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UPSSF का गठन : राजनीतिक निहितार्थ और ‘ सुरक्षा ’ का जुमला

अतुल उपाध्याय


 

13 सितम्बर की रात उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘ उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अध्यादेश, 2020 ‘ को लागू करते हुए एक विशेष सुरक्षा बल (UPSSF) का गठन किया है। इस बल के गठन का मुख्य उद्देश्य प्रदेश में ‘व्यक्तियों एवं प्रतिष्ठानों की सुरक्षा एवं संरक्षा’ तथा PAC पर पड़ने वाले भार को कम करना बताया जा रहा है।

इस बल को महत्वपूर्ण सरकारी इमारतों, सामाजिक स्थानों, धार्मिक स्थानों, मेट्रो स्टेशनों, न्यायालय परिसरों आदि जगहों पर तैनात किया जाएगा। साथ ही कोई व्यक्ति या निजी संस्था भी इस बल को नियुक्त कर सकती है। यहां तक कि इस बल की तुलना CISF और महाराष्ट्र, ओडिशा आदि राज्यों में गठित अन्य बलों से भी की जा रही है।

लेकिन वो कहते हैं न कि ‘ ख़बर वही होती है जो सरकारें छुपाती हैं !’ बहुत कुछ ऐसा ही इस नए अध्यादेश द्वारा गठित बल के बारे में भी है।

इस बल के प्रावधानों को पढ़ते हुए अगर आपको सन 1919 के औपनिवेशिक भारत में लागू किये गए अलोकतांत्रिक और दमनकारी रॉलेट एक्ट की याद आ जाये तो यह अनायास नहीं होगा। “नो अपील, नो वकील, नो दलील…” रॉलेट एक्ट के बारे में ये जुमला हम अपनी किताबों में पढ़कर बड़े हुए हैं। अब कुछ प्रावधान इस नए बल के भी देख लिए जाए !

इसके मुख्य प्रावधानों में से कुछ यूं हैं कि; UPSSF का कोई भी सदस्य किसी मजिस्ट्रेट के किसी आदेश के बिना तथा किसी वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। वारंट के बिना तलाशी लेने की शक्ति भी इस बल के पास होगी। गिरफ्तारी की वजह मात्र ये अंदेशा या शक भी हो सकती है कि फलां व्यक्ति फलां अपराध करने वाला है। सबसे चिंताजनक बात ये है कि बिना सरकार की इजाज़त के इस बल के विरुद्ध न्यायालय में भी आवाज़ नहीं उठाई जा सकती !!

कहीं ये रॉलेट एक्ट की तरह तो प्रतिध्वनित नहीं हो रहा है ? या कहीं ये पूर्वोत्तर के राज्यों तथा कश्मीर में लागू अफ्सपा की तरह तो साउंड नहीं कर रहा ?

गौर करने की बात ये है कि इस बल का गठन ऐसे समय में हो रहा है जब उत्तर प्रदेश में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है; कानून व्यवस्था खस्ताहाल हो चुकी है; हत्या, लूट, बलात्कार आम बात हो गयी है; एनकाउंटर जैसी ‘त्वरित न्याय व्यवस्था’ का बोलबाला है; बेरोज़गारी अपने चरम पर है; महामारी और आर्थिक संकट से पूरा देश कराह रहा है।

हालिया जारी NCRB के आंकड़ों के अनुसार यूपी की जेलों में दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को बड़ी संख्या में बंद रखा गया है। कुल मिलाकर कमो-बेश हर मोर्चे पर यह सरकार विफल साबित हो रही है। इस विफलता का खामियाज़ा महिलाओं-दलितों-गरीबों-मुसलमानों-आदिवासियों को भुगतना पड़ रहा है।

पुलिस का रवैया तो और भी बुरा एवं जनता के खिलाफ है। पुलिस अपराधियों को पकड़ने के बजाय पीड़ितों को ही परेशान कर रही है। इस बीच उत्तर प्रदेश पुलिस से सम्बंधित कई मामले सामने आये हैं जिसमें पीड़ित को न्याय की बात तो छोड़िए पैसों के लालच में आरोपी और पीड़ित दोनों को जेलों में ठूसा गया।

लखनऊ जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह की घटनाएं आम हो चली हैं। अभी लखनऊ से सटे रायबरेली की ही एक घटना को लिया जाय तो उसमें एक युवक को पुलिस बाइक चोरी के मामले में 5 दिन तक लॉक अप में रखती है और उसकी मृत्यु हो जाती है, परिवारीजनों का आरोप है कि उसकी मौत पुलिस की बर्बर पिटाई से हुई है। अभी हाल के दिनों में लखनऊ, बनारस , इलाहाबाद शहरों में आंदोलनरत युवाओं पर जो दमन और हिंसा इस सरकार ने की है वो हम सबके सामने है ही। उत्तर प्रदेश पुलिस की तानाशाही और जनविरोधी कृत्यों की लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बड़े स्तर पर नज़रंदाज़ करके मानवाधिकारों का उलंघन हुआ है।

अगर इन सब परिस्थितियों पर विचार किया जाय तो हम पाएंगें कि ऐसे में ‘इस बल का गठन सुरक्षा के लिए किया जा रहा है’ वाली बात बेमानी होगी। और अगर सुरक्षा ही उद्देश्य है तो इस समय तो सबसे ज्यादा सुरक्षा की जरूरत जनता को है, जिसके साथ आये दिन वारदातें हो रही हैं! क्या एक गरीब आदमी इस बल को हायर कर पायेगा ?

और अगर बात सिर्फ इमारतों की सुरक्षा ही है तो फिर न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में क्यों नहीं रखा गया इस बल को और विधिक प्रकिया को क्यों बायपास किया जा रहा है ? सवाल बहुत हैं लेकिन सरकार के पास कोई जवाब नहीं है।

बात बेहद साफ है कि जब सरकार सभी मोर्चों पर फेल साबित हो रही है और जनता में असंतोष का माहौल है तब ऐसे में अपने विरोधियों और जनादोलनों का दमन करना ही इस बल के गठन का मुख्य और प्राथमिक उद्देश्य है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रदेश की सभी लोकतांत्रिक और अमनपसंद ताकतों को एकजुट होकर इसका मुकाबला करना होगा !

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