यूं तो समलैंगिक रिश्तों पर तमाम फिल्में बनी हैं। लेस्बियन संबंधों पर भी कुछ बहुत खूबसूरत फिल्में हैं, लेकिन आज हम गे संबंधों पर बनी फिल्म की बात करेंगे। गे रिश्तों पर तीन फिल्मों ने मुझे अधिक प्रभावित किया। इनमें पहली है इटैलियन फिल्मकार ल्यूका ग्वाडैगनिनो की 2017 में आई फिल्म ‘कॉल मी बाय योर नैम।’ इस फिल्म को बेस्ट स्क्रीनप्ले श्रेणी का ऑस्कर अवॉर्ड भी मिला है और यह फिल्म इटैलियन-अमेरिकन लेखक आंद्रे एसिमैन के इसी नाम के उपन्यास पर बनी है। इस सिलसिले की दूसरी फिल्म है, भारतीय फिल्मकार हंसल मेहता की 2015 में आई हिंदी फिल्म ‘अलीगढ़।’ …और तीसरी फिल्म है 2005 में आई ताइबानी फिल्मकार आंग ली की अमेरिकन फिल्म ‘ब्रोकबैक माउंटेन।’ आज हम इसी तीसरी फिल्म की बात करेंगे। ‘कॉल मी बाय योर नैम’ मुझे कुछ अधिक पसंद होते हुए भी हम ‘ब्रोकबैक माउंटैन’ की बात इसलिए भी करेंगे कि यह मेरे जानने में पहली फिल्म है, जिसने सबसे पहले गे रिश्तों और उसके द्वंद्वों पर बहुत संवेदनशील ढंग से दो समलैंगिक पुरुषों और उनकी पत्नियों की कहानी कही।
फिल्म ‘ब्रोकबैक माउंटेन’ अमेरिकन उपन्यासकार और कथाकार ई. एनी प्रॉल्क्स (E. Annie Proulx) की कहानी ‘ब्रोकबैक माउंटेन’ पर आधारित है। एक महिला कथाकार ने गे रिश्तों, उनकी भावनाओं, उनके द्वंद्वों, उनके सुख और परेशानियों को जिस तरह से बयान किया है, वह अद्भुत है। कहानी पिछली सदी के साठवें दशक से शुरू होती है। यह कहानी उन दो नौजवान चरवाहों की है, जिन्हें एक अमेरिकन एजेंसी भेड़ें चराने के लिए ब्रोकबैक माउंटेन पर भेजती है। दोनों पहली बार उसी एजेंसी में मिले हैं, जिसने उन्हें गडरिए की नौकरी दी है। वे ब्रोकबैक माउंटेन पहुंचते हैं। वहां एक पहाड़ी नदी के किनारे तंबू गाढ़ा जाता है। इनमें से एक को तंबू में रहकर दोनों के लिए खाने-पीने का इंतजाम करना है और दूसरे को ऊंचाई पर मौजूद हरे घास के मैदानों में भेड़ों को चराना है और सिर्फ खाना खाने और नहाने-धोने के लिए ही कैंप पर आना है। एनिस डेल (हीथ लेजर) तंबू में रहता है, खाना बनाता है, बर्तन साफ करता है और हफ्ते में पहाड़ी बाजार जाकर सब्जियां आदि लाने का इंतजाम करता है। जैक ट्विस्ट (जैक गाइलेनहाल) ऊंचाई पर भेड़ें चराता है और तय नियमों के हिसाब से उसे रात में भेड़ों के साथ ही एक छोटे से तंबू में रहना होता है। एक दिन जैक खाना खाने आता है और तेज बारिश हो जाती है। वह रात में एनिस के पास रुक जाता है। जब कैंप के बाहर जल रही आग बुझ जाती है और सर्दी बढ़ जाती है, तब दोनों के भीतर जिस्मानी आग भड़कती है और सुबह दोनों इसे सिर्फ एक हादसा मानते हैं, लेकिन धीरे-धीरे पाते हैं कि वे पहले भले ही जिस्मानी तौर पर मिले थे, लेकिन अब दोनों हमेशा भावनात्मक तौर पर भी एकदूसरे से मिलने को बेताब रहते हैं।
एनिस रोज उसका इंतजार करता है और बिछड़ते वक्त वह कलप जाता है। ब्रोकबैक माउंटेन रिश्तों का वह प्रतीक है, जहां जेंडर बहस में नहीं होता। एक बाहर से काम करके आता है, तो दूसरे को आग जलाकर रखनी है। इस आंच में दो पुरुष एक परिवार हैं, जिसमें उनकी भावनाएं भी दहकती हैं और यौनिकता भी। एनिस ने देखा था कि उसके बचपन में एक गे जोड़े को गांववालों ने कैसे जला दिया था। एनिस और जैक का जो रिश्ता ब्रोकबैक माउंटेन पर पनपता है, वही पूरी फिल्म का आधार है और दोनों भले ही बाद में अपनी-अपनी जिंदगी में लौट जाते हैं और अपनी प्रेमिकाओं से शादियां कर लेते हैं। उनके बच्चे भी पैदा होते हैं, लेकिन सालों बीत जाने के बाद भी वे मानसिक और भावनात्मक रूप से एकदूसरे को प्यार करते हैं, याद करते हैं और एकदूसरे की छुअन को महसूस करते हैं।
किसी और से संबंध बनाने और झूठ बोलने की जलन से भी भरे होते हैं। वे दोनों अपने रिश्तों को दुनिया से छुपाए रखना चाहते हैं, लेकिन उन्हें हमेशा लगता है कि दुनिया उनके बारे में जानती है। एक दिन जैक की मौत हो जाती है। जैक के पिता से एनिस को पता चलता है कि जैक की आखिरी ख्वाहिश ये थी कि उसके अवशेषों को ब्रोकबैक माउंटेन की फजाओं में बिखरा दिया जाए। जैक के कमरे में एनिस अपनी एक शर्ट देखता है, जो जैक की जैकेट के बीच ऐसे फंसी हुई है, जैसे दोनों हमेशा के लिए सीने से लग गए हों। इस फिल्म में एनिस का किरदार निभाने वाले शानदार ऑस्ट्रेलियन अभिनेता हीथ लेजर की अधिक ड्रग्स लेने के कारण 2008 में महज 28 साल की उम्र में मौत हो गई थी। इस फिल्म में मिशेल विलियम ने उनकी पत्नी का किरदार निभाया है, जबकि जैक की पत्नी का किरदार चर्चित अदाकारा एनी हैथवे ने निभाया है।
यह फिल्म उस समय की बात कहती है, जब सोसायटी को अगर समलैंगिक रिश्तों का पता चल जाए, तो उनकी हत्या कर दी जाती थी या उन्हें जेल भेज दिया जाता था। इससे भी थोड़े पहले समय की बात करें तो यूनाइटेड किंगडम के महान लेखक ऑस्कर वाइल्ड को लोगों ने सिरमाथे उठाया, प्यार दिया, इज्जत दी और जब पता चला कि वह समलैंगिक है तो जो लोग उसके नाटकों, कहानियों से प्रेम करते थे, उन्हीं ने नफरत की और उसे जेल में डाल दिया गया। बाद में वह पेरिस चला गया और गुमनामी की जिंदगी जीते हुए महज 46 साल की उम्र में गुमनामी की मौत मर गया। कुछ समाजों को छोड़ दें तो दुनिया के बड़े हिस्से में सामाजिक स्तर पर अब भी हालात बहुत बदले नहीं हैं। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 26 जून 2015 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि संयुक्त राज्य अमरीका के सभी 50 राज्यों में समलैंगिक लोग शादियां कर सकेंगे। इससे पहले जिन अमेरिकन पुरुषों को अपने पुरुष मित्र से शादी करनी होती थी, वे नीदरलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड जैसे देशों में जाकर शादी करते थे, जहां कुछ समय पहले ही समलैंगिक शादियों को मान्यता दी गई थी। गौर करने वाली बात तो यह है कि ह्यूमन डिवेलपमेंट इंडेक्स की हर साल जो सूची निकलती है, उसमें सबसे अधिक मानव अधिकारों की रक्षा करने वाले और खुश रहने वाले शीर्ष 5 देश वे हैं, जिन्होंने और जिनके समाजों ने सबसे पहले समलैंगिक रिश्तों को कुबूल किया, उनके बीच शादियों या बगैर शादी के भी साथ रहने को स्वीकार किया। अमेरिका में समलैंगिक शादियों को लेकर कानून भले बन गया हो, लेकिन समाज में इसकी बहुत स्वीकार्यता नहीं है। एक किस्सा ये भी है कि कानून बनने के ठीक बाद एक अमेरिकन गे जोड़ा जब रजिस्ट्रेशन कार्यालय पहुंचा, तो वहां बैठी एक महिला अधिकारी ने यह कहते हुए उनकी शादी का रजिस्ट्रेशन करने से इनकार कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश जो भी हो, ईसा मसीह का आदेश ये है कि मैं इस पाप में भागीदार नहीं बनूंगी। जाति और वर्ण को लेकर हमारे यहां भी ऐसे तमाम किस्से मिल जाएंगे, जहां लोग संविधान से इतर मनुस्मृति को अधिक स्वीकार्यता देते हैं।
इस समय दुनिया के 27 देश ऐसे हैं, जहां समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता है। नीदरलैंड पहला देश है, जिसने 2001 में समलैंगिक विवाह को मंजूरी दी थी। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिक रिश्तों को स्वीकार्यता दी, हालांकि अभी यहां समलैंगिक शादियों को मंजूरी नहीं दी गई है। भारत के कुछ समलैंगिक जोड़े दूसरे देशों में जाकर शादियां करते हैं। वहीं ऐसे कई जोड़ों ने देश की अदालतों में शादी करने के लिए याचिकाएं डाली हुई हैं। भारत की मोदी सरकार पुरानी नैतिकताओं की वकालत करती है और सुप्रीम कोर्ट के धारा 377 हटाए जाने के बावजूद अदालतों में वह समलैंगिकता के पक्ष में कोई बात नहीं कहती। एक यह कारण भी है कि भारत में हंसल मेहता जब ‘अलीगढ़’ जैसी जरूरी फिल्म बनाते हैं, तब उसे समाज के एक बड़े हिस्से और सरकार की स्वीकार्यता नहीं मिलती। उसे नैशनल अवॉर्ड न मिलकर, एसएस राजामौली की तेलगू फैंटसी फिल्म ‘बाहुबली’ को यह सम्मान मिलता है। सम्मान भले कसौटी न हो, लेकिन ‘ब्रोकबैक माउंटेन’ को जब तीन श्रेणियों में ऑस्कर अवॉर्ड मिलता है, तब दुनियाभर में सांस्थानिक तौर पर इस बात को भी स्वीकार्यता मिलती है कि समलैंगिता व्यक्ति का निजी फैसला है और इसका सम्मान होना चाहिए। जब ‘अलीगढ़’ जैसी फिल्मों को नजरअंदाज किया जाता है, तब सिनेमा और समाज में समलैंगिकता को लेकर वैसी ही चुहल की जाती है, जैसी जॉन अब्राहम और अभिषेक बच्चन की अदायगी वाली 2008 में आई फिल्म ‘दोस्ताना’ में की गई थी। हिंदी में इस मसले पर लगभग सभी फिल्में ऐसी हैं, जिनमें समलैंगिकता का मजाक उड़ाया जाता है। आप लैला-मजनू की दास्तानें सुनकर भावुक होते हैं, रोते हैं और प्रेम को ‘पवित्र’ शै इसलिए मानते हैं, क्योंकि आप स्त्री-पुरुष संबंधों को सहज मानते हैं और दो पुरुषों या दो स्त्रियों या तीसरे जेंडर के दो लोगों की कहानियां आपको असहज करती हैं। एलजीबीटीक्यू एक तीसरी दुनिया है, जिसकी गैरबराबरी और तकलीफों की बर्फ अभी बहुत सघन है। यह बर्फ दहकते अहसासों के किसी ब्रोकबैक माउंटेन पर ही पिघलेगी। हर भाषा में और हर जगह ऐसी फिल्मों की बहुत जरूरत है।
(तस्वीरें गूगल से साभार)