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आज के समय में बेहद ज़रूरी नाटक है ‘ चम्पारण ने कहा है ’

राजेश मल्ल

महात्मा गांधी की150वीं जयन्ती के अवसर पर रुपातंर नाट्य मंच द्वारा दी.द.उ.गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के संवाद भवन में एक अद्भुत नाटक ‘ चम्पारण ने कहा है ‘ देखने का अवसर मिला। विलक्षण प्रस्तुति ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। मेरे लिए यह अतिरिक्त गौरव का विषय था कि नाटक के लेखक आनन्द पाण्डेय और निर्देशक अमल राय मेरे बेहद अपने हैं तथा रुपातंर मेरा गुरुकुल।
अद्भुत इस संदर्भ में कि आज किसानों के सवाल को साहित्य विमर्श से बाहर ढकेल दिया गया है। आनन्द पाण्डेय ने बहुत ही खूबसूरती से देश के सबसे बड़े समूह किसान जो आज आत्महत्या करने पर मजबूर है, को चम्पारण के हवाले से कलात्मक केन्द्रीयता दिया है और स्थापना दी कि आज पूरा देश ही चम्पारण बन गया है। सभी सूधी जन जानते हैं कि चम्पारण के किसान आंदोलन ने गांधी जी को बापू नाम दिया और विश्वव्यापी ख्याति। नील पैदा करने वाले अंग्रेजों के अत्याचार से चम्पारण कराह रहा था। दो व्यक्तियों के निरन्तर अनुरोध पर गांधीजी चम्पारण आए। किसानों से मिले और आन्दोलन शुरू किया। साथ ही सुधार कार्यक्रम। स्वच्छता अभियान। शिक्षा का अभियान। गांधी जी छः महीने तक टिके रहे। थोड़ी राहत मिली लेकिन उनके जाने के बाद स्थिति में कोई क्रांतिकारी सुधार नहीं हुआ। बावजूद इसके गांधीजी चम्पारण नहीं लौटे।
नाटक अपने पूरी बुनावट में इतिहास के उस काल खंड और गांधी तथा कांग्रेस की किसानों के प्रति रुझान एवं प्रस्तावित आजादी के स्वप्न में किसानों की स्थिति के अन्तर्विरोध को अत्यंत कलात्मक ढंग से उठाया है। यह ऐतिहासिक सच है कि राजकुमार शुक्ल और पीर मोहम्मद ने गांधी जी से मिल कर चम्पारण आने के लिए कई बार अनुरोध किया था। यह भी सच है कि पीर मोहम्मद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने चम्पारण के किसानों की समस्याओं को लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी के चर्चित पत्र प्रताप में लगातार लिख कर उठा रहे थे। यह भी सच है और ऐतिहासिक तथ्य है कि गांधी जी ने पहली बार भारत में जन आंदोलन की शुरुआत यहीं चम्पारण से की। आज भी इसे चम्पारण सत्याग्रह नाम से जाना जाता है। लेकिन इस सत्याग्रह की प्रक्रिया तथा आगाज़ गांधीजी के अहिंसा,सत्य और हृदय परिवर्तन के विचारों की पहली परीक्षा भी थी।
नाटक के पहले दृश्य के आरम्भ के साथ ही एक तरफ किसानों के हालात को उठाया जाता है तो दूसरी तरफ गांधी जी आन्दोलन के विचारों के प्रति संशय को रेखांकित किया जाता है। जहां राजकुमार शुक्ल गांधी के साथ पूरी तरह समर्पित भाव से लग जाते हैं वहीं पीर मोहम्मद गांधी के प्रति शंकालु बने रहते हैं। वे गांधीजी से सवाल करते हैं। क्या निलहे अंग्रेजों का मन बदल जाएगा? क्या वे किसानों से टेक्स नहीं लेंगे ? वे मनचाही फ़सल बोने की परमिशन देंगे। गांधी जी कहते हैं यह तो तब होगा जब स्वराज होगा। लेकिन मुझे ज्यादा नहीं वल्कि पच्चीस-पचास प्रतिशत की कमी आएगी। गांधीजी साफ़ कहते हैं किसानों के मन में बैठे हुए डर को निकालना होगा। उन्हें साफ सफाई और शिक्षा से जोड़ने के लिए काम करना होगा। उन्हें भी मनुष्य की तरह जीवन जीने का अधिकार है। यहीं पीर मोहम्मद एक नया सवाल खड़ा करते हैं। गांधीजी आप के सुराज में किसानों की स्थिति कैसी होगी। गांधीजी कहते हैं वह किसानों मजदूरों का ही राज होगा।पीर मोहम्मद कहते हैं कि ऐसा नहीं हुआ तो? गांधीजी साफ़ कहते हैं कि तब वह गांधी का स्वराज्य नहीं होगा।
नाटक अपने अगले दृश्यों में इसी नुक्ते को आगे बढ़ाकर आज़ के गम्भीर सवाल में बदल देता है। गांधी का स्वराज्य नहीं है यह और पूरा देश आज चम्पारण है। नाटक गांधी के अद्भुत संगठन क्षमता आन्दोलन को दिशा देने तथा जनता को बड़े उद्देश्य के लिए सक्रिय बना देने की ताकत को अलग से पहचान कराता है। अंग्रेजी सरकार की नोटिस के विरोध से लेकर जनता के बीच नए जीवन मूल्यों को स्थापित करने की जद्दोजहद संघर्ष और सुधार के अभिनव प्रयोग को उकेरा गया है। नाटक अपने अंतिम दृश्य में आकर आज की केन्द्रीय समस्या से सीधे जुड़ता है। दिल्ली से चम्पारण पर शोध करने आए दो युवकों को संबोधित करते हुए राजकुमार शुक्ल और पीर मोहम्मद के प्रतिनिधि बनें बूढ़े किसान ने अपने अंदाज में सवाल दर सवाल करता है -‘ चम्पारन ने गांधी पर एहसान किया था। चम्पारन के अपनी आत्मा खोलकर दिखाई उन्हें। निकलंक, निष्पाप। उन्हें बापू पुकारा।बापू नहीं आए।वे महात्मा हो गए।हम उनके इतंजार में खड़े खड़े पेड़ के मानिंद जड़ हो गए। यह पीछे देख रहे हो स्कूल जो गांधी जी के साथ पीर मोहम्मद ने बनाया था वह भी आज बापू को बुला रहा है। जहां खेत है। जहां किसान हैं।सब चम्पारन है। सब गांधी को बुलाते हैं ।आओ गांधी। आओ । यह मूनिस हमकों उकसा रहा है। उलाहना दे रहा है। उस गांधी ने कहा था। अगर स्वराज में किसान के चेहरे पर खुशी नही तो वह गांधी का स्वराज नही । मूनिस हर खेत के कान में यही बात दोहरा रहा है। वह धूल है।उड़कर कही चला जाता है। गांधी का चेला। गाधी से बगावत करता है । भड़काता है। गांधीजी को फिर बुलाता है।
शोध छात्र कहते हैं- एक – हमे पता है। चम्पारन का दुख।हर जगह चम्पारन ही दिख रहा है। इस स्कूल को देखो। कैसा खड़ा है। इस धूसरित जमीन के सीने में गड़े खंजर की तरह। कैसा दर्द देता होगा न। वह दर्द महसूस होता है तुम्हें बाबा। कहीं चले क्यों नहीं जाते। इसके जवाब में बूढ़ा कहता जो नाटक का निचोड़ निष्कर्ष है। – अब हमें कुछ महसूस नहीं होता। इतिहास हमारे सीने में रूक सा गया है। हम जायेंगे कहां। हम इन्तजार करने के लिए अभिशप्त हैं। इतिहास ने हमें यही ठहरने को कहा है। उसने कहा ‘रूको यही’। जाकर लाता हूं। कोई नायक। एक और बापू। यहां बैठे उस नायक, उस बापू का चेहरा बना रह हूं। आदमी की शक्ल होगी या किताब की। कही जलती र्ह हुई मशाल न हो। जला न डाले सब खेत। सब खलिहान। या हो कोई गरम हवा कोई आग भर देगी। सांस दर सांस। कोई चेहरा नहीं बनता। इतिहास लेकर लौटेगा। जरूर कोई नायक। मैं यहां बैठूंगा। तुम लोग जाओ। रात बहुत हो गई है । बूढ़ा पूछता है कहां से आए हैं ? छात्र- दिल्ली से आए हैं। चम्पारन और उसके किसानों पर काम करने। उससे रूबरू होने। अच्छा चलते हैं। बूढा- जब दिल्ली जाना तो ये फूल फेक देना गांधी बाब की समाधि पर। कहना मूनिस ने भेजा है। इसमें धूल है मूनिस की। – आप मूनिस के कुछ लगते हैं। – हां मैं मूनिस का सगा हूं। मै किसान हूं। गांधी से कहना ‘तुम्हारा हिन्दुस्तान नही बना महात्मा’। चम्पारन ने कहा है। नही बना तुम्हारे सपपनो का हिन्दुस्तान, कब आओगे बापू ? हर खेत, हर किसान, हर आदत, हर कमी, हर खूबी। बापू की तलाश में है। उसके हिन्दुस्तान में उसका नाम लिखने का बेताब।
बेहद कसा हुआ निर्देशन तथा उच्च कोटि का अभिनय नाटक को नई उंचाई प्रदान करता है। इस प्रकार से अपने कथ्य, रूप और अभिव्यक्ति के स्तर पर आज के समय में बेहद ज़रूरी नाटक है, चम्पारण ने कहा है।
( लेखक दी द उ गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं )

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