लखनऊ: रचनाकार समय और समाज को अपने सृजन का विषय बनाता है। आम आदमी की पीड़ा व संघर्ष की अभिव्यक्ति आज की रचनाओं की विशेषता है। ऐसी ही रचनाएं जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित ‘रचना संवाद’ में सुनने को मिली। कार्यक्रम का आयोजन लखनऊ के गोमती नगर स्थित लोहिया पार्क में किया गया। अलका पाण्डेय और विमल किशोर ने अपनी कविताओं के विविध रंगों का आस्वादन कराया। वहीं, युवा रचनाकार मेहंदी हुसैन ने अपनी कहानियों का पाठ किया। रचना पाठ के बाद प्रस्तुत रचनाओं पर विचार-विमर्श भी हुआ।
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इस मौके पर अलका पाण्डेय ने कई कविताओं का पाठ किया। ये कविताएं बिना शीर्षक थीं। कविता का शीर्षक न देने के पीछे अलका पाण्डेय की समझ है कि कविता को किसी बन्धन में बांधना उचित नहीं है। कविता कवि के उन्मुक्त भावों व विचारों की अभिव्यक्ति है। अपनी एक कविता में वे कहती हैं ‘नाक बहुत ऊंची चीज होती है/इतनी ऊंची कि/उसके नापने का कोई यंत्र नहीं होता’ और आगे वे कहती हैं ‘कुछ होते हैं जन्मजात नकटे/जो अपनी नाक छुपाने के लिए/दूसरे की गर्दन काटने पर तुले होते हैं’। एक अन्य कविता में ‘डर’ को सामने लाती हैं, वे कहती हैं- ‘बोलो कि बोलने की जरूरत है/कातिल मुंह छिपाता है/अब एक होने की जरूरत है/आर-पार कर देने की जरूरत है’ और प्रश्न करती हैं ‘नहीं मालूम चुप क्यों हैं, किस तारणहार के इंतजार में ?’
विमल किशोर ने अपने कविता-पाठ का आरम्भ ‘हाशिए पर पड़े लोगों के लिए एक कविता’ से की। यह कैसी विडम्बना है कि सर्द मौसम में बड़ी आबादी फुटपाथ पर रात काटने के लिए विवश है। वे कहती हैं ‘अपनी लाचारी/बेबसी/भूखी अंतड़ियों के साथ/उनकी हर रात होती जाती है लम्बी…और जब सूरज प्रकट होता/नये दिन की शुरुआत/भयानक हादसे से होती/लालिमा उनके लिए कालिमा होती’। मौजूदा सत्ता के ‘विकास’ के झुनझुने पर चोट करते हुए विमल किशोर अपनी संवेदना को कूड़ा बीनते बच्चे से जोड़ती हैं और मूर्तियों को लेकर हो रही राजनीति पर वे कहती हैं ‘आदमी मिलेगा किताबों में नहीं/मूर्तियों में/उसका कद/उसकी महानता नापी जायेगी/मूर्तियों की ऊँचाई से’। विमल किशोर ने ‘आसिफाओं के लिए’ कविता के माध्यम से स्त्रियों और बच्चियों पर हो रहे जुल्म को व्यक्त किया। वे स्त्री मुक्ति का संदेश कुछ इस तरह देती हैं : ‘सब कुछ झटक दूं/मुक्त हो जाऊँ/अपने सपनों को हवा दूं/समय से बाहर निकलूं/पंख खोलूं/और उड़ चलूं खुले आसमान में।
इस अवसर पर युवा रंगकर्मी व कवि-कथाकार मेहंदी हुसैन ने अपनी तीन छोटी कहानियां सुनाई। ये थीं ‘भेड़िया’, ‘फैसला’ तथा ‘आखिरी मजलिस’। ‘भेड़िया’ कहानी उस मंजर को पेश करती है जिसमें आम इन्सान भेडियों से घिर गया है। समाज को हिंसक बनाया जा रहा है। धर्म के नाम पर बढ़ रही कट्टरता पर कहानी चोट करती है। वहीं, ‘फैसला’ कहानी मौजूदा ढांचे और परम्परा को तोड़ती है और इस बात को सामने लाती है कि प्रेम को धर्म के दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। ‘आखिरी मजलिस’ अपने जमीन की कहानी कहती है। आदमी जिस जमीन पर जिन्दगी गुजारता है, वह अपनी आखिरी सांस भी वही लेना चाहता है। इस ख्वाहिश को कहानी सामने लाती है।
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रचना पाठ के बाद रचनाओं पर अजय सिंह, राजेश कुमार, अजीत प्रियदर्शी, गीतेश, आशीष कुमार सिंह आदि ने अपने विचार रखे। इनका कहना था कि ये कविताएं जनजीवन के संघर्ष से उपजी हैं। इनमें कवि का जीवनानुभव है। हां, ऐसी कविताओं में कला के स्तर पर अभी और काम करने की जरूरत बनी हुई है। मेहंदी की ‘फैसला’ और ‘आखिरी मजलिस’ की वक्ताओं ने प्रशंसा की, वहीं ‘भेडि़या’ पर उनका कहना था कि हिन्दुत्व और मुस्लिम कट्टरता को समतुल्य नहीं किया जा सकता। हिन्दुत्व आक्रामक और हिंसक रूप में हमारे सामने है। वह फासीवादी सत्ता का आधार है।
इस मौके पर किरन सिंह, उषा राय, डॉ निर्मला सिंह, डॉ अनीता श्रीवास्तव, संध्या सिंह, मीना सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, अवधेश सिंह, आर के सिन्हा, लाल बहादुर सिंह, देवनाथ द्विवेदी, अली सागर, शोभा द्विवेदी, ज्योति राय, नूर आलम, माधव महेश, मंजु प्रसाद, कल्पना पाण्डेय, प्रदीप उपाध्याय, कलीम खान आदि मौजूद थे। जसम लखनऊ के संयोजक श्याम अंकुरम ने धन्यवाद ज्ञापन किया तथा संचालन कौशल किशोर ने किया।
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