जयप्रकाश नारायण
गुजरात के बड़गांम के विधायक जिग्नेश मेवानी को यह पता नहीं था, कि कोई प्रशिक्षित दस्ता उनके दरवाजे पर रात्रि के 11:30 बजे दस्तक देने वाला है और घसीटते हुए कई हजार किलोमीटर दूर असम के कोकराझार उठा ले जाएगा।
विद्वान विचारक, अंबेडकर और वामपंथी विचारधारा के गहन अध्येता, चिंतक आनंद तेलतुम्बड़े को भी यह पता नहीं था, कि उनके विश्वविद्यालय के कैंपस में रात के समय उनके घर की छानबीन करने वाला कोई सरकारी दस्ता आने वाला है और वह बरसों जेल के सीखचों में बंद कर दिये जाएंगे। उन्हें अपने कंप्यूटर में डाले जा रहे वायरस का भी आभास नहीं रहा होगा।
85 वर्षीय फादर स्टैन स्वामी, 81वर्षीय तेलुगु कवि वरवर राव, सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, सुरेंद्र गाडगिल में से किसी एक को भी नहीं पता था, कि रोमा विल्सन के कंप्यूटर में चोरी से डाला गया वायरस इन सब को अपनी चपेट में ले लेगा और ये सभी किसी काल कोठरी में कैद कर दिये जाएंगे।
आरएसएस और भाजपा नियंत्रित नौकरशाही द्वारा अपनायी गयी अपराध की विकसित तकनीक का आभास शायद भारत के बहुसंख्यक नागरिकों को अभी तक नहीं हो पाया है।
90 प्रतिशत विकलांग जी एन साईबाबा, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, को अहसास भी नहीं था कि प्रगतिशील विचारों के लिए उन्हें आजीवन कारावास की सजा भुगतनी पड़ेगी।
लेकिन यह सब हुआ है जो आज के कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के राज का सच है।
जनवरी-फरवरी 2022 में जब पांच राज्यों के चुनाव चल रहे थे तो आम नागरिक और राजनीतिक विश्लेषकों को इस बात का अहसास शायद ही रहा हो कि चुनावों के बाद भाजपा और संघ के अनुषांगिक संगठन लोकतंत्र के विध्वंस के अभियान में इस कदर उतर जाएंगे।
चुनाव परिणाम आने के ठीक दूसरे दिन 11 मार्च को ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के प्रमोशन के बाद संघ परिवार नफरत के अभियान में पूरी शक्ति के साथ उतर पड़ा। सैकड़ों चैनलों सहित हजारों व्हाट्सएप समूहों के वेतन भोगी नफरती नौजवानों को सक्रिय कर दिया गया।
संत महात्माओं के वेश में नफरत और हिंसा फैलाने वाली टोलियां जगह-जगह धर्म संसदों के नाम पर नरसंहारों का आवाहन करते हुए घूमने लगी हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला इसी अमृत काल में आ गया कि मुस्कुरा कर बोली गयी बात घृणा अभियान का हिस्सा नहीं मानी जाएगी ( हेट स्पीच की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।)
अब इस फैसले के बाद सामाजिक सद्भाव और लोकतंत्र के बारे में कुछ सोचने की जरूरत शेष रह गयी है क्या!
नवरात्र के पवित्र सप्ताह में हमारे घरों के लाडले नौनिहालों के गिरोह (जो सांस्कृतिक दीक्षा ग्रहण किए हैं उसके अनुसार) तैयार की गयी स्क्रिप्ट को अमली जामा पहनाने के पवित्र अभियान में उतर पड़े।
वे बेखौफ थे। क्योंकि उन्हें पता था, कि उनके अभियान के पीछे सरकार का बुलडोजर है। अभी तक पुलिस प्रशासन ही लंपट धर्म ध्वजा धारियों को सुरक्षा कवर देता रहा था। अब सीधे सरकार उनके साथ नग्न रूप में आ डटी है।
हथियारों, अस्त्र-शस्त्रों सहित सजी-धजी टोलियां सड़कों पर धर्म कार्य और राष्ट्र गौरव को उन्नत करने में जुट गयी। अगर किसी ने उनके अभियान में खलल डाला तो उनके खिलाफ सरकारी मशीनरी का बुलडोजर तैयार खड़ा था।
जहां किसी ने इनके इरादों और कार्यों की ‘पवित्रता’ और औचित्य पर सवाल उठाया, असहमति या विरोध दर्ज कराने की कोशिश की जेल के दरवाजे दिखा दिये गये।
न्याय के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाते हुए सब कुछ बुलडोजर के अधीन ला दिया गया है। “बुलडोजर” ही संविधान, न्याय पालिका कार्यपालिका और सर्वोच्च सत्ता प्राधिकार है।
जांच की नैसर्गिक प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाते हुए अभियोग का निर्धारण पार्टी नीतियों और जरूरतों के आधार पर किया जाने लगा है।
न्यायपालिका की जगह मंत्रीगण सीधे फैसला सुनाने लगे । मध्य प्रदेश के गृहमंत्री द्वारा ऐलान हुआ कि जिन घरों से पत्थर आएंगे उन्हें पत्थर में तब्दील कर दिया जाएगा।
यह अप्रत्यक्ष संदेश या धमकी थी प्रशासनिक अधिकारियों को भी। अगर ऐसा नहीं होगा तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
सीनियर अधिकारियों के दिमाग में आईपीएस संजीव भट्ट, अमिताभ ठाकुर या कुछ दिवंगत जजों और राजनेताओं के नाम अवश्य याद आते रहे होंगे।
अतिक्रमण हटाने के नाम पर जिला प्रशासन, नगरपालिकाओं व महानगरपालिकाओ के भाजपाई महापौर अल्पसंख्यकों के खिलाफ सक्रिय हो गये।
सब कुछ सुनिश्चित व्यवस्थित तरीके से किया जाने लगा।
कुछ घर दूसरी जमातों के भी इस दायरे में आ गये उनको भी मिले-जुले समाज में रहने की सजा दी गयी।
यह एक संदेश भी है कि मिली-जुली रिहाइस वाली आबादी भाजपा और संघ के अभियान में बाधक है। इसलिए ऐसी बसावट नहीं चाहिए जो मुस्लिमों के घेटोकरण में बाधक हो।
रामनवमी से लेकर हनुमान जन्मोत्सव तक हजारों जगहों पर लंपट टोलियां धर्म का जश्न मनाते हुए नियम कानून की धज्जियां उड़ा रहीं थी।
राम और उनके भक्त हनुमान का यह कैसा जन्मोत्सव था! कैसी है ये आस्था और धार्मिक मान्यताएं, जो भक्तों के कर्कश स्वरों और हिंसक अभियानों में गूंज रही हैं !
लोकतांत्रिक भारत में संघ भाजपा द्वारा चलाए जा रहे धार्मिक उत्सवों और समारोहों का संज्ञान संभवतः पूरी दुनिया ने लिया होगा और देखा होगा कि विविधताओं से भरा विशाल लोकतांत्रिक भारत किस अंधेरी यात्रा पर चल पड़ा है।
इस दौर में कारपोरेट मीडिया की धर्म भक्ति देखने लायक थी। उनके पत्रकार बुलडोजरों पर चढ़कर विध्वंस का महिमामंडन कर रहे थे। यही नहीं भाजपा सरकारों के हर बर्बर और अमानवीय कृत्य को जायज ठहराने के लिए अल्पसंख्यकों को मुजरिम और भारत विरोधी प्रमाणित करने में जुटे थे।
नवरात्रि रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव के बाद का नया दौर शुरू हो चुका है।
गुजरात विधानसभा के विधायक जिग्नेश मेवानी को प्रधानमंत्री पर ट्वीट करने के अपराध में गुजरात से असम के पिछड़े जिले कोकराझार की जेल में ले जाया गया।
वह टिप्पणी गुजरात से कर रहे हैं और शांति भंग असम के कोकराझार जिले में हो रही है। गिरफ्तारी के खेल की क्रोनोलॉजी समझिए और देखिए कितना दिलचस्प है।
यही नहीं न्यायालय द्वारा निर्दोष घोषित होने के बाद एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा उनके ऊपर लैंगिक टिप्पणी करने का आरोप लगा दिया गया है।
गुजरात मॉडल की न्याय व्यवस्था उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश से होते हुए पूर्वोत्तर भारत के राज्यों तक पहुंच गई है।
चुनाव के बाद कानून के राज्य का विध्वंसक बुलडोजर उत्तर प्रदेश में तेजी से दौड़ रहा है। हजारों गरीब परिवारों को नोटिस दी जा चुकी है। दर्जनों जगह गरीबों के घर ढहा कर दिए गए है। आने वाले समय में यह विध्वंसक अभियान कितना व्यापक और पीड़ादायक होगा कहा नहीं जा सकता। लेकिन हम प्रतिरोध का कोई मॉडल खड़ा होते हुए नहीं देख रहा है। सरकार बनाने के लिए बेताब पार्टियां मौन हो चुकी है।
पुलिस द्वारा अपराध नियंत्रण के नाम पर पकड़ कर पैरों में गोलियां मारने के अभियान को मीडिया का समर्थन जिस तरह से हासिल है वह डरा देने वाला है।
शीर्षक लगाए जा रहे हैं योगी सरकार का “लंगड़ा करो अभियान” जारी।
ऐसे लगता है कि यह समाज कल्याण विभाग की योजना हो। जिसे मुस्तैदी से लागू किया जा रहा हो।
शायद जिग्नेश मेवानी की तरह ही सरकार के पास लंबी सूची हो। इस सूची में किसके किसके नाम होंगे और किसके दरवाजे पर रात या दिन में दस्तक दी जाएगी और वे कहां चले जाएंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। फिर परिजन वर्षों तक उन्हें तलाशते ढूंढते भटकते रहेंगे।
याद करिए बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी शिवा त्रिवेदी की कहानी को। जिसे काशी की पुलिस दो साल पहले कैंपस से उठा ले गई थी ।
मोहन भागवत ने कह दिया है कि 10 -15 वर्षों तक अगर हम इसी तरह कठिन परिश्रम करते रहे तो अखंड भारत बन जाएगा और सनातन भारत भविष्य में खोया हुआ गौरव और गरिमा स्थापित कर लेगा । आज खबर आई है धर्म संसद की तरफ से हिंदू राष्ट्र का संविधान बनाने की जिम्मेदारी किसी प्रबुद्ध ब्राह्मण को दे दी गई है ।
जिसके प्रारंभिक संकेत आ गए हैं कि सावन के पवित्र मास में यह संविधान बनकर तैयार हो जाएगा। जिसे माघ मेले में धर्म संसद द्वारा पास करा दिया जाएगा।
धर्म संसद सर्व धर्म महासम्मेलन नहीं होते। इसे संसद कहना भी लोकतंत्र का अपमान करना है।
धर्म के सम्मेलनों में धार्मिक सवालों पर ही फैसले लिए जा सकते हैं। वहां संविधान नहीं बनते।
किसी धर्म के सम्मेलनों के निर्णय उस धर्म के मानने वालों पर लागू हो सकते हैं ।
वह दूसरे धर्मावलंबियों को मानने के लिए बाध्यकारी नहीं होते ।
हमारे विशाल देश में हिंदू धर्मावलंबियों के अलावा ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी मुसलमान, आदिवासी सहित अनेक धर्मों के लोग रहते हैं।
अगर हम मान लें कि हिंदू धर्म संसद के नियम हिंदुओं को स्वीकार करना चाहिए तो गैर हिंदू या हिंदुओं में जो नास्तिक हैं उनके साथ क्या रिश्ता होगा इन फैसलों का। इसका अर्थ इन सभी लोगों को दूसरे नंबर का नागरिक बना दिया जाएगा।
यही संघ परिवार का बहुप्रतीक्षित उद्देश्य और लक्ष्य था। जिसे 2022 के पांच राज्यों के चुनाव के बाद आगे बढ़ाने का आत्मविश्वास उनके अंदर पैदा हुआ है। संघ की तैयारी के अनुसार लगता है इसे 2024 तक पूरा कर लिया जाना है।
भारतीय प्रधानमंत्री कश्मीर में आश्वासन दे रहे हैं कि आपके नाना-नानी, दादा-दादी ने जैसा दुख और दर्द भोगा है वैसा अब कश्मीर में नहीं भोगना होगा ।
इसकी वह गारंटी उसी तरह अपने कंधे पर ले रहे हैं जैसे काला धन, भ्रष्टाचार, महंगाई मिटाने और हर घर को सुखी बनाने की जिम्मेदारी पिछले दिनो लेते रहे हैं। पाखंड की भी कोई सीमा होती ही होगी!
वो सवालों और जवाबदेही से बहुत ऊपर है।
मगर वह नहीं बोल रहे हैं तो उस पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज के बारे में जो 7 महीने से कश्मीर की जेल में निरपराध होते हुए भी बंद है।
परवेज का कसूर बस इतना ही था कि वह मानवाधिकारों के उलंघन, हिरासती हत्याओं और गायब कर दिए गए कश्मीरी नागरिकों के तथ्य दर्ज कर रह थे।
हमारे प्रधानमंत्री की खासियत है कि वे वर्तमान में कभी बात नहीं करते। अतीत की विसंगतियों से लड़ रहे होते हैं। अदृश्य विलुप्त और इतिहास के पन्नों में सिमट गए हुए काल्पनिक आख्यानों के द्वारा देश को चलाने का षड्यंत्र रच रहे होते हैं ।
प्रधानमंत्री खुद को पीड़ित बता रहे है। उनका जोर इस बात पर होता है कि आज भी लोग उन्हें तरह-तरह से उत्पीड़ित कर रहे हैं। इसी पीड़ा को अतीत के मध्यकालीन भारत में तलाशते हुए आज के दौर में उस पीड़ा से लड़ रहे होते हैं ।
एक तानाशाह का स्वाभाविक चरित्र होता है कि वह हमेशा अतीत के गौरव या अतीत के दुख दर्द और पीड़ा की कल्पना को गढ़ कर जिंदा रहता है।
जबकि वर्तमान में अपने राष्ट्र और समाज के दुख दर्द पीड़ा का मूल कारण भी वही होता है।
महंगाई, बेरोजगारी के आंकड़े सामने हैं। किसानों की दुर्दशा सामने है। सरकारी संस्थाओं का पतन और विक्रय हम देख रहे हैं। लगभग पूरा देश विक्रय के लिए विश्व बाजार में पंजीकृत करा दिया गया है।
नागरिक अधिकारों का खात्मा न्यायपालिका का निस्प्रभावी होना और कार्यपालिका को घुटनों के बल ला देना ऐसा हमारे प्रधानमंत्री की खास उपलब्धियां हैं।
अब संघ परिवार 2025 के 100 वर्ष पूरे होने के ऐतिहासिक अवसर की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।
भारतीय नागरिक जीवन का अपहरण हो चुका है। हमारे सामने विकल्प सीमित है।
राष्ट्र कैसे अंधकार के इस दौर को पार करे इस पर बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पार्टियों सहित करोड़ों नागरिक समूहों और वैज्ञानिकों अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की ओर से अपील से लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं और विकल्प सुझाए जा रहे हैं।
हम जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल और लिंग के विभेद पर आधारित समाज है।
इसलिए संघ भाजपा ने कारपोरेट नियंत्रित मीडिया और सत्ता का दुरप्रयोग करते हुए हमारी विविधताओं को ही आपसी टकराव में उलझा दिया है। जिसका मुकाबला हम अपने संवैधानिक गणतंत्र के द्वारा उपलब्ध लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से नहीं कर पा रहे हैं।
भारत की पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां कारपोरेट पूंजी के साथ हिंदुत्व के गठजोड़ के हमले के खिलाफ रणनीति और कार्य नीति विकसित करने में असफल रही हैं। ये दल कारपोरेट पूंजी के मानवद्रोही चरित्र को उजागर करने की जगह उसके साथ सहमति बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
इसलिए जन संघर्ष और आंदोलन की आग में तप रही सामाजिक, राजनीतिक ताकतों के साथ भारत के वाम जनवादी क्रांतिकारी और लोकतंत्र के लिए समर्पित संगठनों और व्यक्तियों से ही उम्मीद की जानी चाहिए।
यह उम्मीद भारत के विविधता मूलक जीवन प्रणालियों और बहुरंगी आंतरिक विविधताओ से बने संबंधो की सुरक्षा की बढ़ती आकांक्षा के कारण और ज्यादा पुख्ता दिखती है।
भारतीय समाज की विविधता के बारीक तंतुओं पर पर टिका लोकतंत्र ही एकात्म मानववाद के फासीवादी राज्य की सबसे बड़ी प्रतिरोधी ताकत है और 135 करोड़ भारतीयों के सुनहरे भविष्य की उम्मीद भी है, और यही लोकतंत्र को भीडतंत्र बना देने के षडयंत्र का मुकम्मल विकल्प भी है।