“गणतंत्र को बचाने के लिए कभी-कभी तानाशाही की जरूरत पड़ती है।”
यह टीजे गानवेल की फिल्म जय भीम में एक पुलिस अधिकारी के शब्द है, मेरी नहीं। यह सिर्फ काल्पनिक शब्द नहीं है बल्कि हम वास्तविक जीवन में भी पुलिस अधिकारियों, प्रशासकों, यहां तक कि पत्रकारों से भी अक्सर ऐसे शब्द सुनते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां वास्तविकता व्यंग्य की उम्मीद करती है और इसकी पंचलाइन को खत्म कर देती है।
जय भीम फिल्म 1993 के एक कानूनी मामले का सिनेमाई रूपांतरण है। जिस मामलें में न्यायमूर्ति चंद्रू, जो उस समय अधिवक्ता रहे उन्होंने एक आदिवासी महिला की ओर से अदालत में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस) का आज्ञापत्र दायर किया था। जिसके पति पर एक आभूषण मामले में चोरी का फर्जी आरोप लगाया गया था और जो कि पुलिस हिरासत में “लापता” हो गया था।
जय भीम एक कोर्ट रूम ड्रामा और उसके साथ एक मिस्ट्री ड्रामा है। यह फिल्म एक जेल के प्रवेश द्वार के दृश्य से शुरू होती है और हमें हिरासत में यातना और यौन हिंसा की भयावहता की यात्रा पर ले जाती है।
यह फिल्म 1993 की कुरवा जनजाति से आने वाली पार्वती की कहानी से प्रेरित है। जिन्हें फिल्म संस्करण में इरुला जनजाति की सेंगेई के रूप में दर्शाया गया है ।
वास्तविक मामले में, पार्वती के पति राजकन्नू, उनके भाई, बहन और बहनोई को कम्मापुरम (तमिलनाडु) पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया और उन्हें बेरहमी से पीटा गया, उन्हें हिरासत में यातना देकर एक चोरी को कबूल करने के लिए मजबूर किया गया जो उन्होंने की ही नहीं थी।
जब पार्वती को उनकी गिरफ्तारी के बारे में पता चला, तो वह जब पुलिस के पास पहुंची तो पुलिस ने उन्हें, उनके बेटे के साथ प्रताड़ित किया और जिस यातना के परिणामस्वरूप एक साल बाद उस बेटे की मृत्यु हो गई।
कुछ वक़्त बाद एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की मदद से, सेंगेई ने उस समय वकील रहे जस्टिस चंद्रू से संपर्क किया, जिन्होंने उनकी ओर से अदालत में बंदी प्रत्यक्षीकरण का मामला दायर किया और मांग की कि उनके पति, जो उनकी हिरासत से “गायब हो गए”, उसके लिए पुलिस जिम्मेदार है। बंदी प्रत्यक्षीकरण (लैटिन वाक्यांश का अर्थ है “सशरीर उपस्थिति”) इन मामलों में किसी लापता व्यक्ति को अदालत में पेश किया जाना होता है।
इस मामले ने हिरासत की हिंसक वास्तविकता, दुर्व्यवहार के साथ-साथ पुलिस हिंसा के बारे में कई भयानक सच्चाईयों को उजागर किया, जिनका किसी भी लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
इस तथ्य के बावजूद कि फिल्म 1993 के मामले के सभी तथ्यों को चित्रित नहीं करती है, यह हमें जाति आधारित राज्य की हिंसा और हिरासत में होने वाली यातनाओं व उनके मनोवैज्ञानिक आघात से रूबरू कराती है जिसका असर हिंसा के शिकार हुए वयक्ति पर उसके साथ उस व्यक्ति से जुड़े हुए लोगों पर भी होता है।
फिल्म के कई पल दिल दहला देने वाले हैं। वे दृश्य जिनमें एक हिंसक पुलिस अधिकारी सेंगेई के पति को प्रताड़ित करता है हमें वास्तविक दुनिया में पहुंचा देता है। फिल्म हमें याद दिलाती है कि अगर आप गरीब और सामाजिक या आर्थिक रूप से कमजोर हैं; यदि आप एक कश्मीरी, एक मुस्लिम, एक दलित, एक महिला हैं; या राज्य की नीतियों को चुनौती देते हैं
तो पुलिस स्टेशन जैसी जगहें यातना गृहों में तब्दील हो सकती हैं। यह हमें इस बात का एहसास कराता है कि यदि आप हाशिए पर पड़े समुदाय से हैं तो राज्य का पूरा तंत्र आपके खिलाफ हो सकता है।
फिल्म यह भी दिखाती है कि इरुला जैसे आदिवासी समुदाय कैसे रहते हैं।
कैमरा हमें उस भूमि की सुंदरता दिखाता है जिसमें वे रहते हैं – और यह भी कि कैसे उन्हें दूसरे लोगों की भूमि पर काम करके जीवन यापन करने के लिए मजबूर किया जाता है। फिल्म के एक गीत में इरुलाओं को जंगलों और वन्यजीवों के रक्षक और रखवाले के रूप में वर्णित किया गया है, जिन्हें तथाकथित विकास की हिंसा से खतरा है।
यह पूछे जाने पर कि उन्होंने सेंगेई की जनजाति को कुरवा से इरुला में बदलने का विकल्प क्यों चुना, जय भीम के निर्देशक ने जवाब मे कहा क्योंकि कुरवा की तुलना में इरुला अधिक शोषित और वंचित हैं।
फिल्म हमें बताती है कि कैसे इरुला जैसी गैर-अधिसूचित जनजातियों को बदमाशों और अपराधियों के रूप में पेश करके उनका अमानवीयकरण किया जाता है।
जब ऐसे समुदायों को मतदान, राशन कार्ड और भूमि अधिकार प्राप्त करने जैसे बुनियादी अधिकारों से व्यवस्थित रूप से रोक दिया गया है, तो हमें यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते है कि अगर सीएए-एनपीआर-एनआरसी जैसे नियम लागू होते हैं तो इरुला जैसे सैकड़ों लोगों का क्या होगा जिनके पास अपने अस्तित्व या भूमि के कब्जे का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है।
सूर्या, प्रकाश राज, लिजोमोल जोस जैसे प्रमुख अभिनेताओं की उपस्थिति के साथ-साथ एक सम्मोहक कहानी के बावजूद, फिल्म दर्शकों को सेंगेई की पीड़ा को महसूस करने और उसके साथ लड़ने के लिए राजी करने में विफल रही। मैं फिल्म के विजयी अंत पर भी सवाल उठाता हूं। जी हां, असल जिंदगी में पार्वती कोर्ट केस जीत गई; लेकिन क्या इससे राज्य तंत्र की व्यवस्थित रूप से हिंसक प्रकृति की वास्तविकता बदल गई? अनेक सेंगेई आज भी उन्हीं अत्याचारों का सामना कर रही हैं।
हम फिल्म में सेंगेई और चंद्रू के संघर्षों को देखते हैं। उन्हें शिक्षित, संगठित और आंदोलन करते हुए पाते हैं, हम चाहें तो इसमें मार्क्स और अम्बेडकर की उपस्थिति देख सकते हैं। यही फिल्म की ताकत है।
(नितिन राज जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के सिनेमा स्टडीज में शोधछात्र हैं |)