लटके बोरिस जॉन्सन को जाना ही पड़ा

आखिरकार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन को इस्तीफा देना पड़ा. एक के बाद दूसरे स्कैंडलों और विवादों में फंसे जॉन्सन के पास इस्तीफा देने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था. उन्होंने आखिर-आखिर तक अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश की. लेकिन जब उनकी सरकार से उनके समर्थक मंत्री ही एक-एक करके इस्तीफा देने लगे और जैसा कि विपक्षी लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर ने संसद में कहा कि जॉन्सन सरकार के डूबते जहाज से चूहे कूद-कूदकर भाग रहे हैं, उस समय ही यह साफ़ हो गया था कि जॉन्सन के अड़ियल तेवरों के बावजूद उनके पास इस्तीफे के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है.

लेकिन जॉन्सन कितनी कड़वाहट के साथ गए हैं, इसका अंदाज़ा उनके इस्तीफा देते हुए दिए गए बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों पर भेड़चाल की मानसिकता से काम करने का आरोप लगाते हुए कहा कि उनके समझाने के बावजूद कुछ मंत्रियों के इस्तीफे के बाद वे भेड़ों की तरह उनके पीछे-पीछे चलने लगे. यही नहीं, जॉन्सन ने अब तक इस्तीफा न देने की वजह बताते हुए कहा कि 2019 के आम-चुनावों में कंजर्वेटिव पार्टी को भारी बहुमत मिला था और वे जनादेश के मुताबिक, इस मुश्किल समय में आगे भी काम करना चाहते थे.

हालाँकि जॉन्सन को मजबूरी में इस्तीफ़ा जरूर देना पड़ा लेकिन उनके भाषण में कहीं कोई शर्मिंदगी या पछतावा नहीं था. वैसे भी बोरिस जॉन्सन राजनीतिक नैतिकता, शर्म और शुचिता के लिए नहीं पहचाने जाते हैं. उल्टे अब तक की राजनीति में उनकी सबसे बड़ी ताकत यही मानी जाती रही है कि उन्हें राजनीतिक शुचिता, नैतिकता और शर्म की कोई परवाह नहीं है. उनके राजनीतिक कैरियर में वे हमेशा विवादों और स्कैंडलों के साथ-साथ उलटी-सीधी हरकतों और बयानों के कारण चर्चाओं में रहे हैं. उनकी कथित खूबी यह मानी जाती रही है कि वे इन सभी विवादों और स्कैंडलों के बावजूद राजनीति में टिके और आगे बढ़ते रहे हैं. उन्हें और उनके समर्थकों को यही लग रहा था कि वे इस बार भी इन स्कैंडलों से बच निकलेंगे.

हालाँकि यह महीने भर पहले ही साफ़ हो गया था कि देर-सबेर जॉन्सन को जाना पड़ेगा क्योंकि खुद उनकी कंजर्वेटिव पार्टी में उनके खिलाफ विरोध बढ़ता और तीखा होता जा रहा था. महीने भर पहले कंजर्वेटिव पार्टी में उनके खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव में जानसन जीत गए थे लेकिन 41 फीसदी सांसदों ने उनके खिलाफ वोट किया था. उस समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि इसके पहले भले ही जानसन विवादों और स्कैंडल्स से बच निकलते रहे हों लेकिन अब उनके लिए लम्बा खींच पाना मुश्किल होगा. हाल के उपचुनावों में अपनी परम्परागत और मजबूत सीटों पर भी कंजर्वेटिव पार्टी के उम्मीदवारों की हार से साफ़ हो गया था कि उनके अपने वोटरों की नाराजगी भी बढ़ रही है.

लेकिन इस बार बोरिस जॉन्सन खुद एक के बाद दूसरे विवादों और स्कैंडलों में फंसते जा रहे थे, उसके कारण आमलोगों में नाराजगी और निराशा बढ़ती जा रही थी. खासकर कोरोना महामारी के दौरान जब पूरे देश में लाकडाउन लगा था, पुलिस जबरदस्ती लाकडाउन लागू करा रही थी, उस दौरान जॉन्सन के 10, डाउनिंग स्ट्रीट के घर/आफिस में पार्टियाँ चल रही थीं. इस मामले के सामने आने के बावजूद जॉन्सन बेशर्मी से झूठ बोलते रहे और बहाने बनाते रहे. यहाँ तक कि जांच में आरोपों के साबित होने और जॉन्सन पर जुर्माना लगाए जाने के बावजूद उनके रवैये में कोई खास बदलाव नहीं आया.

लेकिन रही-सही कसर तब पूरी हो गई जब प्रधानमंत्री ने कंजर्वेटिव पार्टी के संसद क्रिस पिंचर को यह जानते हुए भी डेपुटी व्हिप बना दिया कि उनके खिलाफ सेक्सुअल दुर्व्यवहार के गंभीर आरोप हैं. इसका जब खुलासा हुआ तो जॉन्सन ने पहले तो इंकार किया कि उन्हें पिंचर के बारे में यह जानकारी थी. लेकिन जब सच्चाई सामने आ गई कि उन्हें इस बारे में बताया गया था तो जॉन्सन ने यह बहाना बनाना शुरू कर दिया कि उन्हें याद नहीं रहा. यह स्कैंडल जैसे पानी के सिर के ऊपर बहने जैसा था. कंजर्वेटिव पार्टी, उसके सांसदों और यहाँ तक कि उनके करीबी मंत्रियों तक को लगने लगा कि जॉन्सन के साथ वे खुद भी डूब जायेंगे. इसके बाद तो पार्टी में विद्रोह की स्थिति पैदा हो गई.

लेकिन जॉन्सन उसी अड़ियल, बेशर्मी और ढिठाई से इस्तीफा देने से इनकार करते रहे. उन्हें यकीन था कि पहले के विवादों और स्कैंडलों की तरह इस बार भी वे बच निकलेंगे. नतीजा यह कि इस सप्ताह मंगलवार से उनके कैबिनेट के मंत्री एक-एक करके और समूह में इस्तीफा देते रहे लेकिन फिर भी जानसन कल तक संसद में बहुत बेशर्मी से इस्तीफा देने से इनकार करते रहे. आखिर उन्हें इस्तीफा देने के लिए भी नहीं जाना जाता है. अपने कैरियर में उन्हें कई बार पद छोड़ना पड़ा है लेकिन इससे पहले सिर्फ एक बार उन्होंने इस्तीफा दिया था. वह भी तब जब उन्हें यकीन हो गया था कि पिछली प्रधानमंत्री थेरेसा मे जानेवाली हैं और वे विदेश मंत्री पद से इस्तीफा देकर हीरो हो सकते हैं और प्रधानमंत्री पद तक पहुँच सकते हैं.

लेकिन इतिहास दोहराता है. इसबार वे मुश्किल में थे तो उनके करीबी कैबिनेट साथियों- वित्त मंत्री ऋषि सुनक और स्वास्थ्य मंत्री साजिद जावेद ने इस्तीफा देकर उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया. साफ़ है कि वे न सिर्फ डूबते जहाज़ के साथ डूबने के लिए तैयार नहीं थे बल्कि अपने लिए मौका भी बनाना चाहते थे. आखिर राजनीति में कौन किसी का दोस्त होता है. जॉन्सन ने इस कड़वी सच्चाई को जानते हुए भी देर से स्वीकार किया.

इतिहास किसी को माफ़ भी नहीं करता है. खासकर उन्हें जो खुद को इतिहास से ऊपर और इतिहास के नियमों का अपवाद मान लेते हैं. जॉन्सन को इस मुगालते की कीमत चुकानी पड़ी है. लेकिन लगता नहीं कि वे इससे कोई सबक सीखने को तैयार हैं. वे इस्तीफा देने के बावजूद कुर्सी से जब तक संभव हो, चिपके रहने की कोशिश कर रहे हैं. शायद उनके बुझते सितारों में और राजनीतिक दुर्गति लिखी हुई है.

 

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