समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

क्या शराब की बिक्री से ही सम्भव होती है कर्मचारियों की तनख्वाह ?

एक जमाने में पंकज उदास की गायी यह गज़ल काफी लोकप्रिय हुई थी :
हुई मंहगी बहुत शराब
थोड़ी-थोड़ी पिया करो
लॉकडाउन में शराब की दुकानेंं खुलने के बाद तमाम राज्यों की सरकारों ने शराब की कीमतें बढ़ाने की घोषणा की तो इन पंक्तियों की चर्चा भी चल निकली.
लॉकडाउन-3 के लिए केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला के हस्ताक्षरों से जो आदेश निकला, उसका सर्वाधिक चर्चित पहलू था, शराब की दुकानों का खोला जाना. हालांकि उक्त गाइडलाइंस के मुख्य भाग में, विभिन्न जोंस(zones) में- कौन सी गतिविधि हो सकती है, कौन सी नहीं-वाले हिस्से में शराब की दुकान खोलने का आदेश नहीं था.
शराब की दुकानों का जिक्र तो एनेक्श्चर यानि अनुलग्नक में था. उसमें भी यह स्पष्ट तौर पर नहीं लिखा था कि शराब की दुकानें खोली जाएंगी. बल्कि पब्लिक प्लेसेस यानि सार्वजनिक स्थल शीर्षक के अंतर्गत बिन्दु संख्या आठ में कहा गया था कि शराब पान गुटखा तंबाखू आदि बेचने वाली दुकानें, एक-दूसरे से छह फीट यानि दो गज की दूरी सुनिश्चित करवाएंगी और यह भी सुनिश्चित करवाएंगी कि दुकान में एक वक्त में, पाँच से अधिक लोग न हों.
शराब बेचने वालों और पीने वालों ने इस इशारे को हाथों-हाथ लिया और सबसे पहले धज्जी उड़ी उस निर्देश की, जिसमें कहा गया था कि दुकान में एक वक्त में पाँच से अधिक लोग न हों. साथ ही दो गज की दूरी का नियम भी शराब की दुकानों के आगे लगी कतारों में खड़े लोगों के पैरों तले कुचला गया.
शराब की दुकानों के आगे लगी कतारों और शराब लेने के लिए मची होड़ को देख कर ऐसा लगा कि देश में महीने भर के लॉकडाउन में भूखों से ज्यादा बड़ी तादाद प्यासों की थी. शराब की दुकानों के सामने के नजारों से लगा कि लॉकडाउन से सर्वाधिक त्रासित, शराब के रसिक ही थे.
शराब की दुकानों के बाहर मची इस रेलमपेल के साथ ही सोशल मीडिया में इसको लेकर चुटकुलों का दौर भी चल पड़ा. सर्वाधिक प्रचलित चुटकुला था कि कोरोना वॉरियर की तरह ही शराब के तलबगार इकॉनमी वॉरियर हैं. एक और चुटकुला था कि अजब कशमकश है, पियो तो घर बर्बाद, न पियो तो देश बर्बाद !
जो बात चुटकुलों में कही गयी, गंभीरता से भी वह बात अक्सर लोग कहते रहते हैं. गाहे-बगाहे यह कहने वाले लोग आपको मिल जाएँगे कि यदि शराब न हो तो कर्मचारियों को तनख्वाह देना मुश्किल हो जाये, सरकार के लिए. बड़े से बड़ा शराब विरोधी, इस तर्क के सामने धराशायी हो जाता है. शराब के पक्ष में यही सबसे मजबूत तर्क है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसी स्थिति है कि बिना शराब बेचे कर्मचारियों की तनख्वाह कोई राज्य सरकार नहीं दे सकेगी ? क्या शराब की बिक्री इतनी होती है कि उससे प्राप्त आय कर्मचारियों की तनख्वाह देने के लिए पर्याप्त होती है ? आंकड़ों की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि शराब के पक्ष में दिया जाने वाला यह सबसे मजबूत तर्क झूठ की बुनियाद पर खड़ा है.
आइये कुछ राज्यों के उदाहरण से इसे समझते हैं.
उत्तराखंड का वर्ष 2020-21 का बजट है 53 हजार करोड़ रुपये. शराब से लक्षित आय है- 36 सौ करोड़ रुपये. क्या यह शराब से लक्षित आय कर्मचारियों का वेतन,भत्ते,पेंशन देने के लिए पर्याप्त है ? जी नहीं, क्यूंकि उत्तराखंड सरकार का वर्ष 2020-21 का बजट कहता है कि वेतन,भत्ते,पेंशन के लिए राज्य को 22 हजार करोड़ रुपये चाहिए. इसका अर्थ यह है कि यदि शराब बिक्री का लक्ष्य पूरा भी हो जाये, तब भी उत्तराखंड सरकार को पंद्रह हजार चार सौ करोड़ रुपये वेतन, भत्ते, पेंशन के लिए और चाहिए होंगे.
18 फरवरी 2020 को प्रस्तुत उत्तर प्रदेश का इस वर्ष का कुल बजट है 5 लाख 12 हजार 860 करोड़ रुपये का. इस वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश का शराब से राजस्व जुटाने का लक्ष्य है- 35 हजार करोड़ रुपये. जबकि वेतन, पेंशन व ब्याज की अदायगी पर कुल 2 लाख 24 हजार 561.03 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है.यह खर्च कुल राजस्व प्राप्तियों का 53.1 प्रतिशत है.
राजस्थान का वर्ष 2020-21 का कुल बजट 11 लाख 33 हजार 298 करोड़ रुपये का है. राजस्थान को इस वर्ष वेतन, भत्तों, पेंशन और ब्याज पर 1 लाख 4 हजार 835 करोड़ रुपया खर्च करना है, जो कुल राजस्व प्राप्तियों का 60 प्रतिशत है,इसमें भी वेतन का हिस्सा 53 प्रतिशत है. शराब से इस वर्ष राजस्थान सरकार द्वारा लक्षित आय है- 12 हजार 500 करोड़ रुपया है.
कर्नाटक का वर्ष 2020-21 का कुल बजट-2 लाख 93 हजार 837 करोड़ रुपये का है. कर्नाटक की इस वर्ष के लिए शराब से लक्षित आय 22 हजार 7 सौ करोड़ रुपया है. जबकि वेतन, भत्ते, पेंशन का खर्च है-81 हजार 718 करोड़ रुपये.
इसी तरह महाराष्ट्र के इस वर्ष के बजट में कुल खर्च 3 लाख 56 हजार 967 करोड़ रुपये होने का अनुमान है. इसमें वेतन,भत्तों और पेंशन पर खर्च होने वाली धनराशि है 1 लाख 55 हजार 940 करोड़ रुपया. जबकि शराब से आय का लक्ष्य है-19 हजार 225 करोड़ रुपया.
इस तरह विभिन्न राज्यों द्वारा वेतन, भत्तों और पेंशन पर खर्च की जानी वाली राशि और शराब की अनुमानित आय के आंकड़ों को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि शराब से होने वाली आय के मुक़ाबले वेतन, भत्तों पर खर्च होने वाली धनराशि कई गुना अधिक है. इसलिए यह कहना कि शराब न बिके तो कर्मचारियों को तनख्वाह देना मुश्किल हो जाये, झूठा प्रचार है. हकीकत यह है कि शराब से लक्षित आय पूरी भी आ जाये, तब भी राज्यों को वेतन, भत्तों और पेंशन के भुगतान के लिए संसाधन जुटाने के लिए भारी मेहनत करनी पड़ती है और कई बार तो बाजार से बहुत ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज भी लेना होता है.
शराब पियें या न पियें, यह आपकी मर्जी है, पर कम से कम इस भ्रम में न रहें कि आप शराब पी रहें हैं तब सरकार कर्मचारियों की तनख्वाह दे पा रही है !

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