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दिव्य कुंभ जहां पाखंड के नीचे इंसानियत कराहती है

इलाहाबाद में लगा अर्ध कुंभ अपने अंतिम चरण में है। दिव्य-कुंभ, स्वच्छ-,कुंभ, स्वस्थ-कुंभ, सुगम-कुंभ की सफलता का डंका पीटा जाने लगा है। झूठ और लूट का बाजार गर्म है । विदेशी मेहमानों राजनीतिज्ञों,सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का रोज- ब-रोज तांता लगा हुआ है ।अभी इसे और ऊंचाई पर पहुंचाने की कोशिशें जारी हैं । लेकिन इसके पीछे की मर्मांतक पीड़ा भरी कथाएं बाकी हैं । चौड़ी सड़कों, भव्य अखाड़ों, चमचमाती रोशनियों के पीछे अंधकार की सत्ता है जिसके तले दबकर इंसानियत कराहती है। राजनीति की बिसात बना दिए गए इस सर्वाधिक विज्ञापित अर्धकुंभ को जिन लाखों हाथों ने संभव किया और मान अपमान सहते अपनी जान तक गंवा दी, उनके साथ सरकार और ठेकेदार दोनों छल कर रहे हैं ।

वे जिन्होंने श्रद्धालुओं के लिए इसे स्वच्छ बनाने की जी तोड़ मेहनत की, जिन्होंने रात दिन एक कर इसे सुगम बनाया, वे जिन्होंने घायलों, बीमारों की सेवा की, वे जो उनकी सुरक्षा में तैनात रहे, आज जबकि 23 फरवरी है, उनकी आंखों में उदासी है, हाथ खाली हैं। कुछ धरने प्रदर्शन भी हुए लेकिन अभी सिर्फ आश्वासन ही हैं ।

सफाई कर्मी आशादीन, साधु से बाल्टी छू जाने के कारण जिसका हाथ तोड़ दिया गया, मृत जगुआ तथा ननकाई की मौत पर आक्रोशित सफाईकर्मी

यह झूठ और पाखंड कल अपने चरम पर होगा जब देश के प्रधानमंत्री महोदय सफल आयोजन के लिए सफाई कर्मियों, सुरक्षा, स्वास्थ्य कर्मियों, नाविकों को एक 6000 सीटों वाले भव्य पंडाल में सम्मानित करेंगे ।लेकिन उनके मेहनताने का पैसा कब मिलेगा, अब तक क्यों नहीं मिला, इस पर कोई बात नहीं की जाएगी ।

जिनकी मौतें हुई उनके नाम तक न होंगे । देवराहा बाबा के आश्रम में बाल्टी छू जाने पर जिस सफाई कर्मी आशादीन को मारकर हाथ तोड़ दिया गया उसकी एफ.आई.आर तक नहीं हुई ।बल्कि इसके उलट जिन लोगों ने इनके लिए आवाज उठाई उन्हें धमकियां और गिरफ्तारी मिली ।चाहे एक्टू के जिला सचिव डॉ कमल हों या कवि, सामाजिक कार्यकर्ता अंशु मालवीय ।

आइए हजारों हजार सबसे निचले पायदान के कर्मिकों की मेला में रहने की स्थितियों उनके मेहनताने की मौजूदा स्थिति पर एक नज़र दौड़ा लें तो इस दिव्य कुंभ का भव्य पाखंड शायद आपको भी नज़र आने लगे ।

सफाई कर्मचारी

आदमी जहां सूअर है, पिल्ला है

( महाप्राण निराला से माफी के साथ )

अर्धकुंभ 14 जनवरी से शुरू हुआ लेकिन सफाई कर्मियों की बलि दिसंबर अंत की ठंड में ही चढ़नी शुरू हो गई थी। ननकाई पुत्र लोला गाज़ीपुर और जगुआ बांदा की मौत रात में सफाई करके लौटने के बाद हो गई । इनके नाम भी प्रशासन ने दर्ज करना उचित नहीं समझा और ना ही इन्हें कोई सहायता राशि दी गई ।

इन मौतों के पीछे की वजह जानना हो तो मेरे साथ आइए विभिन्न सेक्टरों में भव्य जगमगाते अखाड़ों के पीछे नालों पर बसी इनकी बस्तियों तक । जिन नालों की बदबू आपको 2 मिनट खड़ा नहीं होने देगी उसी के किनारे इनकी छोलदारियाँ (टेंट) लगे हैं । अधिकतम 8 गुणा 6 फिट के टेंट जिन्हें टेंट कहना भी गलत ही है । पन्नियों को ओढ़ाकर फटे हुए तिरपालों की ये बस्ती जिसमें एक दो लोगों का भी रहना मुश्किल है, उसमें इनका पूरा परिवार रहता है ।

सफाई कर्मियों के टेंट

उत्तर प्रदेश, सीमावर्ती राज्य मध्य प्रदेश से तमाम लोग स्थानीय ठेकेदारों के मार्फत यहां लाए गए हैं । इस बस्ती में आते ही जो दृश्य था वह चौंका देने वाला था ।गांव घर में धूप में अनाज सुखाते तो देखा था, लेकिन यहां पन्नियों, बोरियों पर पूड़ी, रोटी-भात, सब्जी सुखाई जा रही है ।मेरे साथ गए मित्र अंतस जब इस बाबत उन लोगों से पूछते हैं तो बड़े लोग संकोच करते हैं लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं ।

धूप में सूखती पूड़ियाँ व जूठा खाना

वे बताते हैं कि यहां से लौटकर अपने घर जाकर इन्हें भूनकर खाएंगे ।

ये बच्चे हैं
इनसे तमीज से बात करो
तलाशी में अपनी जेबों के
अस्तर तक उलट देते हैं बच्चे

( स्मृति के आधार पर कवि हरिश्चंद्र पांडे से क्षमा सहित)

मैं हतप्रभ था । एक क्षण को कुछ सूझ ही नहीं रहा था। लेकिन बच्चे थे जीवन में वापस खींच लेने वाले । मैंने उनकी फोटो उतारी, फोटो के लिए पोज भी दे रहे थे । सबकी तस्वीरें उतार उन्हें दिखा कर मैंने अपना कैमरा फिर चालू किया । सूखते बासी खाने, प्लास्टिक की पन्नियों से ढंके टेंट,नाला, लोग, बिजली के खंभों से ली गई कटिया के तार सब चले आए ।

लोगों से बातचीत शुरू हुई । ननकाई का परिवार वापस चला गया है ।10 दिन में मेला खत्म हो जाएगा ।लेकिन लोगों के हाथ में अभी 2000 से 3000 रुपए तक ही आए हैं ।

बांदा जिले की पैलानी तहसील गांव गौरी चंदवारा से आई चंदा बताती हैं कि अब तक केवल ₹2000 मिला है । जब बात करो बाकी पैसा कब मिलेगा तो अधिकारी कहते हैं कि तुम्हारे खाते में डाल दिया है। बैंक जाओ पता करने तो कहते हैं कि सर्वर डाउन है । यही बात वहां मिले दूसरे सफाई कर्मी जगन्नाथ भी बताते हैं।

अपने टेंट में चंदा देवी

आपको बता दें कि इनको पहले प्रतिदिन ₹295 मिलता था और हर 15 दिन पर उसका भुगतान कर देना था । बाद में प्रशासन पर दबाव के बाद ₹315 प्रतिदिन का तय हुआ । इस मेले के दौरान करीब 80 दिन इन लोगों को काम करना है जिसमें से 70 दिन बीत चुके हैं । पूरे दिन काम के दौरान इन्हें लगभग ₹25000 प्रति व्यक्ति को मिलना है और अभी 10% ही औसतन दिए गए हैं ।

इन लोगों ने अपनी पासबुक भी दिखाई जिसमें मेले के दौरान कोई पैसा क्रेडिट नहीं हुआ है । ये सफाई कर्मी दिन रात काम करते हैं। जिस स्वच्छ-कुंभ का जोर-शोर से नगाड़ा बज रहा है, उसे अंजाम देने वाले इन सफाई कर्मियों के प्रति साधु संतों से लेकर सरकार का जो रुख है उसे आप खुद ही समझें ।

जगन्नाथ और काकेश के बैंक खाते

स्वच्छता कर्मियों के साथ स्नान करते साधु-संतों की तस्वीरें, प्रमाण पत्र देते प्रधानमंत्री की तस्वीरें तो अखबारों में पहले पन्ने पर छपेंगी पर इनकी मौतों, इन पर हमले, इन के अपमान, इन्हें इंसान भी न मानने की कथा कौन कहेगा ?

इस संदर्भ में मैंने शहर के मजदूर- सफाई कर्मियों के नेता और एक्टू ( आल इंडिया सेन्ट्रल काउन्सिल ऑफ़ ट्रेड यूनियंस) के राज्य सचिव अनिल वर्मा से बात की तो उन्होंने कहा-न संत न सरकार, कोई इन्हे मनुष्य ही नहीं मानता ।इस मसले को हम लोग लगातार उठा रहे हैं । इस धांधली और अंधेर गर्दी को यदि खत्म करना है तो एक प्रशासन दलालों की मार्फत नहीं सीधे खुद इनकी भर्ती करें । हर सेक्टर में जैसे तीसरे दर्जे के कर्मचारियों के लिए रहने का शेल्टर है, वैसे ही इनको भी एलॉट किया जाए ।सामूहिक भोजनालय और ठंड से मौत ना हो इसके लिए गर्म पानी की व्यवस्था हो । बच्चों के लिए अस्थाई स्कूल और क्रेच हों और नियमित कर्मचारियों के बराबर इनका भी वेतन हो,तभी इसका कोई हल निकल सकता है । सफाई कर्मचारियों के नेता और खुद सफाई कर्मचारी संतोष कुमार और रामशिया जी ने इन्हीं सिफारिशों की पुष्टि की ।

बस्ती से वापस लौटते हुए मैं सोच रहा था वह मेला जहां लोग दान पुण्य कमाने आते हैं, अन्न क्षेत्र के बैनर पटे पड़े हैं और भाजपा अध्यक्ष समेत तमाम लोग बड़े-बड़े भंडारे का आयोजन करते हैं वहां क्या ये मनुष्य नहीं ? अंतस ने रास्ते में बताया कि जो खाना वह लोग सुखा रहे थे केवल मांग कर ही नहीं लाते बल्कि बाहर डाल दी गई जूठी पत्तलों से बटोर कर भी लाते हैं ।मेरे भीतर कंपकपी की एक लहर सी दौड़ गई और फिर संयत होकर मैंने अंतस से कहा कि उसकी तस्वीर क्यों नहीं ली ?अंतस ने कहा कि वह दृश्य इतना अमानवीय था कि मेरा हाथ कैमरे पर नहीं जा सका ।

पूरे देश के हर गांव में बिजली जलाने का दावा करने वाले और घर, गैस कनेक्शन देने का दावा करने वाली सरकार इन्हें क्या एक साफ सुथरा टेंट, एक बिजली का बल्ब, ठंड से बचने के लिए एक गर्म कपड़ा तक नहीं दे सकती ? वह उन्हें कटिया मारने को विवश कर अपराधी क्यों बना रही है ? और अब उनका मेहनताना भी ना देकर वह उनकी लाशों से कफन भी उतार लेना चाहती है ।

सुगम कुंभ का दुर्गम जीवन

कभी 6500 बसें चली, कभी 5000 कभी 2800 बसों से वापस भेजा गया श्रद्धालुओं को, यह बड़ी-बड़ी हेडलाइंस हैं अखबारों की लेकिन इन बसों को चलाने वाले चालकों-परिचालकों के दुख,उनकी तकलीफें कभी एक कॉलम की जगह भी अखबारों में नहीं पा सके ।

लखनऊ, प्रतापगढ़ मार्ग से होकर आने वाली बसों के लिए फाफामऊ-इलाहाबाद-लखनऊ- प्रतापगढ़ मार्ग पर मुख्य सड़क से तकरीबन 2 किलोमीटर दूर बेला कछार में अस्थाई बस अड्डा बनाया गया है । यहां हरदोई मंडल यानी हरदोई, शाहजहांपुर, सीतापुर , कन्नौज, गोला से आई 58 बसों का बेड़ा था । लखनऊ और रायबरेली डिपो की बसें मुख्य मार्ग पर ही खड़ी रहती हैं । बेला कछार डिपो में इनके अलावा शटल बस और बरेली डिपो की भी बसें आकर लगती हैं।

सरकारी डिपो के बगल में ही प्राइवेट पार्किंग बनाई गई है । कर्मचारियों की व्यवस्था के नाम पर यहां जो दिखा वह इन परिवहन कर्मियों के कठिन जीवन और ‘सुगम कुंभ’ की जीती जागती तस्वीर है ।

बेला कछार बस स्टैंड की हालत

इस डिपो में दो टेंट लगे हैं जो परिवहन निगम का दफ्तर और अधिकारियों का आवास भी है । यात्रियों के लिए एक बड़ा यात्री निवास है । चालकों, परिचालकों के लिए यहां एक भी टेंट नहीं है । इस कई बीघे के परिसर में पानी का सिर्फ एक नल है जिसकी टोंटी कब की टूट चुकी है, जिससे लगातार पानी गिरता रहता है ।

सभी यात्रियों-कर्मचारियों के लिए यही एकमात्र पानी का टैप है जिसे वे पीने से लेकर शौचालय तक के लिए इस्तेमाल करते हैं ।

यहां टीन शेड वाले पुराने शौचालय हैं न कि जिन शौचालयों की तस्वीरें मुख्य खबर बनी हुई हैं ।लखनऊ डिपो तो खैर सड़क पर ही है। सड़क ही उसका अड्डा है । नाम न छापने की शर्त पर इस मंडल के एक बस परिचालक ने बताया कि पहले यह नल भी नहीं था और न ही हम लोगों के लिए कोई और सुविधा थी । काफी हंगामा करने के बाद यह एक नल लगा ।

 

वह बताते हैं कि निगम ने ₹150 प्रतिदिन का भत्ता देने के लिए कहा था लेकिन अभी मात्र 1650 रू ही मिले हैं। बचा हुआ सारा पैसा कट जाएगा या हमारे पीएफ खाते में डाल दिया जाएगा ।

ये परिवहन निगम के स्थाई कर्मचारी हैं । वहीं संविदा पर कार्यरत ऑफिस क्लर्क अश्विनी सिंह बताते हैं कि वह 11 जनवरी से यहां तैनात किए गए हैं और 5 मार्च तक रहना है ।वह ऑफिस में ही सोते हैं । उन्होंने भी बताया कि ₹150 प्रतिदिन का भत्ता कहा गया लेकिन उन जैसे संविदा कर्मियों को आज तक एक रूपया भी नहीं मिला, मिलेगा या नहीं पूछने पर वे कहते हैं कि मिलना तो चाहिए । यहां कोई मेडिकल भी कैंप नहीं था ।

अन्दावा के पास बनारस-गोरखपुर-आजमगढ़-बरेली डिपो का सबसे बड़ा बस अड्डा है जहां 500 बसों का बेड़ा खड़ा होता है ।यहां भी पानी के लिए एक टैप ही था ।बाद में कर्मचारियों का दबाव पड़ने पर एक हैंडपंप भी लगवाया गया । यहां भी स्थिति कमोवेश वैसी ही है । हां, काफी बड़ा बस अड्डा होने के कारण यहां स्वास्थ्य का एक कैंप था ।लेकिन चालकों-परिचालकों, शटल सेवाओं के कर्मचारियों के लिए कोई टेंट-कैंप नहीं था ।

अंदावा बस स्टैंड

शटल बसें जो मेला तक इस बस अड्डे से मुख्य स्नान के दिनों को छोड़कर ले आती-जाती हैं उनका हाल भी ऐसा ही है । शटल बस चालक संविदाकर्मी अरविंद कुमार पाल बताते हैं कि हम लोगों को नियमित दिनों में 1.36 रुपए प्रति किलोमीटर का भुगतान होता है । मेले में चलने के लिए क्या मिलेगा और कब मिलेगा इसका उन्हें कुछ भी नहीं पता था।

उन्होंने अपनी बस में बैठ कर फोटो खिंचवाई और कहा कि हम तो सेवा में लगे हैं । बाकी जो सरकार करे । सुविधाओं के बारे में पूछने पर वहां तमाम कर्मचारी आ जाते हैं और सब का एक ही स्वर होता है- अरे साहब हम लोग छोटे कर्मचारी हैं हमें कौन पूछेगा।

असुरक्षित हैं सुरक्षा एजेंसियों के कर्मचारी

इस मेले के लिए तमाम जगहों पर निजी सुरक्षा एजेंसियों के सुरक्षा गार्ड नियुक्त किए गए हैं । इनका ठेका मुंबई की कंपनी आरएमबी को मिला है ।यह कंपनी और भी कई धंधों में है ।

जैसा कि मेले के सभी क्षेत्रों में हुआ कि टेंडर किसी एक एजेंसी को मिला, उसने जगह-जगह से छोटे-छोटे ठेकेदारों को कुछ-कुछ हिस्सा बांट दिया ।अब ये सब एजेंसियां अपने दलालों के मार्फत विभिन्न इलाकों से लोगों को लाकर नियुक्त करती हैं।

सबसे निचले पायदान पर ये सुरक्षाकर्मी होते हैं जिनका कोई लिखित कांट्रैक्ट तक नहीं होता। इनका ठेकेदार इनको जो पैसा देता है एक रजिस्टर पर इनसे पावती के दस्तखत/अंगूठा लगवा लेता है ।

अपने टेंट में सुरक्षाकर्मी

उदाहरण के लिए ऐसी ही एक एजेंसी है वीरेंद्र प्रोटक्शन फोर्स जो मेले में यात्री निवासों की सुरक्षा में लगी है। इस एजेंसी ने दलालों की मार्फत गांव -शहरों से लोगों को बुलाया । 24 घंटे की ड्यूटी के लिए इन्हें ठेकेदार द्वारा ₹14500 महीना का आश्वासन दिया गया था । सेक्टर 6 स्थित ऐसे ही 2 यात्री निवास में मैं गया । ये लोग 11 जनवरी से ड्यूटी कर रहे हैं और 20 फरवरी तक किसी को 500 किसी को 1000 किसी को ₹1500 तक खर्चे के लिए मांगने पर दिया गया था ।

यहां काफी लोग जिला चित्रकूट कर्वी के मिले । कई तो एक ही गांव के थे । इनसे कहा गया था कि आपका रहना खाना फ्री रहेगा और सबको वर्दी दी जाएगी । मेरी मुलाकात इन लोगों से 13 फरवरी को हुई और तभी से लगभग नियमित मिलते या फोन पर बातचीत होती है। कोई एसके सिंह नाम का व्यक्ति इस एजेंसी की ओर से इन लोगों से मिलता है। पैसा ना मिलते देख ये लोग थोड़ा संगठित होकर दबाव बनाने लगे। मुख्य कंपनी के कर्मचारी ने बताया कि इस वीरेंद्र प्रोटेक्शन फोर्स को आरएमबी से पैसा आया है ।दबाव बढ़ने पर मामला थाने पहुंचा । मेले के नागवासुकी थाने में 21 फरवरी को मुख्य कंपनी के प्रतिनिधि, लोकल एजेंसी और कर्मचारियों के बीच बात हुई ।मालिक ने एक महीने की तनख्वाह देने को कहा । 22 तारीख की रात जब मैं इन लोगों से मिला तो किसी को आठ हजार, किसी को सात हजार की रकम मिली ।

एजेंसी द्वारा वर्दी के मद में भी ₹800 काट लिया गया ।इसको लेकर कर्मचारी काफी असंतोष में हैं और असुरक्षित भी कि पूरा पैसा मिलेगा या नहीं ।

इधर जिस मुख्य कंपनी को टेंडर मिला है यानी आरएमबी, उसका कहना है कि उसने मात्र 10% पैसा रोककर साढ़े पांच लाख रूपये वीरेंद्र प्रोटेक्शन को भेज दिया है । अब उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती इन कर्मचारियों को पैसा दिलाने की ।

उधर वीरेंद्र प्रोटेक्शन वाला अभी कर्मचारियों से कह रहा है कि अगले महीने पूरा पैसा दिया जाएगा । पुलिस प्रशासन कह रहा है कि पैसा न मिले तो लेबर कोर्ट चले जाओ । बाहर से आए गांव के सामान्य लोग, जिनमें आम तौर पर पिछड़े और दलित जातियों से आते हैं, किसके बल पर इस सुरक्षा एजेंसी के मालिकान से लड़े और किस आधार पर कोर्ट कचहरी के चक्कर मारें जबकि कोई लिखित अनुबंध भी नहीं है उनके पास ।

इनमें से कई को लगता है अखबार में खबर छप जाए तो कुछ होगा लेकिन अखबार…..

अंदावा में बस अड्डे पर जो सुरक्षाकर्मी मुझे मिले विनोद वर्मा वे बरेली की एक्सपर्ट सिक्योरिटी के लिए काम करते हैं । उन्होंने बताया कि रात की ड्यूटी के लिए उन्हें एजेंसी ₹5000 देती है और जनवरी की तनख्वाह मिली है । एक तो कर्मचारियों के लिए इतना कम पैसा ऊपर से उसमें भी तिकड़म से पैसा काट लेने और न देने की नीयत ।यह सरकार से लेकर निजी कंपनियों तक एक सी ही दिखती है ।

विदेशी सैलानियों की तस्वीरें, दिव्य कुंभ की जगमग और चमकते विज्ञापनों के नीचे इंसानियत की इन कराहती आवाजों को दबा दिया जा रहा है । किसी महंत की खल्वाट खोपड़ी जैसी सफाचट रेत के मैदान में अधर्म की फसल लहलहा रही है, पाखंड का सीना 56 इंची हो गया है ।

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