(प्रेमचन्द ने यह लेख 19 दिसम्बर 1932 में लिखा था। उनके इस लेख के साथ समकालीन जनमत प्रेमचंद पर अपनी यह शृंखला समाप्त करता है। इस सिरीज़ को मिले प्रोत्साहन के लिए सभी पाठकों का और सीरीज़ के समस्त लेखकों का हृदय से आभार!)
भारत के अस्सी फीसदी आदमी खेती करते हैं। कई फीसदी वह हैं जो अपनी जीविका के लिए किसानों के मुहताज हैं, जैसे गाँव के बढ़ई, लुहार आदि। राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है, वह इन्हीं किसानों और मजदूरों की मेहनत का सदका है।
हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फौज, हमारी अदालतें और कचहरियाँ, सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती हैं लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न और वस्त्रादाता हैं, भर पेट अन्न को तरसते हैं, जाड़े-पाले में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते हैं। कोई जमाना था जब गाँव के लोग अपने डील-डौल बल पौरुष के लिए मशहूर थे।
जब गाँवों में दूध-घी की इफरात थी। जब गाँव के लोग दीर्घजीवी होते थे। जब देहात की जलवायु स्वास्थ्यकर और पोषक थी, लेकिन आज आप किसी गाँव में निकल जाइए आपको खोजने से भी हृष्ट-पुष्ट आदमी न मिलेगा, न किसी की देह पर माँस है न कपड़ा। मानो चलते-फिरते कंकाल हों। और तो और उन्हें रहने का स्थान नहीं है। उनके द्वारों पर खड़े होने तक की जगह नहीं है, नीची दीवारों पर रक्खी हुई फूस की झोपड़ियों के अन्दर वह, उसका परिवार, भूसा, लकड़ी, गाय, बैल सब के सब पड़े हुए जीवन के दिन काट रहे हैं। कोई समय था जब भारत के धन का संसार में शोहरत था।
यहाँ के सोने और जवाहरात की चमक से दूर-दूर के कवियों की आखों में चकाचैंध हो जाती थी, विजेताओं के मुँह में पानी भर आता था, मगर आज वह कपोलकथा मात्र है। आज भारत दरिद्रता और अज्ञान के ऐसे गहरे गर्त में गिरा पड़ा है कि उसकी थाह भी नहीं मिलती। लार्ड कर्जन ने 1901 में यहाँ की व्यक्तिगत आय का अनुमान तीस रुपया साल किया था।
1915 में एक-दूसरे हिसाबदाँ ने इस अनुमान को पचास रुपया तक पहुँचाया और 1915 में वह समय था जब यूरोपीय महाभारत ने चीजों का मूल्य बहुत बढ़ा दिया था। 1930 में वही हालत फिर हो गई जो 1901 में थी और हिसाब लगाया जाय तो आज हमारी व्यक्तिगत आय शायद पच्चीस रुपया से अधिक न हो, पर आज तक किसी ने किसानों की दशा की ओर ध्यान नहीं दिया और उनकी दशा आज भी वैसी है जो पहले थी। उनकी खेती के औजार, साधन, कृषि-विधि, कर्ज, दरिद्रता सब कुछ पूर्ववत है।
नहीं यह कहना गलती होगी कि उनकी दशा की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। सरकार ने समय-समय पर उनकी रक्षा करने के लिए कानून बनाए हैं और शायद इस तरह के कानून अब तक और ज्यादा बन गए होते यदि जमींदारों की ओर से उनका विरोध न हुआ होता।
अब की बार ही छूट के विषय में जमींदारों ने कम रुकावटें नहीं डालीं, लेकिन अनुभव से मालूम हो रहा है कि इस नीति से किसानों का विशेष उपकार नहीं हुआ। इन कानूनों के बगैर संभव था, उनकी हालत इससे भी खराब होती। इनसे इतना फायदा तो जरूर हुआ कि उनकी पतनोन्मुख प्रगति रुक गई लेकिन उन्नति के लिए दशाएँ अनुकूल न हो सकीं।
हमें तो उन्नति के लिए ऐसे विधानों की जरूरत है जो समाज में विप्लव किए बिना ही काम में लाए जा सकें। हम श्रेणियों में संग्राम नहीं चाहते। हाँ, इतना अवश्य चाहते हैं कि सरकार और जमींदार दोनों ही इस बात को न भूल जाएँ कि किसान भी मनुष्य है, उसे भी रोटी और कपड़ा चाहिए, रहने का घर चाहिए, उसके घर में शादी-गमी के अवसर आते हैं, उसे भी अपनी विरादरी में अपनी कुल मर्यादा की रक्षा करनी पड़ती है।
बीमारी-आरामी और की तरह उस पर भी व्याप्त होती है। इसलिए लगान बाँधते समय इस बात का ख्याल रखें कि किसान को कम से कम खेती में इतनी मजूरी तो मिल जाए कि वह अपने बाल-बच्चों का पालन कर सके। हमारे प्रांत में किसान ऐसे हैं जिनके पास तीन, चार एकड़ से ज्यादा भूमि नहीं है।
बहुत बड़ा हिस्सा तो ऐसों का है जिनके पास इसकी आधी जमीन भी नहीं है। और जमाबंदियाँ जितनी ही छोटी होती हैं, उन पर खेती का खर्च उतना ही ज्यादा बैठता है। इसलिए जमीन के लगान के दर में नए सिरे से तरमीम होनी आवश्यक है। बेशक उससे जमींदारों की आमदनी कम हो जाएगी और सरकार को अपने बजट बनाने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी लेकिन किसान के जीवन का अन्य सभी हितों से कहीं ज्यादा मूल्य है।
किन्तु परिस्थितियों को देखते लगान में निकट भविष्य में विशेष कमी नहीं की जा सकती। वास्तव में हालत तो यह है कि छोटे-छोटे किसानों का खेती पर जो खर्च पड़ रहा है वह भी वसूल नहीं होता, लगान तो दूर की बात है। और मान लिया किसी तरह एक या दो साल डंडे के जोर से लगान वसूल कर लिया गया भी तो क्या!
जब किसान भूखों मर रहा है तो वह दुर्बल और रुग्ण होगा, खेती में ज्यादा मेहनत न कर सकेगा और इसलिए उसकी पैदावार भी अच्छी न होगी। हमें तो परिस्थिति में कुछ ऐसा परिवर्तन करने की जरूरत है कि किसान सुखी और स्वस्थ रहे।
जमींदार, महाजन और सरकार सबकी आर्थिक समृद्धि किसान की आर्थिक दशा के अधीन है। अगर उसकी आर्थिक दशा हीन हुई तो दूसरों की भी अच्छी नहीं हो सकती। किसी देश में सुशासन की पहचान साधारण जनता की दशा है। थोड़े से जमींदार और महाजन या राज पदाधिकारियों की सुदशा से राष्ट्र की सुदशा नहीं समझी जा सकती।
किसानों के लिए दूसरी जरूरत ऐसे घरेलू धंधों की है जिससे वह अपनी फुरसत के वक्त कुछ कमा सके। यह काम असंगठित रूप से सफल नहीं हो सकता। इसे या तो सहकारी सोसाइटियों के हाथ में दिया जाना चाहिए या सरकार को खुद अपने हाथ में रखकर व्यापार और उद्योग विभाग के द्वारा इसका संचालन कराना चाहिए। एक प्रान्त में बाज ऐसी चीजें हैं जिनकी खपत नहीं है, मगर दूसरे प्रान्तों में उनकी अच्छी खपत है। ऐसे उद्योगों का प्रचार किया जाना चाहिए।
खेती की पैदावार बढ़ाने की ओर भी अभी तक ध्यान नहीं दिया गया। सरकार ने अभी तक केवल प्रदर्शन और प्रचार के सीमा के अन्दर रहना ही उपयुक्त समझा है। अच्छे औजारों, अच्छे बीजों, अच्छी खादों का केवल दिला देना ही काफी नहीं है। सौ में दो किसान इस प्रदर्शन से फायदा उठा सकते हैं।
जिनको भोजन का ठिकाना नहीं है, जो नाक तक ऋण के नीचे दबा हुआ है उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह नयी तरह के बीज या औजार या खाद खरीदेगा। उसे तो पुरानी लीक से जौ भर हटना भी दुस्साहस मालूम होता है। उसमें कोई परीक्षा करने को, किसी नयी परीक्षा का जोखिम उठाने का सामर्थ्य नहीं है। उसे तो लागत के दामों में यह चीजें किस्तवार अदायगी की शर्त पर दी जानी चाहिए। सरकार के पास इन कामों के लिए हमेशा धन का अभाव रहता है। हमारे विचार में इससे ज्यादा जरूरी सरकार के लिए कोई काम ही नहीं है।
दूसरी जरूरत जमीन की चकबंदी है। जमीन का बंटवारा इतनी कसरत से हुआ है और हो रहा है कि जिसकी कोई हद नहीं। दक्षिण में सन 1771 ई से औसत जमाबंदी चालीस एकड़ की थी। 1915 ई में यह केवल सात एकड़ रह गई। बंगाल में तीन एकड़ है और संयुक्त प्रान्त में केवल डेढ़ एकड़। यह डेढ एकड़ भी गाँव के चारों दिशाओं में स्थित होता है, इसलिए उसमें बहुत परिश्रम व्यर्थ हो जाता है।
चकबंदी हो जाने से इतना फायदा होगा कि किसान अपने चक को बाड़ों से घेर सकेगा, उसमें कुएँ बना सकेगा, खेती की निगरानी कर सकेगा। इससे उसकी उपज में कुछ बढ़ती होने की आशा हो सकती है।
कीड़ों से भी फसल का अक्सर बहुत नुकसान होता है। पिछले साल चूहों ने कितने खेतों का सफाया कर दिया। कभी लाही आती है, कभी माही, कभी गेरूई, कभी पतिंगे। कभी दीमकों का जोर होता है, कभी कीड़ों का। किसानों के पास इन भीति बाधाओं की कोई दवा नहीं है। कृषि विभाग ने इस विषय में बहुत कुछ खोज किया है और जरूरत है कि उसकी परीक्षित अनुभूतियां किसानों के कानों तक पहुँचाई जाए।
केवल इतना ही नहीं, उनके द्वारों तक पहुँचायी जाए पर यहाँ जो कुछ होता है दफ्तरों में, वो इतना पेचीदा और विलम्बकारी है कि उससे किसानों को फायदा नहीं होता। यहाँ दफ्तरी ढंग की नहीं, मिशनरी उद्योग की जरूरत है। अब तक सरकार ने किसानों के साथ सौतेले लड़के का सा व्यवहार किया है। अब उसे किसानों को जेठा बेटा समझकर उसके अनुसार अपनी नीति का निर्धारण करना पड़ेगा।
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