पड़ोसी देश पाकिस्तान और हमारे बीच कई छोटे-मोटे मसले पैदा होते हैं। कुछ तो स्थाई हैं। कई छोटी-बड़ी असहमतियां और अहंकार हैं, जो समय-समय पर विश्व बिरादरी के सामने उजागर होते रहते हैं। ताजा वाकया बासमती चावल का है। पंजाब प्रांत में उगने वाला अनाज बासमती चावल के जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) को लेकर दोनों देश आमने–सामने हैं। अब पंजाब की तरह बासमती कोई जमीन का टुकड़ा तो है नहीं कि दो फाड़ करके बाँट ली जाए। यह तो अनाज है जो, जहाँ अनुकूल जमीन और हवा-पानी मिलता है, वहाँ उगता है। बासमती दोनों देशों के पंजाब में उगता है, इसलिए दोनों देश इसके स्वात्वाधिकार को लेकर उलझ गए हैं। यह मसला जितना सांस्कृतिक विरासत का है, उतना ही विश्व बाजार में आर्थिक हिस्सेदारी का भी है।
बहरहाल इस आलेख का मकसद दुनिया की तमाम सभ्यताओं में धान की भूमिका की टोह लेना है, इसलिए इस विषय को यहीं छोड़कर धान की सांस्कृतिक भूमिका पर विचार करते हैं।
मुगलिया एकबालनामों और तवारीखों में बासमती चावल का उल्लेख मिलता है। ‘आइन-ए-अकबरी’ में जिक्र है कि लाहौर, मुल्तान, इलाहाबाद, अवध, दिल्ली, आगरा, अजमेर और मालवा के रायसेन क्षेत्र में मुस्कीन (लाल बासमती) की खेती होती थी।’*1 ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि धान का इतिहास क्या है, क्या जिस तरह से मानव ने कुत्ता, गाय, बैल, नीम, कटहल और गुलाब की जंगली नस्लों को सुधार कर उसे घरेलू बनाया, उसी तरह से जंगली धान, जो कभी महज घास था, को अनाज देने वाले फसल में परिवर्तित किया है?
खानाबदोश मानव को गुफा से बाहर निकाल कर सामुदायिक और सांस्कृतिक जीवन से जोड़ने में खेती-किसानी और अनाजों का बहुत योगदान है। साधारण दिखने वाली घासों की पहचान अनाज उगाने वाले पौधों के रूप में करने में मानव ने लाखों साल निकाल दिए होंगे। जिस तरह जंगली भैंस को दूध देने वाले जानवर के रूप में परिवर्तित करने में मानव हजारों पीढ़ियां गुजर गई होंगी, उसी तरह आदिम जंगली धान को फसली धान का पौधा बनाने में हुआ होगा। निश्चित रूप से मानव सभ्यता का इतिहास अनाजों के उत्पादन और उपयोग (उपभोग) का इतिहास है। मानव को सभ्य बनाने में भूमि, नदी और अनाजों की विशेष भूमिका रही है। यही कारण है कि अनाजों की सरहदों से मानव सभ्यता की सरहदें निर्धारित होती हैं। भूमि के साथ मानव के रिश्ते की प्रगाढ़ता दरअसल उस भूमि की अनाज उत्पादकता पर निर्भर करती है। इसी निर्भरता से टोटमों, आस्थाओं, धर्मों, मिथकों और प्रतीकों का निर्माण हुआ है। विश्व भूगोल में ऊर्वर वर्धमान (Fertile Crescent) की अवधारणा फसल या अनाज उत्पादन से ही विकसित हुई है। ऊर्वर वर्धमान धरती का वह क्षेत्र है, जिसमें ईराक, सीरिया, लेबनान, इस्राइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन और मिस्र जैसे देश शामिल हैं। इस भू-खंड को प्राचीन ‘सभ्यता का पालनहार (cradles of civilization)’ कहा जाता है। ‘सभ्यता के पालनहार’ में मेसोपोटामिया और सिंधु एवं हड़प्पा जैसी प्राचीन सभ्यताएं शामिल हैं। दोनों सभ्यताओं में धान के प्रमाण मिले हैं – मेसोपोटामिया में धान की दवनी (फसल से अनाज निकालने की क्रिया) करते बैल और किसान तथा सिंधु सभ्यता से चावल और धान की भूंसी के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
दोनों प्राचीन और उन्नत सभ्यताओं के अवलोकन से ज्ञात होता है कि मानव सभ्यता के निर्माण में धान का विशेष योगदान रहा है। जहाँ-जहाँ पानी है वहाँ-वहाँ–धान है। धान ने मानव की भूख मिटाने के साथ–साथ उसके संबंधों और सामाजिक जीवन का भी निर्माण किया। भारत में जब कोई लड़की मायके से ससुराल जाती है, तो उसके खोइचे में चावल रखा जाता है, ताकि वह जिस घर में जाए, वहाँ खाने-पीने की दिक्कत न हो–समृद्धि हमेशा बनी रही। महाराष्ट्र में विवाह के समय वर-बधू पर चावल छिड़कने की रिवाज इसीलिए है कि दोनों के जीवन में खाने-पीने का अभाव न हो।
वनस्पतिज्ञ धान को घास मानते हैं। एक ऐसी घास, जिस पर दुनिया की लगभग आधी आबादी निर्भर है। माना कि यह एक तरह की घास है, मगर दुनिया भर के कुल धान उत्पादन के 95 प्रतिशत की खपत अकेले मानव द्वारा किया जाता है। अर्थात यह ऐसी घास है, जिसे मानव और पशु दोनों खाते हैं। मानव धान के छिलके को अलग करके चावल निकालता है और उसका उपभोग करता है, जबकि पशु धान के छिलके अर्थात कन्ना-भूंसी और पुआल को खाते हैं। इस तरह घास होते हुए भी इसकी सर्वाधिक उपयोगिता मावन के लिए है। धान के पुआल का इस्तेमाल आदिवासी क्षेत्रों में झोपड़ी और गोनरी (पुआल की चटाई) बनाने में होता है। वनस्पति वैज्ञानिकों ने बताया है कि जंतुओं की तरह इसकी भी उनके जातियाँ होती हैं। इसकी मूल बिरादरी पोयसी (Poaceae) बताई गई है। हालाँकि यह भी सत्य है आदिम घास से आज के धान तक पहुंचने में लंबा समय लगा। धान का आदिम रूप ओरायजी है, जो एक पुष्पधारी घास है, इसी से आधुनिक धान और जंगली धान (zizania) की नस्लें विकसित हुई हैं।
वनस्पति वैज्ञानिकों और फसलों के इतिहास पर काम करने वाले मानते हैं कि धान के उत्पादन का पहला केंद्र भारत के आदिवासी क्षेत्र थे। भारत में खान-पान के पैटर्न को देखने पर साफ–साफ पता चलता है कि आदिवासी और द्रविड़ नस्ल के लोग अर्थात अनार्य धान से निकलने वाले चावल का इस्तेमाल खाने से लेकर पीने (हड़िया) में करते हैं। झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के आदिवासी अपने घर पर पके चावल से शराब बनाते हैं। सामान्य रूप से इसे हड़िया कहा जाता है। हड़िया को सिंगबोंगा को चढ़ाया जाता है। इतना ही नहीं सामाजिक अवसरों पर इसे प्रेमपूर्वक मेहमानों को परोसा भी जाता है। गोंडवाना के गोंड राजाओं ने अपनी रियासत में धान के उत्पादन के लिए सिंचाई की उत्तम व्यवस्था की, उन्हीं के प्रयास से छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाने लगा, यह रुतबा आज भी कायम है।
जिस तरह द्रविड़ों और आदिवासियों द्वारा रीति–रिवाजों से लेकर खान-पान में धान का अधिक इस्तेमाल किया जाता है, उसी तरह आर्यावर्त प्रदेश अर्थात पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मेरठ आदि क्षेत्रों में गेहूं का। यह भी सच है कि आर्यों और अनार्यों ने खानपान की आदतों को परस्पर सीखा भी है। इसीलिए कम ही सही मगर संस्कृत साहित्य में धान के प्रमाण यत्र-तत्र मिल जाया करते हैं। सल्तनत काल और मुगलकाल में भी मुसलमानों और आर्यों का मुख्य भोजन गेहूं और जौ ही था। हालाँकि मुगलों ने गेहूं और धान दोनों को अपने भोजन में शामिल किया (आइने-अकबरी में प्रमाण मिलते हैं), जिससे चावल की खपत शासक जातियों और आर्यों की यहां भी होने लगी।
सिंधु सभ्यता में धान, चावल और मदिरा पीता हुआ और सिर पर सिंह धारण किया आदमी, जिसके आसपास जीव जंतुओं की छवि उकेरी गई है, की प्राप्ति हुई है। असुर, मुंडा और गोंड आदिवासी इस व्यक्ति को सिंग बोंगा या बड़ा देव कहते हैं। उनकी संस्कृति में चावल से मदिरा बनाकर इस देवता को चढ़ाने की परंपरा आज भी बनी हुई है। इस तरह तमाम चीजों के साथ धान द्वारा सिंधु सभ्यता का संबंध आदिवासी सभ्यता और संस्कृति से स्थापित होता है।
धान नमी और आर्द्र जलवायु में पलपने वाला पौधा है; यह उष्ण कटिबंधीय पौधा नहीं है। इसकी उत्पत्ति पर वैज्ञानिकों की राय अलग-अलग है। कुछ वैज्ञानिक समुदाय मानता है कि यह जंगली घास का एक वंशज है (पहले ही दर्शाया जा चुका है), जो पहली बार शायद सुदूर पूर्वी-हिमालय की तलहटी में देखा गया और वहीं से इसकी पहचान अनाज के रूप में हुई। कुछ वैज्ञानिक दूसरी राय रखते हैं। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि धान का पौधा दक्षिणी भारत में उत्पन्न हुआ होगा, वहीं से देश के उत्तर भाग में और उसके बाद चीन तक पहुंचा होगा। वहीं से यह कोरिया, फिलीपींस (लगभग 2000 B. C.) और फिर जापान और इंडोनेशिया (लगभग 1000 B. C.) पहुंचा होगा। इतिहास का दावा है कि सिकंदर महान ने 327 ई.पू. में जब आक्रमण किया, तब वह दूसरी चीजों के धान का बीज और उसे उगाने के कौशल और किसानों को ग्रीस ले गया। फिर ग्रीस से अरब यात्रियों द्वारा मिस्र, मोरक्को और स्पेन ले जाया गया। और इसी तरह धान ने पूरे यूरोप की यात्रा की और वहां की महत्वपूर्ण फसल के रूप में शामिल हुआ। पुर्तगाल और नीदरलैंड ने पश्चिम अफ्रीका में जब अपने उपनिवेश स्थापित किए, तो वहांं अपने फॉर्म हाऊसों में स्थानीय अफ्रीकी गुलामों से धान खेती कराने लगे। यहीं से इसने प्राकृतिक संसाधनों के ‘कोलंबियन एक्सचेंज’ के माध्यम से अमेरिका की यात्रा की। यही कारण है कि अमेरिका में चावल का इतिहास कोलंबस की यात्रा के बाद प्राप्त होता है। वहां स्थानीय आदिवासियों और अफ्रीका से लाए गए गुलामों की मदद से जलोढ़ मिट्टी को जंगलों से मुक्त किया गया और और धान लायक खेतों का निर्माण किया गया। इस तरह से अमेरीका उपनिवेशी कॉलोनियों, गुलाम बस्तियों, वहां के मूलनिवासी आदिवासियों की गुलामी और धान की खेती की शुरूआत लगभग एक साथ हुई।
दुनिया की संस्कृति के निर्माण में फसलों की भूमिका की तलाश करने वालों का मानना है कि 17 वीं शताब्दी की शुरुआत में दक्षिण अमेरिका में धान की खेती अच्छे से होने लगी थी। यह गेहूं का विकल्प बनने लगा था फिर भी दुनिया भर (आदिवासी क्षेत्रों को छोड़कर) में चावल की यात्रा धीमी रही। मगर माड़, भात जैसे अर्धठोस खाद्य पदार्थ ने यूरोप के मजदूरों की रसोई में जगह बनाना शुरू कर दिया था। एशियायी आदिवासी बस्तियों की तरह धान अब यूरोपीय लोगों के लिए भी खाद्य पदार्थ और आर्थिक उत्पाद बन गया था। तारीख की मानें तो धान से जुड़े हजार अफ़साने हैं।
ऊपर की पंक्तियों में दर्शाया गया है कि भारतीय उपमहाद्वीप में धान की फसल के लिए हमेशा से अनुकूल माहौल रहा। दक्षिण भारत, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में धान खेती की पुराने समय से होती रही है। इस भूमि की वास्तविक फसल धान ही है। यही कारण है कि आज भी आदिवासी और द्रविड़ नस्ल के भारतीयों की थाली में इसे प्रमुखता प्राप्त है। खान-पान से सभ्यताओं को जाना-समझा जा सकता है।
अनार्यों और आर्यों के आपसी मेल-मिलाप का असर दोनों नृजातियों के खान-पान पर भी पड़ा। जहाँ आर्य परिवार की रसोई में तंदुल कणों (चावल) का प्रवेश हुआ, वहीं अनार्य मूलनिवासियों की रसोई में गेहूं का। हालांकि दक्षिण भारत के दद्रविड़ों, नेतरहाट के असुरों और बस्तर के गोंडों के भोजन में आज भी चावल की हिस्सेदारी का मुकाबला गेहूं नहीं कर पाया है। फिर गेहूं की न सही बाजरे और मक्के की रोटी उनकी थालियों में जगह बना चुकी है।
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी और मध्य भागों में, जहाँ गेहूँ की खपत ज्यादा है। हम जानते हैं कि उत्तरी भागों में ही आर्यों की बस्तियां बसीं। जैसे – जैसे द्रविणों से उनका संपर्क बढ़ता गया, वैसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गतिविधियां तेज हुईं, जिसका असर रहन – सहन के साथ खान-पान पर भी पड़ा। आदिवासियों के कई पर्वों और देवताओं का आर्यीकरण हुआ; इसलिए धान को भी आर्य परिवारों में सम्मान प्राप्त हुआ। इतना होने के बाद भी आदिवासी सांस्कृतिक उत्सवों में गेहूं या जव को जगह नहीं मिल पाई है। ऐसा होने में कोई आश्चर्य इसलिए नहीं है कि भारत में धान की घास को प्रसंस्करित करके खाने लायक फसल के रूप में परिवर्तित-परिशोधित करने में पानी के पास रहने वाली आदिवासी जातियों का अतुलनीय योगदान है। इतिहासकारों का मानना है कि जहॉ सर्वप्रथम बर्मा, थाईलैंड, लाओस और वियतनाम से होकर पूर्वी हिमालय (यानी उत्तर-पूर्वी भारत) की तलहटी में पैदा होने वाली धान की घास अर्थात धान के जंगली किस्म (बारहमासी जंगली धान) को पालतू और उपयोगी बनाया गया, वहीं दूसरे किस्म की धान की घास, जो दक्षिणी चीन के चिनवाहिच के जंगलों में उगती थी, को प्राचीन व्यापारियों-यात्रियों द्वारा भारत के पर्वतीय क्षेत्र (हिलालय की तराई) में लाया गया। धान की आदिम घास आज खुशबूदार धान की फसल के रूप में परिवर्धित की जा चुकी है। फिर भी बारहमासी जंगली धान आज भी असम और नेपाल में उगती है।
सारी जिरह के बाद जिस तथ्य पर कृषि वैज्ञानिक और इतिहासकार सहमत हैं वह है – धान की खेती दक्षिण भारत में लगभग 1400 ई.पू. में होने लगी थी। वहीं से इसका आगमन नदियों द्वारा सिंचित जलोढ़ मिट्टी वाले इलाके में हुआ। नदियों के किनारे मानव बस्तियों की बसाहट में नदियों, जलोढ़ मिट्टी और धान का विशेष योगदान है। पानीदार भूमि में धान की खेती आसानी से होती है और इससे अनाज की प्राप्ति अन्य फसलों की तुलना में अधिक होने के कारण यह अधिक-अधिक से लोगों का पेट भर पाता है। इसीलिए इसे अक्सर समृद्धि और उर्वरता के साथ सीधे जोड़ कर देखा जाता है। यही कारण है नवविवाहितों पर चावल फेंकने का रिवाज है। आदिवासी क्षेत्रों में चावल ही पहला अनाज है, जो शिशुओं को दिया जाता है। आदिवासी समुदाय अपने पुरखों को अपने समाज का हिस्सा मानकर उन्हें पका चावल अर्पित करते हैं। मुख्यधारा के समाज में भी चावल के पिंड बनाकर ही पूर्वजों का पिंडदान किया जाता है।
(जनार्दन हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
इलाहाबाद वि.वि. प्रयागराज, उ.प्र. में सहायक प्राध्यापक हैं।)
संदर्भ
*1भारत पाकिस्तान के बीच बासमती, द्वारा महेंद्र वेद, संपादकीय पृष्ठ, अमर उजाला 14 .12.2020