रामजी राय
(31 जुलाई को प्रेमचंद की 140वीं जयंती के अवसर पर समकालीन जनमत 30-31 जुलाई ‘जश्न-ए-प्रेमचंद’ का आयोजन कर रहा है। इस अवसर पर समकालीन जनमत लेखों, ऑडियो-वीडियो, पोस्टर आदि की शृंखला प्रकाशित कर रहा है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है समकालीन जनमत पत्रिका के प्रधान संपादक रामजी राय का यह लेख: सं।)
काल के हिसाब से देखिए तो प्रेमचंद हमारे लिए एक संदर्भ ही लगेंगे । यह यूं कि लाख कहिए हमारा काल वही नहीं है जो प्रेमचंद का काल था, इसलिए वे हमारे लिए सन्दर्भ ही हो सकते हैं, हमारे बोध का हिस्सा, हमारे प्रेरणास्रोत। इसे दूसरे पहलू से देखिए तो आज का साम्राज्यवाद भी वही नहीं है जो प्रेमचंद के समय में था। तब साम्राज्यवाद बिना दूसरी भूमि पर गए उसे उपनिवेश नहीं बना सकता था लेकिन आज वह बिना दूसरी भूमि पर गए उसे उपनिवेश बना सकता है | इसलिए आज साम्राज्यवाद का विरोध करने, उसके तौर – तरीके निकालने के लिए खुद का दिमाग लड़ाना पड़ेगा। लेकिन मैं कहना यह चाहता हूँ कि प्रेमचंद हमारे लिए महज सन्दर्भ – सूत्र नहीं बल्कि एक जीवित प्रसंग हैं।
प्रश्न स्वाभाविक है कि प्रेमचंद अगर जीवित प्रसंग हैं तो किन अर्थों में?
मेरे लेखे किसी भी रचनाकार, चिन्तक, किसी भी युग द्रष्टा की महानता इस बात में होती है कि वह अपने वर्तमान में भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है। प्रेमचंद उन विरले रचनाकारों में से हैं जो वर्तमान में भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस स्वतन्त्रता के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई चल रही थी, प्रेमचंद उस स्वतन्त्रता के भीतर मौजूद अंतर्विरोध को उसके जन विरोधी, क्षयकारी पहलू को भी देख रहे थे । बाद के रचनाकारों में से अधिकांश ने जाने-अनजाने उसकी अनदेखी की और सत्ता से अपना सामंजस्य बैठाने में लग गए । प्रेमचंद अपने जिस अधूरे उपन्यास में पूरी तौर पर वर्तमान के भीतर भविष्य का प्रतिनिधित्व करते दिखाई पड़ते हैं, उस उपन्यास का नाम है ‘मंगलसूत्र’ । इस अधूरे उपन्यास में प्रेमचंद अपनी बदलती रचना प्रक्रिया के एक नए दौर का संकेत देते हैं | इस नई रचना प्रक्रिया का एक प्रमुख तत्व है – मिलने जा रही स्वतन्त्रता के भीतर निहित अंतर्विरोध और इस आधार पर बन रहे समाज की वास्तविकता । कभी – कभी यह सोचकर बड़ी तकलीफ होती है कि अधूरा ही सही लेकिन पूरी तौर पर मंगल का यह सूत्र बाद के हमारे रचनाकारों से आखिर छूटा क्यों कर !
हमें उस सन्दर्भ को जानने और उसका आलोचनात्मक पुनर्विवेचन करने की जरूरत है ताकि हम उस टूटी कड़ी को जोड़ सकें और प्रेमचंद के उस पहलू को समझ सकें, जिसके नाते वे आज भी हमारे लिए जीवित प्रसंग हैं ।
तब स्वतन्त्रता प्राप्ति के दो रास्ते थे । अपनी आज़ादी को मुकम्मल बनाने के लिए आज भी यही दो रास्ते हैं । इन दो रास्तों में जबरदस्त टकराव था और आज भी है । एक रास्ता था उन दिनों के लिहाज से प्रगतिशील और महान देशभक्ति की भावना से प्रेरित दादाभाई नौरोजी और जस्टिस रानाडे जैसे शुरुआती राष्ट्रवादियों के मतों पर आधारित गाँधी की रहनुमाई में कांग्रेस का रास्ता । इस रास्ते की दो बुनियादी कमजोरियां थीं । प्रथमतः वे मानते थे कि भारत की यह अमानवीय लूट महान ब्रिटिश साम्राज्य के असली चरित्र से मेल नहीं खाती और द्वितीयतः उन्हें इस बात की स्पष्ट जानकारी न थी कि यह विध्वंस उन्हें कहाँ ले जाएगा और इस लूट के देशी आधार हैं भी या नहीं । दूसरा रास्ता था मार्क्स के मतों पर आधारित कम्युनिस्टों का रास्ता, जिसके लिए भारत की औपनिवेशिक लूट कोई गैर ब्रिटिश चरित्र नहीं था । यह तो ब्रिटिश राज या सामान्य रूप से पूंजीवादी उपनिवेशवाद के शासन में होने वाली आम परिघटना थी और है । पहला रास्ता गोरे प्रभुओं के अंतःकरण को जगाने के लिए अपील पर अपील जारी करता था। यहां तक कि बाद को जब वह जनांदोलनों में भी गया तो ब्रिटिश सुषुप्त आत्मा को जगाने की अपील करने के रूप में ही। वहीं दूसरा रास्ता जनविद्रोह संगठित करते हुए औपनिवेशिक जुए को उतार फेंकने का रास्ता था । वह कभी गांधीवादी कार्यक्रमों में भाग भी लेता था तो जन विद्रोह संगठित करने के उद्देश्य से ही । इन दो रास्तों के बीच ही स्वतंत्रता का चरित्र और उसके बुनियादी अंतर्विरोध निर्मित हो रहे थे । प्रेमचंद मूलतः इस दूसरी धारा के रचनाकार हैं ।
प्रेमचंद को समझने के लिए ‘आहुति’ एक बीज कहानी हो सकती है । अपनी बात को आगे बढ़ाने के लिए इसी कहानी को आधार बना रहा हूं।
प्रेमचंद इकहरे अर्थों वाले ‘साम्राज्यवाद विरोधी’ नहीं हैं । यानी यह कि पहले अंग्रेज यहां से चले जाएं, बाद में जो होगा वह बाद में देखा जाएगा ।
प्रेमचंद इस लड़ाई में भविष्य के राष्ट्र निर्माण की लड़ाई को भी शामिल पाते हैं । इसलिए वे साम्राज्यवाद के उन देशी आधारों की भी तलाश करते हैं, जिनसे संबंध बनाकर ही विदेशी यहां राज कर रहे थे । प्रेमचंद की रचनाएं किसी सपाट या ऋजुकाल में लिखी हुई रचनाएं नहीं हैं बल्कि उनका ऋजुकाल उस समय की सारी लहरों, सारी जटिलताओं को समेटे हुए एक निश्चित टेक पर सधा हुआ है । इस टेक को न पकड़ पाने के नाते बहुतों को प्रेमचंद की टेकनीक सपाट या अब के लिए अनुपयोगी सरल टेकनीक लगती है । प्रेमचंद पहले रचनाकार हैं जो उपनिवेशवाद के देशी आधारों और उसके खिलाफ लड़ने वाली उन मूल सामाजिक तत्वों की खोज करते हैं जिनके आंतरिक गुणों का विकास ही भावी जनतांत्रिक भारत के निर्माण का बुनियादी आधार बनेगा ।
प्रेमचंद की रचना प्रक्रिया में निहित इस सचेत तलाश के तत्व को पहचानते हुए ही आप यह समझ सकते हैं कि प्रेमचंद अपनी रचनाओं का आधार किसान, उसमें भी गरीब, भूमिहीन, दलित, किसान स्त्री-पुरुषों को ही क्यों बनाते हैं। उन्होंने किसानों को अपनी रचनाओं का इसलिए आधार नहीं बनाया था कि वे गांव के थे और किसानों को ही सबसे अच्छी तरह जानते थे । इस पहलू पर ध्यान देना इसलिए भी जरूरी है कि आजकल यथार्थ के नाम पर सचेतनता के विरोधी, स्वतंत्रता के शिकार बहुतेरे लोग इसे एक सिद्धांत की तरह प्रचारित कर रहे हैं कि आप जिनके बीच रहते हैं, जिनको आप अच्छी तरह जानते हैं, उन्हीं के बारे में ही लिखिए। प्रसंगवश कह दूं कि प्रेमचंद को गरीब, दलित, किसानों को सहज ही जानना आसान ना था क्योंकि वे उस वर्ग, समुदाय के अंग न थे । उन्होंने उनका सचेत चुनाव किया और उन्हें प्रयत्न से जाना । प्रेमचंद का यह चुनाव सचेत और सायास था और यह चुनाव इस कहानी ‘आहुति’ के माध्यम से सबसे सार्थक ढंग से व्यक्त होता है।
कहानी का वह पात्र, जिसके माध्यम से प्रेमचंद का यह सचेत चुनाव व्यक्त होता है उसका नाम है विश्वंभर । विश्वंभर अपनी छात्र दोस्त रुक्मिणी को न तो शराब की दुकानों की पिकेटिंग में मिलता है, न विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करते समय । बल्कि वह उसे देहात जाने के लिए तैयार रेलवे स्टेशन पर मिलता है। अपनी परीक्षा, अपने कैरियर सबकी आहुति देकर। दूसरी जरूरी आहुति देने को तैयार। पिकेटिंग विश्वंभर भी कर सकता था लेकिन वह वहां नहीं गया ।
इसका अर्थ यह नहीं कि प्रेमचंद इन सब कामों की अहमियत नहीं समझते थे या उन्हें अहमियत नहीं देते थे । प्रेमचंद उन सभी सकारात्मक कामों में साथ थे जो उस समय हो रहे थे । स्वयं उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी थी। लेकिन प्रेमचंद की सबसे बड़ी चिंता थी किसान जागरण, शोषण से उसकी मुक्ति की ।
प्रेमचंद ने अपने समय के मूल्यांकन का मानदंड किसान को बनाया था । स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष को भी वे इसी मानदंड पर परखते थे । महज अंग्रेज विरोध, गुलामी विरोध से नहीं । गुलामी उनके यहां अंग्रेज प्रभुओं तक सीमित नहीं थी । उसके देशी आधारों से मुक्ति भी उसमें शामिल थी । यानी यह सामाजिक शक्ति न केवल औपनिवेशिक शासन से मुक्ति दिलाएगी, बल्कि सदियों के पुराने भारत को बदलकर एक नया भारत रचेगी । इसलिए जब मैं प्रेमचंद को एक जीवित प्रसंग कह रहा हूं तो इसलिए भी कि आज भी भारत को नवउपनिवेशिक खतरे और पिछड़ेपन से मुक्त कर एक मुकम्मल आधुनिक भारत बनाने के स्रोत किसान ही हैं – दलित, कमजोर, गरीब किसान । इसलिए नहीं कि किसान संख्या में ज्यादा हैं बल्कि इसलिए कि उनको आधुनिक बनाए बगैर भारत को आधुनिक नहीं बनाया जा सकता । और आधुनिक बनने की सबसे ज्यादा सकर्मक सामर्थ्य और ललक भी किसान में ही है । यह प्रेमचंद की आदर्श कल्पना नहीं बल्कि एक सच्चाई है जिसे प्रेमचंद ने तब सबसे गहराई से देखा, समझा था । आप ध्यान से देखिए तो प्रेमचंद किसान से मजदूर बनते मजदूरों को उनकी इस पूरी संपूर्णता में देखते और चित्रित करते हैं। उसी के एक नए गुणात्मक रूप से भिन्न विकास की तरह ।
यह साम्राज्यवाद के नकारात्मक निषेध की जगह एक सकारात्मक निषेध है। सकारात्मक निषेध, ताकि अगली समाज रचना एक आजाद और आधुनिक समाज रचना हो । प्रेमचंद यह नहीं जानते थे कि मार्क्सवाद का इस बाबत क्या नजरिया है । पर सकारात्मक निषेध के अपने किसान आधार के प्रति उनकी सजगता मार्क्सवाद के इस निष्कर्ष के समतुल्य थी कि राष्ट्रवाद की मूल शक्ति किसान हैं और किसान समस्या का समाधान आधुनिक आजाद राष्ट्र के निर्माण का आधार तत्व है ।
इस सिलसिले में प्रेमचंद इतने सजग और चौकन्ने थे कि जब चीन के हुनान किसान आंदोलन की रिपोर्ट आई तो उसकी बहुतों को भनक तक न लगी, लेकिन प्रेमचंद ने उसी समय एक टिप्पणी लिखी कि ‘हमारे पड़ोस के मुल्क में वहां के नेताओं द्वारा किसानों की शक्ति पहचान ली गई है लेकिन हमारे अपने देश में नेताओं ने किसान की इस शक्ति को अभी नहीं पहचाना |’ प्रकारांतर से कहिए तो यह तत्कालीन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर भी टिप्पणी थी।
उदाहरण के लिए मैं औरत – पुरुष संबंध के प्रश्न को लेता हूं । कहा जाता है कि बांग्ला साहित्य और उसमें भी खासतौर से शरतचंद्र का साहित्य महिला विषयक साहित्य में सर्वोत्तम है । हमारे हिंदी के आलोचक मानते हैं कि प्रेमचंद को महिला मनोभावों और मनोविज्ञान की समझ कम थी । वे प्रेमचंद की इस सिलसिले में प्रशंसा करते भी हैं तो इस नाते कि उन्होंने कामकाजी, मेहनतकश महिलाओं को अपनी रचनाओं का पात्र बनाया । प्रेमचंद के प्रति आलोचकों की यह दया–दृष्टि दरअसल उनकी अपनी दयनीयता की द्योतक है । बेशक, शरतचंद्र के उपन्यास महत्वपूर्ण हैं और महिला प्रश्नों, उनकी मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चित्रण, उनके अनदेखे अंधेरे कोने – अतरों में उतरने की उनकी दृष्टि सराहनीय है लेकिन एक जगह वे उलझते हैं । शरतचंद्र का एक उपन्यास है ‘शेष प्रश्न’ उसे आप देखिए । आपको वे प्रश्न समझ में आएंगे जो शरतचंद्र के लिए भी शेष रह गए । वहां से खड़े होकर आप प्रेमचंद के महिला पात्रों को देखिए तो लगेगा कि प्रेमचंद का लक्ष्य उन ‘शेष प्रश्नों’ के उत्तर की तलाश है । उस उलझन को सुलझाने के मूल्यों की तलाश, जिसे फिराक के शब्दों में कहें तो ‘जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं ।
‘गोदान’ उपन्यास में एक प्रसंग है मेहता और मालती का । मैं उस प्रसंग से सिर्फ एक उदाहरण लेना चाहूंगा । मेहता, मालती से एक प्रश्न करते हैं – ‘अगर मैं पतित हो जाऊं तो तुम क्या करोगी ?’ मालती – ‘मैं विष खाकर सो रहूं शायद ।’ मेहता – ‘लेकिन मैं दूसरा जवाब दूंगा । मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूंगा । प्रेम मेरे लिए सीधी – सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है जो अपने शिकार पर किसी की आंख भी पड़ने नहीं देता । आध्यात्मिक, त्यागमय निस्वार्थ प्रेम मेरे लिए सब निरर्थक शब्द हैं ।’ शब्दों पर आप जरा गौर करते चलिए । जवाब में मालती कहती है – ‘अगर प्रेम खूंखार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूंगी । मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था । हिंसा संदेह का ही परिणाम है ।’ इस सिलसिले का एक और संवाद। मेहता, मालती को देवी कहते हुए पैर पकड़ लेते हैं । मालती – ‘वरदान मिलने पर शायद देवी को मंदिर से बाहर निकाल फेंको ।’ मेहता – ‘नहीं मेरी अलग सत्ता न रहेगी । उपासक – उपास्य में लय हो जाएगा |’ मालती ने गंभीर होकर कहा, और आप देखिए तो मालती का यह नजरिया बेहद आधुनिक, बेहद समकालीन लगता है जिसको कहने वाले आज भी कम ही मिलते हैं – ‘नहीं मेहता, मैंने महीनों से इस प्रश्न पर विचार किया है और अंत में मैंने तय किया है कि स्त्री-पुरुष बनकर रहने से मित्र बनकर रहना कहीं ज्यादा सुखकर है ।’
यह प्रेम का, औरत-पुरुष संबंध का नया नजरिया है – प्रेम का जनतांत्रिक नजरिया, स्त्री-पुरुष संबंध का नए जनतांत्रिक आधार पर विकास, और इस विकास के आधारभूत गुण किसान संबंधों के भीतर से ही विकसित हो रहे हैं, जिन्हें निरे जड़त्व का शिकार माना जाता है। यह महज मुख का, वचन का, क्रियाहीन संवेदना का जनतंत्र नहीं है, जो आप ‘आहुति’ कहानी के आनंद और रुक्मिणी में देखते हैं । यह लड़खड़ाते कदमों से देवदास हो जाने का भी जनतंत्र नहीं है । यह कर्म का जनतंत्र है जो हर व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता को मानता और महत्व देता है। जिसका चित्रण प्रेमचंद होरी-धनिया के संबंध के रूप में करते हैं और कई जगह, कई रूपों में करते हैं ।
आप जरा देखिए ‘रंगभूमि’ उपन्यास में जब घायल सूरदास की सहायता के लिए एक रात सुभागी सूरदास के साथ अकेले झोपड़े में रूकती है । सूरदास कहता है एक स्त्री का एक पुरुष के साथ अकेले में रहना, वह भी रात में – समाज के लोगों को कैसा लगेगा ? इस पर सुभागी कहती है ‘इसकी मुझे चिंता नहीं । मुझे ऐसा पति अच्छा नहीं लगता जो औरत के चरित्र के पीछे डंडा लेकर पड़ा रहे ।’ यह है प्रेमचंद की नए संबंधों की संस्कृति की संघर्षधर्मी चेतना, जो किसानों के भीतर से ही विकसित हो रही है ।
औरत-पुरुष के बीच मित्रता हो सकती है, यहां तक कि साहचर्य का नया आधार बन सकती है, इसकी कल्पना ही नहीं करते प्रेमचंद बल्कि उसे विकसित होते देख भी रहे हैं । औरत-पुरुष को कहीं एक साथ देखा नहीं कि नए जमाने के लोग भी यही सोचने लगते हैं कि ‘मामला गड़बड़ है ।’ हमारे भारतीय समाज में आज भी यही सोच हावी है कि औरत-पुरुष के बीच में और चाहे जो संबंध हो सकते हैं (वह पत्नी हो सकती है, प्रेमिका हो सकती है, बेटी, मां, बहन हो सकती है) लेकिन वह मित्र भी हो सकती है यह स्वीकृति समाज में नहीं है । मैं तो कहूंगा यह स्वीकृति बहुतेरे विकसित पूंजीवादी पश्चिमी समाजों में भी नहीं है। स्वतंत्र मित्रता प्रेमचंद के यहां स्वच्छंद यौनाचार का पर्याय नहीं है । प्रेमचंद अपनी रचनाओं में अन्य ढेर सारे पात्रों के माध्यम से औरत-पुरुष के बीच इस मित्रता के संबंध की संभावना के आधुनिक नजरिए का इजहार करते हैं । यह संभव है और यह होना चाहिए । इस सिलसिले में ‘शेष प्रश्नों’ का यही आधुनिक समाधान है । मैं कहना यह चाहता हूं कि प्रेमचंद किसानों को केवल संख्या बाहुबल आदि के रूप में नहीं, नए समाज की आधार शक्ति के रूप में देखते हैं, वह भी खासकर गरीब किसानों को ।
‘आहूति’ कहानी का विश्वंभर जब अपने कार्य क्षेत्र के रूप में किसानों का चुनाव करता है तो उसके इस चुनाव में स्वतंत्रता आंदोलन की उन दो धाराओं की समस्त टकराहटों का सार झंकृत होता है – कैसा होगा स्वराज्य ? कैसी होगी उसकी रूपरचना ? कौन है इसकी आधार शक्ति ? यह सवाल गांधी जी से जवाहरलाल भी पूछते हैं । ‘आहुति’ कहानी में रुक्मिणी कहती है ‘मिस्टर जान की जगह सेठ गोविंदी आ जाएंगे तो वह स्वराज्य मुझे नहीं भाएगा । यह स्वराज का असली मतलब नहीं होगा ।’ यही भगत सिंह कहते हैं और यही प्रेमचंद भी । तब इस प्रश्न का मतलब क्या है ? मतलब यह कि मिस्टर जान और सेठ गोविंदी, ज्ञान शंकर, राव साहब आदि का भी भारतीय जमीन से रिश्ता प्रेमचंद देख रहे थे । वह देख रहे थे कि इस गठजोड़ के खिलाफ लड़ाई ही नई स्वतंत्रता को सही मायने में स्वतंत्रता बनाएगी | यह केवल प्रेमचंद ही नहीं, प्रसाद और निराला भी समझ रहे थे । क्रमशः यह चेतना उस युग की चेतना-धारा बनती जा रही थी।
प्रेमचंद की परवर्ती रचना प्रक्रिया के भीतर साम्राज्यवाद के देशी आधार के खिलाफ निशाना साधने की चेतना और साफ रूप में विकसित होती दिखती है । ‘मंगलसूत्र’ की रचना प्रक्रिया इसका बेहतर उदाहरण है। लेकिन यहीं इस रचना प्रक्रिया में एक त्रासदी, एक पीड़ित विवेक चेतना भी समाई हुई दिखती है । जो और जिस तरह का स्वतंत्रता आंदोलन तब चल रहा था, उससे जो नया भारत बनेगा तो उसमें मिस्टर जान की जगह सेठ गोविंदी और जमींदार ज्ञानशंकर आएंगे । यही पीड़ा दृष्टि मंगलसूत्र के प्रेमचंद में दिखती है । मंगलसूत्र का आधार यह संभावित त्रासदी है । और आज आप नहीं कह सकते कि ऐसा नहीं हुआ । यही हुआ । और आप देखिए कि जिस पूंजी को लेकर गोविंदी आए उसका मुनाफा एक ओर मिस्टर जान (जो गए) और दूसरी ओर जमींदार ‘ज्ञानशंकर’ से रिश्ते बनाए रखने पर टिका हुआ है । और जब गोविंदी इस चरित्र के साथ सत्ता पर काबिज हों तो मिस्टर जान प्रत्यक्ष रूप से भारत से जाकर भी, अपरोक्ष रूप से भारत में मौजूद रहेंगे ही । तब फिर भारत भी एक पिछड़ा भारत रहेगा । वह एक आधुनिक भारत नहीं बन पाएगा यह अनिवार्य है ।
इस रिश्ते के आधार पर निर्मित हो रहे भावी समाज की झलक प्रेमचंद के मंगलसूत्र में मिलती है। मुझे बार-बार लगता है कि इसके लिए प्रेमचंद अपने युग को जिम्मेदार मानते हैं और इसी नाते खुद को भी । वहां देवकुमार के रूप में जैसे खुद की एक गहरी आत्मालोचना दिखाई पड़ती है।
मंगल-सूत्र के प्रतिनिधि नायक लेखक देवकुमार हैं। उनके दो पुत्र हैं। एक निहायत खुदगर्ज, पूंजीपरस्त -बाप तक को कानूनी तौर पर पागल करार दिलवाने में उसे कोई नैतिक संकट नहीं । और उसके साथ है एक पूरा तंत्र । दूसरा बेटा साहसी और सच के लिए कुछ भी करने का हौसला रखने वाला है । इसमें पिसता नायक लेखक देवकुमार जो इस पीड़ा को भी भोगता है कि हैं तो दोनों ही उसी की संतान देवकुमार जैसे एक युग जैसे एक इतिहास… इतिहास की अपनी एक दिशा भी है । देवकुमार जैसे निर्णय करते हुए यह कहता है, जरूरत पड़ी तो अन्याय के खिलाफ वह हथियार बांधकर भी संघर्ष में उतरेगा । स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी का रिश्ता देवकुमार से टूट गया । स्वतंत्रता की जो भुसभुसी चांदनी फैली उसने बाद के लेखकों को सम्मोहित कर लिया । वे उससे रिश्ता बिठाने की जुगाड़ में लग गए | और आज भी हालत वही है । हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो यही कहना होगा ‘शिक्षितों को शिक्षित करो ।’
और सब छोड़िए, अगर आप अपने बौद्धिक जगत का हाल-चाल भी लीजिए तो लगेगा हमारा देश अब भी एक उपनिवेश है । मुक्तिबोध ने इस पर लिखा, ‘मैं अपने देश के बुद्धिजीवियों का जितना ही अधिक विश्लेषण करता हूं उतना ही मुझे लगता है कि हमारा देश अभी भी एक उपनिवेश है । जिन एक-एक स्थापनाओं-सिद्धांतों के लिए पश्चिम में न जाने कितनी जद्दोजहद हुई, उसको हमारे बुद्धिजीवी यूं ही निगल लेते हैं । उसे वे पचाते भी नहीं, उनके बुद्धि का वह प्रकाश नहीं बनता ।’ इस बात पर आप जरा गौर करिए । यह महज बने-बनाए माल का उपभोक्ता समाज है, जिसमें निर्माण के साहस का अभाव है । आज जो साम्राज्यवाद का बाजार गर्म है, तो ऐसे ही नहीं ।
यदि सच्ची घृणा का जीवन में कोई स्थान है तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि उस घृणा से एक सच्चे संघर्षधर्मी मानववाद का जन्म भी होता है, जो अपने समय को उसकी संस्कृति को, समाज को और समूचे मनुष्य को बदलता है । प्रेमचंद भारतीय समाज की सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ सच्ची घृणा पर आधारित एक नए संघर्षधर्मी मानववाद को जन्म देते हैं । मैं इस संदर्भ में फिर एक बार गोदान से ही एक प्रसंग उठाना चाहूंगा ।
गोदान में एक प्रसंग है सिलिया और मातादीन का । सिलिया हरिजन की लड़की है और मातादीन एक सूदखोर ब्राह्मण दातादीन का लड़का है । दोनों के बीच प्रेम है । लेकिन समाज और बाप के दबाव में मातादीन सिलिया को छोड़ने या फिर अवैध रूप से रखने की मानसिकता में है। प्रेमचंद दलित समाज में विकसित हो रही आत्मसम्मान की संघर्ष-भावना को आधार बनाते हैं और नए सामाजिक, वैयक्तिक मूल्यों को सामने लाते हैं । हरिजन समाज सिलिया और मातादीन के संबंधों को एक वैध रूप देने के लिए दबाव डालता है और उसके लिए मातादीन के मुंह में हड्डी डाल उसे धर्म भ्रष्ट करता है । अब आप तय करें कि दलित समुदाय ने अपनी इस कार्यवाही से मातादीन को धर्म भ्रष्ट किया था या एक जन विरोधी भ्रष्ट धर्म मूल्य को तोड़ एक नए मानव मूल्य की आधारशिला रखी। प्रेमचंद तो उसे एक नए मानव मूल्य की आधारशिला ही मानते हैं । उस सड़ी-गली सामाजिक-धार्मिक परंपराओं के प्रति, सिलिया-मातादीन के बेटे के मुंह से झर रही घृणा को जरा देखिए । यह पूछने पर कि दातादीन कौन है, नन्हा रामू बताता है “हमारा छाला है।” प्रेमचंद लिखते हैं, ‘न जाने कौन दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था ।’
दूसरी तरफ पुरानी सामाजिक नैतिकता का मारा, धर्मभीरु होरी सिलिया को अपने घर में रहने देने के लिए तैयार हो जाता है । बेशक, धनिया के फटकारने पर । जिस दलित समुदाय की लड़कियों, औरतों को ऊंची जाति के लोग अब भी रखैल और पतुरिया जैसी चरित्र वाली ही समझते हैं, उसमें भावी समाज के प्रेम मूल्यों का आधार दिखता है प्रेमचंद को । कोई स्त्री सिलिया का दुख देख सहानुभूति में उसे सलाह देती है कि जब मातादीन ने उसे छोड़ ही रखा है तो वह किसी दूसरे के साथ ब्याह क्यों नहीं कर लेती ? इस पर सिलिया कहती है “अपना अपना धरम अपने साथ है। वह अपना धरम छोड़ रहा है तो मैं भी अपना धरम तोड़ूं ? मैं हरजाई न बनूंगी । जिसका हाथ पकड़ा उसी के साथ रहूंगी । वह फिर दौड़ा आएगा ।” यहां शब्द ‘धरम’ है लेकिन इसका मरम बदल कर नया हो गया है । यह रिलीजन नहीं गुण-धर्म है, प्रेम-धर्म है । जब तक प्रेम ही उसके प्रति नहीं खत्म होता वह उसे छोड़े कैसे, और उसी का विश्वास है जो कहलवाता है कि ‘वह फिर दौड़ा आएगा |’ होता भी यही है, हड्डी मुंह में पड़ने से धर्मभ्रष्ट हुए मातादीन शुद्धि के लिए तमाम तीर्थ और भोज-भात करने के बाद भी जब समाज स्वीकृत न हुए तो वे दौड़े, और सिलिया की ओर ही, एक नए मूल्य के अहसास और ओज से भरे ।
मातादीन को आया देख सिलिया कहती है ‘साथ रहोगे मेरे तो लोग क्या कहेंगे ?’ मातादीन – “जो भले आदमी हैं वह कहेंगे, यही इसका धरम था । जो बुरे हैं उनकी मैं परवाह नहीं करता।” सिलिया – ‘तो ब्राह्मण कैसे रहोगे ?’ मातादीन – ‘मैं ब्राह्मण नहीं चमार ही रहना चाहता हूँ । जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मण है । जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार । ‘इसे कहते हैं उल्टी चपत मारना । यहाँ भी शब्द वही पुराना ‘धरम’ है लेकिन नये मरम से दमकता हुआ । इसमें इतनी ताकत है कि वह समाज से भी टकराता है – व्यक्तिगत रूप से नहीं, एक नए समाज के रचना-मूल्यों के तहत । मातादीन कहता है “समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है, लेकिन मनुष्य धरम पालने से ईश्वर प्रसन्न होता है जो करना है अब परतच्छ करूँगा ।” ‘समाज-धरम’ और ‘मनुष्य-धरम’ की इस टकराहट से एक नए समाज, उसके नए सामाजिक मूल्यों का जन्म हो रहा है । इस संघर्ष में आस्था का नाम है प्रेमचंद । दलितों के बीच मौजूद और विकसित हो रहे मूल्य ही नए समाज के मूल्य और संस्कृति बनेंगे । जो लोग महज सरनेम हटाकर, अंतर्जातीय विवाह रचाकर ही जात-पात तोड़ने और औरत-पुरुष संबंध बदलने की बुनियाद मानते हैं, उन्हें प्रेमचंद से जरूर सीखना चाहिए । नए मूल्यों, उसके लिए संघर्ष से रहित इन चीजों का प्रेमचंद के लिए कोई मूल्य नहीं है । प्रेमचंद न केवल औपनिवेशिक शासन के, बल्कि उसके साथ उसके देशी आधारों के, गुलामी के राज और पुराने समाज दोनों के रिश्ते को समझने वाले, दोनों के खिलाफ लड़ते हुए राष्ट्र निर्माण के उस रास्ते के पहले लेखक हैं, जिसके जरिए ही एक सच्चे मायने में स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है ।
आज जब हम एक बार फिर नवऔपनिवेशिक खतरों से जूझ रहे हैं, ठीक उसी समय हमें पुराने समाज की ओर ढकेलने वाली सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के भी दर्शन हो रहे हैं । बीजेपी को स्वदेशी-स्वदेशी बकने दीजिए । आप गौर से देखिए तो इन दोनों के बीच आप को एक साफ रिश्ता, विदेशी पूंजी और उसके देशी आधारों का रिश्ता नजर आएगा । आज इस नए साम्राज्यवादी खतरे के खिलाफ लड़ाई, उसके देशी आधार के खिलाफ लड़ाई लड़कर ही जीती जा सकती है, जिसका अर्थ है एक सच्चे जनतांत्रिक, आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष भारत का निर्माण, जिसकी ताकत आज भी वही दलित, कमजोर, गरीब किसान, मजदूर हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा जड़ता का शिकार माना जाता है और जिनकी राजनीतिक, साहित्यिक, बौद्धिक जगत में उपेक्षा करने का चलन कल से ज्यादा जोरों पर है । इसलिए यह लड़ाई हर जगह चलानी होगी – चाहे वह आर्थिक दुनिया हो, राजनीतिक या कि बौद्धिक दुनिया हो । अगर प्रेमचंद को इन जीवित संदर्भों में नहीं पहचाना और याद किया गया तो प्रेमचंद की पूजा-प्रार्थना कर खाने-पीने वालों की कमी नहीं है ।
(सांस्कृतिक संकुल ‘सांस’ से प्रकाशित रामजी राय की किताब ‘ज़माने का चेहरा’ से साभार )
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामजी राय राजनीति और साहित्य में समान गति से सक्रिय हैं. वे सी पी आई –एम एल लिबरेशन के पोलित ब्यूरो के सदस्य भी हैं. फ़िराक गोरखपुरी पर ‘सांस’ से प्रकाशित किताब ‘यादगारे–फ़िराक’ उनका एक चर्चित संस्मरण है .