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मजदूरों के श्रम की अनवरत लूट की इबारत है उत्तराखंड में श्रम कानूनों में बदलाव

उत्तराखंड मंत्रिमंडल की बैठक में श्रम क़ानूनों की कतर ब्यौंत करने के निर्णय पर मोहर लगा दी गयी. 29 जुलाई को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इस आशय का फैसला लिया गया. राजभवन से पारित करवा कर यह प्रस्ताव राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा.

समाचार पत्रों के जरिये सामने आए ब्यौरे के अनुसार जो नए उद्योग एक हजार दिन में उत्पादन शुरू कर देंगे,उनमें श्रम क़ानूनों के प्रावधानों में छूट रहेगी. इन उद्योगों में कारख़ाना अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम एक हजार दिन तक लागू नहीं होगा. विद्युत चालित उद्योगों में कारख़ाना अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम 10 के बजाय 20 कर्मचारी से अधिक होने पर लागू होगा. जबकि हस्तचालित उद्योगों में कारख़ाना अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम 20 के बजाय 40 कर्मचारी से अधिक होने पर लागू होगा. ऐसे उद्योग जिनमें श्रमिकों की संख्या 300 से अधिक है,उन्हें श्रमिकों को तीन महीने का नोटिस या तीन महीने का वेतन दे कर छंटनी करने का अधिकार दे दिया गया.

कारख़ाना अधिनियम, कारखाने को सुरक्षात्मक उपायों के साथ संचालित करने का कानून है. फैक्ट्री के गेट के आकार,शौचलायों का आकार व संख्या,आग बुझाने का इंतजाम,कैंटीन की व्यवस्था,फैक्ट्री में रखे जाने वाले ज्वलनशील पदार्थ की मात्रा जैसे फैक्ट्री संचालन के लिए जरूरी तमाम कायदों को व्याख्यायित करने वाला कानून है-फैक्ट्री एक्ट. फैक्ट्री अधिनियम एक तरह से सुरक्षित तरीके से फैक्ट्री को चलाने का कानून है.

औद्योगिक विवाद अधिनियम,उद्योगों में मालिकों और मजदूरों के बीच किसी भी तरह के विवाद के निपटारे का कानून है.यह  मजदूर और मालिक के कामकाजी रिश्तों को व्याख्यायित करने का कानून है. औद्योगिक मजदूरी से लेकर सेवा शर्तों के नियमन तक इस कानून के अंतर्गत होता है. विवादों के निपटारे की प्रक्रिया और विधि भी इस कानून में व्याख्यायित है.

इन अधिनियमों के बारे में विस्तार से बताते हुए ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस(एक्टू) के उत्तराखंड महामंत्री कॉमरेड के.के.बोरा कहते हैं कि इन क़ानूनों को खत्म करना बेहद खतरनाक है. वे कहते हैं कि एक हजार दिन यानि तीन साल तक ये कानून लागू नहीं होंगे का अर्थ है कि ये कानून कभी लागू नहीं होंगे. कॉमरेड बोरा कहते हैं कि इन क़ानूनों के लागू होने के चलते फैक्ट्री मालिक जिन दुर्घटनाओं को छुपाते थे,उन्हें छुपाने की भी जरूरत नहीं होगी क्यूंकि किसी तरह की कार्यवाही का कोई कानून ही नहीं होगा.

हैरतअंगेज बात यह है कि श्रम कानून के खात्में को श्रम सुधार और उद्योगों को प्रोत्साहन देना बताया जा रहा है. उद्योग में मजदूर की सुरक्षा का कोई बंदोबस्त न रहे,दुर्घटना की दशा में उसे मुआवजा देने का कोई कानूनी प्रबंध न रहे और जब मर्जी आए मजदूर को नौकरी से बाहर निकालने की छूट हो,क्या यह उद्योगों को प्रोत्साहन है या कि उन्हें मजदूरों के जीवन से खिलवाड़ करने की छूट है ? मजदूरों के जीवन,सुरक्षा और नौकरी को खतरे में डालने के जो उपाय किए जा रहे हैं,वे श्रम सुधार कैसे हैं ? मजदूरों के अधिकारों को खत्म करने का प्रबंध करना श्रम सुधार नहीं श्रमिकों का बिगाड़ है,उनका अहित करना है. मजदूरों को हर तरह से निचोड़ने की छूट देने के लिए तमाम कानूनी बन्दिशें हटा लेना,बाकी जो हो सुधार तो किसी सूरत में नहीं है.

इस आपदा काल की सर्वाधिक मार मजदूरों पर ही पड़ी है. बड़ी तादाद में नौकरी और मजदूरी गँवाने वाले संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं.बीते रोज  केन्द्रीय वाणिज्य मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति के सामने अधिकारियों ने कहा कि यदि प्रभावी उपाय नहीं किए गए तो छोटे मझोले उद्योगों में 10 करोड़ से अधिक रोजगार खत्म हो जाएँगे. जी ओ क्यू आई आई(GOQii) द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार बीते पाँच महीनों में लॉकडाउन और कोरोना के चलते नौकरी गँवाने की वजह से 43 प्रतिशत लोग अवसाद से गुजर रहे हैं और उनका मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित हुआ है.

होना तो यह चाहिए था कि कोरोना के चलते रोजगार खोने वालों को प्रोत्साहित करने और उनके रोजगार की सुरक्षा के लिए सरकार प्रभावी उपाय करती. लेकिन श्रम क़ानूनों के खात्में के जरिये उत्तराखंड और केंद्र की सरकार ने यह इंतजाम कर दिया है कि लॉकडाउन और कोरोना  से उबर कर भी मजदूर तबका काम तो पाएगा,लेकिन अधिकार नहीं पाएगा. ये तथाकथित श्रम सुधार, मजदूरों के श्रम की अनवरत लूट की इबारत हैं.

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