रेणु की फिल्म ‘संवदिया’ से उठा 13वें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा
पटना। ‘‘हमारे मुल्क में जब नफरत के लंबरदार नंगा नाच रहे हैं, हर कहीं इंसान को इंसान से अलग करने की घिनौनी कोशिशें चल रही हैं, वहां प्यार और इंसानियत की बात करना, हाशिये पर खड़े किसी की हक की बात करना जोखिम का काम हैं, पर हमें यह करना है। पटना फिल्मोत्सव में दिखायी जाने वाली ‘संवदिया’ और ‘बेला एक्का लौट रही है’ जैसी फिल्में और अन्य फिल्में यही काम कर रही हैं। हमें सचेत रहना होगा कि जिस डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अब बेहतरीन फिल्में बनाने में हो रहा है, उसी का इस्तेमाल मानव-विरोधी ताकतें हमारे जहन में जहर फैलाने के लिए कर रही हैं। हमें इस माध्यम का इस्तेमाल इंसानियत को वापस लौटाने के लिए करना है। सत्ता की शह पर नफरतियों ने भी फिल्म तकनीक का इस्तेमाल औजार की तरह करना आरंभ कर दिया है, ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी जहरीली फिल्म पर हुआ विवाद इसी का उदाहरण है। लेकिन अच्छी बात यह है कि उम्दा कलाकार और फिल्मकार हमेशा सच और न्याय के हक में खड़े होते हैं, जैसा कि इजराइल के नामी प्रतिरोधी फिल्म निर्देशक लापिड ने इस फिल्म की सख्त शब्दों में आलोचना करके की।’’
हिरावल द्वारा आयोजित तेरहवें ‘ प्रतिरोध का सिनेमा : पटना फिल्मोत्सव’ का उद्घाटन करते हुए सुप्रसिद्ध कवि, वैज्ञानिक और विभिन्न सामाजिक सवालों से गहरे सरोकार रखने वाले प्रो. हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’ ने ये विचार व्यक्त किये।
लाल्टू ने कहा कि हमें एक दूसरे से जुड़ना है। अलग-अलग रंग हों, पर मकसद प्यार और बराबरी हो, तो हम सब एक हैं। वैचारिक बहसें और लड़ाइयां चलती रहेंगी, पर फिलहाल फासीवादी ताकतों को हराना प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि अपने बिखराव की वजह से हमने फासीवादियों के हाथ में पूरी तरह नकेल दे दी, तो इस तरह के फिल्म उत्सव भी बंद हो जाएंगे। हमें ज्यादा से ज्यादा वह माहौल बनाना है, जहां ऐसी फिल्में बिना किसी भय-डर के दिखाई जा सकें। इसके लिए बड़े नागरिक मंच की जरूरत है, जो फासीवादी ताकतों के खिलाफ खड़ा हो। हमें अपने हर बिखराव को समेटना होगा।
लाल्टू ने पिछली सदी की सत्ताविरोधी फिल्मों तथा स्त्रीवादी और हाशिये के लोगों के पक्ष में बनने वाली फिल्मों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि फिल्में खुद को ज्यादा संजीदगी से देखे जाने की अपेक्षा रखती हैं। दर्शक को हमेशा सचेत और सजग रहना चाहिए। रवींद्रनाथ टैगोर के सौ साल पुराने उपन्यास ‘घरे-बाइरे’ पर अस्सी के दशक के दशक में सत्यजित राय द्वारा बनायी गयी फिल्म की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उसे देखते हुए उन्हें महसूस हुआ कि वह केवल प्रेम और रिश्तों की जटिलताओं पर आधारित फिल्म नहीं है, बल्कि राष्ट्रवाद की दशा-दिशा पर भी एक महत्त्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में स्वदेशी आंदोलन का एक नेता अपने मकसद के लिए सांप्रदायिक दंगे करवाता है। इसमें टेक्नोलॉजी की भी अहम भूमिका है। जबकि उदार हिन्दू जमींदार अपनी गरीब मुसलमान प्रजा के पक्ष में खड़ा होता है। उन्होंने कहा कि हर फिल्म में निर्देशक का अपना नजरिया भी होता है। फिल्में और फिल्मकारों का नजरिया आलोचना से परे होता है। ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकार ने अपनी फिल्म ‘जुक्ति, तोक्को आर गोप्पो’ में सत्यजित राय की भी आलोचना पेश की। लाल्टू ने लाजवाब फिल्मों में बीफोर द रेन, ओंतोरजात्रा, सिटिजन केन तथा कई विश्वविख्यात फिल्मकारों के साथ मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, रितुपर्णों घोष, आनंद पटवर्धन आदि की भी चर्चा की।
स्वागफिल्मोत्सव समिति की ओर से यादवेंद्र ने गुलदस्ता देकर तथा निवेदिता झा ने लाल्टू को फिल्मोत्सव का स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया। स्वागत समिति के अध्यक्ष यादवेंद्र ने अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए कहा कि पटना फिल्मोत्सव सिनेमा के जरिये यथास्थिति को बदलने की एक कोशिश है। हमारे बीच हमें ज्यादा से ज्यादा बेचैन करने वाला सिनेमा आना चाहिए। सिनेमा सामूहिक प्रतिक्रिया देता है। एक अच्छी फिल्म बदलाव की इच्छा को बढ़ा सकती है। इस तरह के फिल्मोत्सव और इसमें दिखायी जाने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस और करोड़ों के लाभ के तर्क के बजाए अपनी इच्छा शक्ति और वैचारिक शक्ति के बल पर संचालित होती हैं और एक नए तरह की आंदोलन की वाहक होती हैं।
तेरहवें पटना फिल्मोत्सव के आयोजन और उसमें दिखायी जाने वाली फिल्मों का संक्षिप्त परिचय देते हुए सुधीर सुमन ने कहा कि कम्युनल-कारपोरेट फासिस्ट गठजोड आज जनपक्षीय साहित्य को भी हाशिये पर धकेल देने ओर हर किसी को खरीद लेने के दंभ से भरा हुआ है। इसी को ध्यान में रखते हुए इस बार फिल्मोत्सव का थीम ‘हाशिये की कहानी: सिनेमा की जुबानी’ रखा गया है। यह फिल्मोत्सव महान फिल्मकार गोदार और सुप्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार की स्मृतियों को समर्पित है।
उद्घाटन सत्र में फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण भी किया गया। सत्र का संचालन प्रीति प्रभा ने किया। इस मौके पर संजय कुमार कुंदन, मनोज झा, दीपक ठाकुर, ऋतेश कुमार, साकिब अहमद, सौरभ कुमार, फातिमा एन., विशाल पांडेय आदि भी मौजूद थे।
‘संवदिया’: मानवीय संवेदना का वाहक
आज ऋतेश कुमार द्वारा प्रख्यात कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की प्रसिद्ध कहानी ‘संवदिया’ और अरुण प्रकाश की कहानी ‘लौट रही है बेला एक्का’ पर बनायी गयी फिल्मों का प्रदर्शन हुआ।
फिल्मोत्सव का पर्दा ‘संवदिया’ कहानी पर आधारित फिल्म से उठा। फिल्म बीते युगों में संदेश वाहक का जीवन यापन करने वाले समुदाय के एक व्यक्ति हरगोबिन की मनोदशा और संवेदनाओं को दर्शाती है। संवाद पहुंचाने वाला संवदिया, ज़मीदार पति की मृत्यु के बाद परिवार वालों द्वारा अकेली छोड़ दी गई, अभाव और दुख का जीवन जीती बहू का संदेश उसके मायके ले जाता है, लेकिन अपने संस्कार और ग्राम प्रेम के कारण दुविधा में पड़ जाता है। वह बिना संदेश दिए गांव लौट आता है और आजीवन बहू की मदद करने का वादा करता है। ‘संवदिया’ की भूमिका दीपक ठाकुर ने निभाई।
‘लौट रही हैं बेला एक्का’ आदिवासी स्त्री के प्रतिरोध की कहानी
आदिवासी महिलाओं का गैर आदिवासी समाज द्वारा किए जा रहे शोषण और एक स्त्री द्वारा ताकतवर आदमी की कुचेष्टाओं के प्रतिरोध की कहानी है। बेला एक्का एक पढ़ी-लिखी, नए स्वप्नों से भरी लड़की है। जो एक नए शहर में नौकरी करने जाती है। वहाँ कंपनी का कल्याण अधिकारी उस पर बुरी दृष्टि रखता है। बेला उसके आतंक से निकलने का प्रयास करती है। फिल्म में ट्विंकल रक्षिता के अभिनय की काफी सराहना हुई।
दोनों फिल्मों को लेकर निर्देशक ऋतेश कुमार का दर्शकों के संवाद भी हुआ। फिल्म प्रदर्शन सत्र का संचालन हिरावल के सचिव संतोष झा ने किया।