समकालीन जनमत
शख्सियत

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की रचनाधर्मिता और आधार भूमि 

(31 जुलाई को प्रेमचंद की 140वीं जयंती के अवसर पर समकालीन जनमत 30-31 जुलाई ‘जश्न-ए-प्रेमचंद’ का आयोजन कर रहा है। इस अवसर पर समकालीन जनमत लेखों, ऑडियो-वीडियो, पोस्टर आदि की शृंखला प्रकाशित कर रहा है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है गिरिजेश कुमार यादव का यह लेख: सं।)


गिरिजेश कुमार यादव


हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में नवजागरण की चेतना का प्रणयन भारतेंदु और उनके युग के रचनाकारों द्वारा किया गया था जिसे आगे बढ़ाने का दायित्व परवर्ती रचनाकारों ने बखूबी निभाया। भारतेंदु युगीन नवजागरण की चेतना की अगली कड़ी में द्विवेदीयुगीन रचनाकारों ने भाषा, कथ्य, शिल्प तथा रचनात्मक दृष्टिकोण को परिष्कृत एवं परिमार्जित करने का कार्य किया। इस क्रम में काव्य के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त एवं गद्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। प्रेमचंद ने अपनी लेखकीय सामर्थ्य से हिंदी गद्य की दशा एवं दिशा में सुधार करते हुए उसमें अभूतपूर्व परिवर्तन किया। उन्होंने आने वाले लेखकों के लिए एक मजबूत आधारभूमि का निर्माण करते हुए आगे बढ़ने का एक सशक्त मार्ग प्रदान किया, जिस पर चलकर परवर्ती रचनाकारों ने अपनी लेखकीय क्षमता की सार्थकता सिद्ध की। प्रेमचंद ने गद्य की दोनों प्रमुख विधाओं- उपन्यास और कहानी को जिस उच्चता पर स्थापित किया उस तक पहुँचने के लिए लेखकों का प्रयत्न और संघर्ष जारी है। ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद के पश्चात अच्छे उपन्यास या अच्छी कहानियाँ लिखी ही नहीं गयी, किंतु उपन्यास और कहानी के शैशवकाल में ‘गोदान’ और ‘कफ़न’ जैसी सशक्त रचना के कारण प्रेमचंद का महत्व अधिक बढ़ जाता है। परवर्ती रचनाकारों के लिए रचना की एक ठोस आधारभूमि का निर्माण प्रेमचंद कर चुके थे।

उपन्यास को बीसवीं शताब्दी के हिंदी गद्य की सर्वाधिक सशक्त और लोकप्रिय विधा कहा जा सकता है। साहित्य के इस माध्यम से जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति के उजागर होने से इसमें समाज की सच्ची तस्वीर देखने को मिलती है। सामाजिक जीवन के विविध स्पंदनों, अनुभूतियों एवं विचारों का, समस्याओं एवं चिंताओं का इस माध्यम द्वारा हू-ब-हू साक्षात्कार कर सकते हैं। गद्य की इस महाकाव्यात्मक विधा में हम भारतीय जन-जीवन के विविध रंगों एवं पक्षों को प्रतिबिंबित होते देख सकते हैं। साथ ही समाज की विविध समस्याओं का व्यापक फलक पर उपन्यास विधा में ही चित्रण किया जा सकता है । इन समस्याओं का समाधान लेखक कभी यथार्थवादी दृष्टि से करता है तो कभी आदर्शवादी दृष्टि से, और ये सभी तत्व प्रेमचंद के उपन्यासों में विशेष रूप से देखने को मिलते हैं।

मुंशी प्रेमचंद का आगमन हिंदी उपन्यास को सही और नई दिशा प्रदान करता है। उन्होंने हिंदी उपन्यास को तिलिस्म, ऐयारी एवं जासूसी दुनिया से निकालकर यथार्थ की भावभूमि पर स्थापित किया। उसे जीवन के संदर्भों से जोड़कर उसके अभियान को सार्थक बनाया। वस्तुतः ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ तक की अपनी औपन्यासिक यात्रा द्वारा प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास  को वयस्कता प्रदान की जिसमें उनकी मौलिक प्रतिभा का ही योगदान माना जा सकता है। उनके सामने एक तरफ देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी इत्यादि के जासूसी एवं रहस्यपरक उपन्यास थे तो दूसरी तरफ किशोरीलाल गोस्वामी एवं लाला श्रीनिवासन दास जैसे आदर्शवादी एवं सुधारवादी उपन्यासकार थे।

प्रेमचंद ने कुल पंद्रह उपन्यासों की रचना की। उनका पहला उपन्यास ‘असरारे मआविद’ उर्फ़ ‘देवस्थान रहस्य’ है। इसके बाद उन्होंने ‘प्रेमा’ ( उर्दू में ‘हम खुर्मा व हम सबाब’ ), ‘किशना’ (अनुपलब्ध), ‘रूठी रानी’, ‘वरदान’,’ सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण ) का प्रणयन किया। प्रेमचंद के जीवनीकार और उनके छोटे पुत्र अमृतराय ने एक स्थान पर ‘श्यामा’ को उनका पहला उपन्यास बताया है। इसी प्रकार जगेश्वरनाथ ‘बेताब’ बरेलवी ने ‘प्रतापचन्द’ नामक प्रेमचंद के एक अन्य उपन्यास का उल्लेख किया है, किंतु ‘बेताब’ जी के अतिरिक्त अन्य किसी के पास इस तथ्य को स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है। प्रेमचंद के जीवनकाल में ‘असरारे मआविद’ और ‘रूठी रानी’ से हिंदी जगत परिचित नहीं हो सका था। 1962 में अमृतराय ने ‘मंगलाचरण’ नाम से इनका और ‘प्रेमा’ तथा उसके उर्दू रूप ‘हम खुर्मा व हम सबाब’ का प्रकाशन किया। ‘प्रेम’ और ‘हम खुर्मा व हम सबाब’ का एक साथ संकलन भी उपयोगी सिद्ध हुआ। क्योंकि इनके तुलनात्मक अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘प्रेमा’, ‘हम खुर्मा व हम सबाब’ का अनुवाद नहीं बल्कि लिप्यंतर है।

असरारे मआविद‘ और ‘रूठी रानी’ को हिंदी उपन्यास साहित्य के अंतर्गत स्वीकार करने में संकोच हो सकता है पर इसमें संदेह नहीं कि परवर्ती प्रेमचंद को समझने के लिए इनका अध्ययन आवश्यक एवं अनिवार्य है। ‘असरारे मआविद’ बनारस से निकलने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज़-ए-ख़ल्क़’ में क्रमिक रूप से प्रकाशित हुआ और मंगलाचरण में इसकी अनुपलब्ध क़िस्त को छोड़कर शेष को संकलित किया गया है। ‘मंगलाचरण’ की भूमिका में अमृतराय ने लिखा है- “यह क़िस्सा बिल्कुल सरशार के रंग में लिखा गया है, लेकिन बाद के मुंशी प्रेमचंद की झलकियाँ भी उसमें भरपूर हैं।” वस्तुतः शैली की अपेक्षा वस्तु की दृष्टि से प्रेमचंद के परवर्ती उपन्यास साहित्य से इसका सामंजस्य अधिक दिखता है। उपन्यास के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें मंदिरों एवं मठों में पनपने वाली बुराइयों और विकृतियों को उद्घाटित किया गया है। उसके प्रबंधकों, पंडों-पुजारियों एवं महंतों की पोल खोली गई है। इसके लिए प्रेमचंद पर आर्यसमाजी विचारधारा का प्रभाव अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस सम्बंध में अमृतराय ने लिखा है- “वे आर्यसमाज के जलसों में तो ख़ैर जाते ही थे, हमीरपुर में रहते हुए आर्यसमाज के बाक़ायदा मेम्बर भी थे । ” यही नहीं परवर्ती उपन्यासों में लक्षित होने वाली सुधारवादी प्रवृत्ति के मूल में भी आर्य समाजी विचारधारा और गोखले तथा रानाडे की “सोशल रिफॉर्म्स लीग” की छाप परिलक्षित होती है। डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘असरारे मआविद’ के संदर्भ में लिखा है- “प्रेमचंद अपने पहले उपन्यास में ही एक सामाजिक कथाकार के रूप में सामने आते हैं। देशकाल की दृष्टि से वह अपने समसामयिक समाज की समस्या को लेकर कहानी का निर्माण करते हैं। उपन्यास के नामकरण से ही जैसा कि स्पष्ट है, लेखक ने देवस्थान मंदिरों के महंतों एवं पुजारियों के कुकृत्य, कुचक्रों और पतित जीवन का चित्रण किया है।” गोयनका जी के इस कथन से एक बात तो स्पष्ट है कि प्रेमचंद अपने लेखन के आरंभिक चरण से ही समाज की कुरीतियों एवं समस्याओं पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दे रहे थे और हिंदी उपन्यास को परंपरागत ढाँचें से मुक्त कर रहे थे। ‘असरारे मआविद’ में प्रेमचंद का किस्सागो रूप बहुत उजागर हुआ है। वैराग्य, इन्द्रीयगमन, गंगा, बैल आदि को लेकर वे लंबी-लंबी व्याख्याएँ ही नहीं करते बल्कि कुछ पात्रों को किस्से बेचने वाली दुकान पर पहुँचाकर एक राजकुमारी और उसके प्रेमी की समूची कथा ही प्रस्तुत कर देते हैं। इसके अतिरिक्त गीतों, गज़लों के उद्धरणों से उपन्यास में रोचकता का समावेश हुआ है। यह भी स्पष्ट है कि कथा संयोजन शिल्प में अभी प्रेमचंद कुशल नहीं हुए थे इसीलिए वे न केवल कथा को उसके तर्कसम्मत अंत तक नहीं पहुचाते बल्कि इसके बिखराव और क्रमहीनता को भी दूर नहीं कर पाते। पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करने और उन्हें निजी व्यक्तित्व प्रदान करने की जो सामर्थ्य उनकी परवर्ती रचनाओं में दिखती है उसका पूर्वाभास इस कृति में भी लक्षित किया जा सकता है। संवादों की चुस्ती और चुटीलापन, व्यंग्यात्मकता, मुहावरों-लोकोक्तियों तथा उपमानों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली ताज़गी और स्फूर्ती जैसी शैलीगत विशेषताओं की झलक प्रारंभिक कृति में भी उपलब्ध हो जाती है।

प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ 1907 में इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ जबकि इसके उर्दू रूप ‘हम खुर्मा व हम सबाब’ का पहला विज्ञापन सितंबर 1906 के ‘जमाना’ में मिलता है। इस संदर्भ में अपने मित्र दयानारायण निगम के नाम 17 जुलाई 1926 को अपने ख़त में प्रेमचंद ने लिखा है- ” 1904 में एक हिंदी नाविल प्रेमा लिखकर इंडियन प्रेस से शाया कराया।” अब इस बात का यही आशय लेना ठीक होगा कि यह उपन्यास लिखा गया 1904 में पर छपा 1907 में जिसके बारे में अब कोई संदेह नहीं है। ‘प्रेमा’ उपमयास में प्रेमचंद उस समय की ज्वलंत समस्या-विधवाओं की दयनीय स्थिति को उठाते हैं। समूचा उपन्यास हिन्दू विधवा की सामाजिक स्थिति के निरूपण और विधवा विवाह के प्रतिपादन के उद्देश्य से लिखा गया प्रतीत होता है। उपन्यास के नायक वकील अमृतराय, एक समाज सुधारक लाला धनुषधारी लाल के प्रभाव में आकर अपने को जाति यानी देश और समाज पर न्योछावर करने की प्रतिज्ञा करता है। उसके मित्र दीनानाथ का समझाना-बुझाना बेकार हो जाता है। इसी आदर्श से प्रेरित होकर अमृतराय अपनी मंगेतर ‘प्रेमा’ से विवाह न करने का निर्णय करता है। सुधार कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने पर उसे चारों तरफ से विरोध सहना पड़ता है। इस उपन्यास में प्रेमचंद दिखाते हैं कि उस समय सुधारवादी होने का तात्पर्य इसाई हो जाना है। समाज में विधवा की अवस्था के चित्रण और विधवा विवाह को समाधान के रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रेमचंद प्रेमा की सहेली पूर्णा के पति- बसंतकुमार का गंगा में डूबने के प्रसंग का समावेश करते हैं। विधवा पूर्णा के पास अमृतराय का आना-जाना और प्रेमा के द्वारा पूर्णा का श्रृंगार मुहल्ले की स्त्रियों को तनिक भी अच्छा नहीं लगता। विधवाओं की दुरवस्था का संकेत एक बाल विधवा रामकली के मुख से प्रेमचंद ने विशेषरूप से कराया है। विधवा हो जाने पर वह घर भर की लौंडी बना दी गयी है, उसे न केवल सब कार्य करने होते हैं, सभी के जूते और लात भी सहने पड़ते हैं। काजल-मिस्सी लगाना, बाल गूँथना, रंगीन साड़ियाँ पहनना, पान खाना उसके लिए वर्जित है। बहु-बेटियाँ उससे कन्नी काटती हैं और भोर के समय उसका कोई मुख नहीं देखना चाहता। दलित और असहाय भारतीय विधवा के मन में अकस्मात विद्रोह का स्वर रामकली के शब्दों में प्रेमचंद ने इस प्रकार मुखरित किया है- “आख़िर हम भी तो आदमी हैं। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों का राग-रंग, हँसी-चुहल देख-देख अपने मन में भी भावना होती है। जब भूख लगे और खाना न मिले तो हार कर चोरी करनी पड़ती है।”

असरारे मआविद‘ में प्रेमचंद धर्मस्थानों की जिस पतितावस्था का अंकन कर चुके थे, उसे प्रेमा में भी दिखाने से नहीं चूकते। इसके अतिरिक्त वे नैतिक विधि-निषेधों के प्रति मध्यवर्ग के अतिरिक्त आग्रह का संकेत भी प्रेमा में करते हैं। अमृतराय के प्रति आकृष्ट होते हुए भी उसका विवाह संदेश पाकर पूर्णा एकदम भौचक्का रह जाती है और कहती है- “भले मानुषों में ऐसा कभी होता ही नहीं। हाँ नीच जातियों में सगाई डोला सब कुछ आता है।” पूर्णा और अमृतराय को धर्म, समाज, विरादरी सभी के विरोध का सामना करना पड़ता है। प्रेमा में प्रेमचंद हिन्दू समाज में विद्यमान वैवाहिक रीति-रिवाज़ों के दोषों का भी संकेत करते हैं और आदर्श विवाह की कल्पना भी उकेरते हैं। प्रेमचंद का विचार था कि ‘विधवा विवाह’ की प्रथा एक बार शुरू हो गयी तो इसका अनुसरण भी होगा। इसी कारण इस उपन्यास में दो अन्य विधवा विवाह सम्पन्न होते हैं पर विवाह के पश्चात रूढिपंथी लोग हार नहीं मानेंगे, यह बात भी प्रेमचंद भली-भाँति जानते थे। जो लोग लाठियों से इस विवाह को नहीं रोक सके, बिरादरी के बायकॉट की धमकी द्वारा, अमृतराय के नौकरों को भगाकर, अपना रुद्ध आक्रोश प्रकट करते हैं। विरादरी से निष्कासित होने के भय से सभी नौकरों के खिसक जाने से और दुकानदारों के बायकॉट से सौदा-सुल्फ़ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उन्हें कुएँ से पानी भी नहीं लेने दिया जाता, अमृतराय की ज़िंदगी रुक सी जाती है। बाद में बंगाली जज और मुसलमान रिश्तेदार के चतुर व्यवहार के परिणामस्वरूप फिर से मुवक्किल उनके पास आने लगते हैं और लाला धनुषधारी लाल द्वारा भिजवाए गए पंजाबी और कश्मीरी नौकरों से घर का काम चलने लगता है। उपन्यास यहीं समाप्त नहीं हो जाता, प्रेमचंद पहले कह चुके थे कि ईश्वर ने प्रेमा और अमृतराय को एक दूसरे के लिए बनाया था। इसी सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए अथवा एक बार फिर से विधवा विवाह करवाने के लोभ से वे दीनानाथ तथा कुछ साथियों से अमृतराय पर हमला करवाते हैं । पूर्णा भी आत्महत्या कर लेती है। प्रेमा और अमृतराय का रास्ता साफ हो जाता है और उनके विवाह के साथ ही उपन्यास खत्म हो जाता है।

कथा और शिल्प की दृष्टि से इस उपन्यास को प्रेमचंद बनने की एक नींव के रूप में देखा जा सकता है। यह नहीं कहा जा सकता कि प्रेमा शिल्प की दृष्टि से पूर्णतः निर्दोष नहीं है। इसमें घटनाओं के आकस्मिक मोड़ों, संयोगों, मौतों, हत्याओं, आत्महत्याओं का काफी आश्रय लिया गया है। समग्रतः अनेक कमियों के बावजूद यह उपन्यास परवर्ती प्रेमचंद की संभावनाओं का संकेत देता है। ‘प्रेमा’ के उद्देश्य को निर्धारित करते हुए डॉ. कमल किशोर गोयनका ने लिखा है- “इस उपन्यास का उद्देश्य विधवा जीवन की समस्याओं का चित्रण तथा उसका समाधान प्रस्तुत करना है। लेखक की दृष्टि में यह कार्य देश और जाति के कल्याण के लिए है। उपन्यास की कथायोजना इसी उद्देश्य के अनुरूप की गयी है।”

रूठी रानी‘ प्रेमचंद का एकमात्र ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन उर्दू साप्ताहिक ‘ज़माना’ में अप्रैल 1907 से अगस्त 1907 तक धारावाहिक रूप में हुआ। उपन्यास के अध्ययन से स्पष्ट है कि प्रेमचंद के लक्ष्य अतीत के किसी कालखंड में विद्यमान समस्याओं का चित्रण करना न था और न ही अतीत के पट पर वर्तमान का चित्र अंकित करना ही उन्हें अभीष्ट था, उन्हें तो लोककथाओं और लोकगीतों में चले आ रहे जैसलमेर के रावल लोनकरन की बेटी उमा के उदात्त और रोमानी चरित्र ने उन्हें इतना आकृष्ट कर लिया था कि उसकी जीवन कथा को इन्होंने इस लघु उपन्यास की शक्ल दे दी। उमा के जन्म से लेकर उसके सती हो जाने तक कि घटनाओं को इस उपन्यास में सँजोया गया है। इसके बाद की कतिपय घटनाओं का उल्लेख भी हुआ है। इस प्रकार उपन्यास की काल सीमा 1857 तक आ पहुँचती है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इसका मूल कथानक से बहुत अधिक संबंध नहीं है। कथासंयोजन में क्रमविहीनता, चरित्रांकन में शिथिलता आदि कमियों के बावजूद तदयुगीन परिवेश की पकड़ की दृष्टि से ‘रूठी रानी’ उल्लेखनीय है। बेटी के जन्म पर राजपूतों की शोक प्रवृत्ति, वैयक्तिक वैमनस्य के कारण अपनी ही बेटी को विधवा बना देने की प्रवृत्ति, महलों के हास-विलास , षड्यंत्र जैसी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को उकेरकर प्रेमचंद इसे यथार्थ रूप देते हैं।

प्रेमचंद का अगला उपन्यास ‘जलवए ईसार’ 1912 में इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ जिसका हिंदी रूपांतरण ‘वरदान’ शीर्षक से ग्रंथ भंडार बम्बई से 1912 में ही प्रकाशित हुआ। वरदान प्रेमचंद के अपरिपक्व कलाकार को स्मरण कराता है और उन उपन्यासों की श्रेणी में आता है जिन्होंने बाद के प्रेमचंद के निर्माण के लिए नींव का कार्य किया। वरदान का कथातंत्र कुछ उलझा हुआ है इसीलिए उसे कभी सुधारवादी और कभी दुखांत प्रेम कथा का ‘आदर्शवादी सुखांत’ उपन्यास बताया गया। उपन्यास की शुरुआत सुवामा द्वारा अष्टभुजा देवी की प्रार्थना से होती है। वह देवी माँ से ऐसा पुत्र माँगती है जो मनुष्य जाति का उपकार करे। देवी के आशीर्वाद से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, जो बड़ा होकर बालाजी के नाम से प्रसिद्ध होता है तथा वह निम्न जातियों, अनाथों, रोगियों, बाढ़-पीड़ितों की सेवा करता है। इस प्रकार ‘जाति सेवा’ के आदर्श की स्थापना उपन्यास का मूल लक्ष्य प्रतीत होता है। यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि प्रेमचंद बार-बार जब ‘जाति’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो वो उन तमाम जातियों के लिए नहीं होता जिसे समाज ने बनाया है बल्कि उनका तात्पर्य केवल मनुष्य जाति के लिए होता है। परंतु डॉ. कमल किशोर गोयनका का कहना है- “वरदान उपन्यास के दो उद्देश्य हो सकते हैं-प्रताप विरजन की कहानी कहना अथवा देश-सेवा या जाति सेवा की कहानी कहना।”  वरदान उपन्यास आगे चलकर “प्रेमाश्रम” में तब्दील हो जाता है। वरदान उपन्यास में प्रताप को बालाजी बनाने में देवी प्रेरणा के अतिरिक्त पार्थिव एवं निजी परिस्थितियों की विवशता भी थी। यों तो बचपन की सखी विरजन के प्रति अपने प्रेम में असफल प्रताप बनारस के छात्र जीवन में भी छिट-पुट सुधार कार्य करता हुआ दिखता है, पर उसको बालाजी बनने की अन्तरप्रेरण तो तभी मिलती है जब रात के दो बजे वह विधवा विरजन की दिव्य और अनुपम रूपराशि को देखकर, अपने मन की दुर्बलता पर पछताता हुआ संन्यासी हो जाता है। प्रताप और विरजन की प्रेम कथा को लेखक ने काफी विस्तार दिया है। इस दुःखान्त प्रेमकथा से ही सम्बद्ध है विरजन और कमलाचरण के अनमेल विवाह की कहानी जिसका विस्तार आगे हमें ‘निर्मला’ के रूप में देखने को मिलता है सशक्त और मार्मिक उपन्यास के रूप में। मूल कथ्य न होने के बावजूद भारतीय कन्या की मूक एवं असहाय अवस्था को चित्रित करने का अवसर प्रेमचंद यहाँ भी नहीं छोड़ना चाहते। प्रताप और विरजन की कथा से जुड़ी हुई एक छोटी सी कहानी और भी है। विरजन से प्रताप के बारे में सुनकर माधवी मन प्राण से उसके प्रति समर्पित हो जाती है। बालाजी के रूप में प्रताप उसके समर्पण से प्रभावित होकर संन्यास छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है पर रोमानी आदर्शवादी माधवी उसे पथभ्रष्ट नहीं करना चाहती और स्वयं बालायोगिनी बनकर ज़िन्दगी काटने लगती है। इसके अलावा कुछ और प्रासंगिक कथाएँ भी हैं। इन सबके कारण कथा विन्यास में शिथिलता, कृत्रिमता और बनावटीपन जैसे दोष आ गए। केंद्रीय सूत्र के अभाव में कथानक में बिखराव प्रतीत होता है। पात्रों की भीड़-भाड़, अनावश्यक मौतें, अस्वाभाविक हृदय परिवर्तनों, बनावटी संवादों, अतिशय भावुकतापूर्ण स्थलों से उपन्यास का रूप काफी विकृत हो गया है। इस विकृति का कारण स्वयं प्रेमचंद थे जो कि अभी तक अपनी लेखकीय शैली एवं किस्सागोई का ढंग प्राप्त नहीं कर सके थे और खुद अपने रंग की तलाश कर रहे थे। इस बात का जिक्र स्वयं प्रेमचन्द ने 4 मार्च 1914 को दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र में किया- “मुझे अभी तक यह इत्मीनान नहीं हुआ कि कौन सा तर्ज़े- तहरीर अख़्तियार करूँ। कभी तो बंकिम की नकल करता हूँ कभी आज़ाद के पीछे चलता हूँ। आजकल काउंट टॉलस्टॉय के किस्से पढ़ रहा हूँ तब से कुछ उसी रंग की तरफ तबियत माइल है। यह अपनी कमजोरी है और क्या।” कहना न होगा कि यही स्वीकारोक्ति ही मुंशीजी को एक महान रचनात्मक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती है। अपनी स्वीकारोक्ति की वजह से ही अपने पूर्व के सभी उपन्यासों को कमजोरियों ने उन्हें कथ्य और शिल्प की दृष्टि से माँजने का काम किया जिसका परिणाम आज दुनिया के सामने है। ये रचनाएँ एक पूर्वपीठिका तैयार कर रही थी, जिसकी मजबूत भूमि पर मुंशी प्रेमचंद सेवासदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, प्रेमाश्रम, ग़बन और गोदान की सर्जना कर सके ! अगर प्रेमचंद अपनी रचनात्मक यात्रा में इतने कच्चे-पक्के अनुभव न प्राप्त करते तो शायद उनकी रचनात्मकता उस उच्चता को नहीं प्राप्त कर पाती जहाँ पहुँचकर वो ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ की सर्जना कर सके। प्रेमचंद के पूर्ववर्ती उपन्यासों ने उनकी रचनाधर्मिता की आधारभूमि तैयार की जिसकी मजबूत पूर्वपीठिका पर एक महान कथा सम्राट खड़ा होता है। ऐसा नहीं है कि समाजिक व्यवस्था के प्रति उनकी सोच अंतिम समय में एकाएक बदल गयी मगर ‘सेवासदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ में समस्या का समाधान आश्रम बनाकर आदर्श तरीके से करने की कोशिश प्रेमचंद को नाकाफ़ी लगी। इसीलिए अपने अंतिम प्रकाशित प्रकाशित उपन्यास ‘गोदान’ का कथ्य यथार्थ की जमीन पर तैयार किया और दूषित सामाजिक व्यवस्था को नंगा करके रख दिया। यहीं पर पहुँच कर मुंशी जी अपनी रचनाधर्मिता के शिखर को छूते हैं।

(गिरिजेश कुमार यादव दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक हैंं।)

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