शनिवार, 13 अप्रैल 2024
कवि- हरीशचन्द्र पांडे
अपने शहर इलाहाबाद में रचनारत लेखकों की रचनाओं के साथ उनके जीवन, उनके घर-परिवार को जानना, उनकी रचना प्रक्रिया इन सबको समग्रता में समझने के लिए जन संस्कृति मंच की इलाहाबाद इकाई ने इस अभियान की शुरुआत शहर के प्रतिष्ठित कवि एवं रचनाकार हरीशचन्द्र पांडे जी के घर जाकर उनकी कविताओं और साथियों से संवाद के साथ शुरू की . अपने लेखक को जानने- समझने के लिए कुछ सवाल भी हुए जिनके जवाब हरीश जी ने बहुत ही सहजता और विस्तार से दिए. पहला सवाल उनके जन्मस्थान,उनके गाँव, पहाड़ और परिवेश से उनके वर्तमान संबंध को लेकर था जिसके जवाब में उन्होंने पहाड़ों से अपने जीवंत रिश्ते, वहां के जीवन का ज़िक्र करते हुए बताया कि पहाड़ों में प्रकृति की सुंदरता के साथ ही साथ तमाम तरह की मुश्किलें भी हैं, गरीबी बहुत है, पानी की बहुत दिक्कत है जिनके घर काफी ऊंचाई पर हैं उन्हें नीचे से पानी ढो कर ऊपर लाना होता है, खेत उपजाऊ नहीं हैं और उस पर सरकार की रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और महंगाई को कम करने के बजाय मुफ्त राशन बांटने जैसी नीति ने खेतों को और भी बंजर कर दिया है। प्राइवेट अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के आने से सरकारी स्कूल बंद हो रहे और ख़स्ता हालत में हैं. उन्होंने बताया कि पिछले साल वो अपने स्कूल द्वाराहाट गए थे जहां से हाईस्कूल किया और उनके पिता जी ने भी जहां से पढ़ाई की, एक बेहतरीन स्कूल था लेकिन अब वहां की हालत ऐसी हो गई है कि हर कक्षा में मात्र 15 से 16 बच्चे ही दिखाई दिए, नौबत ये आ गई है कि वहां के विद्यालयों में ‘प्रवेश दिवस’ मनाया जाने लगा है जिससे कि बच्चे स्कूल आ सकें.
दूसरा सवाल लेखक की कविताओं में मौजूद स्थानीयता और किसी भी रचना में इसके महत्व को लेकर था जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि बिना स्थानीय हुए वैश्विक नहीं हुआ जा सकता और लोकल होने का मतलब संकीर्ण होना बिल्कुल नहीं है यहां भी स्पेस बनाए रखना जरूरी होता है. आदिवासी रचनाकारों की रचनाओं में कई बार स्थानीयता संसाधनों के अभाव के कारण विकल्पहीनता भी है.
हमलोगों ने लेखक के रचनाकर्म की शुरुआत और रचनाप्रक्रिया को लेकर जानना चाहा. लेखक ने बताया कि कविताओं में उनकी बचपन से रुचि थी लेकिन माहौल नहीं था. उन्होंने कहा कि मेरे पिताजी भी कविताएं लिखा करते थे लेकिन मैं जब 6 साल का ही था तभी उनकी मृत्यु हो गई. बाद में मुझे पिताजी की किताबें अमरकोश, वेद, नागरी प्रचारिणी के अंक, शब्दकोश, डायरी आदि मिली लेकिन लिखने का वातावरण मुझे पिथौरागढ़ में मिला. आगे की पढ़ाई के लिए कानपुर डीएवी कॉलेज गया वहीं से बीकॉम, एमकॉम और कविताएं लिखने की शुरुआत भी वहीं से हुई. बीकॉम के बाद पढ़ाई में एक साल का गैप हुआ था जिसमें मैंने KESA में काम किया और उसी दौरान ‘उजड़ता सिंदूर’ नाम से एक उपन्यास लिखा जो कि अप्रकाशित है. एम काम खत्म करते – करते ही इलाहाबाद में ऑडिटर के पद पर नियुक्त हुआ और इसी के साथ मेरी साहित्यिक रुचियाँ और रचनाएं परिष्कृत होती रहीं. एजी ऑफिस, इलाहाबाद की एक संस्था ‘ब्रदरहुड’ की ओर से निकलने वाली पत्रिका में ही उनकी पहली कविता ‘कुछ कह नहीं सकता’ प्रकाशित हुई. इसी के साथ उन्होंने एजी ऑफिस के साहित्यिक माहौल और उस दौर की ढेरों बातें हमसे साझा की. वहां सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शिवकुटी लाल वर्मा, केशव प्रसाद मिश्र, ज्ञानप्रकाश, कथाकार जितेंद्र,उमाकांत मालवीय, एहतराम इस्लाम व उर्दू के फर्रूख जाफरी व जौहर बिजनौरी आदि बड़े लेखक भी रह चुके हैं. इसी के साथ उन्होंने ‘पुलिया पार्लियामेंट’ का भी ज़िक्र किया जिसका विषय देश के पार्लियामेंट में होने वाली बहसें हुआ करती थीं.
इसी क्रम में आगे उन्होंने जीवन, प्रकृति, विचारधारा, दृष्टिकोण और रचनाओं में इनके महत्व पर बात की. उन्होंने कहा कि कविता का विषय हर चीज़ हो सकती है. विचारधारा रचनाकार के लिए गाइडिंग फोर्स का काम करती है और वैचारिक प्रतिबद्धता को संकुचित नहीं होना चाहिए. विचारधारा रचना में रची-बसी होनी चाहिए उसके लिए विषय को सीमित करना जरूरी नहीं, जरूरी है आपका विज़न शिल्प में कैसे आता है. इसी बात के उदाहरण के रूप में उन्होंने अपनी कविता ‘लद्दू घोड़े’ का पाठ किया जिससे इतिहास में आम जनता की स्थिति पर भी विचार किया जा सकता है, उसी कविता का अंश हैं ये पंक्तियाँ “कहीं नहीं थे वे इतिहास में जबकि किसी भी स्वर्णयुग की कल्पना बिना ज़ख़्मी पीठों के संभव नहीं”.
इसी बातचीत के दौरान हमें पता चला कि हरीशचंद्र पांडे जी की कविता ‘महाराजिन’ पर ‘Queen of the ghat’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी है.
अंत मे उन्होंने अपनी कुछ नयी कविताओं का पाठ किया और ‘सारा पानी बह जाता है’ शीर्षक अपनी गज़ल का भी पाठ किया.
कार्यक्रम में शहर के लेखक प्रियदर्शन मालवीय और शोध छात्र पूजा, किरन, धरमचंद, हर्ष, भानु, कवि, शिवानी आदि शामिल रहे.
– शिवानी मिताक्षरा