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भारत में राजनीतिक बदलाव का वाहक बनता किसान

घाटे की खेती के कारण पिछले डेढ़ दशक के दौरान साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या और क्रूर सरकारी दमन के बाद संगठित हुआ भारत का वर्तमान किसान आंदोलन आज देश की राजनीति के केंद्र में आ गया है। हाल में देश में हुए पांच राज्यों के चुनाव परिणाम और उसके बाद वहां जीती सरकारों सहित कई अन्य सरकारों द्वारा किसानों व आदिवासियों के नाम पर हाल में उठाए जा रहे कदम इसके गवाह हैं। यही नहीं, देश का मुख्य धारा का ज्यादातर मीडिया जो मोदी राज में मजदूर-किसानों के सवालों से पूरी तरह कन्नी काटते हुए साम्प्रदायिक विभाजन के कृतिम मुद्दे गढ़ता रहता था, इसे पूरी तरह ओझल नहीं कर पाया है।
अगर इन चुनावों में किसानों-आदिवासियों की सक्रिय राजनीतिक भूमिका को समझना है तो आपको सबसे पहले छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करना होगा। चुनाव शुरू होने से पहले तक ज्यादातर सर्वेक्षणों में छत्तीसगढ़ में फिर रमन सरकार के बनने के कयास लग रहे थे। वोटिंग के बाद भी सर्वेक्षण यहां कड़ी टक्कर बता रहे थे। पर चुनाव परिणामों ने सबको चौंका दिया।
इन पांच राज्यों में जहां अभी चुनाव हुए हैं छत्तीसगढ़ ही ऐसा राज्य है जहां किसानों-आदिवासियों की जमीनों को कॉरपोरेट घरानों के लिए बड़े पैमाने पर जबरन अधिग्रहित कर उनकी बेदखली की जा रही थी। इसके लिए आदिवासियों-किसानों के हर विरोध को न सिर्फ निर्ममता से कुचला जा रहा था बल्कि उनके हक में आवाज या कलम उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों, नागरिक समाज के लोगों को भी या तो जेलों में डाला जा रहा था या उनकी हत्या की जा रही थी। ऐसे में कई लोगों को तो रमन राज में छत्तीसगढ़ छोड़ने तक को मजबूर होना पड़ा था।
पिछले 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ एक कारपोरेट-पुलिस-गुंडा स्टेट में तब्दील हो गया था, जहां अघोषित रूप से देश का संविधान और कानून पूरी तरह निलंबित था। अपने इन कारपोरेट परस्त गैर कानूनी-गैर संवैधानिक कदमों को वैधता दिलाने के लिए रमन और मोदी सरकारों ने छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और अर्बन नक्सल का हौवा खड़ा था। असल में पिछले 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ संघ-भाजपा के नेतृत्व में कारपोरेट-पुलिस राज की प्रयोगस्थली बना था, जहां जनता के हाथ से सारे संशाधनों को छीन कर कारपोरेट के हवाले करने का अभियान चल रहा था।
इसका एक ही उदाहरण रमन राज के छत्तीसगढ़ को समझने के लिए काफी है। 4 जून 2005 में बस्तर जिले के लोहांडीगुड़ा तहसील में प्रति वर्ष 5.5 मिलियन क्षमता वाला स्टील प्लांट स्थापित करने के लिए राज्य सरकार और टाटा स्टील के बीच एक एमओयू हुआ था। प्लांट के लिए सीएसआईडीसी की ओर से फरवरी 2008 और दिसम्बर 2008 में जमीन अधिग्रहीत की गई थी लेकिन साढ़े दस साल बाद टाटा ने 3 फरवरी 2016 को प्लांट लगाने  में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी।
टाटा के स्टील प्लांट के लिए जिन गांवों में भूमि अधिग्रहण किया गया था, उनमें लोहांडीगुड़ा तहसील के अंतर्गत ग्राम छिंदगांव, ग्राम कुम्हली, बेलियापाल, बडांजी, दाबपाल, बड़ेपरोदा, बेलर और सिरिसगुड़ा में तथा तहसील तोकापाल के अंतर्गत ग्राम टाकरागुड़ा शामिल हैं। इस पर संबंधित कम्पनी ने कोई उद्योग स्थापित नहीं किया है। टाटा के इस उद्योग के लिए सीएसआईडीसी के द्वारा 2043 हेक्टेयर जमीन ली गई थी, जिसमें छोटे-बड़े झाड़ के सरकारी जंगल के अलावा  10 गांवों के 1707 आदिवासी किसानों की 1784.61 हेक्टेयर जमीन शामिल थी। प्रभावित कुछ आदिवासियों को 42.7 करोड़ रुपये मुआवजे के रूप में जबरन पकड़ा दिए गए। मगर आदिवासी-किसान इस जबरिया भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ते रहे।
इसके लिए इनका भारी दमन किया गया और विरोध करने वाले आदिवासी किसानों को महीनों तक जेलों में डाला गया। 2008 में जबरिया भूमि अधिग्रहण के बाद इन 1707 परिवारों के जमीन के कागज जब्त हो गए। इसके बाद न इनका जाति प्रमाण पत्र बन रहा है न ही स्थाई निवास प्रमाण पत्र बन रहा है। इन प्रमाण पत्रों के लिए जमीन की अनिवार्यता है जिसे जबरन इनसे छीन कर टाटा के नाम कर दिया गया है। पर आदिवासी किसानों ने अपनी लड़ाई जारी रखी और अब छत्तीसगढ़ की नई सरकार ने आदिवासियों की इस जमीन को वापस करने की घोषणा की है।
यह स्थिति आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के ज्यातातर क्षेत्रों की है। इस स्थिति ने नीचे से रमन सरकार के खिलाफ एक जबरदस्त आदिवासी-किसान आक्रोश को जन्म दिया जो विधानसभा चुनावों में रमन सरकार के खिलाफ सुस्पष्ट जनादेश के रूप में सामने आया।
किसान मुक्ति यात्रा के दौरान जब जुलाई 2017 में मंदसौर से शुरू कर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के गांवों में मैं खुद किसानों-आदिवासियों से मिला तो राज्यों की भाजपा सरकारों और केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ किसानों में गुस्सा दिख रहा था, इसे मैंने तब लिखा था जो न सिर्फ कई पत्र-पत्रिकाओं में छपा बल्कि उसकी एक पुस्तिका “किसान मुक्ति यात्रा” भी इन चुनाव से तीन माह पूर्व छप चुकी थी। किसानों-आदिवासियों का यह गुस्सा गुजरात चुनाव में भी अपना तेवर दिखा चुका था। इससे इस बार संघ-भाजपा काफी चौकन्नी थी। यही कारण था कि मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों की पुलिस द्वारा की गई हत्या के बाद उपजे आक्रोश को ठंडा करने के लिए संघ ने योजना बनाई।
संघ ने मंदसौर जिले को केंद्र कर मध्य प्रदेश में अपना नेटवर्क किसानों के बीच बनाने का सचेत प्रयास डेढ़ साल पहले शुरू कर दिया था। इसके लिए संघ ने अपने प्रचारकों व पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को वहां किसानों के बीच लगा दिया। बिहार से भी रणबीर सेना से जुड़े एक संगठक को वहां लगाया गया जो एक नए किसान संगठन के बैनर पर किसानों और शहीद किसानों के परिवारों को संगठित कर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के आंदोलन से दूर करता गया। मैंने इस सवाल पर एक साल पहले ही मंदसौर किसान आंदोलन के स्थानीय किसान कार्यकर्ताओं को अपनी आशंका जतायी थी।
चुनाव नतीजों ने मेरी उस आशंका को सही साबित किया। जिस मंदसौर गोलीकांड के बाद देश भर के किसान संगठन एक सूत्र में बंधे, जिस मंदसौर से इस दौर के संगठित किसान आंदोलन की शुरुआत हुई, उस मंदसौर जिले की एक विधानसभा सीट को छोड़कर बाकी सभी पांचों विधानसभा सीटों को भाजपा ने फिर जीता। जिस विधान सभा क्षेत्र में आंदोलनकारी किसानों की हत्या की गई, जिन गांवों के किसान शहीद हुए, उन सभी जगहों पर बीजेपी ने अपनी जीत दर्ज की।
राजस्थान में भी इस दौर में किसानों का आक्रोश काफी तीखा था और वहां किसान आंदोलन ने अपनी एक विशिष्ट पहचान भी बनाई। संघ-भाजपा ने उससे हो रहे भारी राजनीतिक नुकसान को पाटने के लिए यहां पूरी ताकत झोंक दी थी। हालांकि भाजपा यहां किसान आंदोलन के प्रमुख जिलों में सीटें जीतने में ज्यादा कामयाब नहीं हो पाई थी। फिर भी भाजपा ने राजस्थान के चुनाव परिणामों के पूर्व आकलन को बदल कर भारी नुकसान को काफी कम नुकसान में बदल दिया। यहां सीकर के चर्चित किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी दो सीटें जीतने में कामयाब रही। जबकि माकपा एक सीट पर दूसरे स्थान पर और सात सीटों पर तीसरे स्थान पर भी रही।
इसी तरह तेलंगाना के चुनाव नतीजे में जिनमें टीआरएस ने बड़ी जीत दर्ज की किसानों की भूमिका प्रमुख रही। अपने इस शासन में टीआरएस ने किसानों के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाऐं चलाई। इनमें फसल बोने के लिए हर किसान परिवार को साल में आठ हजार रुपये की राज्य सहायता देना ऐसा कार्य था जिसने आर्थिक संकट से घिरे किसानों को टीआरएस के साथ मजबूती से खड़ा रखा।
पांच राज्यों में से वर्तमान विधानसभा चुनाव में उपरोक्त चार राज्यों में चुनाव प्रचार अभियान में किसान एजंडा सबसे ऊपर था। इस एजेंडे से इन चुनाव को भटकाने की काफी सचेत कोशिशें संघ परिवार ने की। उसने इसे हिंदू-मुसलमान और राम मंदिर के मुद्दे के साथ ही अर्बन नक्सल के मुद्दे पर भी भटकाने की कोशिशें की। पर देश में किसान एजंडा इतना हावी हो चुका था कि इस मोर्चे पर संघ की सारी कोशिशें बेकार साबित हुई।
किसान एजेंडे को देश की राजनीति के केंद्र में स्थापित करने में देश के 210 किसान संगठनों के संयुक्त मंच “अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति” के बैनर से चले धारावाहिक आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है। जब पांच राज्यों का चुनाव अभियान चल रहा था तब देश भर में एआइकेएससीसी से जुड़े किसान संगठन 29-30 नवम्बर के किसानों के दिल्ली मॉर्च की तैयारियों को अंजाम देने में जुटे थे। 29-30 ननवम्बर को किसानों के दिल्ली मार्च कार्यक्रम ने भी चुनाव में किसान ऐजेंडे को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। इसी का नतीजा था कि राजस्थान के चुनाव अभियान को बीच में छोड़कर “किसान मार्च” के मंच पर लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के प्रमुख नेताओं को आने को मजबूर होना पड़ा।
आज न सिर्फ छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान की नई सरकारों ने किसानों की 2 लाख तक की कर्ज माफी की घोषणा की है। बल्कि छतीसगढ़ सरकार ने तो धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2500 रुपया प्रति क्विंटल घोषित किया है। तेलंगाना सरकार की तर्ज पर उड़ीसा की बीजू सरकार ने भी किसानों को फसल बोते समय नकद सहायता की घोषणा की है। आने वाले समय में अन्य राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा भी इस मोर्चे पर कुछ घोषणाओं को हम देख सकते हैं। पर भारत का कृषि संकट जितना गहरा गया है इस मरहम से उसका इलाज संभव नहीं है।
वर्तमान कृषि संकट नीतियों के स्तर पर बड़े रेडिकल बदलाव की मांग करता है। खेती के कारपोरेटीकरण की जो राह भारतीय शाषक वर्ग ने पकड़ी है, वह भारत की खेती किसानी की तबाही का रास्ता है। इस लिए देश की राजनीति के केंद्र में किसान एजेंडे का लम्बे समय तक बने रहना कोई अचरज की बात नहीं होगी।

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