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भारतीय फासीवाद के मूल में सांस्कृतिक पर्यावरण पर वर्णाश्रम के संस्कारों का प्रभुत्व कायम करना

लखनऊ। जन संस्कृति मंच लखनऊ के वार्षिक आयोजन के तहत पहले सत्र में अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम 25 फरवरी को कैफी आजमी एकेडमी, निशातगंज में हुआ। इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने की। व्याख्यान का विषय था ‘भारतीय फासीवादी और सांस्कृतिक प्रतिरोध’’। वक्ता थे जाने माने आलोचक और ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक आशुतोष कुमार। उन्होंने अनिल सिन्हा के लोकतांत्रिक व्यक्तित्व को याद करते हुए आज के हालात और फासीवाद के बुनियादी लक्षण से अपने वक्तव्य की शुरुआत की।

आशुतोष कुमार का कहना था कि यह दमन और उत्पीड़न का दौर है। सच के पक्ष में खड़ा होना और सत्ता की आलोचना करना रिस्की काम हो गया है। गांधी जी ने चरखे को आजादी का प्रतीक बनाया था। वहीं आज बुलडोजर लोकतंत्र का प्रतीक बन गया है। एक अदृश्य तलवार लिखने बोलने की आजादी पर लटक रही है। कोई कह सकता है कि हम यहां गोष्ठी कर रहे हैं। लोकतंत्र है तभी तो यह संभव है। पर हमारी आवाज जैसे ही व्यापकता ग्रहण करती है, वह अदृश्य तलवार अदृश्य नहीं रह जाती है। सरकारों  द्वारा दमन ढाया जाना उसकी प्रवृत्ति है और इसी से तानाशाही का उदय होता है। लेकिन दमन पर खुशी मनाई जाए, हत्या का जश्न हो यह फासीवाद का बुनियादी लक्षण है। यह विभीषिका आज की सच्चाई है। जो लोकतंत्र दिख रहा है, वह सत्ता के अधीन है या उसके रहमो करम पर है। तो दूसरी ओर वह जन पहलकदमी और जनप्रतिरोध की वजह से है।
भारतीय फासीवाद की विशिष्टता पर विचार रखते हुए आशुतोष कुमार ने कहा कि हर एक देश में फासीवाद का एक ही चेहरा हो यह जरूरी नहीं है। यह भी जरूरी नहीं कि वह भारत में गैस चेंबर बनाए। फ़ासिस्टों ने भी अपने अनुभव से सीखा है कि गैस चैंबर बनाकर बड़ी संख्या को अनुकूलित नहीं किया जा सकता है। यदि उसे बड़े अवाम के बीच रहना है तो भ्रम को बनाए रखना है। लोकतंत्र के भ्रम को भी वह बनाए रख सकता है। उन्हें भरोसा है कि  सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक गैस चेंबर बना कर लोगों के संस्कार को अपने प्रभाव में ले आना ज्यादा कारगर है। भारत में फासीवाद का मुख्य संगठन राष्ट्रीय सेवक संघ है। इसने भारत की विशिष्टता को पहचान लिया था कि यहां सांस्कृतिक वर्चस्व प्राथमिक है और राजनीति उसके पीछे है। उनके लिए सांस्कृतिक पर्यावरण पर वर्चस्व स्थापित करना मकसद है। हिटलर व अन्य के लिए राजनीति प्रधान रही है। वहीं संघ की समझ है कि लोगों के संस्कार और संस्कृति पर वर्चस्व स्थापित होने के बाद सत्ता उनके पास होगी। इस बारे में उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ है। वहीं, वामपंथियों की पारंपरिक सोच इससे भिन्न रही है। उनके लिए राजनीति प्राथमिक और संस्कृति की भूमिका सहयोगी के तौर पर रही है।

आर एस एस प्रमुख द्वारा हाल में जांत-पात मिटाने को लेकर की गई टिप्पणी पर बोलते हुए आशुतोष कुमार का कहना था कि वे दलितों के साथ सहभोज भी करते हैं। इसके द्वारा वे हिंदुओं की एकता स्थापित करने और वंचित समुदाय के अंदर अपनी पैठ बनाने की कोशिश में लगे हैं। यहां मूल बात वर्ण व्यवस्था की है। उनके यहां जाति भेद पर बात होती रहती है पर वर्णाश्रम व्यवस्था को खत्म करने की बात वे नहीं करते हैं। रास्ता भले ही बदल जाए लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं बदलनी चाहिए। हमने देखा भी कि सत्ताएं बदलती रही हैं लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं बदलती है।

आशुतोष कुमार ने भारतीय फासीवाद के मूमेंट्स की खास चर्चा की और कहा कि इसके चार प्रस्थान बिन्दू हैं, खिलाफत आंदोलन के जरिए गांधी का राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होना, भारत की आजादी और विभाजन के बाद देश को एकता के रास्ते पर बढ़ाने की गांधी की कोशिश, मंडल कमीशन और नवउदारीकरण से उपजी विषमता। इन चारों मौकों पर संघ ने अपनी राजनीति को एक नया मोड़ दिया और उसका विस्तार किया।
उनका कहना था कि आर एस एस का निर्माण 1925 में हुआ। भारतीय राजनीति में गांधी का एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरना और उनका खिलाफत के साथ जुड़ाव – यह सब हिंदू महासभा और आर एस एस के जन्म के पीछे का कारण है। गांधी भारत की आजादी के संघर्ष का आधार हिन्दू मुसलमान एकता में देखते थे। इसी से यह  आगे बढ़ेगी। उनकी समझ थी। यही उनका अपराध था। इसलिए वे निशाने पर थे। उन पर अनेक हमले और हत्या इसी मंसूबे का हिस्सा था। संघ द्वारा हिंदू मुसलमानों के बीच के संघर्ष के एक हजार साल के इतिहास की बात प्रचारित है जबकि ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि इनके बीच अंग्रेजी शासन में ही दंगे की शुरुआत हुई। हम गौर करें तो पाते हैं कि भारत का इतिहास सहजीवन, सहमेल और मिली जुली संस्कृति का है। मंडल राजनीति ने वर्णाश्रम के लिए चुनौती पेश की थी। मंदिर आंदोलन उसी को बचाने का संघर्ष रहा है। नवदारवादी अर्थव्यवस्था से समाज में असमानता और असंतोष बढ़ा। बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो गई जिसे हिन्दू राष्ट्र के सपने के तहत ही संभाला जा सकता था।

आशुतोष कुमार का कहना था कि भारतीय फासीवाद के मूल में है सांस्कृतिक पर्यावरण पर वर्णाश्रम के संस्कारों का प्रभुत्व कायम करना। स्मृतिहीन, भविष्यहीन देश बनाया जा रहा है। हमसे हमारी स्मृतियां छीनी जा रही है। हम भूल जाएं कि देश में कबीर-रैदास पैदा हुए थे। यह याद भी रखें तो भूल जाएं कि उन्होंने क्या कहा था। बस याद रखें कि इतिहास हिन्दुओं और मुसलमानों के संघर्ष का है। यह अश्लील, हिंसक, वर्णाश्रमी राष्ट्रवाद है जो सांस्कृतिक राष्ट्रीय संहार में लगा है। ऐसे में सरकारों के बदलने से मूल नहीं बदलने वाला है। संस्कारों और संस्कृति के बदलने का प्रश्न प्रधान है। लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की भूमिका बढ़ जाती है। यह लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी इस पर विचार हो। इसके लिए संयुक्त मोर्चा बने। इस दिशा में एकजुट हों। लेकिन इस संकट को समझना पहले जरूरी है।

इस मौके पर प्रो रमेश दीक्षित ने भी अपने विचार रखे। भगवान स्वरूप कटियार के अनिल सिन्हा पर लिखी कविता के पाठ से सत्र का समापन हुआ। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। दूसरा सत्र कविता पाठ और सांस्कृतिक कार्यक्रम का था।

दूसरा सत्र: कविता पाठ और सांस्कृतिक कार्यक्रम
दमन के समय कविता एक हथियार – मिथिलेश श्रीवास्तव
‘जुल्मतों के दौर में गीत गाए जाएंगे’

दमन के समय हमें कविता याद आती है। यह अंधेरा एक दिन में नहीं फैला है। कविता अंधेरे के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करती है। वह जीवन और मनुष्यता को बचाने और समझने की प्रेरणा देती है। आज जैसे-जैसे संघर्ष बढ़ेगा समाज में कविता की जरूरत भी बढ़ेगी।

यह विचार जाने-माने कवि मिथिलेश श्रीवास्तव (दिल्ली) ने जन संस्कृति मंच लखनऊ के सालाना आयोजन के दूसरे सत्र के मौके पर आयोजित कवि गोष्ठी और सांस्कृतिक कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने अनेक उदाहरणों और अपने जीवन के अनुभवों व प्रसंगों के माध्यम से आज के समय की विभीषिका और संस्कृति और संवेदना के स्तर पर आ रहे बदलाव और ऐसे में रचना और रचनाकार की भूमिका को रेखांकित किया। इस मौके पर ‘मरने की कला’ कविता भी सुनाई जिसमें कहते हैं ‘आप बहुरुपिया हैं सरकार/कैसे कर लेते हैं/कैमरे के आगे अभिनय/मंच पर/और मंच परे अभिनय/अभिनय बचा रहता है/जीवन चला जाता है’।

यह कार्यक्रम बीते शनिवार को कैफ़ी आज़मी एकेडमी में आयोजित हुआ। इसका शीर्षक था ‘जुल्मतों के दौर में गीत गाए जाएंगे’। हिंदी, हिंदुस्तानी और अवधी जबान में कई कवियों ने कविताएं सुनाईं। ये अनेक रंग और छटा की थीं। इनमें प्रतिरोध का स्वर था तो समाज की रुढ़ियों पर प्रहार भी था। कविता के विविध रूपों में कवियों ने अपने भावों-विचारों को व्यक्त किया।

कविता पाठ की शुरुआत चन्द्रेश्वर से हुई। उन्होंने ‘तुम्हारा डर’, ‘अफवाहें’, ‘सरल होना’, ‘राजा जी..’ शीर्षक से कई कविताएं सुनाईं और समय के द्वंद्व को उकेरा। वे कहते हैं ‘राजा जी की दो ही आंखें थी /दोनों थीं बेहद खूबसूरत /वे हमेशा चाहती निहारना सुंदर दृश्य /गंदी और गरीब बस्तियों से गुजरते हुए /राजाजी अपनी आंखें मूंद लेते थे’। सत्ता किस तरह सब कुछ अनुकूलित करने में लगी है, इसे कुछ यूं व्यक्त किया ‘तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें देशभक्ति का प्रमाण पत्र दूंगा/…तुम लिखना बंद कर दो, मैं तुम्हें पुरस्कृत कर दूंगा/..तुमा गऊ बन जाओ, मैं तुम्हें माता बना लूंगा!’

डॉ फ़िदा हुसैन ने हालात की परतों को बेपर्दा करते हुए अपनी नज्म सुनाई जिसमें सवाल करते हैं ‘यहाँ दिल धड़कना गुनाह क्यूँ?’ और आगे कहते हैं – ‘तेरे इस जहाँ का जो हाल है, वो बयान करना मोहाल है/वो समझ के कुछ न समझ सके, ये अजीब सूरते-हाल है/न तो कोई उस का जवाब है, न कोई भी उसकी मिसाल है’। उन्होंने ग़ज़ल भी सुनाई जिसके शेर इस तरह है ‘सदियों सदियों अलख जगाना होता है/तब जा कर बेदार ज़माना होता है’।

नाजिश अंसारी ने मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर चोट करते हुए बेबाक अंदाज में दो नज़्म पेश किए । एक की शुरुआत ही यूं किया ‘तमाम दीनी किताबों से अपने हगने मूतने तक का तरीक़ा मिलान करने वालो के पास कुंडली नहीं थी/फिर भी मिलाया/पहले खानदान फिर बिरादरी में ढूंढा/शुद्ध नस्ल का तंदुरुस्त लड़का कोशिश रही कि न हो मसाला, सिगरेट, शराब जैसी कोई लत/हो भी तो चल जाएगा आजकल का चलन है/बिटिया को देखना चाहें देख लें/वैसे ना-महरम से पर्दा है हमारे यहाँ’। कल्पना पंत (उतराखंड) ने भी तीन कविताओं का पाठ किया। वे कहती हैं ‘शीर्ष पर तुम नहीं/तुम्हारी निर्लज्जता बैठी है/वक्त पर तुम नहीं/तुम्हारी जड़ता ऐंठी है’। उर्दू शायरा तस्वीर नक़वी ने इस मौके पर दो नज़्म सुनाकर श्रोताओं की वाहवाही बटोरी।

आशाराम जागरथ ने अपनी चर्चित अवधी में लिखी काव्य गाथा ‘पाहीमाफी’ के आगे के खंड से रचना पाठ किया जिसमें नई दुनिया की कल्पना और स्वप्न है। वे कहते हैं ‘दुनिया नई बसावा जाय/कदम से कदम मिलावा जाय/नेह नियामत सद्-बिसुवास/हूँड़-भाँड़ मा पावा जाय/बकिर बात गठियाये खूँटे/बेहतर दुनिया कै संदेसा /रग-रग से तीत तीत बतिया/बतरसा तीत पीकै देखा’। अशोक श्रीवास्तव ने ‘संकट मे शब्द’ कविता के माध्यम से शब्द, भाषा, संस्कृति के संकट को कुछ यूं व्यक्त किया ‘भाषा के बलात्कार का यह मुकदमा/किसी अदालत मे नही चलेगा/न किसी संसद मे चर्चा होगी/न किसी विश्वविद्यालय मे शोधपत्र लिखा जाएगा/फिर भी तुमसे तो पूछा ही जाएगा हे कविगण हे विद्वज्जन!/तब तुम कहां थे/जब घेर कर मारे जा रहे थे शब्द’। अपनी कविता ‘गीता’ के माध्यम से आज के दौर को उकेरा जहां जनतंत्र एकतंत्र में समाहित हो गया है – ‘विधान सभाओं मे मै ही स्पीकर हूं /सूबों मे मै ही राज्यपाल हूं/आयोगों मे नीति आयोग हूं/संस्थानों मे सी बी आई हूं/मै ही सब कारणों का कारण हूं’।

कार्यक्रम का समापन जनकवि व लोकगायक ब्रजेश यादव के गायन से हुआ। एक गीत के बोल में कहा ‘रामजी के घोड़े/बड़ी मौज में थे धान  के खेत में/वहाँ लोक परलोक सबकुछ था/कि अचानक एक दिन मशीन क्या आ गयी/मानो विपत्ति आ गयी/कितने मारे गये, कितने कुचल दिये गये, कितने अपंग हो गये/भागने की जगह कम पड़ गयी …’। वहीं एक अन्य गीत में कहा ‘सतगुरु! पइसा बहुत सयाना/पूँजीपतियों की ठकुराई, खूनयखून खजाना/देशभक्ति के भरमजाल में, सूर सुजान  भुलाना/होत भिनउखा लोहा लागे, जागे लाल निसाना …’।

कार्यक्रम का संचालन फ़रज़ाना महदी ने किया। इस अवसर पर श्रोताओं की अच्छी-खासी उपस्थिति थी। उन्होंने कविता पाठ और ब्रजेश यादव की प्रस्तुति का आस्वादन किया। जसम लखनऊ की ओर से कलीम खान ने बाहर से आए मेहमानों तथा स्थानीय श्रोताओं और समाज का हार्दिक धन्यवाद दिया।

जसम लखनऊ की नई कार्यकारिणी का गठन

जन संस्कृति मंच लखनऊ के सालाना आयोजन के मौके पर मंच की लखनऊ इकाई की घोषणा की गई तथा उनका परिचय कराया गया। यह 25 सदस्यीय है। अभी एक स्थान रिक्त हैं। इसमें पांच स्त्री रचनाकार हैं। वह इस प्रकार है:

अध्यक्ष: चन्द्रेश्वर, उपाध्यक्ष: अशोक चन्द्र, अशोक श्रीवास्तव, आर के सिन्हा, आलोक कुमार, तस्वीर नक़वी, धर्मेंद्र कुमार, बंधु कुशावर्ती और विमल किशोर।
सचिव: फ़रज़ाना महदी, सह सचिव: कलीम ख़ान, नगीना निशा और राकेश कुमार।
सदस्य: अरविन्द शर्मा, चन्द्रभान, प्रमोद प्रसाद, पीयूष सिंह, बी एम प्रसाद, मधुसूदन मगन, रामायण प्रकाश, रुचि दीक्षित, शशांक अनिरुद्ध, सत्य प्रकाश चौधरी और सिम्मी अब्बास।

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