समकालीन जनमत
स्मृति

मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो: मंगलेश स्मृति

मिथिलेश श्रीवास्तव


दिल्ली शहर मंगलेश डबराल की कविता ‘मत्र्योश्का’ की तरह है ( मत्र्योश्का रूस की एक लोकप्रिय गुड़िया है जिसमें लकड़ी की बनी क्रमशः बड़ी से छोटी होती हुई एक जैसी कई गुड़िया समाई रहती हैं. यह कविता उन्होंने 1998 में लिखी थी. 1996 में वे मास्को में आयोजित दिल्ली सांस्कृतिक उत्सव में भाग लेने सोवियत रूस  गए थे. मास्को यात्रा से लौटे तो अपने साथ मत्र्योश्का गुड़िया लाए थे) . शायद इसका पहला ड्राफ्ट या आख़िरी ड्राफ्ट सबसे पहले मैंने ही सुना था और  मत्र्योश्का की सारी परतों और हर परत की गुड़िया को मैंने देखा था. यह गुड़िया बनाने की अद्भुत कला है और जिसकी हर परत में एक सुंदर  स्त्री रहती है और अँधेरा रहता है और एक ख़ामोश इतिहास रहता है. यह कविता उनके कविता संग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ में संकलित है जिसका प्रथम संस्करण वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ था;
‘मत्र्योश्का तुम सुंदर और मासूम हो
बच्चों की प्यारी गुड़िया तुम्हारे भीतर परतें हैं
हर परत एक स्त्री है उसका ख़ामोश इतिहास
………………………………………………….’
दिल्ली शहर के भीतर  ‘मत्र्योश्का’ की तरह कई शहर हैं और इन शहरों के भीतर कई इलाके हैं. हर  इलाके की  अपनी सुंदरता और विशिष्टता है; अंधेरा और इतिहास है ; इतिहास दर्ज़ होता भी है, नहीं भी होता है, लेकिन स्वभाव बदलता भी है. मत्र्योश्का और दिल्ली में यही एक फ़र्क है. इन शहरों और इलाकों को कई बड़ी और छोटी सड़कें जोड़ती हैं. इन सारी सड़कों से आप प्यार नहीं कर सकते, गुजर सकते हैं  जबकि सड़कें दिल्ली के भूगोल के भीतर ही हैं. लेकिन एक सड़क से प्यार किया जा सकता है जहां मंगलेश डबराल के पैरों के निशान हैं जिस पर वे इस ख़राब होते हिंदी समाज में रोशनी की टॉर्च लिए चलते  रहे, प्रतिरोध की आवाज़ ध्वनित करते  रहे. संगतकारों, गुमशुदा और वंचित लोगों का गीत गाते  रहे.
दिल्ली के साकेत शहर में  पुष्पविहार नाम का  इलाका है जिसमें कई सेक्टर हैं और जिसके सेक्टर-एक से गुजरने वाली सड़क सुनहरी यादों का  एक संदूक है. यह सड़क पुष्पविहार सेक्टर 5 से होकर जाने वाली एक दूसरी सड़क से निकलती है और सेक्टर एक को दो भागों में बांटते हुए उसके  बीचो-बीच से होते हुए एक तीसरी सड़क में विसर्जित हो जाती और वहां से उस सड़क पर बाएं मुड़कर कुछ सौ कदम चलने के बाद  डीटीसी का एक बस-स्टैंड आता हैं जहां से 501 नंबर की बस आईटीओ होते हुए दिल्ली के अंतर्राजीय बस अड्डे तक जाती है.
इन सड़कों के तेवर पहाड़ी नदियों की तरह हैं जो निकलती जाती हैं और एक दूसरे में विसर्जित होती चली जाती हैं. वे सड़कें आज भी हैं और 501 नंबर की डीटीसी की बस आज भी चलती है. सेक्टर 5 से जो सड़क सेक्टर एक की ओर  जाती है,  सेक्टर एक को दो हिस्सों में बांटती हुई,  उसके एक हिस्से में मंगलेश डबराल का घर और दूसरे हिस्से में  मेरा  घर था. बीच में दिल्ली में  दूध और उसके अन्य उत्पाद बेचने वाली  मदर डेयरी का बूथ है जिसके बगल में एक सब्जी वाले की दूकान थी; उसके बगल में पान-सिगरेट बेचने वाले का खोखा था. मालूम नहीं सब्जी वाला और उसकी दूकान और पानवाला अब हैं  कि नहीं; मुझे भी पुष्प विहार छोड़े हुए कई साल हो गए लेकिन यकीन के साथ कह सकता हूँ कि वह सड़क वहीं  होगी और उस सड़क के किनारे मंगलेश डबराल के पैरों के निशान अभी भी होंगे जिन्हें सिर्फ कुछ लोग  ही पहचान सकेंगे, जैसे कि विरेन डंगवाल जो कुछ साल पहले ही कैंसर से लड़ते भिड़ते हमें अकेला कर गए, दिल्ली आते तो मंगलेश डबराल के घर ही रुकते; उन्हीं  के घर विरेन डंगवाल से मेरी पहली मुलाकात हुई. आलोक धन्वा उनके प्रिय समकालीन मित्रों में हैं जो अक्सर उनके घर आया करते.
हम  तीनों प्रेस एन्क्लेव में रघुवीर सहाय से मिलने जाते एक शार्ट-कट रास्ते से जिसमें एक  कब्रिस्तान भी पड़ता था, जाया करते थे.  कब्रिस्तान का जिक्र अनायास आया  है. आलोक धन्वा को  उस शार्ट-कट रास्ते में पड़ने वाले  कब्रिस्तान की स्मृति आज भी है. कब्रिस्तान का जिक्र यों ही नहीं आया है. हिंदी के तीन धर्मनिरपेक्ष कवि कब्रिस्तान से होकर एक धर्मनिरपेक्ष कवि के घर जाया करते थे. हिंदी कविता किसी भी दौर में सांप्रदायिक नहीं रही है. बीसवीं सदी के नौवें और दसवें दशक  और इक्कीसवीं सदी के शुरू से लेकर अभी तक हिंदी कविता हिंदी समाज को सांप्रदायिकता से बचाने की लड़ाई लड़ रही है. सामंतवाद, निराशा और स्वप्नभंग से हिंदी कविता लड़ ही रही थी कि सांप्रदायिकता एक बड़े ख़तरे के रूप में सामने आ खड़ी हुई.
मंगलेश डबराल सांप्रदायिकता के विरोध में आजीवन संघर्ष करते रहे. प्रेम और रोटी की पीड़ा महसूस हो ही रही थी, सांप्रदायिकता की पीड़ा भयानक थी. 1990 के दंगे, 6 दिसम्बर 1992 को  बाबरी मस्जिद विध्वंस, सांप्रदायिक और हिंदूवादी शक्तियों के उभार के दौर में मंगलेश डबराल का हृदय हाहाकार कर रहा था. वे लगातार कह रहे थे आग की इंसानियत की कथा इस समाज को: ‘गुजरात के मृतक का बयान,’ ‘सोने से पहले,’ ‘ताक़त की दुनिया,’  और कई ऐसी कविताएं सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ हो रहे संघर्ष से निकली हैं. उनमें  एक ऐसे स्पर्श की चाहत थी जो कंधे नहीं छीलता और न जो आततायी की तरह गुजरता है. मनुष्यता के ख़िलाफ़ हो रहे एक ऐसे साज़िश को भी वे  देख रहे थे, उनकी कविता ‘छुओ’ की कुछ पंक्तियां :
”……………………..
कृपया छुएं नहीं या छूना मना है जैसे वाक्यों पर विश्वास मत करो
यह लंबे समय से चला आ रहा षड्यंत्र है 
तमाम धर्मगुरू ध्वजा-पताका-मुकुट-उत्तरीयधारी
बमबाज़ जंगखोर सबको एक-दूसरे से दूर रखने के पक्ष में हैं 
वे जितनी गंदगी जितना मलबा उगलते हैं 
उसे छूकर ही साफ़ किया जा सकता है 
…  …  ”  
वे  ऐसे स्पर्श के अविष्कार का  स्वप्न देख रहे थे, और उन्हें उम्मीद भी थी, मनुष्यविरोधी ताकतों के द्वारा फैलाई जा रही गंदगी और मलबा को अपने स्पर्श से साफ़ कर देंगे  . एक प्रतिराजनीतिक अंतःक्रिया, एक प्रतिरोध की आवाज़, एक गिलहरी जैसे जीवन की तलाश में इस भयानक होती गयी दुनिया में एक कवि अकेले चलता रहा जो मारा गया हवा में तैरते हत्यारों के हाथों. तारीख़: 9 दिसंबर, 2020,  जगह अखिल भारतीय मेडिकल विज्ञान संस्थान का आधुनिकतम सुविधाओं से युक्त विस्तर; तमाम धर्मगुरू ध्वजा-पताका-मुकुट-उत्तरीयधारी
बमबाज़ जंगखोरों का एक प्रतिपक्ष कम हो गया.
मंगलेश डबराल ने जब अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदूवादी ताकतों के विरोध में लौटाया था तो वे शक्तियां हिलने लगी थीं और अभी भी पुरस्कार वापसी की घटना का जिक्र ये ताकतें यदा कदा  करती हैं. कोरोना से हो रही मौतों को  इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नरसंहार कहा है और मद्रास उच्च न्यायालय ने हत्या का नाम दिया है.हम सब जानते हैं कि  पिछले साल सत्ता में बैठी सांप्रदायिक ताकतों ने कोरोना प्रबंधन में अक्षम्य लापरवाही बरती थी और इस साल वही  अक्षम्य लापरवाही फिर से दोहरायी गयी  है.
मंगलेश डबराल साफ़ शब्दों में कहा करते थे कि ‘वे मार्क्सवादी हैं हालांकि वे किसी लेखक संगठन के सदस्य नहीं हैं. जन संस्कृति मंच से वे बहुत बाद में जुड़े. उनके मार्क्सवाद में धर्मनिरपेक्षता शामिल है. बाबरी मस्ज़िद को जब गिराया गया वे बहुत बेचैन रहते थे. उनकी बेचैनी को मैंने देखा था और महसूस किया था. उनकी बेचैनी बाहर से ओढ़ी हुई नहीं थी, वह उनकी मार्क्सवाद और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता और सरोकार से निकली हुई थी.  उन्हीं के घर कई लोगों से मेरा परिचय हुआ जैसे, आलोक धन्वा,  सुभाष  धुलिया, लीलाधर जगूड़ी, असद ज़ैदी, गिरधर राठी, विनोद भरद्वाज, प्रयाग शुक्ल, शिवप्रसाद जोशी इत्यादि . पुष्पविहार की वह सड़क सनसनी से भरे समय की गवाह है. एक कवि के बड़े होते जाने के समय की गवाह है वह सड़क. बहुमंजिली इमारत की सबसे ऊपर वाली चौथी मंजिल पर किराए का उनका फ्लैट था; परिवार में उनकी पत्नी संयुक्ता डबराल, बेटी अल्मा डबराल, बेटा मोहित डबराल और मंगलेश जी की मां. अल्मा और मोहित  साकेत के ज्ञानभारती स्कूल में पढ़ रहे थे. उस फ्लैट में मैंने मंगलेश डबराल को उनको  उनके बनने के  दिनों में देखा जिसमें वे एक कवि के रूप, एक पिता के रूप में एक पति के रूप में बनते संवरते बड़े हो रहे थे,  मंगलेश डबराल को सड़कें अच्छी लगती हैं.
उन्होंने अपनी एक किताब का नाम भी रखा है ‘एक शहर एक सड़क.’ उन्होंने कहा भी है, ” शायद किसी ऐसी जगह का आदमी हूँ, जो चेखव की कहानियों में वर्णित जगहों जैसी है, जहाँ एक सड़क है, एक बाज़ार है, एक पुस्तकालय, एक कॉलेज, एक अस्पताल, एक श्मशान, एक नदी है. मैं एक ऐसी जगह का आदमी हूँ जहाँ एक से अधिक कोई चीज़ नहीं है और कुछ लोग रहते हैं जो रात में थोड़ी सी रोशनी जलाते हैं, जो किसी पर निर्भर नहीं रहते हैं. ( उपकथन, मंगलेश डबराल पंद्रह संवाद, मिथिलेश श्रीवास्तव की बातचीत )”  पुष्प विहार शायद वैसी ही एक जगह उन दिनों  थी जहां  एक सड़क थी, कुछ लोग रहते थे और उस सड़क के किनारे एक मोची था जो जूते और चप्पलों की  मरम्मत करता था, पान सिगरेट की एक छोटी सी दूकान  थी, मदर डेयरी का एक बूथ था और बस-स्टैंड जाने का एक रास्ता.
चेखव की कहानियों जैसी  उस छोटी सी जगह में एक कवि की  विराट दुनिया थी. उस सड़क पर मंगलेश डबराल, बीरेन डंगवाल और मैं टहलते हुए कई शामें गुजारीं. हमारा टहलना पान की दूकान से शुरू होता और फिर उसी दूकान पर ख़त्म होता. वीरेन डंगवाल पान खाते  हुए और मैं और मंगलेश डबराल सिगरेट फूंकते हुए. वीरेन डंगवाल की उपस्थिति में मंगलेश डबराल को अत्यधिक खुश होते हुए मैंने देखा था. उस सड़क पर हमलोग ऐसे आदमी की तरह महसूस करते जैसे कि अपनेपन का एक बड़ा खज़ाना हमारे हाथ लग गया है. बीरेन डंगवाल के लौट जाने के बाद मैं कुछ दिन उदास जरूर रहता लेकिन इस उदासी से उबरने में मंगलेश डबराल की उपस्थिति मदद करती. इतने समीप रहने का एक लाभ मुझे यह मिला कि मैं सुबह शाम कभी भी उनसे मिलने उनके घर जा सकता था. जितने वे अपने लगते उतने ही अनजान भी. उनके बारे में जितना जानने की  कोशिश करता उतना ही उनको लेकर मैं अनजान भी हो जाता. उनके भीतर एक दुनिया थी तो बाहर भी एक दुनिया थी. बाहर और भीतर दोनों ही दुनियाओं में इंसानियत, स्पर्श, अपनापन और सरोकार लबालब भरे हुए. बाहर की उनकी दुनिया का स्पर्श मैं महसूस करता, उनके  भीतर की दुनिया का स्पर्श उनकी कविताओं में सृजित होकर आता. भीतर की उनकी दुनिया बहुत विस्तृत और मनुष्यता से भरी हुई है .
मैं रोज कल्पना किया करता कि मंगलेश डबराल की सुबह कब और कैसे शुरू होती होगी. उनकी सुबह अद्भुत होती. मैं उनकी दुनिया का पता लगाने अक्सर सुबह में निकलता उसी सड़क पर. उनके घर की ओर जाने वाली गली की ओर मुड़ता तो देखता पाजामे-कुर्ते में मंगलेश डबराल एक हाथ में दूध की बाल्टी और कंधे में झोला लटकाए चौथी मंजिल के अपने फ़्लैट से सीढ़ियों से उतर रहे हैं. उस समय  वे पूरा गृहस्थ लगते.  उनका पहला पड़ाव सिगरेट का खोखा होता जहां  वे सिगरेट का डिब्बा खरीदते, एक सिगरेट निकालकर माचिस की तीली से जलाते, और पीतेे.  चश्मे  लगे गहरी आँखों से कहीं किसी अनंत को ताकते. सिगरेट वाले से उसका हालचाल पूछते जैसे कि उसे सालों से जानते रहे हों. सब्जी की दूकान पर बैठ जाते और आलू टमाटर प्याज इत्यादि को गौर से देखते जैसे कि कविता के लिए शब्द चुन रहे हैं. उनकी उंगलियां सब्जियों को ऐसे छूतीं जैसे स्पर्श से महरूम इंसानों को स्पर्श का एहसास करा रहे हैं. सब्जी वाले से आत्मीय हो जाते, उसके घर का हाल पूछते. मदर डेयरी के बूथ से टोकन खरीदते और  डब्बे में दूध भरते.  दूध लेने के बाद घर की ओर मुड़ते एक और सिगरेट जलाते और घर चले जाते. दूधवाला, पान वाला, सब्जीवाला और  मोची उन्हें  रोज़ देखते, उन्हें देखने का मौका मिलता. मंगलेश डबराल अपनी आवाज़ के  स्पर्श से उनको सराहते, एक बार मैंने मंगलेश डबराल से पूछा कि आप सब्जी बेचने वाले से, पान वाले से , मोची से, दूध वाले से इतने आत्मीय होकर उनका हालचाल पूछते हैं, आपको संदेह नहीं होता कि अपना काम करने के बाद वेलोग  इंसानियत के ख़िलाफ़  प्रचारक बन जाते होंगे.
मनुष्य और मनुष्यता में मंगलेश डबराल की  पूरी आस्था थी. उन्होंने कहा कि इन्हीं लोगों से दुनिया बची हुई है. संघर्षशील और श्रमिक कभी इस दुनिया को तबाह नहीं करते. शायद मंगलेश डबराल को वे अपना नियमित ग्राहक समझते होंगे लेकिन उन्हें यह एहसास जरूर होगा कि  वे एक ऐसे व्यक्ति को रोज़ देखते हैं जो उनके पक्ष में खड़ा रहने के लिए इस दुनिया में आया है. मंगलेश डबराल की दुनिया ऐसे ही  श्रमशील और मेहनतकश और हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों की दुनिया है. फिर वे दूबारा उसी सड़क पर आते ग्यारह बजे दिन के बाद जनसत्ता के दफ्तर जाने के लिए और 501 नम्बर की बस पकड़ने उसी बस  स्टैंड पर जाते. बस  वहीं  से बन कर चलती तो बैठने की जगह मिल जाती.  बस में खड़े  होकर यात्रा करना पड़े तो वे कभी नाखुशी प्रकट नहीं करते, झुंझलाते नहीं, अपने भाग्य को नहीं कोसते कि उनके पास गाड़ी नहीं है, सुविधाएं नहीं हैं. बस में लोगों के साथ सफर करते वक़्त वे खोये नहीं रहते, चैतन्य रहते जैसे कि उनकी भीतरी दुनिया में कई हलचलें  हैं.  सड़क पर कम रोशनी की शिकायत उन्होंने कभी नहीं की.
मंगलेश डबराल पुष्प विहार में रहने कब आए थे मैंने उनसे कभी नहीं पूछा लेकिन नौकरी की तलाश में दिल्ली वे  1969 में आ गए थे. हिंदी पैट्रियट में उपसंपादक की नौकरी करने लगे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुखपत्र सोशलिस्ट भारत, हिंदी साप्ताहिक प्रतिपक्ष में काम   करने के बाद दिल्ली से भोपाल चले गए जहां मध्य प्रदेश कला परिषद् की पूर्वग्रह पत्रिका में  सहायक संपादक के रूप में लगभग दो साल काम किया.  अमृत बाजार पत्रिका के अख़बार अमृत प्रभात में काम करने 1977 में में इलाहाबाद चले गए; उसी अख़बार में काम करने  लखनऊ भेज दिए गए जहां मैगज़ीन संपादक के रूप में काम किया और साहित्यिक पृष्ठों के भी इंचार्ज बनाये गए. 1983 में दिल्ली लौटे जनसत्ता के रविवारीय के संपादक के रूप में जहां 20 वर्षों तक काम किया.
मैं दिल्ली  1980 में आ गया था लेकिन सरकारी नौकरी की तलाश में भटक रहा था इसलिए हिंदी की साहित्यिक दुनिया से ठीक से जुड़ नहीं पाया था. 1986 में पुष्प विहार में रहने चला गया था. वहां मेरे क़रीबी मित्र ग़ज़लकार सुनील मिश्र के  बड़े भाई अनील मिश्र  रहते थे  दिल्ली विश्वविद्यालय के पी  जी  डीएवी कॉलेज में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक थे , तो ये दोनों भाई मेरी कविताओं के पहले श्रोता होते. शायद मेरी कविता से आज़िज़ आकर एक दिन अनिल  मिश्र ने मुझसे कहा, चलिए आपकी मुलाकात मंगलेश डबराल से  करवाता हूँ.
मंगलेश डबराल से पहली मुलाक़ात किस्से जैसा है या एक इत्तेफ़ाक़. जीवन में इत्तेफ़ाक़ न हों तो जीवन बदलता नहीं है.  मंगलेश डबराल का नाम  बहुत सुना हुआ था क्योंकि उन दिनों दैनिक अखबार जनसत्ता मंगवाता लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि उसमें वे काम करते हैं. कभी कभी जनसत्ता में उनके लेख वैगरह छपते और मैं पढ़ता. हमलोग पुष्प विहार के सेक्टर-एक में रहते थे. अनील  मिश्र कुछ ब्लाकों के अंतराल पर  रहते थे  और मंगलेश डबराल मेरे घर से सड़क के उस  पार कुछ ब्लॉकों  की दूरी पर  रहते. मैं और अनील मिश्र मंगलेश डबराल के घर पहुंचे.
 मंगलेश डबराल ने पूरी गर्मजोशी से हमलोगों का स्वागत किया. मुझे तो ऐसा लगा जैसे वे मुझे बरसों से जानते हैं. ऐसा उनके सहृदय व्यवहार से लगा. उन दिनों मेरी कविताएं कहीं ऐसी जगह नहीं छपी थीं जो कविता की दुनिया में लोकप्रिय रही हो. ज़ाहिर है अनील मिश्र को बताना पड़ा कि मैं भी कविता लिखता हूँ. मंगलेश डबराल ने उस पहली और छोटी सी मुलाकात में मुझसे पूछा, ‘ कविताएं लाए  हैं. “मैं तो उनसे मिलने गया था, कविता लेकर नहीं.” मंगलेश डबराल ने कहा आते रहिएगा और अगली बार आइएगा तो अपनी कविताएं लेते आइएगा. यह  मेरी पहली मुलाकात थी और इस मुलाकात में उनकी आत्मीयता ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. उनके घर से निकलते वक्त मैंने उस सुनसान सड़क की ओर देखा और उससे  कहा मंगलेश डबराल से मेरी इस मुलाकात को याद रखना.
मंगलेश डबराल की वह याद मेरी स्मृति में इत्र की खुशबू की तरह फ़ैल गयी. उस पहली मुलाकात के समय मुझे पता चला कि मंगलेश डबराल एक पत्रकार हैं, एक कवि हैं और एक अच्छे मनुष्य हैं. उनसे मेरी यह मुलाकात साल 1988 में हुई थी और उसके बाद मुलाकातें बढ़ती गयीं और एक पारिवारिक रिश्ता भी बन सा गया.  उस समय वे 43 वर्ष के युवा थे , दमकता हुआ सौम्य चेहरा, दिगंत में झांकती बेचैन आँखें, दुनिया की परवाह में डूबे म्यूजिक सिस्टम पर बज रहे शास्त्रीय संगीत के अलापों में अंदर की शांति की कोशिश करते मंगलेश डबराल का जीवन सादा और साधारण था लेकिन उसमें उनका अपना स्टाइल और फ़ैशनबेल पसंद थी. जूते के फीते  बांधते तो किसी रॉकस्टार से कम नहीं लगते. कमीज़ के बटन को   काज़  में लगाते समय उनकी उंगलियां ऐसे सरपट दौड़तीं जैसे उस्ताद की उंगलियां सितार के तारों  पर दौड़ती हैं. स्वाद के शौक़ीन लेकिन स्वाद के पीछे नहीं भागते.
अपनी निजी पुस्तकालय की किताबों की देखभाल करते, धूल झाड़ते, क़रीने  से सजाते. किताबों से मोहब्बत करना मैंने उनसे सीखा. तीन कमरों वाले फ्लैट में एक कमरा उनका था जिसमें दोनों तरफ खिड़कियां  थीं  जो हमेंशा खुली रहतीं. उस खिड़की, जो सड़क की ओर  खुलती, से सटे उनकी टेबल और कुर्सी थे जहां  बैठकर वे पढ़ा लिखा करते. अच्छा सा और खूबसूरत सा एक म्युज़िक सिस्टम था जिस पर शास्त्रीय संगीत बजता ही रहता. उनकी आवाज़ में हकलाहट थी जो खूबसूरत लगती जैसे पूर्णविराम. खरखड़ाहट वाली आवाज़ बुलंद थी, विचार, प्रतिरोध और मनुष्यता से निर्मित; उनकी आवाज़ में किसी के लिए अपमान, घृणा, गुस्सा या भेदभाव नहीं था. जब मैं मिला तब वे अपने गांव काफलपानी (जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड तब उत्तर प्रदेश ) से वे करीब सत्तरह साल पहले निकल आये थे और पत्रकारिता की दुनिया में खासी प्रतिष्ठा अर्जित का ली थी. यहां, उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां उद्धृत करूंगा जो उनके काफलपानी से आने की दास्तान कहती हैं, या कहें किसी के भी विस्थापन का क़िस्सा जैसा है:
” इतने समय से तुम क्या खोजते हो इस शहर में
  जहां एक धुंधली युवावस्था में तुम आये थे
  पहाड़ से पत्थर की तरह लुढ़कते हुए “
(कविता: शहर फिर से , संग्रह: मुझे दिखा एक मनुष्य, वर्ष 2005)
‘हिंदी पैट्रियट’ से उनका पत्रकार जीवन शुरू हुआ था. साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष,’ ‘आसपास’ ‘ पूर्वग्रह’ और ‘अमृत प्रभात’ साहित्यिक पत्रकारिता करने के बाद वे जनसत्ता पहुँचे और उन दिनों जनसत्ता के परिशिष्ट संपादक थे. 1981 में उनका पहला कविता-संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ राधाकृष्ण प्रकाशन से छप चुका था  जिस पर उनको 1982 का ओंमप्रकाश साहित्य सम्मान मिला. बर्टोल्ड ब्रेख्ट,  पाब्लो नेरुदा, अर्नेस्तो कार्देनाल  जैसे अपने पसंदीदा कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर चुके थे.
1988 में ही उनका दूसरा संग्रह ‘घर का रास्ता’ भी आया, ‘पहाड़ पर लालटेन’ को उन्होंने अपने प्रिय मित्र और अपनी पीढ़ी के मशहूर कवि आलोक धन्वा को समर्पित किया है जबकि दूसरे संग्रह ‘घर का रास्ता’ अपने पिता को सादर समर्पित किया है. समर्पण का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए. युवावस्था में दोस्ती सबसे प्रिय सगल होती है लेकिन जब विस्थापन की पीड़ा घनीभूति होती है तो इंसान अपने घर की ओर लौटने लगता है मन ही मन. विस्थापन की पीड़ा को बातचीत में वे छुपा नहीं पाते थे. ललित कार्तिकेय की बातचीत में मंगलेश डबराल कहते हैं ” कि अगर मैं यहाँ नहीं होता ( यहाँ मतलब दिल्ली में; या कि मैदान में ) तो शायद मेरी कविताओं में विस्थापन की मनोभूमि, एक भौतिक, शारीरिक, मानसिक, संवेदनात्मक और आत्मिक विस्थापन नहीं होता. शायद मेरी कविता में यह नहीं होता कि घरों के दरवाजे बंद हैं जहां मैं आवाज़ देता हूं और मेरी आवाज़ मेरे ही पास लौट आती है.” 
आगे चलकर उनकी कविताओं में माँ और पिता दुखों के केंद्र में भी आते हैं. एक क़िस्सा वे अक्सर सुनाया करते. एक बार जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी  मंगलेश डबराल के गांव काफलपानी गए थे और उनके पिता को  उनके कविता संग्रह ‘घर का रास्ता’ की प्रति दी थी. मंगलेश के पिता की प्रतिक्रिया यही थी कि मंगलेश घर का रास्ता भूल गया है. बेटे के  विस्थापन की पीड़ा पिता भी  झेल रहे थे और मंगलेश भी.  यह वही समय था जब सोवियत संघ का विघटन हो गया था और विचार के अंत की बात होने लगी थी.
मंगलेश डबराल विचार को लेकर अडिग और प्रतिबद्ध रहे. उन्होंने कहा कि ” मैं मार्क्सवादी हूँ, और मानता हूँ कि मार्क्सवाद से ज्यादा मानवीय विचारधारा कोई नहीं है. ” वे कहते ही नहीं थे, अपने जीवन में इस विचार को जीते रहे. 1989 में ‘घर का रास्ता’ के लिए उन्हें श्रीकांत वर्मा पुरस्कार मिला. इस पुरस्कार का क्रेज था उन दिनों और साहित्यिक सांस्कृतिक प्रतिष्ठा थी. धीरे धीरे यह पुरस्कार बंद हो गया; शायद श्रीकांत वर्मा का परिवार इस पुरस्कार को चलाने में आर्थिक रूप से समर्थ नहीं रह गया था, या कोई और कारण था मालूम नहीं लेकिन जब दिया जा रहा था तब उसकी प्रतिष्ठा रही.
साहित्यिक पत्रिका पहल की ओर  से   उन्हें 1996 में पहल सम्मान दिया गया. पहल सम्मान और पहल पत्रिका अब दोनों ही बंद हो चुके हैं. पहल सम्मान के दिन उमड़ी प्रशंसकों की तादाद मंगलेश डबराल की लोकप्रियता की तस्दीक कर गयी. उसके बाद किसी समारोह में उतने लोग दिखायी नहीं दिए.
(लेखक चर्चित कवि और राजनीतिक सामाजिक विश्लेषक हैं. और मंगलेश डबराल के अभिन्न मित्र: संपर्क व्हाट्सप 9868628602 )
  • आभार : तस्वीर: गूगल से ली गयी है और लेख 16 मई 2021 के जनसंदेश टाइम्स में भी प्रकाशित हैं।

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