अगर कोई सरल हो, सहज हो। अपने आस-पास के प्रति संवेदनशील हो। किसी भी तरह के अन्याय, शोषण के खिलाफ़ बेहतर समझ और तार्किकता के साथ मुखर हो। फिर इसे ही वह अपनी जीवनवृत्ति चुन ले, तो नि:संदेह वह असल जनप्रतिनिधि है।
करीब 17 बरस पहले एक ऐसे ही असल जनप्रनिधि को नजदीक से देखने समझने का मौका मिला। जी, इंद्रेश मैखुरी, जो उत्तराखंड के गढ़वाल में कर्णप्रयाग विधान सभा सीट पर मौजूदा संयुक्त वाम मोर्चा के प्रत्याशी हैं। भले ही देश या प्रदेश की सदन में औपचारिक जनप्रतिनिधि के रूप में उन पर मुहर न लगी हो, जनसरोकार के मुद्दों पर असल जनप्रतिनिधि के रूप में वह लगातार जमीनी संघर्ष में मुस्तैद हैं।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन की तपी-तपाई जमीन से संघर्ष और वैचारिकी में उभरे इंद्रेश मैखुरी ने छात्र राजनीति में भी महत्तम ऊंचाई को छुआ है। जनता के संघर्ष में उन्होंने डेढ़ महीने जेल में बिताया, तो गढ़वाल विवि में छात्रसंघ अध्यक्ष भी बने। अध्ययन, वैचारिकी, स्थानीय, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मसलों की समझ और अपनी सर्वप्रियता में वह वाम छात्र संगठन ‘आइसा’ के राष्ट्रीय महासचिव भी बने।
पिछले 27 बरस से उनका राजनीतिक सफर सड़क पर संघर्ष का सफर रहा है। जल, जमीन, जंगल के संघर्ष में पुलिस की लाठियां खाई, चोटिल भी हुए और गिरफ्तारियां भी दी। फिर भी उनका प्रिय तराना- ‘यार सुना है लाठी चारज हल्का-हल्का होता है..’ उन्हीं के मुंह से सुनना किसी को भी लाजवाब कर देगा।
यह सबकुछ मैं एक बारगी नहीं जान पाया। न ही उनके बारे में ऐसी किसी जानकारी से पूर्व परिचित था। एक छोटे कालखंड और सीमित दायरे के आम व सामान्य घटनाक्रम में उनकी खास संवेदनशील मुखर प्रवृत्ति में उन्हें छोटे-छोटे हिस्से में ही इस रूप में जान पाया। और यह भी एक संयोग का घटनाक्रम था।
एक समय स्नातक के बाद इलाहाबाद में संभावनाओं की विस्तारित दुनिया छोड़कर मुझे गांव (यूपी का महराजगंज जनपद) लौटना पड़ा। फिर बीएड के बाद तीन साल तक शिक्षामित्र की संविदा नौकरी छोड़कर श्रीनगर, गढ़वाल पहुंच गया।
बात 2004 की है। मक़सद, पत्रकारिता की पढाई की थी। एमए मॉस कम्यूनिकेशन के दो वर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला के कुछ ही दिन बाद लगा चीजें मनमाफिक नहीं हैं। शुक्र रहा कि शिवालिक और अलकनंदा की खूबसूरत घाटी में गढ़वाल विवि के खुशनुमा परिवेश ने रोक लिया।
पहाड़ के लोगों के अपनत्व ने राहें और आसान कर दी। इन सब में सबसे ख़ास रहा पत्रकारिता विभाग में मीडिया लॉ पढ़ा रहे इंद्रेश मैखुरी का सान्निध्य मिलना। चेहरे पर लंबी दाढ़ी, घुटने के नीचे तक रंगीन खादी कुर्ता और अपने विषय पर उनका सहज व गंभीर व्याख्यान, पत्रकारिता के क्लास में कुछ यूं उन्हें पहली बार देखा।
इलाहाबाद में स्नातक के दौरान ही प्रगतिशील वैचारिकी और प्रगतिशील छात्र संगठनों से थोड़ा बहुत साबका होने के कारण मेरी उनमें खास दिलचस्पी बढ़ी। हालांकि करिअर को लेकर उहापोह वाली स्थिति के चलते मैं यहां थोड़ा रिजर्व वाली मनःस्थिति में था। फिर भी और कोर्स की रिपोर्टिंग असाइनमेंट के लिहाज से भी उनके साथ कुछ गतिविधियों में शरीक हो लेता था।
विश्वविद्यालय कैंपस में नये पुराने सभी छात्रों के लिए वह खास जरूरत थे। नि:संदेह कैंपस में उनकी सर्व स्वीकार्यता थी। परिसर से बाहर भी दुकानदारों, व्यवसायियों और मजदूरों की समस्याओं को लेकर वह नगर के गोला पार्क पर आए दिन धरना प्रदर्शनरत हो जाते। जहां उन्हें सुनने के लिए लोग यह कहकर इकट्ठा होते- ‘इंद्रेश मैखुरी बोल रहे हैं, उन्हें सुना जाये’।
दिल्ली की एक यात्रा में उनके भाषण को सुनकर जब मैंने कहा, आप दिल्ली में ही रहिए। उनका जवाब था- ‘मैं अपना पहाड़ नहीं छोड़ सकता, मुझे पहाड़ के अलावा कहीं अच्छा नहीं लगता।’ इसी यात्रा में मैं जान पाया कि छात्र राजनीति में उनकी उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर है। ऐसे ही कर्णप्रयाग, गोपेश्वर और पहाड़ के गांव की एक सहयात्रा में उनके जमीनी आम जुड़ाव को देखा। जहां लोग, खासकर महिलाएं भी उनके साथ अपने सुख-दुख और समस्याओं पर खुलकर चर्चा करतीं।
पहाड़ की ऊंची-नीची सड़कों पर दूर तक जनगीतों को गाते हुये चले जाना। गांव और कस्बे के चौराहों पर स्वअभिनीत, स्वरचित शानदार नुक्कड़ नाटक का मंचन करना, उनके इन सब हुनर से इस यात्रा में परिचित हुआ। पत्रकारिता विभाग के स्थानीय अध्यापक ने एक ऐसी ही घटना के जिक्र में बताया- ‘होली के दिन इंद्रेश पूरी तरह लड़खड़ाते हुए मेरे घर आया। मैं तो आवाक, उससे पूछा तू कब से पीने लगा ? फिर जब गले मिलकर इत्मिनान से बैठा तब समझ पाया कि वह अभिनय कर रह था।’
मानवाधिकार में डिप्लोमा कोर्स के लिए मुझे कैदियों के मामले में केस स्टडी तैयार करनी थी। अपनी समस्या को लेकर उनके पास पहुंचा। फिर तो उन्होंने कैदी जीवन की विस्तृत दास्तान सुनाई और एक महत्वपूर्ण बात को कोट किया कि जेल में आपके पास पैसे नहीं हैं तो आपके साथ इंसानों सा व्यवहार नहीं होगा। मेरे मन में एक बड़ा सवाल कौंधा और उनसे पूछ बैठा, इतनी जानकारी आपको कैसे? उन्होंने बताया एक राजनीति कैदी के रूप में वह महीने भर से ऊपर जेल में भी रहे हैं।
पत्रकारिता विभाग की समेस्टर परीक्षा की तिथि अचानक घोषित हो गई। कोर्स न पूरा होने वजह से मेरा बैच परेशान था। तय हुआ कुलपति ऑफिस जाकर तिथि आगे बढ़वाया जाये। सभी लोग वहां पहुंचे। कमरे की भीड़भाड़ में मैं सबसे पीछे था। इंद्रेश मैखुरी भी वहां पहुंचे थे, वह मुझे खींचते हुए कुलपति के मेज के सामने तक लाये।
एक शाम मैं हॉस्टल पहुंचा जहां वह एक कमरे में कई लोगों के साथ सामूहिक रूप में रहते थे। विस्तर पर पेंसिल और उससे अंडरलाइन की हुई खुली किताबें और कागज की पुर्जियों से भरी कई बंद किताबें बिखरी पड़ी थीं। पूछने पर पता चला रात में वह प्रूफ और अनुवाद का काम भी कर लेते हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तब भी उनका लिखना जारी था।
उस समय विश्वविद्यालय में वित्तीय घपले घोटाले को लेकर उन्होंने रजिस्ट्रार के खिलाफ एक स्टिंग स्टोरी कर डाली थी। पत्रकारिता विभाग में इसकी खूब चर्चा थी। परिसर की चर्चा में एक अध्यापक ने उनसे पूछ लिया- ‘आप यह सब कैसे कर लेते हो ?’ उन्होंने हंसते हुए कहा- आरटीआई किस लिये मिला है। गौरतलब है उस समय आरटीआई आए साल भर भी नहीं बीता था। मैंने पत्रकारिता की डिग्री में अपना लघु शोध प्रबंध उनकी सलाह पर इसी विषय पर तैयार किया था, जिसमें उन्होंने भरपूर मदद की थी।
उनका लिखने का वह सिलसिला आज भी जारी है। जनसरोकार के मुद्दे पर न्यू मीडिया के हर मोर्चे पर वह खड़े मिलते हैं। राजनीतिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर विभिन्न सोशल माध्यमों पर वह बेहतरीन संवाद करते हुए दिखते हैं। नुक्ता-ए-नज़र ब्लॉग पर उनका आए दिन की घटनाक्रम पर लगातार टिप्पणी और विश्लेषण एक बेहतर इंसानी सोच और सक्रियता की बानगी है।
2005 में पूरे उत्तराखंड में प्राइवेट बीएड कॉलेजोें के विरोध में घमासान मचा हुआ था। सरकार ने भी चालाकी से प्राइवेट कॉलेजों में फीस जमा कर चुके छात्रों और विरोधी आंदोलनकारियों को आमने-सामने कर दिया। पूरे पहाड़ से गढ़वाल विवि परिसर में दोनों पक्षों का भारी जुटान हुआ।
भारी पुलिस बल के बावजूद टकराहट की संभावना बढ़ती जा रही थी। कुलपति कार्यालय के सामने दोनों पक्ष अपनी-अपनी मांगों को लेकर कार्यालय के अंदर घुसने की जिद पर अड़ा था। ऐसे में मंच को इंद्रेश मैखुरी ने संभाला। पूरी दृढ़ता के साथ सभी को विश्वास में लेकर उन्होंने कुलपति पर बाहर आने का दबाव बनाया और घटनाक्रम को किसी बड़े अनहोनी से बचा लिया। मैं इस बेहतरीन राजनीतिक कौशल और नेतृत्व का प्रत्यक्षदर्शी था।
श्रीनगर में कैंपस के भीतर और बाहर उनके बारे में अमूमन यह बात सुनने को मिलता- ‘यार शानदार आदमी है, किसी बड़ी पार्टी से होता तो कब का सांसद विधायक बन जाता’। यही सवाल आज भी स्थानीय मीडिया उनसे यदा-कदा करती रहती है और वह अपने सरोकार व संघर्ष से लोगों लाजवाब करते रहते हैं।
जाहिर है जिस विचारधारा ने इस शानदार व्यक्तित्व को गढ़ा और जो खुद वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के राह पर चल निकला हो उसके लिए बड़ी पार्टी का फलसफा अबूझ नहीं है। हां, धनबल और बाहुबल की लूट-झूठ वाली परंपरा में बड़ी पार्टी का यह फलसफा भले ही पहेली लगे, लेकिन शानदार आदमी की पहचान में शानदार विचारधारा और शानदार पार्टी की पहचान भी जनता एक दिन जरूर कर लेगी।
(ओंकार सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं )