प्रभात मिलिंद
मेरी नज़र में एक ग़ज़लगो होना और एक शायर होना दो मुख़्तलिफ़ इल्म हैं. ग़ज़लगोई एक हुनर (स्किल) है और शायरी एक तेवर .. एक मिज़ाज .. या शायद इससे भी ज़्यादा एक फ़ितरत (एटीट्यूड) है. इस नज़रिए से नवनीत शर्मा की इन ग़ज़लों से गुज़रते हुए मुझे वे एक शायर से ज़्यादा क़रीब लगे.
मैंने उनको पहले भी पढ़ा है, बल्कि बार-बार पढ़ा है. एक फॉर्मेट के रूप में वे ग़ज़लों में क्राफ़्ट की पारंपरिकता और कंटेंट की समकालीनता के बीच एक अनायास लेकिन ज़रूरी संतुलन बनाए रखते हैं, जो गज़ल पसन्द करने वाले लेकिन उसकी तकनीकी जानकारियों से महरूम आम पाठकों को भी उनकी ग़ज़लों को पढ़ने के लिए उकसाता है. उर्दू ग़ज़ल की जिस रवायती ज़मीन को तोड़ने का काम फ़ैज़, फ़िराक़ और कैफ़ी आज़मी ने किया, उसने शायरी में हाथ आजमाने वाली बाद की कई पीढ़ियों को गहरे तौर पर मुतासिर किया. मेरे ख़्याल से नवनीत शर्मा का भी राब्ता पोएट्री के इसी स्कूल से है.
‘फ़र्क़ यही है जीवन और थियेटर में
बिन बतलाए भी पर्दा गिर जाता है
उस दम खुल जाती है सबकी सच्चाई
भीड़ में जब मेरा बटुआ गिर जाता है’
एक ही ग़ज़ल के ये दो शे’र उनके शायर की रेंज और विज़न की तस्दीक़ करते हैं. यहाँ एक बात गौरतलब है कि नवनीत ख़बरनवीस हैं. लिहाजा जिस तरह उनका पेशा उनकी शायरी को हमारे समकाल की ज़रूरी चिंताओं से जोड़ता है, उनका हस्सास शायर भी ठीक उसी तरह उनकी ख़बरनवीसी को एक तरह की आदमियत और सलाहियत से ज़रूर नवाज़ता होगा.
‘पहले तो था मचान मुश्किल में
अब है पुख़्ता मकान मुश्किल में
धूप ख़ेमे लगा कर बैठ गई
पड़ गए साएबान मुश्किल में
एक दिया आंधियों से जूझ गया
आज है ख़ानदान मुश्किल में’
नवनीत शर्मा का अनुभव-संसार उनके हिंदी के साथ-साथ हिमाचली, अंग्रेज़ी, पंजाबी और उर्दू लिटरेचर के विस्तृत अध्ययन की वजह से ख़ासा समृद्ध है, इसलिए उनके भीतर ग़ज़लों के व्याकरण और स्ट्रक्चरल उसूलों को बक़ायदा बरतते हुए कथ्य के स्थापित खांचों में तोड़फोड़ करने की एक कसमसाहट सी दिखाई पड़ती है.
‘खंजर वाले हाथ उन्हीं के लगते हैं
जिनको हमने चूमा था पुचकारा था
उसका घर लोगों के दिल में है नवनीत
कब मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा था’
नवनीत शर्मा की शायरी को लेखकीय सरोकार की बुनियाद पर नहीं बाँटा जा सकता है और वे छोटी बह्र में भी बड़ी से बड़ी बात कह गुज़रने का माद्दा रखते हैं.
‘कांधे पर सर नहीं
फिर कोई डर नहीं
संसद है देश की
खाला का घर नहीं’
उनकी ग़ज़लों की बेबसी और समझौतापरस्ती भी आम आदमी की हैं, मुश्किलें और ज़रूरतें भी आम आदमी की हैं, जंग और औज़ार भी आम आदमी के हैं, यहाँ तक की हसरतें और रुमान भी आम आदमी के ही हैं. शे’र पर गौर करने की ज़रूरत है.
‘आपने ख़ुश्क बताया है मेरी आँखों को
ये किसी झील पे पहरा भी तो हो सकता है
ईंट के बदले में पत्थर नहीं मारा जिसने
कोई तहज़ीब का मारा हो भी सकता है’
या, फिर बरबस सरवत हुसैन की याद दिलाते ये अश’आर …
‘अगरचे सच हूँ मगर इश्तिहार लगता हूँ
अपने आप को भी नागवार लगता हूँ
तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास भी हो
मैं एक लम्हा सही ख़ुशगवार लगता हूँ’
ये गज़लें जितनी ज़ाती हैं उतनी ही सियासी भी हैं. ज़ाहिर है, ये कहीं लड़ती हुई दिखती हैं और कहीं हारती हुई भी नज़र आती हैं. लेकिन चूँकि इन्हें यथास्थितिवाद के प्रतिकार में लिखा गया है, इसलिए खानादारियों और ज़िम्मेदारियों के बीच के इसी ‘स्प्लिट’ में इन ग़ज़लों का असल पता भी मिलता है.
‘कभी ये शहर का मंज़र उदास करता है
रहें जो घर में तो घर उदास करता है
ये एक रीढ़ हमें रोकती है झुकने से
ये एक झुकता हुआ सर उदास करता है’
और आख़िर में, बक़ौल पसंदीदा गायक-कवि बॉब डिलन, ‘बारिश फ़क़त गीला होने की नहीं, बल्कि महसूस करने की शै है.’ मैं उनके कहे में कुछ अपने अल्फ़ाज़ जोड़ना चाहूँगा — पोएट्री भी सिर्फ पढ़ने की नहीं, बल्कि ज़िंदा रहने की तरकीब है.
नवनीत शर्मा की ग़ज़लें
1. मजबूरी थी सजदा करना क्या करता
शहर ही सारा पड़ा था मुर्दा क्या करता
उसके दुखों में और इज़ाफा़ क्या करता
शहर में उसके कोई ठिकाना क्या करता
कुछ बातों को कान नहीं दिल सुनता है
उसने कहा जो कुछ भी लहना क्या करता
फिर मलबे पर फूल उगा डाले मैंने
दिल की गली में और तमाशा क्या करता
हमलाआवर ताेेते चिडि़यां कव्वे थे
ऐसे में बेजान बिजूका क्या करताा
बेज़बान कर डाला तुमको इक सच पर
इससे बेहतर और ज़माना क्या करता
झूठ असलहे किस्म-किस्म के ले आया
सच का पैरोकार निहत्था क्या करता
मैने पूछा शाम ढले क्यों बैठ गए
मेरा दिल ये मुझसे बोला, ‘क्या करता?’
2. चश्मा बहता हुआ दरिया भी तो हो सकता है
कद मेरा आपसे ऊंचा भी तो हो सकता है
आपने ख़ुश्क बताया है मेरी आँखों को
ये किसी झील पे पहरा भी तो हो सकता है
सर्द तन्हाई में आवाज़ की किरणें तेरी
डूबते के लिए तिनका भी तो हो सकता है
मोहतरिम आपने मरहम तो दिया है लेकिन
ज़ख्म अल्फ़ाज़ का गहरा भी तो हो सकता है
ईंट के बदले में पत्थर नहीं मारा जिसने
कोई तहज़ीब का मारा भी तो हो सकता है
3. मेरा दुश्मन मेरे अंदर से उभर आया है
मेरा साया ही मुझे गैर नज़र आया है
इश्क़ में सर भी झुका और अना भी डूबी
ओखली झूम के नाची है कि सर आया है
हम ग़रीबों का लहू पी के यही होना था
जि़ंदगी ! देख तेरा रंग निखर आया है
हम निपट लेते जो कश्ती ही भंवर में आती
अब कहां जाएं कि कश्ती में भंवर आया है
4. यार! हम तो कफ़स में थे ही नहीं
क्योंकि हम अपने बस में थे ही नहीं
मुफलिसी बेसबब नहीं आई
मेरे जैसे हवस में थे ही नहीं
नाम कैसे लिखा गया सबका
लोग पिछले बरस में थे ही नहीं
तुमने छोड़ा तो चैन से गुजरी
मुद्दतों हम उमस में थे ही नहीं
आख़िरश उसको याद आये हम
जिसकी हम दस्तरस में थे ही नहीं
बाद मुद्दत के ये हुआ एहसास
जिनको पकड़ा था कस के, थे नहीं
5. पेड़ थे कुछ, थी तेज़ कुल्हाड़ी आरा था
जंगल चुप थे और भला क्या चारा था
इक बिछड़े सहरा को जाकर सींच आया
यादों का बादल शायद आवारा था
खंजर वाले हाथ उन्हीं के लगते हैं
जिनको हमने चूमा था पुचकारा था
गुडि़या बोली, ‘पापा तुम तो तारे हो’
मैंने कहा, ‘मेरा भी कोई तारा था’
खुद से बातें कीं तो जाकर गर्म हुए
रिश्तों का तो सिफर से नीचे पारा था
दिन में अब वो भी तारे दिखलाते हैं
जिनके लिए थाली में चांद उतारा था
उसका घर लोगों के दिल में है नवनीत
कब मंदिर, मस्जिद, गिरजा गुरुद्वारा था
6.
चैन का दलदल हो जैसे
दर्द मुसलसल हो जैसे
सहरा में इक नाम तिरा
काला बादल हो जैसे
क्या जीना मरने का तो
खतरा हर पल हो जैसे
रूह अभी तक खौफ में है
दुनिया चंबल हो जैसे
तन्हाई दिल से लिपटी
आंखों में काजल हो जैसे
7. पहले तो था मचान मुश्किल में
अब है पुख़्ता मकान मुश्किल में
धुंध गायब, हवा भी है खा़मोश
अब है मेरी उड़ान मुश्किल में
क़हर सा रोज़ टूट पड़ता है
कल ही थी आनबान मुश्किल में
धूप ख़ेमे लगा के बैठ गई
पड़ गए साएबान मुश्किल में
सब्र धरती का आज़माया गया
आ गया आसमान मुश्किल में
इक दिया आंधियों से जूझ गया
आज है ख़ानदान म़ुश्किल में
बात सच ही कही पियादे ने
क्यों हैं आलाकमान मुश्किल में
8.अगरचे सच हूं मगर इश्तिहार लगता हूं
मैं अपने आप को भी नागवार लगता हूं
हरेक झूठ पे तरे यक़ीन है मुझको
बता तो कैसे तुझे हाेशियार लगता हूं
ये तीरगी है समझती है मुझको तीरंदाज़
वो रोशनी है जिसे खा़कसार लगता हूं
मैं देखता ही तो आया हूं सब खा़मोशी से
इसीलिए तो सभी को ग़ुबार लगता हूं
तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास भी हो
मैं एक लम्हा सही खुशगवार लगता हूं
भला हो नींद का, खा़बों में सल्तनत है मेरी
मैं जागता हूं तो फिर बेवकार लगता हूं
गुनाह नेकियां बदनामियां शराफत सब्र
अज़ल से खुद ही मैं खुद पर सवार लगता हूं
9. कभी ये शहर का मंज़र उदास करता है
रहें जो घर में तो फिर घर उदास करता है
ये एक रीढ़ हमें रोकती है झुकने से
ये एक झुकता हुआ सर उदास करता है
हमेशा हंस के मिलेगा मगर यकीन करो
सियासतों का पयम्बर उदास करता है
मैं चाहता हूँ मेरी ख़ुशी मिले सबको
यही उसूल तो अक्सर उदास करता है
गिला नहीं है हमें कोई नाउम्मीदी से
हमें ये आस का लश्कर उदास करता है
हवा में तैरती चिड़िया पे नाज़ है मुझको
ज़मीं पे गिरता हुआ पर उदास करता है
बुआई खाबों की रोज़ाना करता रहता हूँ
दिल ऐसा रकबा है बंजर, उदास करता है
उसी से मिलने की उठती है क्यों तलब नवनीत
वो एक शख्स जो मिल कर उदास करता है
(हिमतरु और ऑथर्स गिल्ड ऑफ हिमाचल प्रदेश समेत कई संस्थाओं से सम्मानित गज़लगो नवनीत शर्मा का जन्म : 22 जुलाई 1973 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में। संप्रति : दैनिक जागरण में राज्य संपादक प्रकाशन: ‘ढूंढना मुझे’ कविता संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर से 2016 में
कई पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें और कविताएं प्रकाशित। आकाशवाणी, दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण।
कविताओं और ग़ज़लों के अलावा राजनीति, समाज, संस्कृति और परिवेश पर नियमित टिप्पणियां।
एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन Twitter handle.: @nsharmajagran
Mail: navneet.sharma35@gmail.com
टिप्पणीकार कवि प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित।स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com)
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