‘देस’ में संकलित विनोद पदरज की कविताएँ इंडिया से अलग भारतीय लोक की सकारात्मक कथाओं को उनकी बहुस्तरीय बुनावट के साथ प्रस्तुत करती हैं।
इन कविताओं में यह लोक अपनी विडंबनाओं व ताकत के साथ इस तरह पहली बार अभिव्यक्त हुआ है। रचनात्मकता से भरपूर इन कविताओं पर अच्छी शार्ट फिल्में व चित्र शृंखलाएँ बन सकती हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इतने सकारात्मक चरित्र इसी देस में हैं, कवियों इन्हें जानों, ढूंढो, रचो और उनमें बसो, महाकवित्व की दूसरी कोई दिशा नहीं है।
तुम जितने भी फूलों को जानते हो
उनमें से कोई भी फूल
नहीं है उनकी ओढ़नियों पर
और यह भी नहीं
कि वे फूल नहीं हैं
…
जिस दिन तुम इन फूलों को जान जाओगे
स्त्री को थोड़ा सा पहचान जाओगे।
यहाँ हम युवा कवयित्री मोनिका कुमार की कविता पंक्तियों को सामने रख सकते हैं –
पर्दे पर फूल हैं
गलीचे पर फूल हैं
खाने की प्लेट पर फूल हैं
…
क्या हमें फूलों की इतनी याद आती है
…
हमें चुभता है कुछ शायद
फूल जिसे सहलाते हैं।
ये कविताएँ पूरक सी हैं। विनोद जी के उठाये सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश जैसे इस कविता में दिखती है। यहां यह देखना आश्वस्तकर है कि इन दोनों ही कवियों के यहां कविता के नये प्रस्थानबिंदु दिखते हैं।
संकलन में पिता पर कई कविताएँ हैं। यह कविताएँ जाहिर करती हैं कि हमारे समाज में किस तरह पितृसत्ता के अधीन कुछ आदमी पिता कुछ आदिम पिताओं के होने का दंश झेलते रहते हैं –
पुत्र कहाँ जानते हैं पिता को
पिता को भी मां ही जानती है।
वह मां ही है जिससे हम भाषा सीखते हैं –
जैसे सबने
वैसे ही मैंने
भाषा अपनी मां से सीखी।
संकलन में एक कविता है ‘उनकी बातचीत’। जिसमें कुछ पुत्रों के पिता के बारे में विचार हैं – वे पिता हैं जो रेजा बुनते हैं, जूतियां बनाते हैं, छपाई करते हैं, मूर्तियां बनाते हैं, कारीगर हैं, कुम्हार हैं, नक्काशी करने वाले हैं। इन कामगार बेटों को अपने पिता पर गर्व है क्योंकि उनके पिता सेठ, साहूकार, ब्राह्मण व ठाकुर नहीं हैं। यह जमात इस तरह कभी कहां आती है कविता में, यह वही जमात है जिससे यह देस देश बनता है।
पारंपरिक सामंती व आदिवासी लोक समाजों के अंतर को कुछ कविताएं सामने रखती हैं। ‘बाप नहीं चौथा भाई’ और ‘जंवाई’ शीर्षक कविताओं को पढकर हम इससे अवगत हो सकते हैं। सामंती लोक वह है जिसमें बूढे होते मां बाप अपने बेटों पर ही विश्वास नहीं करते और बुढिया की जिद पर बूढा अपनी तीन संतानों के अलावे संपत्ति में अपना चौथा हिस्सा लगाता है और उसकी बटाई तक अपने बेटों को नहीं गैरों को सौंपता है। दूसरी ओर आदिवासी परिवार की बुढिया अपने दामाद को संदेश भिजवाती है तो दामाद बरसात से पहले आकर ससुराल की खपरैलें ठीक कर जाता है –
पांवणा जो आपके यहां सामंत की तरह आता है
दौड़ा चला आता है पत्नी को लेकर।
फेसबुकिया दौर में कवियों की एक जमात आयी है जो हर बात पर बैठे ठाले ताव खाती रहती है उनके लिए ये कविताएं आईना की तरह हैं जिसमें वे अपना चेहरा आंक सकते हैं। भारतीय लोक जीवन में आज भी किस तरह तमाम दुखों के बीच जीवन खिलता है उसे देखना जानना वे इससे सीख सकते हैं –
लावणी करती एक औरत
मेड़ पर सो गई है
दरांती हाथ में लिये ही।
राजस्थान के कवियों को पढ़ता हूँ तो बारहा यह लगता है कि जैसे हिंदी को समृद्ध करने का एक नया दौर इनके साथ आंरभ हो रहा। यह दौर नये सिरे से कविता की धारा को लोकोन्मुख करता दिख रहा है। इससे इतने तरह के नये नये शब्द हिंदी को हासिल होते दिख रहे हैं कि आश्चर्य होता है, पता नहीं बाकी हिंदी प्रदेशों में यह शुरूआत कब होगी –
बारिश हुई
बूंद भी नहीं
हमारे यहां तो चिरपिड़ चिरपिड़
हमारे यहां चिड़ी मूतणा
हमारे यहां पछेवड़ा निचोड़
…
ये हमारे इलाके के लाखों जनों के संवाद हैं जुलाई के। (‘जुलाई संवाद’)
कविता संग्रह: देस
प्रकाशन: बोधि प्रकाशन
मूल्य: 150 रुपए
(कवि विनोद पदरज 13 फ़रवरी 1960 को सवाई माधोपुर जिले के गाँव-मलारना चौड़ में जन्म। कृतियाँ: कोई तो रंग है(कविता संग्रह), अगन जल(कविता संग्रह). हिंदी कवि अम्बिकादत्त पर केंद्रित मोनोग्राफ़ का संपादन, साहित्य अकादमी, उदयपुर। प्रौढ़ शिक्षा के लिए भी साहित्य सृजन।
सम्पर्क: 9799369958
मेल: vinodrajawat137@gmail.com)