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प्रेमचंद का स्त्रीधर्म

आशीष मिश्र


भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन को स्त्री-अस्मिता की जमीन से देखते हुए पार्थ चटर्जी प्रभृत चिंतकों ने राष्ट्रीय आन्दोलन और स्त्रीवादी संघर्ष में प्रतिलोम संबंध देखा है। इनके अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से राष्ट्रवादी आन्दोलन के मज़बूत होने के साथ स्त्री-प्रश्नों पर चुप्पी गहन होती गयी और बाद में उसका विराजनीतिकरण हो गया। इनका कहना है कि राष्ट्रवाद ने आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की आर्थिक-सामाजिक स्थितियों-अवस्थितियों की जो समझ और हल प्रस्तुत किया, वह पश्चिम की सांस्कृतिक आधुनिकता से प्रत्यक्ष जुड़ाव के बजाय उससे विभेद पर आधारित था और फल यह हुआ कि औपनिवेशिक सत्ता के राजनीतिक विरोध के क्षेत्र से अलग स्त्री-प्रश्नों को राष्ट्रीय संप्रभुता के आन्तरिक क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया गया तथा राष्ट्रीय संस्कृति के इस आन्तरिक क्षेत्र में ही परंपरा और स्त्री की पुनर्निर्मिति एवं पुनर्पुष्टि हुई।

पार्थ चटर्जी की यह समझ बहुत सारे प्रश्नों का जवाब देने में सक्षम है और सबलटर्न नज़रिये से काम करने वाले चिंतकों के बीच सामान्य समझ की तरह लोकप्रिय है। कई बार तो इसका दबाव इतना ज़्यादा है कि प्रेमचंद जैसे अपने समय के बड़े और आगे बढ़े हुए रचनाकारों तक को भी इसी विमर्श में शामिल कर लिया जाता है।

यहाँ मैं बहुत संक्षेप में यह समझना चाहता हूँ कि क्या प्रेमचंद के लिए स्त्री-प्रश्न साम्राज्यवाद और महाजनी सभ्यता से एकदम अलग राष्ट्रीय संप्रभुता के आंतरिक खित्ते की चीज़ है या वे इसे एक संरचनात्मक संबद्धता में समझते हैं?
अगर प्रेमचंद के उपन्यासों को उनके कालक्रम में देखें तो एक बारगी आभास होगा कि वे अपने उत्तरार्द्ध में स्त्री-प्रश्नों से दूर होते गये हैं। जहाँ वरदान, प्रेमा, प्रतिज्ञा, सेवासदन, निर्मला और गबन जैसे उपन्यास बहुत कुछ स्त्री-केन्द्री लगेंगे, वहीं गोदान में वह स्त्री-केंद्रिता नहीं दिखाई पड़ेगी। ऐसा आभास होता है कि प्रेमचंद जिन स्त्री-प्रश्नों को इतनी मज़बूती से उठा रहे थे वे प्रश्न साम्राज्यवाद, महाजनी सभ्यता और किसान-प्रश्न के उभरते ही पृष्ठभूमि में चले गये। लेकिन जैसा कि कहा गया- यह आभास ही है, यथार्थ नहीं। यह उतनी ही सरल और बहु-स्वीकृत समझ है, जितनी की यह समझ, कि राष्ट्रवादी समाधान के कारण स्त्री-प्रश्नों का विराजनीतिकरण हो गया!

इस संदर्भ में सामान्य-सा प्रश्न यह बनता है कि क्या प्रेमचंद का उपन्यास-लेखन भी स्त्री-प्रश्नों के कथित विराजनीतिकरण का प्रमाण प्रस्तुत करता है? एक और प्रश्न पूछा जा सकता है, जो कि पहले प्रश्न का विस्तार है- क्या प्रेमचंद गोदान में सांस्कृतिक आधुनिकता के विरोध में स्त्री की पारंपरिक छवियों की पुनर्निर्मिति और पुनरपुष्टि करते हैं?
यह कहना ठीक है कि प्रेमचंद के शुरुआती उपन्यास बहुत कुछ स्त्री-केन्द्री लगते हैं। उनमे स्त्री-संदर्भी किसी एक केन्द्रीय प्रश्न की पहचान भी की जा सकती है और इनके सम्मुख गोदान को रखने से यह आभास होना स्वाभाविक है कि इसमें न किसी ख़ास वर्ग की कोई एक केंद्रीय स्त्री पात्र है और न ही कोई एक मात्र केंद्रीय समस्या। इस आभास का दूसरा कारण यह है कि गोदान में स्त्री-प्रश्न उतने एकांतिक नहीं रह गये हैं, बल्कि यहाँ स्त्री प्रश्न पहली बार वृहत्तर समाजार्थिक प्रश्नों से जुड़ते हैं। स्त्री-पहचान और उनकी समस्याएँ अन्य पहचानों और समस्याओं से कटी हुई नहीं है, इसकी शिनाख्त सबसे पहले प्रेमचंद ने गोदान में किया।

गोदान ही वह पहला उपन्यास है जहाँ प्रेमचंद ने स्त्री की पुरुष के सम्मुख सार्वभौमिक दोयम अवस्थिति के साथ वर्गीय, जातीय और पेशागत श्रेणियों में दमन के प्रस्थितिगत वैशिष्ट्य और यौनिक-नैतिक-बोध को उसके उलझाव में पहचाना। अर्थात गोदान तक पहुँचकर स्त्री की पहचान न तो उतनी इकहरी रह गयी है और न उसके प्रश्न इतने एकांतिक रह गये हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि वरदान ,प्रेमा ,प्रतिज्ञा ,सेवसादन, निर्मला और गबन वाली स्त्री-केंद्रिता किसी को गोदान में न दिखाई पड़े। गोदान में स्त्री-प्रश्नों को उसी तरह नहीं देखा जा सकता जैसा कि पूर्ववर्ती उपन्यासों में। इस तरह अगर देखें तो प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि में एक सजग विकास दिखाई पड़ता है। गोदान तक पहुँचते न-पहुँचते स्त्री-पहचान और उसका संघर्ष उतना ऐकिक और इकहरा नहीं रह जाता।

गोदान की धनिया, सिलिया, झुनिया, मिसेज खन्ना और मिस मालती का नैतिक-बोध और दमन एक-सा नहीं है।
धनिया, रूपा और सोना किसान प्रस्थिति के चरित्र हैं। किसानी सिर्फ एक आर्थिक या पेशागत श्रेणी नहीं है, किसान का अपना विशिष्ट नैतिक बोध होता है। स्त्री किसान के इस ख़ास जीवन-बोध और यौनिक-नैतिकता को समझने के लिए अन्य पात्रों से तुलना की जा सकती है। मसलन आप ग्रामीण पात्रों में ही देखें तो धनिया, सोना और रूपा की यौनिक नैतिकता वही नहीं है जो सिलिया, झुनिय या नोहरी की है। धनिया और उसकी बेटियाँ यौनिक वर्जनाओं से बहुत जकड़ी हुई हैं। गोदान में सबसे केंद्रीय पात्रों में होरीराम और धनिया है। इन दोनों के सम्बन्धों में भी प्रेमचंद ने धनिया की यौनिक पवित्रता को चटक किया है। वे शुरुआत में ही धनिया को ‘नारीत्त्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान’ देते हुए दिखाते हैं। धनिया की बिटिया सोना, सिलिया और मथुरा को एकसाथ देखकर क्रुद्ध हो जाती है। प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘सोना की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप किसी पुरुष का पर-स्त्री और स्त्री का पर-पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराध के लिए उसके यहाँ क्षमा न थी। चोरी, हत्या, जेल, कोई अपराध इतना भीषण न था। ऐसे स्त्री-पुरुषों की अगर खाल खींच ली जाती, तो उसे दया न आती। प्रेम के लिए दांपत्य के बाहर उसकी दृष्टि में कोई स्थान न था।’ भोला के बेटों द्वारा भोला और नोहरी को घर से निकाल दिये जाने पर नोखेराम आश्रय देकर नोहरी को अपने जाल में फँसा लेता है और नोहरी न सिर्फ़ इसे स्वीकार करती है बल्कि भोला के खिलाफ खड़ी हो जाती है। धनिया नोहरी की बदचलनी पर भोला और नोहरी दोनों की भर्त्सना करती है। धनिया भोला से कहती है कि ‘अब तो तुम्हारा धरम यही है कि गंडासे से उसका सिर काट दो। फाँसी ही तो पाओगे। फाँसी इस छीछालेदारी से अच्छी।’ यह एक किसान परिवार की यौनिक नैतिकता थी। लेकिन वृहत्तर समाज में यह यौनिक-शुचिता एक सी नहीं होती, इसे प्रेमचंद जानते थे। प्रेमचंद नोहरी, झुनिया और सिलिया का सृजन इस बात को दिखाने के लिए भी करते हैं। झुनिया, नोहरी, सिलिया आदि की यौनिक-नैतिकता और तत्सन्दर्भी वर्जनाएँ वही नहीं हैं, जो धनिया, सोना, मालती और मिसेज खन्ना की।
गोदान में किसान के विपरीत अन्य श्रमिक जातियों और दलितों में यौनिक वर्जनाएँ उतनी ज़्यादा कड़ी नहीं हैं। नोहरी और झुनिया विधवा हैं, लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से दूसरे संबंध रखने और अविवाहित होकर भी सह-जीवन में कोई नैतिक समस्या नहीं दिखाई देती है। इसी तरह सिलिया मातादीन की विवाहित पत्नी नहीं है, लेकिन मातादीन के विपरीत वह अपने प्रेम को डंके की चोट पर स्वीकार करती है और उसके लिए अपना परिवार तक छोड़ देती है। परंतु यही यौनिक संचरण या प्रवहशीलता धनिया, सोना, मालती या मिसेज खन्ना के यहाँ नहीं है। प्रेमचंद बहुत सूक्ष्मता से यौनिक-नैतिकता और उसकी भिन्नता के आर्थिक-संरचनात्मक कारणों का भी संकेत करते हैं। गोदान से पहले भारतीय समाज का ऐसा मनो-सामाजिक अध्ययन नहीं मिलेगा।
आलोचना ने गोदान का अपेक्षित, समेकित और विश्वसनीय पाठ नहीं तैयार किया। मार्क्सवादी आलोचना ने किसान और वर्गीय धारणा से बाहर किसी और रूप में समझने की जहमत नहीं उठाई और वर्तमान के अस्मितावादी विमर्श बिना अतिवादी ध्रुवीकरण और उत्तेजना के धैर्य से इसे देख ही नहीं सकते।

सबसे पहले गोदान का किसानी और वर्गीय पाठ तैयार हुआ। फिर जातीय श्रेणियों के आधार पर इसका पाठ तैयार किया गया और लोकप्रिय हुआ, लेकिन इसके लैंगिक पाठ की तरफ़ आजतक किसी का ध्यान नहीं गया। जबकि महाजनी सभ्यता और उभरते हुए मध्यवर्ग के साथ स्त्री-प्रश्नों को जिस संरचनात्मक-संबद्धता में गोदान में रचा गया है वह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता एवं उस समय विकसित हो रहे नये मध्यवर्ग मे स्त्री की स्थितियों का भी चित्रण है तथा साथ ही आगे बनने वाले स्त्री आंदोलन के वर्गीय और जातीय स्वरूप का भी संकेत हैं । पूरी कथावस्तु में मेहता, मालती और मिसेज खन्ना की सृष्टि स्त्री प्रश्न को आगे बढ़ाने के लिए ही की गयी है। इसके अतिरिक्त पूरी कथावस्तु में इन पात्रों की और क्या भूमिका है? मेहता के माध्यम से प्रेमचंद ने नये विकसित हो रहे मध्यवर्ग के भीतर स्त्री के बारे में विकसित हो रहे सामान्य बोध पर विचार किया है। लेकिन सिर्फ़ मेहता पर केन्द्रित करके नहीं समझा जा सकता। वह गोदान में अंतर्ग्रथित स्त्री-प्रश्न का एक पक्ष है।
मेहता, मालती व मिसेज खन्ना के लिए स्त्री प्रश्न बहुत ऐकिक और सार्वभौमिक है। इनके लिए स्त्री के भीतर वर्गीय और जातीय विभाजन नहीं है। इनके शामिल होते ही स्त्री-प्रश्न चरित्र और अनुभाव के बजाय जैसे बौद्धिक विषय बनता है और उससे कथा-कला को जो क्षति पहुँचती है उसे उपेक्षित करके, गोदान में प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि को प्रामाणिक ढंग से नहीं समझा जा सकता। पूरी कथावस्तु में स्त्री की स्थितियाँ जीवन-व्यवहार में दिखाई पड़ती हैं, लेकिन मेहता और मालती के प्रवेश करते ही वह विचार के स्तर पर आती हैं। इसमें भी लैंगिक प्रश्नों का पूरा जातीय और वर्गीय चरित्र दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद ने बहुत सूक्ष्मता से इसे रेखांकित किया है । लेकिन मेहता के वर्गीय और जातीय अवस्थिति को उपेक्षित करके उसे प्रेमचंद का विचारवाहक समझ लिया जाता है। यहीं से गोदान में प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि को समझने में सबसे गलत मोड़ शुरू होता है।
प्रेमचंद के स्त्री-संबंधी विचार को मेहता में न खोजकर उपन्यास की घटनात्मक फलश्रुतियों और संवेदनात्मक दिशा में खोजना चाहिए। मेहता का प्रभाव मालती और मिसेज खन्ना के अवचेतन पर पड़ता हुआ दिखाई पड़ता है, लेकिन मेहता स्वयं इन दोनों स्त्रियों से प्रभावित होते हैं। बल्कि दोनों विपरीतमुखी पात्र अंततः समन्वय प्राप्त करते हैं। इनके समन्वय की दिशा ही प्रेमचंद की दिशा है और इसी में उनका स्त्री-चिंतन खोजा जा सकता है। इन विपरीतमुखी चरित्रों में समन्वय के लिए हालाँकि प्रेमचंद शुरुआत से ही भूमिका बनाने लगते हैं तो भी कुछ ज़बर्दस्ती और बनावटी लगता है। इसका कारण शायद यह है कि इन चरित्रों के माध्यम से प्रेमचंद स्त्री-प्रश्नों को वैचारिक संघर्ष के जरिए हल करना चाहते हैं, इसलिए वह उनके जीवन-व्यवहार को उतने यथार्थ और तार्किक-संबद्धता में नहीं रच पाते।
पार्थ चटर्जी प्रभृत चिंतकों की समझ में पश्चिम के सांस्कृतिक आधुनिकता के विरोध ने स्त्री को परंपरा से जोड़ दिया है और फिर स्त्री-धर्म और शील-रक्षण की सारी ज़िम्मेदारी स्त्री के ऊपर लाद दी गयी। यहाँ एक स्वाभाविक-सा प्रश्न बनता है, क्या यह बात प्रेमचंद के बारे में भी सही है, क्या प्रेमचंद भी सांस्कृतिक आधुनिकता के विरोध में स्त्री की पारंपरिक छवियों का पुनर्निरूपण और पुनरपुष्टि करते हैं? इस विषय पर बात करते हुए नवजागरण के संदर्भ में गहरे सांस्कृतिक विमर्श में उतर सकते हैं। लेकिन, यहाँ बहुत संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद औपनिवेशिक आधुनिकता के उपभोगवाद, स्वेच्छाचार और अनैतिकता को पसंद नहीं करते, लेकिन इसके विरोध में वे परंपरावादी भी नहीं होते। प्रेमचंद इन दोनों बाइनरी अवस्थितियों का विकल्प रचते हैं। कहना चाहें तो इसे ‘देसज आधुनिकता’ कह सकते हैं।

अगर कथेतर लेखन में देखना चाहें तो उनकी तमाम टिप्पणियाँ और संपादकीय देख सकते हैं। कथा संरचना के भीतर से प्रश्न पूछना चाहें तो पूछ सकते हैं कि वे कथा वस्तु के भीतर मिस मालती के चरित्र में बदलाव क्यों दिखाते हैं? और मेहता झिझकते हुए, तमाम मोड़ों से गुजरते हुए मालती से प्रभावित होकर उसकी तरफ़ झुकते क्यों जाते हैं ? प्रेमचंद मिस मालती के परिचय में बताते हैं कि वह ब्रिटेन से पढ़कर आई हुई है। यह इस चरित्र के संदर्भ में सार्थक सूचना है। इसके समानान्तर मेहता हैं। प्रेमचंद मालती को देसज आधुनिकता में बदलते दिखाते हैं, वह व्यक्तिगत स्वच्छंदता और उपभोग से सामाजिक दायित्त्व और त्याग-भावना में ढलने लगती है। कुछ आलोचकों को लगता है कि मेहता प्रेमचंद के विचारवाहक हैं और मालती मेहता के विचारों में ढल जाती है। ऐसे आलोचक इस संकेत पर ध्यान नहीं देते कि मालती मेहता के साथ रहने नहीं आती, मेहता मालती के साथ रहने जाता है। और दोनों अविवाहित रहकर सामाजिक ज़िम्मेदारी और सहजीवन को स्वीकार करते हैं।

पूछा जा सकता है कि उस समय अविवाहित सहजीवन का विकल्प किस परंपरा-पुष्टि के लिए है? प्रेमचंद दिखाते हैं कि धनिया से लेकर मिसेज खन्ना तक वैवाहिक जीवन में क्या-क्या ज़िल्लत झेल रही हैं। इसलिए वे विवाह संस्था का विकल्प अविवाहित सहजीवन में प्रस्तुत करते हैं। यहाँ प्रेमचंद बहुत सीधे शब्दों में लिखते हैं- मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। अगर आप ध्यान दें तो प्रेमचंद पूरे उपन्यास में अगली पीढ़ी के छः पात्रों को अविवाहित सह जीवन का विकल्प चुनते हुए दिखाते हैं। वे पात्र हैं, झुनिया-गोबर, सिलिया-मातादीन और मालती-मेहता। ध्यातव्य है कि यह सहजीवन अंतर्जातीय भी है। यह कौन सी पुनरपुष्टि है! गोदान के एक अन्य चरित्र, जिसपर कम ध्यान दिया जाता है, वह है- राय साहब की बेटी- मीनाक्षी। प्रेमचंद गोदान में स्त्रीवादी संगठनों और आंदोलन के स्वरूप पर बहुत तफ़सील से वर्णन करते हैं। इस आंदोलन के जातीय, वर्गीय आधार और इसके प्रभाव व महत्त्व को भी रेखांकित करते हैं। वे लिखते हैं कि साधारण हिन्दू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गयी। लेकिन आगे प्रेमचंद इस चरित्र में बहुत सजग ढंग से विकास दिखाते हैं। वे लिखते हैं कि एक दिन मीनाक्षी क्रोध में अपने ऐय्याश पति दिग्विजय सिंह के बँगले पर पहुँच गयी और वहाँ के सोहदों के साथ अपने पति को भी हंटर से खूब पीटा और पीटकर खुद जिले के अधिकारी के यहाँ सूचना देकर घर लौट आयी। इस चरित्र पर ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन इसे सजग ढंग से पढ़ना चाहिए और पूछना चाहिए कि यह किस पारंपरिक स्त्री छवि की पुनर्पुष्टि है!
प्रेमचंद जानते हैं कि सामाजिक श्रेणियाँ दुरलंघ्य और मज़बूत चाहे जितनी हों, लेकिन अलंघ्य और अपरिवर्तनीय नहीं होतीं। जिस तरह श्रेणियों और उनकी सत्तात्मक राजनीति से मुक्त किसी संस्कृति की कल्पना संभव नहीं है, उसी तरह अलंघ्य और अपरिवर्तनीय श्रेणियाँ भी संभव नहीं हैं। अलंघ्य और अपरिवर्तनीय होकर वे ज़्यादा समय तक टिकी ही नहीं रह सकतीं। हर समय समाज में इसे मज़बूत करने वाली ताक़तों और इसे लाँघकर मनुष्यता मात्र पर बल देने वाली ताक़तों के बीच सांस्कृतिक संघर्ष होता रहा है। इसलिए एक ही साथ अंतर्विरोधी चीज़ें संस्कृति के भीतर मौजूद होती हैं। और कई तरह के तर्क व तथ्य मौजूद होते हैं जो जीवन-व्यवहार को भी बहुत अंतर्विरोधी ढंग से रचते हैं। इन अंतर्विरोधों को कलाओं के भीतर ही पकड़ा जा सकता है, सिद्धांतों और विमर्शों के भीतर इसका सरलीकरण ही संभव है।

आज विमर्शों के दौर में मनुष्यता और प्रेम में जिस तरह का अविश्वास पैदा हुआ है, उसमें मातादीन और सिलिया का संबंध, झुनिया के प्रति धनिया का व्यवहार और चुहिया का झुनिया और उसके सद्य:जात शिशु के प्रति ममत्त्व एक आदर्श लग सकता, और स्वयं प्रेमचंद की स्त्री-प्रश्नों के प्रति संवेदनशीलता और मनुष्यता अविश्वसनीय लग सकती है, लेकिन यह एक सच्चाई है।

(युवा आलोचक आशीष मिश्र का यह लेख सितम्बर 2018 में वागर्थ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है ।)

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