‘मैं भुला दिए गए उन हजारों योद्धाओं की ओर से बोल रहा हूं, जो आजादी की लड़ाई में आगे रहे, लेकिन उनकी कोई पहचान नहीं। देश के इन्ही मूल निवासियों को पिछड़ी जनजाति, आदिम जनजाति, जंगली अपराधी कहा जाता है।’- डॉ. जयपाल सिंह मुंडा (संविधान सभा में)
डॉ. जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों की अनदेखी का जो आरोप लगाया है वह आज भी जिंदा सवाल है। आदिवासियों की शहादत और उनके संघर्ष का सम्मान अभी भी नहीं होता। जमीन, पहाड़ और लोकतंत्र को बचाने में इस जमात को आज भी हलाक होना पड़ रहा है और दूसरी जमातों की तुलना में अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। आदिवासी समुदाओं में औरतों की भागीदारी पुरुषों से ज्यादा रही है। वह पहले भी लड़ीं, आज भी लड़ रही हैं। सी.के. जानू उसी तरह का एक चमकता नाम है।
‘मेरा जीवन मेरी कहानी’ पुस्तक केरल की जुझारू आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सी.के. जानू की जीवनी है, मूल मलयालम में इसे बारा भाष्करन ने तैयार किया और हिंदी तर्जुमा सुमित पी.वी. ने किया है। सी.के. जानू केरल की प्रमुख आदिवासी आवाज हैं। गत दस वर्षों से केरल भर में वह आदिवासी मुद्दों पर लड़ती और अनशन करती नजर आ रही हैं। उनके कुछ आंदोलन बहुत शक्तिशाली रहे हैं, जिनमें कहीं पूर्ण तो कहीं आंशिक सफलताएं भी प्राप्त हुईं हैं। मुथुंगा आंदोलन ऐसा ही आंदोलन था, जिसने उन्हें लोकप्रिय और सफलग संगठनकर्ता के रूप में स्थापित कर दिया। आदिवासियों के जमीन के मुद्दे पर उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी है, जिससे सत्ता और आदिवासी, दोनों कई बार आमने – सामने आ गए।
2011 की जनगणना के अनुसार केरल में आदिवासी आबादी पाँच लाख (4,84,839) है, जो केरल की कुल आबादी का 1.5 प्रतिशत है। राज्य में सबसे अधिक आदिवासी आबादी वायनाड जिले में (लगभग दो लाख) हैं। सीके जानू वायनाड जिले के एक गांव में पैदा हुईं थीं। राज्य इतनी छोटी आबादी को सामान्य सुविधा देने की जगह उनकी जमीन और उनके श्रम का बेतरतीब दोहन करता आ रहा है। सीके. जानू दोहन, शोषण और पलायन से उपजे आक्रोश का परिणाम हैं। पुस्तक में सीके जानू के बहाने वायनाड जिले के आदिवासी जीवन और आदिवासियों के प्रति राज्य तथा समाज का रवैया उजागर हुआ है ।
पुस्तक धीरे-धीरे मगर अनवरत बहती नदी की तरह कब पाठक को किनारे पहुंचा देती है, इसका भान तब होता है, जब वह किनारे अर्थात पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर पहुंच चुका होता है। किताब को खत्म करते हुए पाठक को आश्चर्य होता है कि कैसे भूख से बिलबिलाती एक आदिवासी लड़की लोगों की भूख को खत्म करने के लिए लड़ने लगी। पुस्तक के कुछ पृष्ठों पर भूख का ठोस व्याकरण गढ़ा गया है, तो कुछ पृष्ठ भूख और मौत के समीकरण को दर्शाते नजर आते हैं। इसके साथ –साथ किताब कहीं–कहीं मौत की आकर्षक तस्वीर खींचती नजर आती है–“नई मिट्टी के जलने पर कुछ असहनीय सी गंध फैल जाती थी-इंसान को जिंदा जलाने वाली पर निकलने वाली गंध जैसी। पहाड़ियों को आग लगते देखने पर डर लगता था। रात में उन्हें देखने पर डर लगता था, मानों जिंदा इंसान को जलाया गया हो।…..बाढ का पानी लाल लहू सा बहता था।” (पृ.10-11)
सी.के. जानू की जीवनी पढ़ते हुए यह अहसास भी ताजा हो जाता है कि जिंदगी मौत का दामन थामे चलती है। मौत है, तभी जिंदगी है। जो जंगल जिंदगी हरता था, वही जंगल जिंदगी कायम रखने में मदद करता था–“जंगल में रहने पर भूख नहीं लगती। हम कई तरह के कंद खोदकर खाते थे” (पृ. 11)
सी के जानू का जन्म जन्म तृश्शिलेरी-चेक्कोट गांव में सन 1966-67 को करियन (पिता) और वेल्लच्चि (माँ) के यहां हुआ। यह गांव केरल के वयनाड जिले में स्थित है (ऊपर दिखाया जा चुका है)। आम आदिवासी की तरह उनको भी पढ़ने लिखने का मौका नहीं मिला। अक्षर से पहली मुलाकात सत्रह साल की उम्र में केरल साक्षरता मिशन के दौरान हुई। अक्षर का जादू उनके सिर चढ़कर बोलने लगा। शब्दों के माध्यम से सुनियोजित होते विचार ने उन्हें पढ़ने और पढ़ाने के लिए मजबूर किया। मिशन ने उनकी लगन को देखते हुए आदिवासी महिलाओं के लिए साक्षरता-प्रशिक्षिका के रूप में तैनात कर दिया। पढ़ने–पढ़ाने के काम ने ज्ञान के साथ लोगों से जुड़ने में भी मदद किया। इसी क्रम में वे सीपीएम से जुड़ीं और सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में योगदान दिया। पार्टी ने उनकी निष्ठा को देखते हुए अपने किसान-मजदूर मोर्चे अर्थात ‘केरल किसान मजदूर संघ’ से उन्हें जोड़ दिया, जहाँ उन्होंने शारीरिक-मानसिक यातनाओं को सहकर भी कार्य किया। उन्हें भरोसा था कि आदिवासियों की छीनी जा रही जमीन मोर्चे के माध्यम से हासिल की जा सकेंगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल होते रहे। निराश होकर उन्होंने सन 1991 पार्टी से नाता तोड़ लिया।
पुस्तक की प्रस्तावना में सी.के. जानू के महत्वपूर्ण प्रयासों को दर्ज किया गया है। वामपंथ से मोहभंग होने के बाद उन्होंने सन 1992 में ‘आदिवासी मजदूर विकास समिति’ की स्थापना की। दरअसल यह एक तरह की प्रतिक्रिया थी – वामपंथ की अनुषंगी ‘केरल किसान-मजदूर संघ’ के द्वारा आदिवासी मजदूरों-किसानों की समस्या पर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण इस संगठन को स्थापित किया गया था। सी.के. जानू आदिवासी मुद्दे पर जिस तेजी से सोच और चल रही थीं, उसका अहसास इसी वाकये से हो जाता है कि संगठन के स्थापित होने के एक साल बाद ही अर्थात सन 1992 उन्होंने दक्षिण मेघला आदिवासी संगम (दक्षिण क्षेत्रीय आदिवासी अधिवेशन) को आहूत कर दिया। इस अधिवेशन में दक्षिण भारत के तमाम बड़े आदिवासी नेताओं की सहभागिता रही। अधिवेशन में आदिवासियों की खोई हुई जमीन को पुन: प्राप्त करने की नीतियों पर निर्णय लिया गया।
इस किताब में सी.के. जानू के बचपन से लेकर ‘किसान – मजदूर संघ पार्टी’ से जुड़ने तक की घटनाओं का ब्यौरा दिया गया है। हालांकि हम जानते हैं कि आज के समय में वे केरल की एक प्रखर आदिवासी कार्यकर्ता के साथ एक सशक्त आदिवासी राजनीतिक शख्सियत के रूप में पहचानी जाती हैं।
पुस्तक में कहीं जंगल के जीवन की दुश्वारियों का वर्णन हुआ है, जिसे पढ़कर मन में दुख, करुणा और आक्रोश का रसायन घुलने लगता है–“बारिश होने पर हाथियों का झोपड़ियों के पास आने का डर, प्रचंड जल धारा में झोपड़ियों के बह जाने और पेड़ों का झोपड़ियों पर गिरने का डर हमेशा बना रहता है। बारिश के दिनों में जंगल की आवाज बड़ी डरावनी होती है। इन दिनों छोटे-छोटे जीव हमेशा डोलते दिखते हैं, तब दिन भी रात जैसा लगता है।….मेढक रोते हैं।…..अनाज के पौधों का प्रतिरोपण इसी समय होता है। इसलिए बड़े लोग खेत के काम में लगे रहते हैं। हम बच्चे जब झुंड में बैठते, तो हममें से एक एक अजीब गंध फूटती। मैं नहीं जानती कि भूख की भी कोई गंध होती है।” (वही, पृ. 14)
आदिवासियों को शेष समाज की तुलना में गरीबी, भुखमरी, हारी-बीमारी और अशिक्षा से अधिक लड़ना पड़ता है। हम जानते हैं कि जो सफलता दूसरी जमात को थोड़ी सी कोशिश से मिलती है, वहाँ तक आदिवासी को पहुंचने में कठोर मेहनत की जरूरत पड़ती है। सी. के. जानू आज केरल में आदिवासी संघर्ष की मिशाल बन चुकी हैं। उनकी रग में उनके पुरखों का रक्त-कण प्रवाहित हो रहा है, जो ब्रिटिश भारत के दौर में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अधिक अनाज उगाने की नीति के दौरान जंगल और जीवन को बचाने के क्रम में हलाक हुए। कई पीढ़ियों से उनके पुरखों को भू-संपत्ति विस्तार के कारण दरबदर होना पड़ा है।
पहली पीढ़ी की आदिवासी नेत्री के कारण उनसे कुछ राजनीतिक भूल भी हुई है। मगर वह आज भी आदिवासी मुद्दों को लेकर लड़ रही हैं। उन्हें देश और दुनिया के कई सम्मानों से अलंकृत किया गया है। इस छोटी सी पुस्तक में एक कर्मठ ठेठ आदिवासी स्त्री का बड़ा संघर्ष नुमाया हुआ है, जिसे पढ़ना दर्द की दास्तान से गुजरने जैसा है। पुस्तक अलख प्रकाशन जयपुर से सन 2013 में प्रकाशित हुई।